यह दुनिया भी ग़जब निराली है। इसमें रहने वाले लोग अपनी सामाजिक प्रास्थिति में अपने व्यवहार को किसी न किसी आचार संहिता से निर्देशित करते हैं। सबका अपना वैल्यू सिस्टम है जो व्यक्ति के अनुवांशिक लक्षण, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा के स्तर, सामाजिक स्वरूप और इतिहास बोध से निर्धारित होता है। लेकिन ऐसा देखने में आया है कि प्रायः सबने इस आचरण नियमावली के दो संस्करण बना रखे हैं। एक अपने लिए और दूसरा दूसरों के लिए। एक ही सिचुएशन में जैसा व्यवहार वे स्वयं करते हैं वहीं दूसरों से बिल्कुल भिन्न व्यवहार की अपेक्षा करते हैं।

imageकुछ ऐसा व्यवहार इन बातों में झलकता है, “मेरे घर आओगे तो क्या लाओगे?”“मैं तुम्हारे घर आऊंगा तो क्या दोगे?”

हमें अपने आस-पास ऐसे लोग सहज ही मिल जाएंगे जो किसी भी मुद्दे पर अपनी सिनिकल राय रखने से बाज नहीं आते। मुहल्ले का कोई लड़का परीक्षा में फेल हो गया तो तुरन्त उसकी ‘आवारगी’ के किस्से सुना डालेंगे, किसी लड़की को बाइक चलाते या ब्वॉयफ्रेण्ड के साथ देख लिए तो उसकी बदचलनी का आँखों देखा हाल बयान कर देंगे। इतना ही नहीं, यदि किसी ने यूनिवर्सिटी भी टॉप कर लिया तो कहेंगे प्रोफ़ेसर से अच्छी सेटिंग हुई होगी। लोक सेवा आयोग से चयनित भी हो गया तो इण्टरव्यू में जुगाड़ और घूसखोरी तक की रिपोर्ट पेश कर देंगे।

लेकिन यही सब यदि उनके परिवार के बच्चों ने किया हो तो फेल होने का कारण ऐन वक्त पर तबियत खराब होना या ‘हार्ड-लक’ ही होगा, लड़का फिर भी बड़ा मेहनती और जहीन ही कहा जाएगा, लड़की पढ़ी-लिखी, आधुनिक और प्रगतिशील कही जाएगी, टॉपर लड़के की उत्कृष्ट छवि तो लोगों को बुला-बुलाकर बतायी ही जाएगी, कमीशन भी उच्च आदर्शों का प्रतिरूप हो जाएगा जहाँ प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों को पहचानने की अद्‌भुत प्रणाली विकसित हो गयी हो।

image मनुष्य की इस दोरुखी प्रवृत्ति का कारण समझने की कोशिश करता हूँ तो सिर्फ़ इतना जान पाता हूँ कि यथार्थ और आदर्श का अन्तर अत्यन्त स्वाभाविक है और इसे बदला नहीं जा सकता। अच्छी मूल्यपरक नैतिक शिक्षा और सत्‍संगति से इस अन्तर में थोड़ी कमी लाई जा सकती है।

मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि किसी कार्य की सफलता या असफलता के पीछे जो वाह्य और आन्तरिक कारक होते हैं उनकी व्याख्या व्यक्ति अपनी सुविधानुसार ही करता है। अपनी सफलता का श्रेय वह अपने आन्तरिक कारकों को देता है और असफलता का ठीकरा वाह्य कारकों पर फोड़ता है। लेकिन दूसरे व्यक्ति की समीक्षा के समय यह पैमाना उलट जाता है; अर्थात्‌ दूसरों की सफलता उनके वाह्य कारकों की वजह से और असफलता उनके आन्तरिक कारणों से मिलती हुई बतायी जाती है। इस मनोवृत्ति का सटीक उदाहरण समाचार चैनेलों के स्टूडियो में चुनाव परिणामों पर पार्टी नेताओं की बहस सुनते समय मिलती है।

लेकिन यह मनोवृत्ति चाहे जितनी स्वाभाविक और प्राकृतिक हो, इसे अच्छा नहीं कहा जा सकता। यह सोच एक शिष्ट और सभ्य समाज के सदस्य के रूप में हमें सच्चा नहीं बनाती। यह सत्यनिष्ठा और शुचिता के विपरीत आचरण ही माना जाएगा। जिनका मन सच्चा और आत्मा पवित्र होगी वे ऐसी विचित्र सोच को अपने विचार और व्यवहार में स्थान नहीं देंगे। हमारे वैदिक ऋषि, सन्त महात्मा, और सार्वकालिक महापुरुष इसीलिए महान कहलाए क्योंकि उन्होंने अपने व्यवहार में इस प्रवृत्ति को पनपने नहीं दिया। उन्होंने केवल उसी एक आचार संहिता का पालन किया जिसकी अपेक्षा उन्होंने दूसरों से भी की। विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धान्तों के साथ समझौता नहीं किया।

अस्तु, हमें सोचना चाहिए कि अपने व्यवहार को सच्चाई के करीब रखने के लिए और अपने विचार में शुचिता लाने के लिए हमें दुनिया के प्रति क्या धारणा बनानी चाहिए। अपनी सामाजिक भूमिका के लिए क्या पॉलिसी बनानी चाहिए।

केन्ट एम. कीथ ने इसकी जाँच के लिए एक दिग्दर्शक यन्त्र बनाया है। मेरा मानना है कि यदि उनके जाँच यन्त्र से हम जितना ही तादात्म्य बिठा सकें हम सच्चाई और सत्यनिष्ठा के उतने ही नजदीक पहुँचते जाएंगे। आइए देखें क्या है यह परीक्षण:

INTEGRITY TEST:

  • लोगों को मदद की जरूरत होती तो है लेकिन यदि आप मदद करने जाय तो वे आपके प्रति बुरा बर्ताव कर सकते हैं। फिर भी आप मदद करते रहें।
  • यदि आप किसी की भलाई करने जाते हैं तो लोग इसमें आपकी स्वार्थपरता का आरोप लगा सकते हैं। फिर भी आप भलाई करते रहें।
  • आप आज जो नेक काम कर रहे हैं वह कल भुला दिया जाएगा। फिर भी आप नेकी करते रहें।
  • यदि आप सफलता अर्जित करते हैं तो आपको नकली दोस्त और असली दुश्मन मिलते रहेंगे। फिर भी सफलता प्राप्त करते रहें।
  • ईमानदारी और स्पष्टवादिता आपको संकट में डाल देती है। फिर भी आप ईमानदार और स्पष्टवादी बने रहें।
  • आप यदि दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ अर्पित कर दें तो भी आपको घोर निराशा  हाथ लग सकती है। फिर भी अपना सर्वश्रेष्ठ अर्पित करते रहें।

इस जाँच यन्त्र का मूल अंग्रेजी पाठ यदि पढ़ना चाहें तो यहाँ मिल जाएगा।

मुझे लगता है कि हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए यह बताने वाली एक आवाज हमारे भीतर ही उठती रहती है। लेकिन पता नहीं क्यों हम इस आवाज को अनसुना करते रहते है। प्रकृति ने हमें सच्चाई की परख करने के लिए एक आन्तरिक दृ्ष्टि दे रखी है लेकिन हम इस दृष्टि का प्रयोग नहीं कर पाते। काम, क्रोध, मद और लोभ हमारे व्यवहार को दिशा देने में अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। ये चारो हमारे विवेक को भ्रष्ट कर देते हैं।

अरे, यह पोस्ट तो घँणी उपदेशात्मक होती जा रही है। अब पटाक्षेप करता हूँ। यहाँ तक पढ़ने वालों का धन्यवाद।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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