अन्ततः आज वो रो पड़ी…। पिछ्ले सात-आठ दिन से इसकी भूमिका बन रही थी। मायके वालों से रोज बातें हो रही थीं। पापा, मम्मी, छोटे भाई, और अपने ससुराल में बैठी बड़ी बहन से लगातार घण्टों चर्चा का एक ही विषय। पतिदेव अपने काम में इतने मशरूफ़ दिखते कि कभी उनके साथ बैठकर विस्तार से विचार-विमर्श नहीं कर सकी। हाँलाकि उनके हूँ-हाँ के बीच उनसे भी सारी बात कई बार बतायी जा चुकी थी। लेकिन जितनी बेचैनी उसके मन में थी उसका अनुमान उसके पति महोदय नहीं कर पाये थे। लेकिन जब मन की व्यथा फफ़क कर आँखों से बाहर आने लगी तो इसकी गम्भीरता के बारे में सोचने को मजबूर हो गए।

यूँ तो अर्चना अपने पिता की पाँच सन्तानों में चौथे नम्बर पर थी लेकिन बचपन में एक बड़े भाई की १०-१२ साल की उम्र में ही अकाल मृत्यु हो जाने से अपने पिता की आँखों में पहली बार आँसू देखकर इतना कातर हुई थी कि सबकी निगाहों में घर की सबसे संवेदनशील सन्तान बन गयी। यह संवेदना एक लड़की होने की प्रास्थिति से उपजी भेद-भाव की कथित ‘दुनियादारी’ के प्रति विरोध के रूप में भी प्रस्फुटित हुई और ग्रामीण वातावरण में भी शहरी लड़कों की तरह शिक्षा-दीक्षा पाने की ललक और जिद के रूप में भी। बाद में जब पिता के ऊपर आने वाली एक से एक कठिन चुनैतियों और उनके द्वारा अथक परिश्रम, धैर्य, और बुद्धिमतापूर्ण ढंग से उनका मुकाबला करते देखती हुई बड़ी होने लगी तो धीरे-धीरे पिता द्वारा परम्परा और आधुनिकता के मिश्रण से पगी परवरिश को स्वीकार भी करने लगी।

mother imagesपापा ने बड़ी दीदी का विवाह एम.ए. पास करते ही एक समृद्ध परिवार में कर दिया था। बड़े भाई को बनारस के बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया लेकिन इन्सेफ़्लाइटिस के कहर ने उस होनहार को असमय ही काल के गाल में झोंक दिया था। इसके बाद बच्चों को बाहर भेंजकर पढ़ाने का फैसला लेना कठिन हो गया था। लेकिन गाँव में शिक्षा का कोई भविष्य भी नहीं था। इसलिए पापा ने दोनो बेटों को अच्छी स्कूली शिक्षा के लिए निकट के महानगर में भेज दिया। मम्मी-पापा बीच-बीच में गाँव से शहर जाते, बेटों को देख-सुनकर लौट आते। लेकिन बेटियों को गाँव से बाहर भेंजने की हिम्मत नहीं पड़ी थी। वे वहीं से रोज पढ़ने के लिए पास के कस्बे तक जातीं और शाम ढलने से पहले लौट आतीं। …पापा की दुलारी बेटियाँ।

जल्दी ही बड़ा भाई इन्जिनियरिंग में और छोटा भाई मेडिकल में प्रवेश पाकर अपना-अपना प्रोफेशनल कैरियर चुनने में सफल हो गए। पूरी पढ़ाई घर से दूर रहकर हुई। लेकिन बेटियों के लिए पापा की सोच अच्छे घर में शादी कर देने से आगे नहीं बढ़ सकी। पढ़ाई भी उसी के अनुसार ऐसी ताकि अच्छे रिश्ते  मिल सकें। इस छोटी बिटिया ने फिरभी अपनी जिद से बी.ए. के बजाय बी.एस.सी. और फिर बड़े शहर जाकर एम.एस.सी. में भी दाखिला ले लिया। लेकिन पापा को जाने क्या जल्दी थी कि एम.एस.सी. (फाइनल) की परीक्षा पर शादी को तरज़ीह देते हुए बिटिया के हाथ पीले कर दिए। रेग्यूलर परीक्षा छोड़नी पड़ी। अगले साल दुबारा परीक्षा हुई तो पाँच छः माह के गर्भ का बोझ ढोकर भी ६८ प्रतिशत अंकों के साथ एम.एस.सी. की उपाधि प्राप्त कर लिया। लेकिन माँ-बाप की इच्छा तो जैसे बेटी को ससुराल भेंजकर ही पूरी हो गयी।

इधर भाई जब डॉक्टर (एम.डी.-मेडिसिन) बनकर ‘गोल्ड मेडल’ के साथ गाँव लौटा तो पापा को अपनी तपस्या पूरी होती नजर आयी। झटपट पास के कस्बे में क्लिनिक खुलवा दिया। एक अच्छे डॉक्टर के सभी गुण होने के साथ-साथ समाज में अत्यन्त प्रतिष्ठित पिता के दिए संस्कारों ने अपना रंग दिखाना शुरू किया। मरीजों की बाढ़ आने लगी। सप्ताह में एक दिन निःशुल्क सेवा के संकल्प ने इसमें चार-चाँद लगा दिए। पापा ने बेटे की सफलता के उत्साह में अपनी बढ़ती उम्र को धता बताकर स्वयं खड़ा रहते हुए उसी कस्बे में जो अबतक जिला बन गया था, एक बड़ा सा अस्पताल बनवाना प्रारम्भ कर दिया। family_sketch

भाई की प्रगति को आँखों से देखने के लिए दोनो बहनों ने समय-समय पर मायके की यात्राएं कीं। प्रायः प्रतिदिन क्लिनिक में जुटने वाले मरीजों की संख्या, उनकी प्रतिक्रिया और आम जनश्रुति के किस्सों पर कान लगाये रहतीं। मम्मी को तो जैसे जीवन की अमूल्य निधि मिल गयी। जिन बेटों को उनकी दस साल की उम्र से ही सिर्फ़ छुट्टियों में देखने और अपने हाथ से खाना खिलाने का मौका मिलता था वे अब घर पर रहकर आँखों के सामने सफलता की बुलन्दियाँ छू रहे थे। जिनका अधिकांश समय बेटों की राह तकते बीता था, वह अब उनके सिर पर रोज स्नेहसिक्त हाथ फेरने का सुख पाने लगी थी।

यह बहुत आह्लादकारी समय था। क्लिनिक चलते हुए एक साल कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। इस दौरान अपना हॉस्पिटल भी बन कर लगभग तैयार हो गया। मार्बल और पी.ओ.पी. निबटाकर अब पेंटिंग का काम शुरू हो गया था। दो-तीन डॉक्टर्स चैम्बर, ओ.टी., लेबर रूम, जच्चा-बच्चा वार्ड, दवाघर, मरीजों और तीमारदारों के लिए प्रतीक्षा कक्ष, टॉयलेट व स्नानघर, किचेन शेड, पार्किंग।

डॉक्टर की शादी चार-पाँच साल पहले एक डॉक्टरनी से ही हो चुकी थी जो उसी के कॉलेज में जूनियर थी। उसका भी ‘गाइनी’ में पीजी (DNB) का दूसरा साल है। इसे कम्प्लीट करके जब आएगी तो उसे सीधे अपने बने-बनाए हॉस्पिटल के चैम्बर में बैठना होगा। क्षेत्र के लोग तो अभी से मुग्ध और प्रसन्न रहने लगे हैं कि अब बड़े शहरों वाली सुविधा यहीं अपने पिछड़े से शहर में ही मिलने लगेगी। वह भी सभी जरूरतें एक ही छत के नीचे पूरी होने वाली थीं। लेकिन…

पिछले एक सप्ताह में जो घटनाक्रम चला है उसे जानकर तो दिमाग सुन्न हो गया है। डॉक्टर ने अचानक यह निर्णय ले लिया कि वह इस कस्बे की डॉक्टरी छोड़ रहा है। वापस दिल्ली जाएगा जहाँ उसकी पत्नी तीन साल के बेटे के साथ अकेली रहकर पढ़ाई (DNB-OG) कर रही है। अभी दो-तीन साल उसे वहीं लगेंगे। पत्नी और बेटे को छोड़कर अपने पैतृक गाँव में आया तो था अपने क्षेत्र की सेवा करने लेकिन पिछले एक साल के व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर उसे यह कठिन निर्णय लेना पड़ा है।

क्षेत्र के लोग सन्न हैं। जिसने भी सुना दौड़ पड़ा। आखिर क्या बात है? कुछ मरीज तो फूट-फूटकर रो पड़े जिन्हें उसने भगवान बनकर बचाया था। पापा के इष्ट-मित्र, दूर-दूर के रिश्तेदार, और क्लिनिक में साथ रहने वाला सपोर्टिंग स्टाफ, सबको आघात पहुँचा है। लगता है जैसे अपनी कोई अमूल्य सम्पत्ति छीन ली गयी हो। सभी यह जान लेना चाहते हैं कि आखिर किसकी गलती की सजा उन्हें मिल रही है।sketch of family

इस सारी चुभन को अर्चना ने पिछले सात-आठ दिन में फोन से बात कर-करके महसूस किया है। भाई, बड़ी बहन, माँ और बाप से लगातार मोबाइल पर एक-एक बात पर विचार-विमर्श होता रहा। दिल्ली में बैठी अनुजवधू जरूर अपने पति के लौट आने से प्रसन्न है। तीन साल के बेटे को भी अपने पापा का स्नेह मिलने लगेगा। वहाँ जाकर डॉक्टर एक और उच्च स्तरीय उपाधि (DM) पाने की कोशिश करेगा। शायद किसी बड़े अस्पताल का बड़ा डॉक्टर बन जाय। विदेश जाने के रास्ते भी खुल सकते हैं।

लेकिन गाँव पर फिर राह तकते मम्मी पापा…?

आखिर कल प्रस्थान का वह दिन आ ही गया जब मम्मी-पापा से विदा लेकर वह दिल्ली जा बसने के लिए निकल पड़ा। बेटे से बिछुड़ते हुए माँ का धैर्य टूट गया। वह उससे लिपटकर फूट-फूट्कर रो पड़ी। पापा ने कलेजा मजबूत करके उन्हें चुप कराया। हाँलाकि उन्हें खुद ही ढाँढस बधाने वाले की दरकार थी। यह सब मोबाइल पर सुनसुनकर अर्चना का भी बुरा हाल था। पति ने टोका तो आँसू छलक पड़े।

हम बेटियों से मायके का सुख नसीब न हो तो न सही लेकिन अपने माँ-बाप, भाई-बहन के दुःख में दुःखी होने का हक तो न छीना जाय…।

(सिद्धार्थ)