बात उन दिनों की है जब मैं नेपाल सीमा से सटे पूर्वी उत्तरप्रदेश के जिले सिद्धार्थनगर में शिक्षा विभाग में तैनात था। कार्यालय में बैठा हुआ एक संस्कृत विद्यालय के आचार्यजी बात कर रहा था। सरकारी काम से निपटने के बाद धर्म-कर्म, संस्कार, परिवार और पुरुषार्थ पर चर्चा शुरू हो गयी। इसी में सन्तान सुख की बात करते हुए मैने अपनी एक साल की बेटी के साथ खेलने से मिलने वाले अनुपम आनन्द का जिक्र कर दिया। पण्डित जी ने अजीब भावुक सा मुँह बनाया और बोले;
“साहब, मुझे तो अपने विवाह के पन्द्रह साल बाद सन्तान के सुख की प्राप्ति हो सकी। वह भी मैने बड़ी तपस्या और जप-तप किया तब जाकर यह दिन देखने को मिले।”
मैने भी सहानुभूति में कहा- “चलिए, देर से ही सही आप बाप तो बन गये न!”
“नहीं-नहीं साहब, वो बात नहीं है…। ‘भवानी’ तो मेरी ‘पाँच’ पहले से ही थीं। मैं तो ‘सन्तान’ की बात कर रहा हूँ”
पहले तो मैं चकराया, कुछ समझ नहीं पाया; या जो कुछ सुना उसपर विश्वास नहीं हुआ; लेकिन जब उसने यह साफ किया कि ‘सन्तान’ की श्रेणी में केवल पुत्र ही आते हैं तो मेरा खून खौल गया। मैने उसे कठोरतम शब्दों में डाँटते हुए फौरन उठ जाने और कमरे से बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया। वह तो दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ; लेकिन ऑफिस वाले ऊँची आवाज सुनकर दरियाफ़्त करने मेरे कमरे तक आ गये थे।
आज भी हमारे समाज में ऐसी अधम सोच वाले लोग बचे हुए हैं जो अपने अधकचरे ज्ञान से भारतीय वैदिक साहित्य और ऋषि-परम्परा को बदनाम कर रहे हैं।
यह सब लिखने का तात्कालिक कारण यह है कि सतीश पंचम जी ने सफेद घर पर एक रोचक वाकया पोस्ट किया है। एक महिला अपनी बेटी की शादी में जाने के लिए पहली कक्षा में पढ़ रहे अपने बेटे को स्कूल से छुट्टी दिलाने का कारण बताने में शर्मा रही है। झेंप इस बात की है कि एक के बाद एक पाँच पुत्रियाँ पैदा करने के बाद छठी सन्तान के रूप में बेटा प्राप्त हुआ। इसमें उम्र काफी आगे निकल गयी। नतीजा ये कि बेटे को स्कूल भेंजते-भेंजते बेटी के हाथ पीले करने का वक्त आ पहुँचा।
यह जिस जगह की (मुम्बई?) घटना है वहाँ इसपर लोगों को हैरत है, और कौतूहल भी; लेकिन इधर की गंगा पट्टी (गोबर-पट्टी?) में तो ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। जो क्षेत्र जितना ही पिछड़ा हुआ है वहाँ इस प्रकार के ‘फलदार’ वृक्ष बहुतायत में मिल जाएंगे।
मैं अपने गाँव (जनपद-कुशीनगर, उत्तरप्रदेश) का ही, बल्कि बिल्कुल पड़ोस के घर का उदाहरण बताता हूँ-
इस परिवार को पैतृक सम्पत्ति के रूप में मिली जमीन-जायदाद बँटवारे के बाद बहुत अधिक तो नहीं रह गयी थी; लेकिन फिर भी इसके मालिक श्रीमान् अभी भी अच्छे खेतिहर कहलाते है।
इनकी पहली पत्नी की असामयिक मृत्यु विवाह के कुछ समय बाद ही हो गयी थी। कोई बच्चे नहीं हुए थे। दूसरी शादी हुई तो कमाल ही हो गया…। इस जोड़े की उर्वरा शक्ति आज भी एक किंवदन्ती बनी हुई है। क्यों…? आइए जानें-
विवाह के बाद इनकी धर्मपत्नी पहली सन्तान लड़की हुई तो नाम रखा गया ‘रजनी’; लेकिन सभी उसे प्यार से ‘मण्टी’ बुलाते थे। दूसरी बेटी हुई तो ‘रानी’ कहलायी। तीसरी पर मन थोड़ा चिन्तित होना शुरू हुआ। बे-मन से नाम रखा गया-‘बबली’। फिर चौथी आयी तो सबने सोचकर फैसला किया कि अब बस…! तदनुसार नाम रखा गया- ‘अन्तिमा’। लेकिन पीछे से पाँचवी भी दाखिल हो गयी तो माँ-बाप ने कलेजा मजबूत करके उसे ‘क्षमा’ कह दिया।
इनके मन में बेटे की चाहत थी तो रुकते कैसे? कोशिश जारी रखने का फैसला हुआ। अगली बार भी बेटी ही आयी तो भावुक हो गये… नाम रख दिया- ‘कविता’। उसके बाद एक और प्रयास… लेकिन नतीजा फिर भी वही। भगवान भी इनके धैर्य की परीक्षा लेने पर उतारू थे। इस सातवीं का नाम पड़ा- ‘अनन्ता’। मानो यह सन्देश था कि इनके भीतर आशा, धैर्य, और पुरुषार्थ की कोई कमी नहीं है, यह अनन्त है।
इन सात कन्याओं का पालन-पोषण पूरे स्नेह, वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति और सेवा के भाव से किया गया। कदाचित् इसी से प्रसन्न होकर भगवान ने आँठवें क्रम पर एक पुत्र की कामना पूरी कर दी। फिर क्या था… घर तो घर, सारे इलाके में हर्ष व्याप्त हो गया। दूर-दूर से लोग बधाइयाँ देने पहुँचे। महीनों जश्न मनाया गया। गाँव के जो लोग बाहर रहते थे उन्हें भी बुलाकर दावत दी गयी। मैं भी उनमें से एक था।
पर कहानी यहीं खतम नहीं होती है…। यह साहसी जोड़ा उमंग और उत्साह में इतना मगन हुआ कि खुशी मनाने में ही नौवें की बारी लग गयी। उसका पता चलते ही इन्होंने क्या किया? …कोई ‘ऐसा-वैसा गलत काम’ नहीं किया। …विधाता की इस मर्जी को भी बड़े शौक से इस धरा-धाम पर उतारा गया। एक बार फिर ‘कन्याधन’ में ही बढ़ोत्तरी हुई थी। इसका नाम रखा गया है – ‘सोनालिका’।
आज स्थिति यह है कि ‘मण्टी’ और ‘रानी’ की शादी हो चुकी है; लेकिन ‘सोनालिका’ अभी स्कूल नहीं जा रही है। बताता चलूँ कि यह वही परिवार है जिसकी पिछली पीढ़ी के एक विलक्षण व्यक्तित्व पर मैने ‘ठाकुर-बाबा’ नामक पोस्ट लिखी थी।
लेकिन अभी ठहरिए, इस मसले में कीर्तिमान बनाने के प्रयास में मेरे एक अन्य पड़ोसी (पट्टीदार) थोड़ा और आगे निकल गए हैं। यह बात दीगर है कि ईश्वर ने आखिरी समय तक इनपर वैसी कृपा नहीं की। ये रिश्ते में मेरे बाबा लगते हैं। इन्होंने भी पहली ब्याहता के मर जाने के बाद दूसरी शादी की थी। उससे इन्हें पहले एक पुत्र भी हुआ, लेकिन अकाल मृत्यु का शिकार हो गया। फिर एक के बाद एक पाँच बेटियाँ आ गयीं।
पाँच के बाद उम्र ढलती गयी तो कदाचित् सन्तोष कर गये। लेकिन किसी ज्योतिषी ने ‘पचपन’ की उम्र में बता दिया कि पुत्र-योग बन रहा है। उम्मीद जग गयी कि इस बार बेटा ही होगा। फिर क्या था… सबसे छोटी बेटी दस साल की हो चुकी थी, बड़ी बेटी तीन साल पहले ससुराल जा चुकी थी… लेकिन आशा इतनी बलवती हुई कि फिर सन्धान कर डाला। आधुनिक तकनीक का कोई सहारा लिए बगैर ही मान लिया कि बेटा आ रहा है। मन ही मन स्वागत की ढेरों तैयारियाँ कर डाली।
लेकिन, हाय रे दुर्भाग्य! सबकी आशाओं पर पानी फेरते हुए ‘अनन्या’ ने जन्म लिया। लगभग साठ साल की उम्र में इस छठी पुत्री को पाकर उनका मन कैसा हुआ होगा यह सहज अनुमान का विषय है।
बड़ी संख्या में फैले इन उदाहरणों को देखकर आप क्या कहेंगे? हसेंगे, मुस्कराएंगे या सिर पीट लेंगे। हमारे यहाँ तो इसे भगवान की मर्जी के नाम पर सहज स्वीकार कर लिया जाता है।
मेरे विचार से यह एक तरफ़ तो घोर पिछड़ेपन की निशानी लगती है; लेकिन बेटे की चाह के चक्कर में कोंख में आने वाली बेटियों को भी पैदा करके पालने-पोसने को तैयार ये ‘पिछड़े’ माँ-बाप उन पढ़े-लिखे, आधुनिक और ‘प्रगतिशील’ दम्पतियों से तो बेहतर ही हैं जो गर्भ में आते ही भ्रूण की जाँच कराते हैं, और परिणाम ‘सकारात्मक’ (positive result?) नहीं होने पर उसकी हत्या गर्भ में ही करा देते हैं।
इसी आधुनिक समाज में वे पेशेवर डॉक्टर और तकनीशियन भी हैं जो इस कार्य के बदले मोटी रकम कमाकर आभिजात्य धारण कर लेते हैं। समाज के प्रतिष्ठित लोगों में इनकी गणना होने लगती है।
ग्रामीण भारत के अत्यन्त गरीब, भूमिहीन और कमजोर तबके में बच्चों की पैदाइश का एक अलग समाजशास्त्र है, जो घर की अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। इसकी चर्चा फिर कभी।
यहाँ आपके विचारों का स्वागत है।
“जाने लोग १४ फरवरी (वेलेन्टाइन डे) को ऐसा क्या करते हैं कि ठीक नौ महीने बाद १४ नवम्बर को ‘बाल दिवस’ मनाना पड़ता है…? 🙂
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
नवम्बर 14, 2008 @ 07:19:00
फिलहाल तो सिर ही धुन सकते हैं….ग्रामीण भारत के अत्यन्त गरीब, भूमिहीन और कमजोर तबके में बच्चों की पैदाइश का एक अलग समाजशास्त्र है, जो घर की अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। -बिल्कुल सही कहा..इन्तजार रहेगा!!
नवम्बर 14, 2008 @ 13:06:00
दुःख है की आप की ही तरह ऐसे लोगों को व्यक्तिगत रूप से मैं भी जानता हूँ !
नवम्बर 14, 2008 @ 14:14:00
बेटा पाने के लिए बेटियाँ पैदा होती रहती हैं. केवल बेटा पाने की ललक जब ऐसा करवाती है तो दुखद बात है. “लेकिन बेटे की चाह के चक्कर में कोंख में आने वाली बेटियों को भी पैदा करके पालने-पोसने को तैयार ये ‘पिछड़े’ माँ-बाप उन पढ़े-लिखे, आधुनिक और ‘प्रगतिशील’ दम्पतियों से तो बेहतर ही हैं जो गर्भ में आते ही भ्रूण की जाँच कराते हैं, और परिणाम ‘सकारात्मक’ (positive result?) नहीं होने पर उसकी हत्या गर्भ में ही करा देते हैं।”आपका उपरोक्त पैराग्राफ बहुत शानदार है.
नवम्बर 14, 2008 @ 22:04:00
इसे विडंबना ही कहा जायगा कि जिस मुम्बई वाली महिला को सामान्य जनमानसिकता के तहत लडके की चाहत थी, अब वही महिला इस सामान्य जनमानस से लडका हो जाने के बाद भी नजरें चुरा रही है….शर्मा रही है, कि लोग क्या कहेंगे। बेहद असमंजस वाली स्थिति है।
नवम्बर 14, 2008 @ 23:10:00
अब क्या कहा जाये “सन्तान” की ललक को? कुछ पीढ़ियां खपेंगी यह ललक शान्त होने में।
नवम्बर 15, 2008 @ 00:30:00
भाई हम सब को चाहिये, ओर अपने बच्चो को भी सीखाना चाहिये, लडकी हो या लडका दो ही अच्छे अगर आप की कमाई है तो वरना एक ही भला, ओर बच्चा चाहे लडका हो या लडकी खुशी दोनो की एक जेसी, अरे बच्चा तो अपना ही है ना. वेबकुफ़ी नही करनी चाहिये लडके की चाह मै लडकियो को फ़ोज इक्कठी कर लो, ओर लडका महा गुण्डा बने….
नवम्बर 15, 2008 @ 02:39:00
sateek bat hai
नवम्बर 15, 2008 @ 14:19:00
मुझे पेरियार स्वामी का एक कथन याद आ रहा है, “there are few things, which can’t be mended but only ended. Brahmanical hindutva is one such.”वस्तुतः, लोगों की मानसिकता को पुत्र-लिप्सा से पूरित करने में समाजशास्त्रीय, तथा आर्थिक कारणों के साथ-साथ इस मूढ़ पंडागीरी का भी अमूल्य योगदान है. अन्यथा तथाकथित विकसित एवं समृद्ध परिवारों में तो यह प्रवृत्ति अनुपस्थित ही रहती.
नवम्बर 17, 2008 @ 00:08:00
“आज भी हमारे समाज में ऐसी अधम सोच वाले लोग बचे हुए हैं जो अपने अधकचरे ज्ञान से भारतीय वैदिक साहित्य और ऋषि-परम्परा को बदनाम कर रहे हैं।”बहुत ही स्पष्ट एवं सधे शब्दों में उदाहरण देकर आपने अपनी बात रखी है. आभार.मेरे चाचा एवं ताऊ के बीच 18 साल का अंतर है. मेरी सासू जी एवं उनकी मां के दो प्रसव एक साथ हुए. किसी जमाने में इसे विचित्र नहीं माना जाता था. हमारी सोच अब इतनी हल्की हो गई है कि स्वाभाविक बातों पर अब हमें शरम आती है.लिखते रहें, असर होगा !!सस्नेह — शास्त्री
नवम्बर 18, 2008 @ 10:08:00
विचारणीय; किन्तु कहीं इसकी जड़ें यहाँ छिपी हैं कि बेटा ही तारणहार है, सक्षम है, चिता को अग्नि देगा, कुल का तारा है आदि आदि। अशिक्षितों से अधिक अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, वे अन्धानुगामी होते है। जो आधुनिक व पढ़े-लिखे परिवार हैं वे यदि बेटियों को समान सामाजिक अधिकार दें, ससुराल वाले मुँह फाड़ना बंद करें, बलात्कार व छेड़छाड़ का अनुपात गिरे तो वे धीरे धीरे आश्वस्त हो कर बेटियों के जन्म पर क्लांत होना छोड़ देंगे। क्लांत होने का इतिहास कोई बहुत पुराना नहीं है, नया ही है। जब यवन आदि आक्रान्ता इस देश में आए व बेटियों का शीलहरण, अपहरण आदि होने लगा तो समाज ने उन्हें लेकर एक प्रकार की नकारात्मक सोच या समस्या से मुक्ति का उपाय यही समझा कि बेटी न हो तो बेहतर। इसलिए बेटी वालों या बेटे के लिए मरे जाते परिवारों व समाज की मानसिकता के परिवर्तन के लिए बेटे वालों को पहल करनी होगी। जबकि आज स्थितियाँ और भी भयंकर हो होती जा रही हैं, लड़कियाँ अधिक असुरक्षित हैं, जीवन के दबाव अधिक हैं उन पर।