हिन्दी और संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान, मनीषी, आचार्य और ग्रन्थकार पं. विद्या निवास मिश्र जी के सारस्वत जीवन पर ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक का विशेषांक निकालने की तैयारी हिन्दुस्तानी एकेडेमी में की जा रही है। इसी सिलसिले में मुझे उनकी कुछ पुस्तकों को देखने का अवसर मिला।
भारतीय दर्शन, संस्कृति और लोकसाहित्य के प्रखर अध्येता और अप्रतिम उपासक श्री मिश्रजी अपने बारे में एक स्थान पर गर्व से स्वयं बताते हैं; “…वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्छिन्न प्रवाह की उपलब्धि होती है, उस भारतीय भावधारा का मैं स्नातक हूँ।”
यूँ तो उन्होंने भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज पर केन्द्रित विपुल मात्रा में शोधपरक लेखन किया है और विविध विषयों पर लिखे उनके ललित निबन्ध सर्वत्र प्रशंसित हुए हैं, लेकिन मैं यहाँ भोजपुरी लोकसंस्कृति का परिचय कराती उनकी पुस्तक वाचिक कविता : भोजपुरी का जिक्र करना चाहूंगा। इस पुस्तक ने मुझे इस प्रकार बाँध लिया कि कई जरूरी काम छोड़कर मैने इसे आद्योपान्त पढ़ डाला। अब इस अद्भुत सुख को आपसे बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।
पुस्तक | वाचिक कविता: भोजपुरी |
संपादक | विद्यानिवास मिश्र |
प्रकाशक | भारतीय ज्ञानपीठ (लोकोदय ग्रन्थमाला-६४१) |
पता | १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नई दिल्ली- ११००३२ |
इस पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी माटी में पले-बढ़े श्री मिश्र जी ने लोकसाहित्य के शिल्प विधान पर एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। जिनकी रुचि इसमें है वे पुस्तक खोजकर जरूर पढ़ें। मैं तो इस पुस्तक से आपको सीधे भोजपुरी माटी की सुगन्ध बिखेरती कुछ पारम्परिक रचनाओं का रसपान कराना चाहता हूँ।
कजली
रुनझुन खोलऽ ना हो केवड़िया, हम बिदेसवा जइबो ना
जो मोरे सँइया तुहु जइबऽ बिदेसवा, तू बिदेसवा जइबऽ ना
हमरा बाबा के बोला दऽ, हम नइहरवा जइबो ना
जो मोरी धनिया तुहु जइबू नइहरवा, तू नइहरवा जइबू ना
जतना लागल बा रुपइया ततना देके जइहऽ ना
जो मोरे सँइया तुहु लेबऽ रुपइया, तू रुपइया लेबऽ ना
जइसन बाबा घरवा रहलीं तइसन कइके जइहऽ ना
[“रुनझुन (प्रिया, पत्नी)! दरवाजा खोलो, अब मैं विदेश जाऊँगा।” “मेरे प्रियतम! यदि तुम विदेश जाओगे तो मेरे पिताजी को बुला दो। मैं मायके चली जाऊँगी” “मेरी धनिया! यदि तुम्हें मायके जाना है तो (तुमपर) जितना रुपया खर्च हुआ है वह देकर ही जाना” “मेरे पति! यदि तुम रुपया (वापस) लेना चाहते हो तो मुझे वैसा ही वापस बना दो जैसी मैं अपने बाबा के घर पर थी”]
बेटी-विवाह (कन्यादान)
कवन गरहनवा बाबा साँझे जे लागे, कवन गरहनवा भिनुसार
कवन गरहनवा बाबा मड़वनि लागे, कब होइहें उगरह तोमार
चन्दर गरहनवा बेटी साँझे जे लागे, सुरुज गरहनवा भिनुसार
धिया गरहनवा बेटी मड़वनि लागे, कबहूँ न उगरह हमार
रउरा जे बाटे बाबा हंसराज घोड़वा सोनवे गढ़ावल चारो गोड़
ऊहे घोड़उआ बाबा धिया दान करबऽ, तब होइहें उगरह तोहार
बाभन काँपेला, माँड़ो काँपेला, काँपेला नगर के लोग
गोदी बिटिउआ लेले काँपेलें कवन बाबा, अब होइहें उगरह हमार
कथि बिना बाबा हो हुमियो ना होइहें, कथि बिना जउरी न होइ
कथि बिना बाबा हो जग अन्हियारा कथि बिना धरम न होइ
घिव बिना बेटी हो हुमियो ना होइहें, दूध बिना जउरी न होइ
एक पुतर बिना जग अन्हियारा, धिया बिना धरम न होइ
[“बाबा! कौन ग्रहण साँझ को लगता है, कौन ग्रहण सुबह, कौन ग्रहण (विवाह) मण्डप में लगता है, (जिससे) तुम्हारा उग्रह कब होगा ?” “बेटी!चन्द्र ग्रहण साँझ को, सूर्य ग्रहण सुबह और पुत्री-ग्रहण मण्डप में लगता है, (जिससे) मेरा उग्रह कभी नहीं होगा।” “बाबा! आपके पास हंसराज घोड़ा है जिसके चारो पैर सोने से मढ़े हुए हैं। उसी घोड़े को कन्यादान में दे दीजिए (तो) आपका उग्रह हो जाएगा।” ब्राह्मण काँपता है, मण्डप काँपता है, नगर के लोग काँपते हैं, बेटी को गोद में बिठाए बाबा काँपते हैं (क्या) अब मेरा उग्रह होगा!” “बाबा! किसके बिना होम नहीं हो सकेगा, किसके बिना खीर नहीं बन सकेगी, किसके बिना दुनिया अन्धेरी होती है और किसके बिना धर्मपालन नहीं हो सकता?” “बेटी! घी के बिना होम व दूध के बिना खीर सम्भव नहीं और पुत्र के बिना दुनिया अन्धेरी होती है और पुत्री के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता।”]
इस पुस्तक में भोजपुरी लोकपरम्परा में रचे बसे अनेक विलक्षण गीतों को विविध श्रेणियों में बाँटकर सजोया गया है। इस विद्वान विभूति ने इन गीतों का अत्यन्त रसयुक्त और भावप्रवण हिन्दी अनुवाद भी कर दिया है जिससे भोजपुरी से अन्जान हिन्दी भाषी पाठक भी इसका रसास्वादन कर सकते हैं। श्रेणियों पर ध्यान दीजिए;
१.सुमिरल– मइया गीत, छठी मइया, पताती, संझा, बिरहा, सुमिरन की होली, सुमिरन का चैता, कजली, भजन, निरगुन, कन्हैया जागरण,
२.कहल- सोहर, खेलवना, नेवतन, सिन्दूर दान, सुहाग, जोग, झूमर, बहुरा गीत, हिन्डोला गीत, बेटी विदाई, जँतसार, मार्ग गीत, फगुई, कजली, होरी, बारहमासा, चैती, नेटुआ गीत, कँहार गीत, गोंड़ गीत,
३.बतियावल– जनेऊ, सोहर, कजली, बेटी विवाह, कन्यादान, विदाई, जँतसार, रोपनी गीत, सोहनी गीत, चइता
४.कथावल– सोहर, चैता, मार्गगीत, बारहमासा, कजरी, शिवविवाह, कलशगाँठ, बिरहा, रोपनी गीत,
इन श्रेणियों में जो अतुलित लोकरंग समाया हुआ है उसका रसास्वादन एक विलक्षण अनुभूति दे जाता है। पं.विद्यानिवास मिश्र जी की यह सुकृति अपनी माटी के प्रति अगाध श्रद्धा और सच्ची सेवाभावना और अपनी संकृति के प्रति उनकी निष्ठा की पुष्ट करती है।
यदि आपने पसन्द किया तो कुछ और रचनाएं आगे की कड़ियों में प्रस्तुत कर सकता हूँ।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
मा पलायनम !
मार्च 28, 2009 @ 08:46:00
बहुत सुंदर जानकारी और माटी की गंध लिए हुए गीत पढाने के लिए ,मैं तो पढने के साथ ही गुनगनाने भी लगा .
ज्ञानदत्त पाण्डेय | G.D.Pandey
मार्च 28, 2009 @ 09:27:00
पण्डित विद्यानिवास मिश्र के बारे में और भोजपुरी लोक साहित्य के बारे में पढ़ना अत्यंत मनोहारी अनुभव है। इसे जारी रखा जाये। चरपरे से विशेष परहेज नहीं है। 🙂
इरशाद अली
मार्च 28, 2009 @ 09:33:00
सार्थक प्रयास अच्छी जानकारी
Arvind Mishra
मार्च 28, 2009 @ 10:19:00
पंडित जी के ललित निबन्धों का तो मैं कायल ही रहा हूँ -वे एक कन्टेम्पोरेरी क्लासिक ही थे वक्तित्व और कृतित्व में भी ! पोंगा पंथी तो कदापि नही थे जो आज के कितने ही रचनाकारों ख़ास कर ब्राह्मणों में दिख जाता है ! लोक्शब्दों के संग्रह पर उनका आग्रह रहता ! अनुज मनोज ने निश्चय ही गीतों को गुनगुनाया होगा ! उनसे कभी सुने भीं ! आभार !
संगीता पुरी
मार्च 28, 2009 @ 10:34:00
जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
अशोक पाण्डेय
मार्च 28, 2009 @ 12:01:00
प्रशंसनीय आलेख। चर्चा कृपया जारी रखें। भोजपुरी जैसी समृद्ध व मधुर भाषा और पं. विद्या निवास मिश्र जैसे विद्वान मनीषी की बातें भला किसे पसंद नहीं आएंगी।
रचना
मार्च 28, 2009 @ 12:30:00
PLEASE PROMOTE IT ON YOU BLOG CREAT AWARENESS मै अपनी धरती को अपना वोट दूंगी आप भी दे कैसे ?? क्यूँ ?? जाने शनिवार २८ मार्च २००९समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजेघर मे चलने वाली हर वो चीज़ जो इलेक्ट्रिसिटी से चलती हैं उसको बंद कर देअपना वोट दे धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लियेपूरी दुनिया मे शनिवार २८ मार्च २००९ समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजेग्लोबल अर्थ आर { GLOBAL EARTH HOUR } मनाये गी और वोट देगी
रचना
मार्च 28, 2009 @ 12:30:00
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डॉ .अनुराग
मार्च 28, 2009 @ 14:33:00
महत्वपूर्ण जानकारी !
राज भाटिय़ा
मार्च 28, 2009 @ 17:01:00
दूसरे लोगों ने पंडित जी को ऐसी अभद्रता के लिए भलाबुरा कहा तो उधर से जवाब मिला, “…इन लोगें ने हमें अंडा-शराब जैसी महँगी और निशिद्ध चीजें खानी सिखलायीं तो ठीक और मैंने शुद्ध चरपरे भारतीय भोजन की दीक्षा एक दिन इन लोगों को देने की कोशिश की तो मैं अभद्र हो गया ?’’बहुत ही सुंदर लेख, बहुत अच्छी शिक्षा देता है.धन्यवाद
कविता वाचक्नवी Kavita Vachaknavee
मार्च 28, 2009 @ 22:42:00
भोजपुरी की वाचिक कविता पर केन्द्रित पं. जी की इस पुस्तक द्वारा उस अंचल के लोकगीतों का अनूठा संकलन हिन्दी में उपलब्ध हो गया है। वैसे विद्यानिवास जी का समूचा लेखन उनकी लोक, संस्कृति,भारतीयता,आदि के प्रति एकनिष्ठता का वाहक ही है। शैली-वैज्ञानिक का उनका रूप तो बहुधा लोग जानते ही नहीं, वे उसमें अप्रतिम हैं।क्रम जारी रखिए, मुझ जैसे भोजपुरी से अपरिचित को भी लोकगीतों का आनन्द उठाने का आनन्द आएगा।
RAJ SINH
मार्च 28, 2009 @ 23:45:00
jaree rakhen. jankaree aur aanad dono eksath mile .pandit jee ke lalit lekh nibhandon se to parichit tha par yeh alhad,aparichit hee tha.apne lokgeeton ko padh vivhal hoon.
कुश
मार्च 30, 2009 @ 18:22:00
प्रयास तो अच्छा है ही आपका.. पर खुद को रिलेट नही कर पाया.. शायद थोडा टाइम लगे..
"मुकुल:प्रस्तोता:बावरे फकीरा "
मार्च 31, 2009 @ 00:26:00
उत्कृष्ट सादर आभार स्वीकारिये जी खासतौर पर ये :बेटी-विवाह (कन्यादान)
balman
अप्रैल 01, 2009 @ 11:58:00
bhojapoori ko boli ke star se uthakar bhasha ke star par lane ke liye abhi hajaro vidanivas ji jaise logo ki jaroorat padegi.aapaka yah prayas is disha me ek mahtvapoorna kadam hai.kripaya ise jaari rakhen.
Tarun
अप्रैल 02, 2009 @ 00:01:00
Kuch hatkar parne ka maja hi kuch aur hai. aap hindi me translate nahi karte to shayad kuch palle bhi nahi parta lekin translation se kaafi help hui hai. Thanks.BTW, control panel ka link dene ke liye dhanyvadd, bus naam me thora garbar hai, Mera naam Amit nahi Tarun hai 🙂
इष्ट देव सांकृत्यायन
अप्रैल 04, 2009 @ 22:41:00
पंडित जी के ज़्यादातर ललित निबन्धों की जान ही भोजपुरी लोकसाहित्य है. असल में ग़ैर भोजपुरी भाषियों को भोजपुरी की सांस्कृतिक सम्पदा से परिचित कराने का काम ग्रियर्सन और राहुल जी के बाद सिर्फ़ विद्यानिवास जी ने ही किया और वह भी पंडिताऊ नहीं, बड़े ही रोचक अन्दाज़ में.
संदीप शर्मा
अप्रैल 05, 2009 @ 19:03:00
अच्छी जानकारी…
Mumukshh Ki Rachanain
अप्रैल 06, 2009 @ 10:13:00
बहुत ही सुंदर लेख, बहुत अच्छी जानकारी और शिक्षा से परिपूर्ण .क्रम जारी रखिए, आनन्द आएगा।चन्द्र मोहन गुप्त
अभिषेक ओझा
अप्रैल 14, 2009 @ 13:01:00
हमारा अनुरोध है की आगे भी मिसिर जी की रचनायें आप लाइए. स्कूल की किताब में इनका एक ललित निबंध था ‘मेरा गाँव मेरा देश’ पसंदीदा अध्याय हुआ करता था. और ये पोस्ट तो पसंद आई ये कहने की जरुरत ही नहीं लगती.