आज मुझे एक ९६ साल के जवान से मिलने का मौका मिला। जी हाँ, जवान से- क्योंकि उनकी आवाज़, और अन्दाज़ में कहीं से भी बुढ़ापे की झलक नहीं मिली। और आँखें तो अभी भी ६/६ का नम्बर बताती हैं।
मेरे ऑफिस में स्वयं चल कर आने वाले पेन्शनभोगियों में सबसे अधिक उम्र का होते हुए भी इनके हाथ में न तो छड़ी थी, न नाक पर चश्मा था, और न ही सहारा देने के लिए कोई परिजन। …बुज़ुर्गियत पर सहानुभूति पाने के लिए कोई आग्रह भी नहीं था। इसीलिए मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी और दो-चार बातें आपसे बाँटने के लिए नोट कर लाया…
श्री आदित्य प्रसाद उर्फ़ राम प्रसाद जी जब १९ वर्ष के थे तो गांधी जी के आह्वाहन पर ‘नमक-सत्याग्रह’ आन्दोलन से जुड़ गये। यह वर्ष १९३० की बात है। इसके पहले बचपन में ही विदेशी कपड़ों की होली जलाने के कई आयोजनों में अंग्रेजों की लाठियाँ खायी। जेल गये। दो-दो नाम रखने की ज़रूरत भी जेल यात्रायों में ही पड़ी। बताते हैं-
अंग्रेज जिस को पकड़ते थे और जेल में डालते थे, उसका नाम-पता लेकर गाँव जाते थे। …वहाँ घर वालों को पूछताछ में तंग करते थे और घर की नीलामी कुर्की भी हो जाती थी। इसलिए हमें गाँव-घर में प्रचलित नाम से अलग एक नाम जेल में बताने के लिए रखना पड़ता था। मैं जेल में ‘रामप्रसाद’ था और गाँव में ‘आदित्य प्रसाद तिवारी’। लेकिन ‘तिवारी’ का इश्तेमाल अब मैं नहीं करता हूँ…
“लेकिन अंग्रेज़ इस झांसे में आते कैसे थे?”मैने पूछा, तो वे सहजता से बोले-
“दुश्मन अंग्रेज भी सत्याग्रही की कही बात पर पूरा विश्वास करते थे। …उन्हें पता था कि इनकी जान भले चली जाएगी लेकिन ये झूठ नहीं बोलेंगे…”
इलाहाबाद जिले की मेजा तहसील के गाँव ‘उपड़ौरा लोहारी’ में सादा जीवन बिताने वाले आदित्य प्रसाद जी जब ८ वर्ष के थे तभी इनके पिताजी का निधन हो गया था। वे इलाहाबाद के नॉर्मल स्कूल के हेडमास्टर थे। इन्होंने स्वयं हिन्दी-उर्दू विषय से ‘मिडिल’ पास कर लिया था जिसके बाद सरकारी शिक्षक की नौकरी तय थी, किन्तु गान्धी जी की पुकार ने रास्ता बदल दिया।
“अपना सुख-चैन गँवा कर बड़ी कुर्बानी से पायी हुई आज़ादी के बारे में अब क्या सोचते है?” पूछने पर हल्की सी निस्पृह मुस्कान उनके चेहरे पर तैर जाती है, पहली बार में कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। कुरेदने पर थोड़े संकोच के साथ बस इतना बताते हैं- “आज़ादी तो बहुत बढ़िया मिल गयी थी …लेकिन अब बहुत गड़बड़ हो गया है… कोई तहसील भ्रष्टाचार से खाली नहीं है।”
जुलाई 12, 2008 @ 08:59:00
बस आप बोते रहिए ऐसे ही बीज। फसलें भी उगेंगी भरपूर।
जुलाई 12, 2008 @ 09:32:00
बहुत खूब – आपने फोटो पर कैप्शन देने की जद्दोजहद सफलता से कर ली! अच्छा लगा।आदित्यजी के बारे में पढ़ कर अच्छा लगा। यह भी लगा कि हम ९६ के हो कर भी जीवन्त रह सकते हैं।आपका ब्लॉग मुझे भविष्य में उत्तरोत्तर और सशक्त बनता प्रतीत होता है।
जुलाई 12, 2008 @ 09:53:00
आदमी जब तक जवान कहलाता है जब तक उसका मन जवान होता है। मन को जवान रखना बहुत ज़रूरी है, इसे शिथिल-हताश न होने दें।
जुलाई 12, 2008 @ 12:16:00
जी हाँ सौभाग्य से ये सौभाग्य हमें भी प्राप्त है ,हमारे साडू के दादा जी अभी जीवित है उनका ओर उनके पड़पोते का जन्मदिन एक साथ मनाया गया ओर उनसे मिलने की ललक में ही हम वोर्किंग डे में भी समारोह में गए ,वाकई एक अदभुत सी अनुभूति होती है
जुलाई 12, 2008 @ 16:40:00
हे मित्र,यह पोस्ट लगता है कि बीच में ही अधूरी रह गयी,आपको तो संस्मरणॊं का ख़ज़ाना हाथ लग गयाहै, उनसे उनके खानपान, रहन सहन, लोगबागके विषय में जानकारी हमसब के लिये अनमोलवसीयत होगी । ध्यान दीजियेगा !
जुलाई 12, 2008 @ 17:14:00
सिद्धार्थजीबहुत शानदार पोस्ट। हिंदी ब्लॉगिंग में इस तरह की पोस्ट बहुत जरूरत है।
जुलाई 12, 2008 @ 21:51:00
बहुत बढ़िया पोस्ट है…अच्छा लगा इन ९६ साल के जवान से मिलकर.
जुलाई 13, 2008 @ 03:09:00
बढ़िया पोस्ट है सिद्धार्थ जी। शुक्रिया जवान से मिलवाने के लिए।
जुलाई 18, 2008 @ 09:52:00
सटीक…सकारात्मक….प्रेरक.=======================डा.चन्द्रकुमार जैन