हरितालिका तीज का व्रत अभी अभी सम्पन्न हुआ। एक दिन पहले पत्नी के साथ कटरा बाजार में जाकर व्रत सम्बन्धी खरीदारी करा लाया। वहाँ अपने उत्सवप्रधान समाज की छटा देखते ही बनती थी। दान के लिए चूड़ी, आलता, बिन्दी, सिन्दूर, साबुन, तेल, कंघी, शीशा, चोटी, रिबन, आदि सामग्रियों की मौसमी दुकानें ठेले पर सज गयी थीं। प्रायः सभी सुहागिनें इन सामानों के रेडीमेड पैकेट्स खरीद रहीं थीं, लेकिन निजी प्रयोग के लिए वही साजो-सामान ऊपर सजी पक्की दुकानों से पसन्द किये जा रहे थे। सभी ‘रेन्ज’ की दुकानें और सामान, और उतने ही रेन्ज के खरीदार भारी भीड़ के बीच एक दूसरे से कन्धा घिस रहे थे।
मैने भी यथासामर्थ्य अपनी धर्मपत्नी को फल, फूल, बिछुआ, पायल, और श्रृंगार व पूजा की सामग्री खरीद कराया। साथ में सड़क की पटरी पर बिक रही हरितालिका व्रत कथा की किताब भी दस रूपये में खरीद लिया। मेरा अनुमान है कि यह पुस्तक लगभग सभी घरों के लिए खरीदी गयी होगी।
तीज के दिन भोर में साढ़े तीन बजे अलार्म की सहायता से जगकर पत्नी को व्रत के लिए तैयार होता देखता रहा। चार बजे आखिरी चाय की चुस्की लेकर इनका उपवास शुरू हुआ। व्रत की पूजा का मूहूर्त प्रातः साढ़े नौ बजे से पहले ही था। इसीलिए स्नान ध्यान और पूजा का क्रम जल्दी ही प्रारम्भ हो गया था। आमतौर पर इस दिन की पूजा का क्रम शनैः-शनैः आगे बढ़ता है, ताकि मन उसी में रमा रहे और भूख को भूलाए रहे। किन्तु इस बार शुभ-मुहूर्त ने थोड़ी कठिनाई पैदा कर दी।
शिव मन्दिर में जाकर शिवलिंग और पार्वती जी का पूजन-अभिषेक व घर में वेदिका बनाकर विशेष पूजन करते समय किताब में बतायी गयी पूजन विधि का अक्षरशः पालन करने का प्रयास जारी रहा। इस व्रत में उपवास के साथ व्रत की कथा सुनना भी अनिवार्य बताया गया था। घर से दूर अकेले रहने के कारण बड़े-बुजुर्ग या पण्डीजी की भूमिका मुझे ही निभानी पड़ी। धर्मपत्नी ने हाथ मे फूल अक्षत् लेकर आसन जमाया और मेरे हाथ में पोथी थमा दिया।
व्रत की कथा माँ पार्वती और भगवान शंकर के बीच वार्ता के रूप में प्रस्तुत की गयी है। शिव जी अपनी धर्मपत्नी को उन्हीं की कहानी बता रहे हैं कि उन्होंने कैसे कठिन तपस्या करके शिव जी को वर के रूप में प्राप्त किया। अपने पिता द्वारा विष्णु के साथ उनके विवाह का निर्णय लिए जाने पर कैसे उन्होंने विरोध स्वरूप अपनी सखी (आली) के साथ स्वयं का हरण कराया और घने जंगल में जाकर घोर तपस्या करते हुए शिव जी को प्रसन्न किया, वर पाया और अन्ततः अपने पिता को शिव जी के वरण के लिए राजी किया। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को अपनी तपस्या का फल प्राप्त कर चुकी पार्वती जी ने शिवजी से ‘इस व्रत का माहात्म्य पूछा’। (शायद पाठकों और भक्तगणों को सुनाने के लिए उन्होंने ऐसा पुनरावलोकन किया होगा…!)
शिव जी बोले- हे देवि! सभी सुहागिनों को चाहिए कि ‘इन मन्त्रों तथा प्रार्थनाओं के द्वारा मेरे साथ तुम्हारी पूजा करे, तदनन्तर विधिपूर्वक कथा सुने और ब्राह्मण को वस्त्र, गौ, सुवर्ण, आदि प्रदान करे। इस तरह जो स्त्री अपने पति के साथ भक्तियुक्त चित्त से इस सर्वश्रेष्ठ व्रत को सुनती तथा करती है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, और उसे सात जन्म तक सुख तथा सौभाग्य की प्राप्ति होती है। लेकिन जो स्त्री तृतीया तिथि को व्रत न कर अन्न भक्षण करती है, वह सात जन्म तक वन्ध्या रहती है, और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है। वह सदा दरिद्री, पुत्र-शोक से शोकाकुल, कर्कशा स्वभाव की लड़की सदा दुख भोगने वाली होती है। उपवास न करने वाली स्त्री अन्त में घोर नरक में जाती है।’
‘तीज के दिन अन्न खाने से शूकरी, फल खाने से बन्दरिया, पानी पीने से जोंक, दूध पीने से नागिन, मांसाहार करने से बाघिन, दही खाने से बिल्ली, मिठाई खाने से चींटी, और अन्य वस्तुओं को खाने से मक्षिका (मक्खी) के जन्म में आती है। उस दिन सोने से अजगरी और पति को ठगने से कुक्कुटी (मुर्गी) होती है।’
इस कथा का यह अन्तिम भाग पढ़ते-पढ़ते मेरा धैर्य जवाब दे गया। मन की आस्था दरकने लगी। घर-घर में निर्जला उपवास कर रही धर्मभीरु गृहिणियों को इस व्रत के लिए तैयार करने तथा दान-पुण्य की ओर प्रवृत्त करने के ऐसे हथकण्डे को देखकर पहले तो थोड़ी हँसी आयी, लेकिन जब इस बकवास को लिखने और बेचने वाले धूर्त और पाखण्डी लोगों की ऐसी करतूत से हमारे समाज को होने वाली हानि की ओर ध्यान गया तो मन रोष से भर गया।
कथा पढ़ने के बाद कल से लेकर आजतक इसके बारे में सोचता रहा। टीवी, इण्टरनेट और अखबारों में सुहागिन स्त्रियों के सजे-सँवरे सुन्दर और उत्साही चित्रों को देखता रहा, मेहदी रचे हाथों को सायास प्रदर्शित करती भाव-भंगिमा को निहारता रहा। उत्सव का ऐसा मनोरम माहौल है कि अपने मन में उमड़ते-घुमड़ते इस विचार को कोई आश्रय नहीं दे पा रहा हूँ। मन में यह खटक रहा है कि इस कठिन व्रत का जितनी पाबन्दी से ये स्त्रियाँ खुशी-खुशी पालन करती दीखती हैं उसके पीछे इस ‘भय तत्व’ का भी कुछ हाथ है क्या?
मैं हृदय से यह मानना चाहता हूँ कि यह सब पति-पत्नी के बीच एक नैसर्गिक प्रेम और विश्वास, पारस्परिक सहयोग व समर्थन तथा मन के भीतर निवास करने वाली श्रद्धा, भक्ति, पूजा और अर्चना की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण ही हो रहा होगा; लेकिन मन है कि बार-बार उस किताब में लिखी बातों में उलझ जा रहा है जो घर-घर पहुँच कर उसी श्रद्धा से बाँची और सुनी गयी होंगी।
इस उलझन से निकलने में कोई मेरी मदद तो करे…!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
अगस्त 24, 2009 @ 21:59:14
हरितालिक व्रत हमारे यहाँ नही रखा जाता है, पता चला कि कोई पुरानी मान्यता के कारण ऐसा होता है। मुझे याद है कि बचपन में कानपुर में इस दिन का बहुत इंतजार करता था, हमारे घर के बगल के शिव मंदिर में बहुत कुछ चड़ता था और हमारे खेलने के बहुत से सामान इक्कट्ठा हो जाता था। भय तत्व का तो पता नही यह तो पता है कि आस्था तत्व जरूर विद्यमान होता है।
अगस्त 24, 2009 @ 22:23:03
बड़े-बड़े समाज सुधारक आए और चले गए, कुछ पाखंडपूर्ण और आडम्बराच्छादित धार्मिक परम्पराओं से मुक्ति नहीं दिला सके. ऐसा क्या है इन मान्यताओं में जो आमजन इनसे विलग होना नहीं चाहते? या उनकी धर्मभीरुता का फ़ायदा उठाकर कुछ निज स्वार्थ अपना हित साधे हुए हैं?जो भी हो परिवर्तन आना ही चाहिये.वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होना चाहिये.
अगस्त 24, 2009 @ 22:36:49
पूरे दो दिन हैरान करने के बाद लगता है नेट इस टिप्पणी के लिए ही ठीक हुआ है।सत्यनारायण या उस जैसी कथाओं, स्मृतियों और पुराणों में भय पक्ष का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप मिलता है। उल्लेखनीय है कि वेदों और आरण्यकों में दूसरे के उपर अनिष्ट करने के विधान तो मिलते हैं लेकिन अनिष्ट की सम्भावना जता कर भयदोहन या शोषण के विधान नहीं मिलते। समाज जैसे जैसे विकसित हुआ, जटिलताएँ भी बढ़ती चलीं गईं। सबसे बड़ी जटिलता आई नारी पुरुष सम्बन्धों में। नारी घर के भीतर सिमटती चली गई। सम्पति बनती गई। जननी के उपर यौन शुचिता का बन्धन इतना कसा गया कि उसका स्वतंत्र अस्तित्त्व ही समाप्त हो गया। उसके मन को हमेशा भ्रमित रखने और शोषण को एक संस्था बनाने के लिए इस तरह के व्रतों के आविष्कार हुए।परम्परा से यह सब इतना रूढ़ हो चुका है कि आज आप अपनी पत्नी को यह सब बता कर भी अगर व्रत न रखने को कहिए तो सम्भवत: बात न मानी जाए। लेकिन धीरे धीरे ही सही परिवर्तन हो रहे हैं। अब 24 घंटे निर्जल व्रत बहुत कम महिलाएँ रखती हैं। स्वास्थ्य आदि कारणों से बंक भी मार देती हैं तो कोई बुरा नहीं मानता। धीरे धीरे शहरीकरण के प्रसार और नारी के स्वावलम्बी होने से यह सब स्वत: समाप्त हो जाएगा। कमजोर आधार पर बनी इमारत ढहेगी ही- देरी भले लगे। हाँ यदि यह सब अगर एकदम जुदा कोई स्वस्थ रूप ले ले तो बात और है।
अगस्त 24, 2009 @ 22:44:30
"ब्राह्मण को वस्त्र, गौ, सुवर्ण, आदि प्रदान करे। इस तरह जो स्त्री अपने पति के साथ भक्तियुक्त चित्त से इस सर्वश्रेष्ठ व्रत को सुनती तथा करती है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, और उसे सात जन्म तक सुख तथा सौभाग्य की प्राप्ति होती है। "जब ऐसे वक्यव्य पढ़ता हूं तो लगता है कि पुरुष अपनी भलाई, दीर्घ आयु, सुख-समृद्धि के लिए नारी का शोषण लुभावने तरीके से करता है:)
अगस्त 24, 2009 @ 22:50:31
🙂 भय तत्व की प्रधानता हमारे धार्मिक आयोजनों का एक प्रमुख तत्व है ..अभी कुछ दिनों पहले मैं माता मनशा की पूजा देखने गई थी (हमारे यहाँ भी तीज नही होता) उसमे भी यही धमकात्मक भाषा दोहराई गई की पूजा न करो तब ऐसा होगा ..मुझे हंसी भी आती है, गुस्सा भी ..पर हर कोई (खासकर महिलाएं ) इन सब के बारे में कोई टिका-टिप्पणी सुनना भी पाप कर्म से कम नही समझाता.
अगस्त 24, 2009 @ 23:27:57
अब आप की क्या उलझन सुलझायें..हम तो खुद ही इस उलझन में बरसों से टंगे हैं, सुलझती ही नहीं.
अगस्त 24, 2009 @ 23:50:43
अब 24 घंटे का व्रत रखने का माहौल ही नहीं रह गया है .. शुक्र है एक सप्ताह पहले बारिश हो गयी .. नहीं तो 40 डिग्री से उपर तापमान वाले स्थान में इतना कठिन व्रत .. पहले की बात कुछ और थी .. नदी तालाबों मे स्नान करने से शरीर में कुछ पानी पेश भी हुआ करता था .. नदियों में इतना पानी नहीं होता है अब .. छठ जैसे व्रत में भी महिलाओं को प्रचुर पानी नहीं मिल पाता .. भयवाला भाग तो अब हटा ही दिया जाना चाहिए धार्मिक पुस्तकों से !!
अगस्त 25, 2009 @ 00:38:13
हरतालिका तीज का हम भी कई सालो से करते है बचपन से जो बात दिमाग में बैठा दी जाती है धर्म का सहारा लेकर .या भय दिखाकर उसे निकलना मुश्किल हो जाता है |जब गाँव में पूजा होती तो पंडित इसी भाग को बडे रस लेकर सुनाते थे और देखा है पुरी कथा में भूखी पीसी महिलाये झपकी लेती थी कितु व्रत न करने पर क्या हश्र होगा बहुत ध्यान से सुनती थी |पहले महिलाये बहार नही जाती थी ,न ही कोई मनोरंजन के साधन थे तब ही ऐसी कथाओ का आविष्कार हुआ होगा |हर चीज को देवी देवताओ से जोड़कर और भय दिखाकर प्रचलन में लाया गया है और सिर्फ़ स्त्रियों के लिए |कितु आजकल भय के कारण नही, वरन सच्ची आस्था से भी कई उच् शिक्षित महिलाये इस व्रत को अपनी श्र्ध्हानुसार औरसहूलियत के हिसाब से करती है |महाराष्ट्र(विशेषकर मुंबई में ) में बरसो से साबूदाने की खिचडी खाकर और बिना जागरण किए इस व्रत को किया जाता है बिना भय के |क्योकि वहां कई सालो से कामकाजी महिलाये है और उन्होंने अपनी सुविधानुसार इसमे परिवर्तन कर लिया |अगर पुस्तक प्रकाशक ऐसी पुस्तको को संशोधित कर बाजार में लाये या छपना ही बंद कर दे तो शायद भय दूर हो जाए और आस्था से इस व्रत को पुरा करे |पर आज कल तो होड़ है प्रकाशन में और वैभव लक्ष्मी की व्रत कथा में तो येभी लिखा है की सिर्फ़ साहित्य संगम की पुस्तके जितनी ज्यादा बाँटेगे उतना फायदा मिलेगा व्रत करने वालो को |
अगस्त 25, 2009 @ 00:38:19
हरतालिका तीज का हम भी कई सालो से करते है बचपन से जो बात दिमाग में बैठा दी जाती है धर्म का सहारा लेकर .या भय दिखाकर उसे निकलना मुश्किल हो जाता है |जब गाँव में पूजा होती तो पंडित इसी भाग को बडे रस लेकर सुनाते थे और देखा है पुरी कथा में भूखी पीसी महिलाये झपकी लेती थी कितु व्रत न करने पर क्या हश्र होगा बहुत ध्यान से सुनती थी |पहले महिलाये बहार नही जाती थी ,न ही कोई मनोरंजन के साधन थे तब ही ऐसी कथाओ का आविष्कार हुआ होगा |हर चीज को देवी देवताओ से जोड़कर और भय दिखाकर प्रचलन में लाया गया है और सिर्फ़ स्त्रियों के लिए |कितु आजकल भय के कारण नही, वरन सच्ची आस्था से भी कई उच् शिक्षित महिलाये इस व्रत को अपनी श्र्ध्हानुसार औरसहूलियत के हिसाब से करती है |महाराष्ट्र(विशेषकर मुंबई में ) में बरसो से साबूदाने की खिचडी खाकर और बिना जागरण किए इस व्रत को किया जाता है बिना भय के |क्योकि वहां कई सालो से कामकाजी महिलाये है और उन्होंने अपनी सुविधानुसार इसमे परिवर्तन कर लिया |अगर पुस्तक प्रकाशक ऐसी पुस्तको को संशोधित कर बाजार में लाये या छपना ही बंद कर दे तो शायद भय दूर हो जाए और आस्था से इस व्रत को पुरा करे |पर आज कल तो होड़ है प्रकाशन में और वैभव लक्ष्मी की व्रत कथा में तो येभी लिखा है की सिर्फ़ साहित्य संगम की पुस्तके जितनी ज्यादा बाँटेगे उतना फायदा मिलेगा व्रत करने वालो को |
अगस्त 25, 2009 @ 23:53:25
पत्नी चौबीस घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं और ऐसी दृढ़ता के साथ रखती हैं की बड़े से बड़े जैनी हठ योगी पानी मांग जायं -मैंने पिछले छब्बीस साल उनके व्रत को तोड़ने का लगातार प्रयास किया है मगर सफल नहीं हो पाया -अद्भुत समर्पण है ! और यह मुझे डराता है ! ऐसे हठ कर्मों से कभी कभी तो विज्ञान से मेरा विश्वास भी डगमगाने लगता है -कहीं मैं इसी तप के साहारे ही तो जिन्दा नहीं हूँ -क्या मुझे अभी तक ब्लड प्रेशर ,सूगर आदि इसलिए ही तो नहीं हुआ -मैं कहाँ पक्के दर्जे का लम्पट ,कामी क्रूर व्यभिचारी -आखिर कोई सती शक्ति है क्या सिद्ध्हार्थ जी ?
अगस्त 26, 2009 @ 04:23:12
http://hindibharat.blogspot.com/2009/08/blog-post_25.htmlएक खुला पत्र : सिद्धार्थ के लिए
अगस्त 26, 2009 @ 06:35:34
यहाँ हरतालिका व्रत नहीं किया जाता मगर करवा चौथ आदि पर इसी प्रकार परंपरा निभायी जाती है ..शिक्षा का प्रतिशत बढ़ने के कारण ज्यादातर महिलाएं ऐसे व्रतों को आस्था के कारण ही करती हैं..भयभीत हो कर नहीं..सुविधानुसार इस व्रत में परिवर्तन भी किये जा रहे हैं..मसलन अब निर्जल व्रत करने वाले बहुत कम है..अपने राम तो करवा चौथ के दिन भी कई बार चाय और पानी गटक जाते हैं..हाँ..इनकी कहानियों पर इतना विश्वास नहीं है मगर सुननी पड़ती है..एक बात और है ज्यादातर भारतीय पति पत्नी के ऐसे व्रत से खुश ही होते है..तो अगर वे खुश रहेंगे तो स्वस्थ भी तो रहेंगे ना.. कहीं कहीं तो पति भी व्रत रखने लगे हैं ..!!
अगस्त 26, 2009 @ 08:36:22
बड़ा कठिन मामला है। हमारी श्रीमतीजी तो ई वाला नहीं रखतीं लेकिन माताजी इस बार भी रखीं थी। बहुत कठिन है डगर पनघट की।
अगस्त 26, 2009 @ 13:20:22
अपर्णा ने निर्जल व्रत किया होगा शिव के लिये पर मुझे निर्जल व्रत करना उचित नहीं जान पड़ता। व्रत में शरीर में पर्याप्त जल पंहुचना चाहिये, टॉक्सिन फ्लश आउट करने के लिये।यही बाद रमजान व्रत जे विषय में है।
अगस्त 27, 2009 @ 14:23:41
vrat ka arth hi hota sankalpa lena,pratigya karna.yah vrat karne vale ko aantarik majbooti deta hai.teej ya aise bahut sare vrat sambandho ki atutata ke sankalpa ko majboot karte hai.mai inke samarthan karta hoon .bas ise jabardasti thopa nahi jana chahiye.
अगस्त 27, 2009 @ 23:50:08
बड़ी पेशोपेश में हूँ कि यदि आपके उठाये इस विषय पर अपनी कहने लागुन तो वह टिपण्णी नहीं एक लम्बी चौडी पोस्ट बन जायेगी…खैर ,यथासंभव प्रयास करती हूँ संक्षेप में कहने की..व्रत त्योहारों की कथाएँ आज से हजारों वर्ष पहले जिस समय लिखी गयी उस समय की परिस्थितियां वर्तमान सी न थीं.सतयुग या उससे भी पहले लोगों की क्षमता बड़ी भिन्न थी.लोग केवल अन्न से ही नहीं बल्कि जल वायु धुंए से भी शरीर के लिए पोषक तत्व ग्रहण करने में सक्षम थे….परन्तु कलयुग में शरीर में पृथ्वी तत्व की अधिकता के साथ ही अन्न और जल की आवश्यकता और निर्भरता भी बढ़ गयी है..ऐसे में निर्जला व्रत एक प्रकार से अत्यंत हानिकारक है शरीर के लिए…व्रत काल में अधिक से अधिक मात्र में जल का सेवन अपरिहार्य है..इससे शरीर में वर्तमान दूषित तत्व मूत्र द्वारा शरीर से निकल शरीर को निर्मल करते हैं….व्रत की आवश्यकता भी इसलिए है कि पहली बात तो यह कि महीने में यदि दो से तीन दिन अन्न का त्याग किया जाय तो इससे शरीर निरोगी ही होता है(कैसे यह विषय विस्तार चाहता है ,जो कि अभी मुझे उचित नहीं लग रहा) और दूसरी बात कि जब हम शरीर की मूल आवश्यकता "भूख " पर नियंत्रण करने को प्रयासरत होते हैं तो इससे हमारी मानसिक क्षमता बढती है…तीसरी बात यह कि यदि हम इन व्रत के बहाने अन्न का त्याग करते हैं तो अपरोक्ष रूप से अन्न संरक्षण में अपना महत योगदान देते हैं,किसी भूखे के लिए दाने बचाते हैं….बाकी रही भय की बात तो,कथालेखाकों का विश्वास था कि भय के माध्यम से ही सही वे इन परम्पराओं के रक्षण में सफल हो पाएंगे…." भय बिनु होहि न प्रीत" ……तो उनके प्रयासों में निहित लोकमंगल भाव को देखना चाहिए…नहीं……
अगस्त 28, 2009 @ 02:27:17
बहुत सुंदर लिखा आप ने,
अगस्त 28, 2009 @ 19:05:47
बड़ी भारी-भारी टिपण्णीयाँ आई हैं… बाकी होता तो हमारे घर पे भी है.
अगस्त 31, 2009 @ 15:56:15
Mere ghar par to sabse ashcharya ki baat yeh hai ki meri mataji ne kabhi vrat nahi rakha parantu, meri patni ( jinki masters degree electronics mein hai) isko tab bhi nahi chora jab ve pregnancy ke athave mahine mein thi. Kya bolu , is post ne sara dard to vyakt kar hi diya hai.
अगस्त 31, 2009 @ 16:07:49
Saarthak vivechan.-Zakir Ali ‘Rajnish’ { Secretary-TSALIIM & SBAI }