सत्यार्थमित्र की अकिंचन शुरुआत करते समय मैने यह तो जरूर सोचा था कि अपने मन के भीतर उठने वाले विचारों को शब्दों में ढालकर यहाँ पिरोता रहूंगा लेकिन तब मैने यह कल्पना भी नहीं की थी कि मेरा यह अहर्निश अनुष्ठान मेरे आसपास की प्रतिभाओं के उनकी घर गृहस्थी में पूरी तरह से रमे हुए मन को भी इधर खींच लाएगा और इस हल्की सी डोर को पकड़कर वे नयी ऊँचाई छूने की ओर बढ़ चलेंगी। इन पन्नों पर श्रीमती रचना त्रिपाठी ने जो लिखा उसे आपकी सराहना मिली। बालमन की कविताओं ने भी आपका ध्यान खींचा। उनकी लिखी सत्यकथा ‘एक है हिरमतिया’ को बार-बार पढ़कर भी मैं नहीं अघाता। इन पोस्टों की मौलिकता को अक्षुण्ण रखते हुए हल्के-फुल्के संपादन से इन्हें आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे एक अलग तरह का सन्तोष मिलता है।
इसी क्रम में आज एक और विशुद्ध गृहिणी की कलम से निकली रचना आपको पढ़वा रहा हूँ। इस सत्यकथा की पात्र से भी मैं स्वयं मिल चुका हूँ। अपनी ससुराल में। यह कथा पढ़कर मेरे सामने ताजा हो गयी हैं उसके चेहरे पर मकड़ी का जाल बन चुकी असंख्य झुर्रियाँ, फिर भी उम्र का सही अनुमान लगाना मुश्किल…। किसी वामन महिला को मैने इससे पहले देखा जो नहीं था। उसके मुँह से कभी कोई शब्द मैंने सुना ही नहीं। बिल्कुल शान्त और स्थिर…। …अरे दुलारी की कथा तो मैंने ही सुनाना शुरू कर दिया।
लीजिए, मूल लेखिका श्रीमती रागिनी शुक्ला की कलम से निसृत यह कथा पेश है मूल रूप में-
दुलारी बैशाख मास की दोपहर की धूप…। ऐसा लग रहा था जैसे सूखी लकड़ियों की आग जल रही हो, हवा भी आग की लपट लेकर आ रही हो, जरा सा बाहर निकलने पर पूरा शरीर झुलस जाता था, इस मास की गर्मी से सभी त्रस्त हैं, सुबह से ही तेज हवाएं चलनी शुरू हो जाती , ऐसा लगता कि पत्तों के आपस में टकराने पर आग लग जाएगी। गाँव के सभी बच्चे-जवान-बूढे घर छोड़कर सुबह से ही बागीचे में चले जाते, शायद पेड़ के साये में थोड़ी राहत मिलती है, गाँव में एक घर है जिसे बाबा के घर के नाम से जाना जाता है, वहां पर घर की ‘दादी’ गाँव के हर घर के सुख-दुःख का ध्यान रखती। आज दोपहर के एक बज गये थे। दादी की आखों में नींद नही आ रही, वह परेशान थीं क्योंकि दुलारी खाना लेने नहीं आई थी, बहादुर से दुलारी को बुलाने के लिये कहती हैं, बहादुर बताता है, “मैं वहीं से आ रहा हूँ, दुलारी घर पर नहीं है, दादी परेशान हो जाती है, इतनी गर्मी है, दुलारी कहाँ गयी होगी ? दुलारी को कोई न कोई हमेशा परेशान करता रहता है, हर कोई उससे मजाक करता रहता है, प्रकृति के आगे सभी नतमस्तक हैं। किसी को बौना बना दे तो क्या कर सकते हैं। लेकिन दुलारी के साथ यह एक क्रूर मजाक से कम नहीं। आज भी महिलाएं उसके सिन्दूर और बिन्दी को देखकर हँसी करती हैं, “का दुलारी फ़ुआ, आज फ़ूफ़ा आवताने का?” दुलारी मन ही मन बुदबुदाती हुई आगे बढ जाती। फिर भी उसका मन हार मानने को तैयार नहीं। आज अस्सी साल की उम्र में भी दुलारी की मांग का सिन्दूर और माथे की बिन्दिया कभी हल्की नहीं हुई। दो भाइयों के बीच अकेली बहन थी …दुलारी। माँ-बाप ने उसकी शादी बचपन में ही बड़े अरमानों से की थी, सात साल पर गौना तय हुआ था। लेकिन ईश्वर के आगे किसी की नहीं चलती। गौना होने से पहले ही दुलारी के सिर से उसके माँ-बाप का साया उठ गया, और भगवान भी जैसे दुलारी को भूल ही गया था। प्रकृति के पोषण का अजस्र श्रोत जैसे दुलारी के लिए सूख सा गया। उसका कद छःसाल के बच्चे के बराबर ही रह गया। लड़के वाले उस वामन बालिका को विदा कराने ही नहीं आए। आज सत्तर साल की दुलारी अपने दोनो भाईयों की अपेक्षा बहुत ही स्वाभिमानी है, आज भी गरीब होने के बावजूद अपनी मेहनत से अपना पेट पाल रही है। जबकि उसके दोनों भाई खेती-बारी बेंचकर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। दुलारी अपने छ्प्पर के घर में संतुष्ट रहती। उसने बकरी पाल रखी थी। अक्सर देखा जाता कि दुलारी अपनी बकरी से कुछ-कुछ बातें करती रहती, शायद अपने दु:ख-सुख कहती। वह बकरी उसकी सबसे अच्छी दोस्त थी। क्योंकि वह कभी भी उसकी हँसी नहीं उड़ाती, और दुलारी की एक आवाज पाकर वह दौड़ी उसके पास चली आती थी। दुलारी अपनी बकरी की देखभाल बिल्कुल अपने बच्चों की तरह करती रहती, गर्मियों में नियमित स्नान कराती। जाड़े के दिनों मे उसके लिये कपड़े और बिस्तर बनाती। रोज सुबह पाँच बजते ही दुलारी बाबा के घर जाती और बिना कहे ही, झाड़ू उठाती और धीरे-धीरे पूरे घर में झाड़ू लगाती। बाबा के घर का हर सदस्य दुलारी का बड़ा ही सम्मान करता, किसी दिन अगर दुलारी नहीं आती तो उसका हाल-चाल लेने दादी किसी को जरूर भेज देती। सुबह का खाना दुलारी बाबा के घर से ले जाती, और अपनी बकरी के साथ मिलकर खाती। शाम का खाना दादी उसके घर भेंज देती। दुलारी को भी बाबा के घर से बहुत ही प्रेम था, जब भी बाबा के घर में कोई नन्हा मेहमान आता तो दुलारी अपने हाथों से बनी हुई मूँज की छोटी सी टोकरी लाना नहीं भूलती। दर्जी की दुकान से बेकार कपड़ों की कतरन लाती, घोड़ा-हाथी-बन्दर बनाती और बच्चे को उपहार देती। दुलारी का यह उपहार बाबा के घर के हर शिशु को मिलता रहा। …लेकिन ग्रामीण समाज दुलारी के साथ उतना उदार नहीं था। उस दिन दादी दुलारी का काफ़ी देर तक इंतजार करती रहीं। दादी ने बहादुर को उसकी झोपड़ी पर भेजा तो पता चला कि वह कुछ विशेष तैयारियों में जुटी है। अपने घर को गाय के गोबर से लीप-पोत कर साफ कर रही थी। कुछ औरतें दुलारी को मेंहदी लगाने की तैयारी में जुटी थीं। उसकी बकरी भी आज बेच दी गई थी। लेकिन अपनी प्यारी बकरी को बेंचकर भी दुलारी बहुत प्रसन्न नजर आ रही थी। बकरी को बेचनें से जो पैसे मिले थे उससे दुलारी के लिये धोती और पायल मंगाई गई थी। उसके दरवाजे पर पीली धोती सुखाई जा रही थी और दुलारी मन ही मन बहुत खुश थी कि इस बार की ‘लगन’ में हमारी भी विदाई होने वाली है। ससुराल जाने का उत्साह हिलोरें ले रहा था। दिन भर गांव की औरतें भोली-भाली दुलारी को सजा-सवाँर कर शादी-विवाह का गीत गाती रहीं और अपना मनोरंजन करती रहीं। शाम होते ही हंसी का ठहाका लगाकर सभी अपने-अपने घर चलती बनीं। आज दुलारी को भूख प्यास तो लग ही नहीं रही थी। शाम से ही ‘पियरी’ पहने, हाथों में चूड़ियाँ डाले, माथे पर बिन्दी लगाए, मांग मे सिन्दूर भरकर, रंगे हुए पैरो में छम-छम करते घुँघरू वाली पायल पहने, रात भर अपनी झोपड़ी में बैठी रही। नए घर में जाने के इंतजार में सुबह होने तक दरवाजे पर दीपक जलाये किसी का इंतजार करती रही। सुबह होने तक उसे यह भान नही था कि उसके साथ मजाक किया गया है। तब से दुलारी पूरे गाँव में चर्चा का विषय बन गयी। हर कोई उसकी झोपड़ी में जरूर झाँक आता। कुछ मनबढ़ किस्म की औरतों के नाते उसकी बकरी भी चली गई, जिससे वह अपना सुख-दुख बाँटती थी। अब दुलारी किसी के घर नहीं आती-जाती थी। दादी उसके लिये सुबह-शाम खाना भिंजवा देतीं। दुलारी सुबह होते ही बागीचे में निकल जाती। तिराहे से बागीचे की ओर आने वाली सड़क पर बैठकर टकटकी लगाये देखती रहती, ऐसा लगता जैसे उसके सपनों का राजकुमार आनेवाला हो। रोज का यही क्रम है…। आज दुलारी ८० साल की हो चुकी है। उसको अभी भी चार कंधों की डोली का इंतजार है। …दुलारी के लिए डोली तो एक दिन जरूर आएगी। लेकिन शायद दुलारी उसे अपनी आँखों से देख न पाये। …वह डोली चढ़कर ही सबसे विदा लेगी लेकिन उसे कन्धा देने वाले कोई और ही होंगे। शायद यहाँ से विदा होकर ही उसके सपनों का साथी उसे मिल सकेगा। -(श्रीमती) रागिनी शुक्ला |
यह सप्ताह बहुत व्यस्त रहा। ब्लॉगरी की आभासी दुनिया मेरे लिए सजीव हो उठी थी। हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने कविता वाचक्नवी जी की पुस्तक प्रकाशित कर उसका लोकार्पण कराया। इलाहाबाद में उन्हें पाकर मैने लगे हाथों गुरुदेव ज्ञानदत्त जी के घर का दरवाजा खटखटा लिया। आन्ध्र प्रदेश से कई डिब्बों में भर कर लायी गयी स्वादिष्ट चन्द्रकला के साथ रीता भाभीजी के हाथ के बने ढोकले और फोन पर उपस्थित अनूप जी फुरसतिया के चटाखेदार गोलगप्पों का आनन्द लिया गया। स्त्री-विमर्श की चर्चा भी हुई…। लेकिन जो ‘घाघ’ था उसने अपने पत्ते नहीं खोले। 🙂
मेरे मोबाइल का कैमरा यहाँ भी ड्यूटी पर था-
(१)नन्हे सत्यार्थ को फोटू खिंचाना खूब भाता है। सो सबसे पहले दीदी के साथ ऑण्टी के बगल में। (२) रचना और रीता भाभीजी के बीच में कविता जी (३) गुरुदेव के साथ
मैं इधर हूँ- कैमरे के पीछे।
(सिद्धार्थ)