आज एक बार फिर हम बर्बर ख़ूनी खेल का शोक मना रहे हैं। ऐसे में मुझे छात्र जीवन में संग्रहित की गयी कविता बरबस याद आ गयी है। इसके रचयिता मोहन तिवारी के बारे में नाम के अतिरिक्त मेरे पास कोई सूचना नहीं है। सुधी पाठक या स्वयं रचनाकार यदि इसे देखकर कुछ प्रकाश डाल सकें तो मुझे खुशी होगी।
ठीक ही किया
ईसा तुमने ठीक ही किया
मृत्यु के लिए
सलीब़ को चुन लिया
आज तुम होते!
किसी उग्रवादी की
गोली से
या, पुलिस की
खौफ़नाक ठिठोली से
कैंसर से भी अधिक
असाध्य महंगाई से
या किसी महंगी
मिलावटी दवाई से
किसी
आकस्मिक रेल दुर्घटना में
या फिर किसी
जुलूस की अगुआई करते हुए
कानपुर या पटना में
मृत्यु से
तुम्हारा साक्षात्कार होता
इस सदी में
ऐसे ही तुम्हारा उद्धार होता
और,
तुम्हारी मृत्यु की खबर
दुनिया में नहीं
देश में नहीं
यहाँ तक कि
मुहल्ले में भी
कोई नहीं जान पाता
फिर तुम्हे
कोई कैसे पहचान पाता?
ईसा!
तुम प्रारब्ध के बहुत खरे थे
सिर्फ़
एक बार मरे थे
वर्ना, मेरे मुहल्ले का हर आदमी
हर रोज़ सुबह
अपने मरने की खबर
खुद अखबार में पढ़ता है
देश कोई हो,
मजहब कोई हो,
नाम कोई हो,
मरना तो उसे ही पड़ता है
वो भी इस तरह…
उसे महसूस तक नहीं होता
कि वो मर गया है
अभी थोड़ी ही देर पहले
अपनी ही लाश के
ऊपर से गुजर गया है
वो लाश…
जिसे जीवित रखने के लिए
कितना
चीखा-चिल्लाया था
कभी आतंकवादियों के सामने
कभी तानाशाहों के पैरों पर
रोया गिड़गिड़ाया था
वो
उस लाश को बचा नहीं सका
एक इंसान बनकर
इंसानियत का गीत
गा न सका
प्रस्तुति- सिद्धार्थ
मई 14, 2008 @ 16:26:00
बेहद धारदार कविता।
मई 14, 2008 @ 19:36:00
सटीक कविता. आभार यहाँ लाने का.