चुनावी ड्यूटी से फारिग़ होने के बाद अगले दिन कार्यालय में काम कुछ हल्का ही था। एक सीनियर अफ़सर मेरे कमरे में आये तो मैंने उनका खड़ा होकर स्वागत किया। मेरे अन्दाज में कुछ अतिरिक्त गर्मजोशी अनायास ही आ गयी थी क्यों कि वे शायराना तबीयत के मालिक हैं। ग़ज़लें और नज्में लिखते हैं। ‘क्लीन शेव’ मुसलमान हैं। उनकी बातों से दकियानूसी या कट्टर ख़्याल की बू कभी नहीं आयी थी। अच्छी तालीम हासिल किए होंगे तभी अधिकारी बने हैं। मेरे मन में उनके प्रति यही भाव बने हुए थे।
मैने उनसे उर्दू अदब और ग़ज़लकारी की कुछ चर्चा की। उन्होंने बताया कि उनकी चार-पाँच किताबें उर्दू एकेडेमी से छप चुकी हैं। फै़ज़ अहमद फैज़ ने उनकी पीठ ठोकी है। फिराक़ साहब ने भी प्रशंसा में सिर हिलाया है…। मैने शिकायत की कि आपने हिन्दी (देवनागरी) में प्रकाशन क्यों नहीं कराया तो बोले प्रकाशक नहीं मिला। मैंने अफ़सोस जताया।
मैने उनसे ग़ज़ल, नज़्म और रुबाई आदि के बारे में कुछ जानना चाहा। अनाड़ी जो ठहरा। वे कुछ उदाहरण देकर मुझे समझा रहे थे। मेरे जैसा चेला पाकर वे उत्साहित भी लग रहे थे। तभी एक गजब हो गया…
उन्होंने कहा कि ये चार लाइनें सुनो…। यह गवर्नमेण्ट की पॉलिसी के खिलाफ़ है इसलिए मैने इसे कहीं साया (प्रकाशित) नहीं कराया है। लेकिन यह एक वजनदार बात है। उम्मीद है तुम्हें पसन्द आएगी।
उनकी ये चार लाइनें सुनने के बाद मैने सिर पकड़ लिया। मन में बेचैनी होने लगी कि नाहक इन्हें उस्ताद बनाने को सोच रहा था। कोफ़्त इतनी बढ़ गयी कि वार्ता बन्द करके उठ गया… इतना निकल ही गया कि सर! यह तो पब्लिक पॉलिसी और नेशनल पॉलिसी के भी खिलाफ़ है…।
अच्छा हुआ ये कहीं प्रकाशित नहीं हुआ। लेकिन उनके मन की खिड़की में झाँककर जो देख लिया उससे आपको परिचित जरूर कराना चाहूंगा। पता नहीं यह नैतिक है या नहीं लेकिन जिस सोच से मैं परिचित हुआ वो चिन्तित करने वाली जरूर है…
उन्होंने फ़रमाया…
तामीरे तनो-जान न रोको लोगों
ये नस्ले परीशान न रोको लोगों
शायद कोई इन्सान निकल ही आये
पैदाइशे इन्सान न रोको लोगों
(तामीरे तनो जान= शरीर और प्राण का निर्माण)
अचानक हुए इस मानसिक आघात् से मैं हतप्रभ होकर अपने बॉस के कमरे में चला गया। वो बहुत व्यस्त थे। अपनी पीड़ा बताने के अवसर की प्रतीक्षा में मैने सामने पड़े कागज के टुकड़े पर ये चार लाइनें भी लिख डाली…
हो रहा मुल्ला परेशान न रोको लोगों
देश बन जाये पाकिस्तान न रोको लोगों
दिवाला निकले देश का कि मुसीबत आये
निकल जो आये तालिबान न रोको लोगों
आप इस बारे में क्या सोचते हैं? क्या यह हकीकत चोट पहुँचाने वाली नहीं है? आप इसमें कुछ जोड़ना चाहेंगे क्या?
(सिद्धार्थ)
अप्रैल 25, 2009 @ 20:38:00
अब इतनी किताबें ठेल रखी हैं इन क्लीन-शेव्ड जी ने तो समझदारी की बात ही कर रहे होंगे। बाकी ग़ज़ल, नज़्म और रुबाई आदि में हमारा हाथ बहुत तंग है। अत: क्या कमेण्टें! 🙂
अप्रैल 25, 2009 @ 20:47:00
इतनी कूबत नहीं मुझमें कि करूं मैं शायरी इनके टक्कर में । सिद्धार्थ जी कभी कभी उर्दू के अखबारों को पढ कर ऐसा लगता है कि एक बहुत बड़ा वर्ग जो अपने आप को बुद्धिजीवी लगाता है, वो देश की धारा से एकदम विपरीत बहा जा रहा है । ऐसा क्यंू है ? ऐसा नहीं लगता कि हमने उन्हें अपनी हालत पर छोड़ दिया है और वो हमारी हालत पर तरस खाते रहते हैं । देश का एक बहुत बडा हिस्सा देश से कटकर क्यूं जी रहा है ? ऐसा लगता है कि अभी भी हम अपरिचित हैं एक दूसरे से और इस भारत देश के अंदर न जाने कितने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान सांस ले रहे हैं ।
अप्रैल 25, 2009 @ 20:53:00
ज्ञान जी से सहमत हूँ ..क्या कमेंटियाएं ..चलते हैं 🙂
अप्रैल 25, 2009 @ 22:02:00
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : आपकी चिठ्ठा : मेरी चिठ्ठी चर्चा में
अप्रैल 25, 2009 @ 22:37:00
गोया सही शब्द “शाया” है न कि साया
अप्रैल 25, 2009 @ 22:53:00
इंसान बुरा नही होता, उसके सोचने और समझने का तरीका बुरा होता है। हिन्दु मुस्लिम एक साथ सैकड़ो सालो से रहे है किन्तु कुछ असमाजिक तत्वो इसे बिगाड़ते है। मस्जिते और जगह भी बन सकती थी जरूरी नही थी कि मथुरा-अयोध्या-काशी से सटा कर ही बनाई जाती है। यह कुछ मुस्लिमो के दकियानुसी सोच का परिणाम रहा होगा, जिसका परिणाम आज तक देखने को मिल रहा है।
अप्रैल 26, 2009 @ 01:12:00
तामीरे तनो-जान न रोको लोगोंये नस्ले परीशान न रोको लोगोंशायद कोई इन्सान निकल ही आयेपैदाइशे इन्सान न रोको लोगोंबहुत ख़ूबसूरत….
अप्रैल 26, 2009 @ 01:15:00
😦
अप्रैल 26, 2009 @ 09:43:00
आप वाली सटीक है -जनाबे आली यही कहना चाह रहे थे ! अपने फरिया दिया ! और आदर दीजिये ! कब तक हम ऐसे लोगों को झेलते रहेगें ?
अप्रैल 26, 2009 @ 12:54:00
बहुत ख़ूबसूरत
अप्रैल 26, 2009 @ 17:50:00
सहमत !
अप्रैल 26, 2009 @ 20:37:00
रवीन्द्रनाथ ठाकुर 14 वीं संतान थे और मुमताज़, वही शाहजहाँ की तमाम बीवियों में एक, दहाई अंक की संख्या वृद्धि करने के दौरान ही मर गई.ये दोनों तथ्य आज के समय में जितने अप्रासंगिक हो सकते हैँ , उतने ही ये मुल्ला हैँ. छठी सदी में जी रहे ये कुन्द लोग धरा के भार हैं. इतना जनने में नारी का क्या हाल होता है, उससे इन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता. नारी तो इनके लिए बस प्रमोद का एक साधन है.ये उर्दू का सम्मोहन हटाओ अपने उर से भाई. कठमुल्लोँ के चंगुल में फ़ँसी यह भाषा कराह रही है. वैसे भी ज़बर्दस्ती परसियन और अरेबिक स्क्रिप्ट में जकड़ कर इसका अलग अस्तित्त्व बनाए रखा गया है. नहीँ तो उर्दू हिन्दी में फ़र्क ही कितना है.
अप्रैल 26, 2009 @ 20:46:00
ज्ञान जी ने सही कहा है .सहमत .
अप्रैल 28, 2009 @ 15:05:00
मन में आये कभी उफान न रोको लोगों कोई सोये जो चादर तान न रोको लोगों करें पैदा वो चाहे या उतारे आसमानों से रहे धरती अगर हलकान मत रोको लोगों