भारतीय सनातन परम्परा में किसी भी मांगलिक कार्य का प्रारम्भ भगवान गणपति के पूजन से एवं उस कार्य की पूर्णता भगवान सत्यनारायण की कथा के श्रवण से समझी जाती है। स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड से इस कथा का प्रचलित रूप लिया गया है। लेकिन भविष्यपुराण के प्रतिसर्ग पर्व में इस कथा को विशेष रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
इस कथा में कुल पाँच प्रसंग बताये जाते हैं:
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शतानन्द ब्राह्मण की कथा
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राजा चन्द्रचूड का आख्यान
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लकड़हारों की कथा
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साधु वणिक् एवं जामाता की कथा
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लीलावती और कलावती की कथा
इन पाँचो प्रसंगों में कहानी का सार यही है कि सत्यनारायण व्रत-कथा के ‘श्रवण’ से मनुष्य की सभी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं और जीवन की सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है।
नाना प्रकार की चिन्ताओं और न्यूनताओं में डूबता उतराता मनुष्य यदि अपनी सभी समस्याओं के इतने सरल समाधान का वादा किसी धार्मिक पुस्तक के माध्यम से पाता है तो गारण्टी न होने पर भी उसे आजमा लेने को सहज ही उद्यत हो जाता है।
एक कथावाचक पुरोहित को बुलाकर एक-दो घण्टे हाथ जोड़े बैठने और कुछ सौ रुपये दक्षिणा और प्रसाद पर खर्च कर देने से यदि सांसारिक कष्टों को मिटाने में थोड़ी भी सम्भावना बन जाय तो ऐसा कौन नहीं करेगा। धार्मिक अनुष्ठान करने से सोसायटी में भी आदर तो मिलता ही है। इसीलिए इस कथा का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है।
लेकिन हमारे ऋषियों ने सत्यनारायण भगवान की ‘कथा सुनने’ के बजाय इसमें निरूपित मूल सत् तत्व परमात्मा की अराधना और पूजा पर जोर दिया था। गीता में स्पष्ट किया गया है कि ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ अर्थात् इस महामय दुःखद संसार की वास्तविक सत्ता ही नहीं है। परमेश्वर ही त्रिकाल अबाधित सत्य है और एक मात्र वही ज्ञेय, ध्येय एवं उपास्य है। ज्ञान-वैराग्य और अनन्य भक्ति के द्वारा वही साक्षात्कार करने के योग्य है।
सत्यव्रत और सत्यनारायणव्रत का तात्पर्य उन शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करना ही है। संसार में मनीषियों द्वारा सत्य-तत्व की खोज की बात निर्दिष्ट है जिसे प्राप्तकर मनुष्य सर्वथा कृतार्थ हो जाता है और सभी आराधनाएं उसी में पर्यवसित होती हैं। निष्काम उपासना से सत्यस्वरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है।
प्रतिसर्ग पर्व के २४वें अध्याय में भगवान सत्यनारायण के व्रत को देवर्षि नारद और भगवान विष्णु के बीच संवाद के माध्यम से कलियुग में मृत्युलोक के प्राणियों के अनेकानेक क्लेश-तापों से दुःखी जीवन के उद्धार और उनके कल्याण का श्रेष्ठ एवं सुगम उपाय बताया गया है। भगवान् नारायण सतयुग और त्रेतायुग में विष्णुस्वरूप में फल प्रदान करते हैं और द्वापर में अनेक रूप धारण कर फल देते हैं। परन्तु कलियुग में सर्वव्यापक भगवान प्रत्यक्ष फल देते हैं
धर्म के चार पाद हैं- सत्य, शौच, तप और दान। इसमें सत्य ही प्रधान धर्म है। सत्य पर ही लोक का व्यवहार टिका है और सत्य में ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है, इसीलिए सत्यस्वरूप भगवान् सत्यनारायण का व्रत परम श्रेष्ठ कहा गया है।
लेकिन दुर्भाग्य से धर्म के ठेकेदारों ने सत्य के बजाय धर्म का स्वरूप उल्टे क्रम में दान, तप और शौच के भौतिक रूपों में रूपायित करने की परम्परा को स्थापित किया और वह भी इस रीति से कि उनके लाभ की स्थिति बनी रहे। दान के नाम पर पुरोहित और पण्डा समाज की झोली भरना, तप के नाम पर एक दो दिन भूखा रहना, कर्मकाण्डों में लिप्त रहना और पुरोहित वर्ग को भोजन कराना, और शौच के नाम पर छुआछूत की बेतुकी रूढ़ियाँ पैदाकर शुद्धिकरण के नाम पर ठगी करना। इन पाखण्डों के महाजाल में सत्यनारायण की आराधना भला कैसे अक्षुण्ण रह पाती।
मन, कर्म और वचन से सत्यधर्म का पालन करना अत्यन्त कठिन है इसलिए यजमान को भी इसी में सुभीता है कि पण्डितजी जैसे कहें वैसे करते रहा जाय। उसका पाप-पुण्य भी उन्हीं के माथे जाए। धार्मिक कहलाने का इससे सस्ता और सुगम रास्ता क्या हो सकता है?
इसी सोच का परिणाम यह हुआ कि सत्यनारायण व्रत से पूजा और आराधना का तत्व लुप्त हो गया, सत्य के प्रति आस्था विलीन हो गयी और कथा बाँचने और सुनने का अभिनय प्रधान हो गया। मैने ऐसे कथा-कार्यक्रम में पण्डितजी को अस्फुट ध्वनि में अशुद्ध और अपूर्ण श्लोकों वाली संस्कृत पढ़ते और हाथ जोड़े यजमान को ऊँघते, घर-परिवार के लोगों से बात करते या बीच-बीच में कथा सुनने आए मेहमानों का अभिवादन करते देखा है। प्रायः सभी उपस्थित जन इस प्रतीक्षा में समय बिता रहे होते हैं कि कब कथा समाप्त हो और प्रसाद ग्रहण करके चला जाय।
कहीं कहीं इस कथा का हिन्दी अनुवाद भी पढ़कर बताया जाता है। लेकिन वहाँ भी जो कथा सुनायी जाती है उसमें उपरोक्त प्रसंगों के माध्यम से उदाहरण सहित यही समझाया जाता है कि कथा सुनने से निर्धन व्यक्ति धनाढ्य और पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान हो जाता है। राज्यच्युत व्यक्ति राज्य प्राप्त कर लेता है, दृष्टिहीन व्यक्ति दृष्टिसम्पन्न हो जाता है, बन्दी बन्धन मुक्त हो जाता है और भयार्त व्यक्ति निर्भय हो जाता है। अधिक क्या? व्यक्ति जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है वह सब प्राप्त हो जाती है। यह भी कि जो व्यक्ति इस कथा का अनादर करता है उसके ऊपर घोर विपत्ति और दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। सत्यनारायण भगवान उसे शाप दे देते हैं… आदि-आदि।
कलियुग में मनुष्य का मन भौतिकता में इतना खो जाता है कि सत्य की न्यूनतम शर्त भी नहीं निभा पाता। मोक्ष की प्राप्ति के लिए सतयुग, द्वापर और त्रेता में जहाँ कठिन तपस्या और यज्ञ अनुष्ठान करने पड़ते वहीं कलियुग में शुद्ध मन से भगवान का नाम स्मरण ही कल्याणकारी फल देता है:
नहिं कलि करम न भगति विवेकू। राम नाम अवलम्बन एकू॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥
लेकिन यह छोटी शर्त भी इतनी आसान नहीं है हम कलियुगी मनुष्यों के लिए। हमें तो काम, क्रोध, मद और लोभ ने इस प्रकार ग्रसित कर रखा है कि सत्य न दिखायी पड़ता है, न सुनायी पड़ता है और न वाणी से निकल पाता है। दुनियादारी के नाम पर हम सत्य से बँचने को ही समझदारी और चालाकी मान बैठते हैं।
इसलिए जिस व्रतकथा का माहात्म्य हम बारम्बार सुनते हैं वह कोई कहानी नहीं बल्कि सत्य के मूर्त-अमूर्त स्वरूप में अखण्ड विश्वास और अटल आस्था रखने तथा मन वचन व कर्म से सत्य पर अवलम्बित जीवनशैली और व्यवहार अपनाने से है। ‘सत्य में आस्था’ की अवधारणा का प्रचार हमारे कथावाचकों के हित में नहीं रहा इसलिए हम ‘कथा की कथा’ ही सुनते आए हैं। अस्तु।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
तनु श्री
जुलाई 07, 2009 @ 22:25:04
yhee ktha achhee hai .
डॉ. मनोज मिश्र
जुलाई 07, 2009 @ 22:48:06
नहिं कलि करम न भगति विवेकू। राम नाम अवलम्बन एकू॥ राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥लेकिन यह छोटी शर्त भी इतनी आसान नहीं है हम कलियुगी मनुष्यों के लिए। हमें तो काम, क्रोध, मद और लोभ ने इस प्रकार ग्रसित कर रखा है कि सत्य न दिखायी पड़ता है, न सुनायी पड़ता है और न वाणी से निकल पाता है। दुनियादारी के नाम पर हम सत्य से बँचने को ही समझदारी और चालाकी मान बैठते हैं। यह तो एक छोटा सा नमूना है ,पूरी पोस्ट ही है जानदार.कितना अच्छा प्रकाश डाला है त्रिपाठी जी आपने ,मेरा दिल खुश हो गया .आज की पोस्ट की जितनी तारीफ मैं करूं कम है .बहुत -बहुत बधाई.
राज भाटिय़ा
जुलाई 07, 2009 @ 22:55:38
आप ने बहुत सुंदर बात बताई, आप की इस बात से सहमत हुं… लेकिन दुर्भाग्य से धर्म के ठेकेदारों ने सत्य के बजाय धर्म का स्वरूप उल्टे क्रम में दान, तप और शौच के भौतिक रूपों में रूपायित करने की परम्परा को ….धन्यवाद
शरद कोकास
जुलाई 08, 2009 @ 00:07:30
व्यर्थ का विवाद क्यों आज तो यह कथा टाईम पास के लिये होती है वैसे यह बताये किस स्कन्द पुराण मे यह कथा मूल रूप मे है ? बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे के इस कथा सम्बन्धी विचार क्या आपने पढे है ?
venus kesari
जुलाई 08, 2009 @ 01:13:29
कुछ दिन पहले हविवंश राय बच्चन जी की आत्मकथा पढी थी उन्होंने जो लिखा वो दिल को छु गया वही आज कमेन्ट कर रहा हूँ शब्दों में हेर फेर सम्भव है बाव वही हैं " जब मैं सत्य नारायण की कथा सुनने बैठा तो मुझे लगा की ये सत्य नारायण भी कितना क्रूर देवता है यदि इसका प्रसाद न लो तो कुपित हो जाया है, अगर कथा की मनौती मान कर देर कर तो तो कष्टों का पहाड़ तोड़ देता है सत्य भी तो यही करता है ये तो मेरा सत्य है जिसकी मैं पूजा कर रहा हूँ लोग अक्सर नाम के आगे नारायण जोड़ डेट हैं जैसे राम नारायण शिव नारायण से सत्य नारायण भी वास्तव में सत्य ही है नारायन तो केवल आगे जोड़ दिया गया है और सत्य तो हमेशा ही कष्टप्रद रहा है, आपकी जय हो सत्य, जय हो "वीनस केसरी
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
जुलाई 08, 2009 @ 01:54:42
सत्यनारायण कथा के बारे में संस्कृत अध्यापक ने मुझे यह बताया था कि यह संस्कृत व्याकरण सीखने के लिए बहुत मुफीद है।
हिमांशु । Himanshu
जुलाई 08, 2009 @ 06:28:37
आपने सही कहा इस कथा का स्वरूप और इसकी अवधारणा दोनों ही परिवर्तित हो चुके हैं । इधर भी दृष्टि डाल लें – सच्चा शरणम्: ले प्रसाद जय बोल सत्यनारायण स्वामी की
Arvind Mishra
जुलाई 08, 2009 @ 07:05:59
लगता है अब बापुओं के दिन लद गए अब एक नए कथावाचक के रूप में श्री २००९ सिद्धार्थानद जी अवतरित हो रहे हैं -प्रणाम गुरुवर ! अर्थ न धर्म न काम रूचि गति न चहऊन निर्वाण जनम जनम रति राम पद यह वर्दानऊ आन कहाँ है कर्मकांडों की जरूरत ?
Udan Tashtari
जुलाई 08, 2009 @ 07:24:45
बिल्कुल सही कह रहे हैं. सबने अपने हिसाब से इसे एडजस्ट कर लिया है.
संगीता पुरी
जुलाई 08, 2009 @ 09:35:58
परसों ही घर में सत्य नारायण भगवान का पूजन करवाया .. पर हिन्दी में कथा सुनने की हिम्मत न हुई .. गलतियों का इतना बुरा परिणाम जो बताया गया है .. अनजान सदा कल्याण .. सबको माफ करने वाले ईश्वर इतना क्रूर कैसे हो सकते है .. यह वास्तव में सोंचनेवाला मुद्दा है .. कर्मकांड का बिल्कुल वैज्ञानिक विश्लेषण किया आपने .. बहुत अच्छा आलेख !!
महामंत्री - तस्लीम
जुलाई 08, 2009 @ 14:40:05
गजब की बात बताई आपने।-Zakir Ali ‘Rajnish’ { Secretary-TSALIIM & SBAI }
अभिषेक ओझा
जुलाई 08, 2009 @ 15:17:29
इस कथा के बाद प्रसाद वितरण तो किया नहीं आपने 🙂
ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey
जुलाई 08, 2009 @ 16:08:19
1. शतानन्द ब्राह्मण की कथा 2. राजा चन्द्रचूड का आख्यान 3. लकड़हारों की कथा 4. साधु वणिक् एवं जामाता की कथा 5. लीलावती और कलावती की कथा—————यानी आगे पांच पोस्ट बनाने का मसाला बनता है! (वैसे ईश्वरीय न्याय इतना कट-पेस्टिया न्याय होता नहीं; अब तक की जिन्दगी ने यह समझा दिया है!)
cmpershad
जुलाई 08, 2009 @ 17:20:56
बोलो सत्यदेव भगवान की जय!!!!!!
Shiv Kumar Mishra
जुलाई 08, 2009 @ 18:51:26
सत्य ही आधार है हर धर्म का. अब यह स्थिति पलट गई है. अब तो धर्म ही आधार बना दिया गया है हर सत्य का. अब धर्म को आधार बनाते हुए हम सत्य कहीं भी पहुंचा सकते हैं.हाँ, बचपन में सत्यनारायण भगवान की कथा सुनते हुए जब-जब श्लोक आता था कि; "एकदा नारदो जोगी…"हम तड़ाक से बोलते; "एकदा नारदो जोगी, पहिने कुरता दिहे टोपी…" और खूब हंसते.
नीरज गोस्वामी
जुलाई 08, 2009 @ 19:17:20
हम लोग कथा सुनने हैं गुनते नहीं…जब गुनना ही नहीं हो तो फिर कोई सी भी कथा हो क्या फर्क पड़ता है…बहुत ज्ञान वर्धक पोस्ट…नीरज
कुश
जुलाई 09, 2009 @ 09:54:38
अपने अपने हिसाब से सब एडजस्ट कर हि लेते है
balman
जुलाई 09, 2009 @ 12:31:32
mujhe to satyanarayan katha se sirf apne dhelar pandit ji yad aate hai. jinka kalavati kanya ka varnan kafi der tak gudgudata rahata hai.
Hari Shanker Rarhi
जुलाई 09, 2009 @ 23:08:29
आदरणीय त्रिपाठी जी, इयत्ता पर मेरी ‘श्रद्धांजलि’ के समर्थन में आप आये। इस बहाने आपसे परिचय हुआ। आपका ब्लाग अच्छा लगा। आता रहूंगा और मिलता रहूंगा।हरिशंकर राढी
K M Mishra
जुलाई 09, 2009 @ 23:51:55
Bolo Shri Satya Narain Bhagwan ki Jai.
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
जुलाई 10, 2009 @ 07:06:52
नज़र अपनी अपनी, ख़याल अपना अपनासवाल एक ही है जवाब अपना अपना!
Dev
जुलाई 14, 2009 @ 13:36:31
Aap ka blog bahut achchha laga… aur es blog me gav ki mitti ki khushboo bhi hai aur sahar ka darshan bhi…Really very loveable blog…aur bahut knowladgeble…Regards
इष्ट देव सांकृत्यायन
जुलाई 14, 2009 @ 17:32:24
अति उत्तम! इसका सही स्वरूप तो वही है. इस अच्छे विश्लेषण के लिए साधुवाद.
Harshkant tripathi
जुलाई 17, 2009 @ 20:00:40
aji maine to abhi pichhle dino ye katha hindi me padhi. waise to katha kai bar suni hai lekin isme jin patron ko lekar katha likhi gai hai unke bare me ya fir unka nam tak na suna tha . aaj kal to jugad tech. ka jamana hai , satynarayan bhgwan se anurodh hai ki koi jugad karen aur aapko jyada se jyada samay dila den taki hamare liye nai nai posten milti rahen,,,,,