आजकल ब्लॉग जगत में नारी की दशा और दिशा पर बहस का दौर चल रहा है। इसमें हम दोनो, यानि मेरी पत्नी और मैं शामिल हो लिए हैं। उन्हें कम्प्यूटर पर अपने विचार डालने में थोड़ी तकनीकी बाधा है इसलिए सारा आवेश मुझे ही भेंट कर देती हैं। इसलिए मेरी बैटरी ‘ओवरचार्ज’ हो लिया करती है। शुक्र है कि हम दोनो के विचारों में पर्याप्त समानता है, इसलिए घर का झगड़ा अन्दर ही सुलझा लिया जाता है। ये बात दीगर है कि कभी-कभी ज्यादा मशक्क़त करनी पड़ती है विचारों की समानता को ढूँढ कर निकालने में। ऐसी ही एक बहस के सत्र में मेरी धर्मपत्नी ‘रचना’ ने अपने मायके के एक परिवार का जिक्र किया था जहाँ नारी ब्लॉग को पहुँचने में शायद सौ साल लग जाँय। उसकी एक झलक इस शब्द-चित्र में प्रस्तुत है:-

इनका भविष्य क्या है?

अपने गाँव में यह कहानी रोज़ दुहरायी जाती देखती हूँ। मेरे पड़ोस की वह गरीब मजदूर औरत… चार बच्चे हैं उसके जो पाँच साल की ही उपज हैं। सबसे छोटा गोद में है। उससे छोटा शायद पेट में हो…। सुबह सोकर उठने के बाद जब हमारे बच्चे धूप निकलने से पहले दरवाजे पर खेलने निकलते हैं तो वह सुबह का सारा काम निपटाकर अपने मर्द के साथ खेत में काम करने निकल रही होती है।
बच्चों के लिए रोटी, भैंस के लिए चारा, और मर्द की नहारी यह सब इनके सोकर उठने से पहले तैयार कर लेती है क्योंकि जगने के बाद वे करने नहीं देंगे। मर्द तो गाली भी देगा।

…खेत से वह दोपहर बाद सिर पर चारे या फसल का बड़ा सा गठ्ठर लादे दुलुकिया चाल से भागती आती है। उसके पीछे-पीछे उसका मर्द भी आता है… थोड़ा बड़ा गठ्ठर सिर पर लादे हुआ। लेकिन उसकी चाल धीमी और स्थिर है।

वह गठ्ठर पटक कर चारपायी पर धड़ाम से बैठता है ताकि उसके आने की सूचना घरवाली को हो जाय। बताना न पड़े। वह उसके खाने के इन्तजाम में लग जाती है। बीच में भागकर आती है और गुड़-पानी रख जाती है। पति की थकान से कातर है। …वह तो जैसे थकती ही नहीं है।

बच्चे माँ के आने पर खुश हैं। कटोरा लेकर चुल्हे को घेर के बैठे हैं। अपने-अपने झगड़े की पंचायत करवाना चाहते हैं। किसी की नाक बह रही है तो किसी का कुर्ता अभी-अभी फट गया है।

…बड़कुआ ने झिंगना का कान उमेंठ दिया …जोतिया बाबा के आम तोड़ने पेड़ पर चढ़ गयी थी, पकड़ाने के डर से कूद कर भागी तो एड़ी में चोट आ गयी …सुरसतिया पोखरा में घुसी थी…कमल तोड़ने… इन बातों के बीच भी सबकी निगाहें चूल्हे पर बदक रहे भात पर लगी है।

वह जल्दी-जल्दी तरकारी काट रही है। गोद में बच्चा दूध पी रहा है। पहँसुल पर उसका हाथ तेजी से चल रहा है। वैसे ही जैसे बाहर बैठा उसका मर्द हथेली पर तेजी से सुर्ती मल रहा है।

…जलता हुआ भोजन परोस कर बच्चों को देती है। मर्द भी आसन जमा कर भात का पहाड़ जीम रहा है। बटुली की तलहटी से पल्टा लड़ रहा है। टन्…टन्। मतलब उसके हिस्से का थोड़ा ही बचा है… कोई बात नहीं। बच्चे और मरद का तो पूरा हो गया…।

तभी जोर से चीखने की आवाज़ हमारे घर तक पहुँच आती है। मर्द ने फिर उसे मारा है। भद्दी सी गाली के बीच यह सुनायी देता है कि आज फिर नमक ज्यादा डाल दिया सब्जी में।…
रोज ही …कभी नमक ज्यादा …तो कभी मिर्चा कम, कभी चावल जल गया तो कभी रोटी कच्ची रह गयी।

बहाने बदलते हैं लेकिन नहीं बदलती है तो उसकी नियति… रोज गाली और मार का उठौना …और बटुली की तलहटी से बजने वाली पल्टे की टन-टन… रोज़-ब-रोज़।

सोचता हूँ मत्स्य-न्याय को समुद्र के भीतर तक सीमित कर दूँ। …पर कैसे?


और हाँ, मेरी बेटी वागीशा २० जुलाई को अपना आठवाँ जन्मदिन मना रही है। उसे आपके स्नेह और आशीर्वाद की प्रतीक्षा है। अपने लिए आपका आशीर्वाद और शुभकामना संदेश वह अपने ई-मेल पर पाना चाहती है जिसका पता है- vagisha.tripathi@gmail.com उसके चेहरे पर ढेरों मुस्कान देखने के लिए आप सबके आशीर्वाद की मांग कर रहा हूँ। (सिद्धार्थ)