मुझे आज वर्ष १९९९ में हुई अपनी शादी के बाद का अगला दिन याद आ गया, जब मैं ससुराल के आँगन में बैठा हुआ अपनी पत्नी की सहेलियों से घिरकर औपचारिक और अनौपचारिक परिचय के दौर को झेल रहा था। साले-सालियों और घर के अन्य सदस्यों से परिचय का दौर बीत चुका था। चुटकुलों और गीतों की फरमाइशों का आदान-प्रदान बेनतीजा समाप्त हो चुका था। मुझे वहाँ कोई रुचिकर विषय नहीं मिल रहा था, जो मुझे बोर होने से बचा ले। वह भी तब जब बोर करने के लिए सबके निशाने पर मैं ही था।
तभी मुझे एक उम्मीद की किरण एक बच्चे में दिखी। बिलकुल सफेद गोरा, बेहद दुबला-पतला और देखने में कमजोर। उम्र करीब १०-११ साल। आवाज धीमी लेकिन बिल्कुल स्पष्ट। बार-बार मुझे ‘जीजा जी’ कहकर छेड़ने की कोशिश करता। मैने पहले तो उसे बच्चा समझ कर अनदेखा कर दिया, लेकिन जब उसके कुछ मजाक बड़ों के कान काटने वाले सुनायी पड़े तो मेरी रुचि उस ‘बड़े बालक’ में जाग्रत हो गयी।
मैने मौज लेते हुए कहा; “चलो अच्छा हुआ मेरी कोई छोटी साली नहीं थी, अब तुम इस कमी को बखूबी पूरा करते दिखते हो, …बल्कि ‘दिखती’ हो।”
“हाँ-हाँ, आज से मैं ही आपकी साली रहूंगी… लेकिन बाद में अपनी जबान से पलट मत जाइएगा।”
हमारे बीच इस नये समझौते को मैने डरते-डरते स्वीकार तो कर लिया, इसका प्रचार-प्रसार भी हो गया; लेकिन आगे चलकर उस ‘छप्पन छुरी’ को सम्हालना मेरे लिए मुश्किल होता गया। अलबत्ता मुझे उसके बाद कभी बोर नहीं होना पड़ा। दूसरों के लिए ‘गोलू’ मेरे लिए ‘गोली’ बन गयी, चेहरे पर भोलेपन की चादर लपेटे मेरी नयी साली ने उसके बाद जो करतब दिखाये, उससे वहाँ कोई भी मुस्कराए बिना नहीं रह सका। मेरी तो विनोद-प्रियता परास्त होने लगी। जीजा जी से जो मजाक और चुहलबाजी ‘गोली’ ने तब किये वो अच्छे-अच्छों को मात करने वाली थी।
वही गोलू जब ‘हाई स्कूल’ में पूरे प्रदेश की बोर्ड परीक्षा में चौथा स्थान हासिल करके अखबारों की सुर्खियाँ बटोर रहा था, तो हम यों प्रसन्न थे कि उसकी विलक्षण प्रतिभा और सुनहरे भविष्य की हमारी भविष्यवाणी सबके सामने आ रही थी। बेहद सम्वेदनशील और सृजनात्मक क्षमता से ओत-प्रोत बहुमुखी प्रतिभा का धनी गोलू अब ‘कार्तिकेय’ के नाम से एक किंवदन्ती बन गया था। पढ़ाई के साथ-साथ क्रिकेट खेलने, सांस्कृतिक कार्यक्रमों व वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने और मेडल व पुरस्कार जीतते जाने की तो एक आदत ही बन गयी थी।
वही ‘कुमार कार्तिकेय मिश्र’ जब मुझे आज ब्लॉग की दुनिया में कदम रखते हुए दिखायी पड़े, तो मेरा मन बल्लियों उछलने लगा। उनकी मस्ती का आलम ये है कि इस बड़े कदम को भी इतनी सहजता से उठाया है, जैसे इस लाइन में वर्षों से लगे रहे हों। बस चले आये टहलते हुए… मुझे समय से बताने की जरूरत भी नहीं समझी। वह तो भला हो ऑर्कुट वालों का जिन्होंने इनके जन्मदिन की खबर मुझे दी और स्क्रैप पर गया तो जनाब इसी गली के चक्कर काटते मिले। ऑर्कुट में ये जिहाल-ए-मिस्कीन के नाम से जाने जाते हैं। इसका अर्थ तो मैं आज तक नहीं जान पाया हूँ।:)
इनके बारे में जो टिप्पणी हम वर्षों से करते आये उसे बड़ी ईमानदारी से ये खुद ही बता रहे हैं कि “ज़िंदगी के जुम्मा–जुम्मा बीस–एक साल जिए हैं, लेकिन बातें बूढ़ों की तरह करने का शौक है. शायद बेवकूफी इसी को कहते हैं…..”
लेकिन इन्हें बेवकूफ़ मानने की गलती हम तो कर ही नहीं सकते। पहले भी धोखा खा चुके हैं। भोलेपन, विनम्रता और समृद्ध शब्दकोश से लैस कार्तिकेय की जबान कैंची की तरह चलती है और पानी की तरह प्रवाहशील है। अब लेखनी की धार आप खुद देखिएगा। मेरे तो इनसे पुराने मधुर सम्बन्ध हैं, इसलिए इनके पक्ष में ‘बायस’ रखना स्वाभाविक है; लेकिन मेरी इच्छा है कि मेरे आदरणीय व स्नेही ब्लॉगर बन्धु एक बार इनके ब्लॉग पर अवश्य जाँय।
इनकी शीर्षक विहीन पहली पोस्ट भी जरूर पढ़ें। इसके बाद आपका आशीर्वाद इन्हें जरूर मिलेगा, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
नवम्बर 06, 2008 @ 08:29:00
आपने तो उत्सुक्ता जगा दी. जरुर पढ़ेंगे. आभार बताने का.
नवम्बर 06, 2008 @ 09:51:00
अजी अभी जाते हैं और लगातार जाते ही रहेंगे.. 🙂
नवम्बर 06, 2008 @ 09:54:00
इनकी शीर्षक विहीन पहली पोस्ट भी जरूर पढ़ें। ” thanks for sharing, well definately will read… nice to read this artical…”regards
नवम्बर 06, 2008 @ 09:56:00
अरे भाई, बस मजा आ गया.. मैंने तो उनके ब्लौग को अपने ब्लौग रॉल में स्थान भी दे दिया.. असल में बात यह है कि मुझे लगा कि मेरे ब्लौग जैसे ही एक ब्लौग का निर्माण हुआ है जो किसी के निजी डायरी जैसा ही है.. बहुत बढिया.. 🙂
नवम्बर 06, 2008 @ 12:17:00
पढ़ा जी इनका ब्लॉग अच्छा लगा शुक्रिया
नवम्बर 06, 2008 @ 12:58:00
कार्तिकेय के लिये आपका आह्वान उसके लिये परमाणु उर्जा के समान कार्य करेगा/कर रहा है. समयाभाव के वज़ह से मै खुद कम लिख-पढ पा रहा हूं. बहरहाल कोशिश यही है की कम से कम ताज़ा खबर लेते रहता हूं. सिद्धार्थ
नवम्बर 06, 2008 @ 13:41:00
देखे आए जी… बस अपने जैसे हैं. वही दिन हमने भी जीए हैं, उसी परिवेश के हैं. धन्यवाद इस परिचय के लिए.
नवम्बर 06, 2008 @ 14:11:00
बड़ा बढ़िया तरीका है परिचय देने का। 🙂 कार्तिकेय का ब्लॉग गूगल रीडर में भर लिया है!
नवम्बर 06, 2008 @ 18:02:00
साब बाकी सब तो ठीक था, लेकिन दुनिया को इस रिश्ते के बारे में बताने की क्या ज़रूरत थी? ऐसा करके आपने उस अलिखित समझौते को तोड़ दिया है, जो कभी डरते-डरते आपने स्वीकार किया था। अब अंजाम की ज़िम्मेदारी मेरी नही है…. खैर धन्यवाद, मुझे ब्लॉगजगत के महारथियों से introduce कराने के लिए…
नवम्बर 06, 2008 @ 19:14:00
जरुर पढ़ेंगे. आभार बताने का.
नवम्बर 06, 2008 @ 21:00:00
कुछ सीमा तक आप अनुमान सही है,आगमन का आभारी हूँ anyonasti-kabeeraa.blogspot.com anyonasti-chittha.anyonasti-kaalchakraपर कुछ प्रगति है ,कुछ टेम्प्लेट में तकनीकी समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है , यही कारण हैं |
नवम्बर 07, 2008 @ 01:34:00
अजी हम भी हाजरी लगा आये … बहुत सुंदर लिखा है, आप का धन्यवाद