पिछले रविवार की सुबह बड़ी मायूसी के साथ शुरू हुई थी। शनिवार तक कम्प्यूटर में वायरस का प्रकोप इतना बढ़ चुका था कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा था। डॉक्टर (इन्जीनियर?) ने कहा कि इसे भर्ती करना पड़ेगा। पूरा चेक-अप होगा। तंत्रिका तंत्र में इन्फ़ेक्शन पाये जाने पर पूरी सफाई करनी पड़ेगी। सारा खून बदलना पड़ सकता है। सब का सब पुराना डेटा उड़ जाएगा। मैं तो घबरा ही गया।

वागीशा और सत्यार्थ की पैदाइश से लेकर अबतक खींची गयी सैकड़ों तस्वीरें, मोबाइल, हैण्डीकैम और सोनी डिजिटल से तैयार अनेक यादगार वीडिओ फुटेज, दोस्तों यारों और रिश्तेदारों की शादियों और मेल-मुलाकातों की याद दिलाती तस्वीरें। हिन्दुस्तानी एकेडेमी में आयोजित कार्यक्रमों की चित्रावलियाँ और इलाहाबाद ब्लॉगर सम्मेलन की अविस्मरणीय झाँकी दिखाते मनभावन स्लाइड शो। इसके अतिरिक्त बेटी और मेरे हाथ की ‘पेण्ट’ पर बनायी अनेक कलाकृतियाँ और सबसे बढ़कर मेरे द्वारा लिखे गये एक-एक शब्द का मूल पाठ जो ‘माई डॉक्यूमेण्ट’ फोल्डर में सेव था वह सब उड़ जाएगा।

डीलर ने कहा कि हम किसी का डेटा बचाने का जिम्मा नहीं लेते। आप चाहें तो इसे कहीं कॉपी कर लें। चार जीबी का पेन ड्राइव, दो जीवी का सोनी कैमरा, चार-छः जीबी की डीवीडी आदि जोड़कर भी करीब चालीस जीबी डेटा को सुरक्षित नहीं कर पा रहे थे। इलाहाबाद जैसे शहर में लगभग मोनोपॅली बनाकर रखने वाले एच.पी. के डीलर साहब मुझे टहला रहे थे कि इतना बड़ा डेटा बचाने का उसके पास कोई उपाय नहीं है। वारण्टी के चक्कर में किसी दूसरे जानकार से मशीन खुलवायी भी नहीं जा सकती थी।

…यानि यदि मुझे आगे इस कम्प्यूटर पर काम करना है तो मोह त्याग कर इसकी फॉर्मैटिंग करानी होगी। बड़े जतन से सजोयी गयी उस मुस्कान को अलविदा कहना होगा जो एक महीने के सत्यार्थ के चेहरे पर तब खिल उठती थी जब उसने पहली बार मुझे पहचानना शुरू किया था और मैंने उस नैसर्गिक सुख के लोभ में जैसे-तैसे सीटी बजाना सीख लिया था। उसका पहली बार ‘माँ’ बोलना, पहली बार करवट बदलना, पहली बार सरकना, पहली बार बँकइयाँ चलना, पहली बार खड़ा होना, फिर डग भरना, पहली बार अन्न ग्रहण करना और न जाने क्या-क्या अब केवल यादों में रह जाएगा। बेटी के गाए तोतले गाने, उसका पहला स्कूली बस्ता, लाल रिबन की पहली चोटी, पहला स्कूली ड्रेस, दोनो का साथ-साथ खेलना, लड़ना, झगड़ना, सबकुछ अब वापस तो नहीं आएगा न। ऑफिस के बुजुर्ग पेंशनर्स तो अगले साल फिर आ जाएंगे लेकिन हिरमतिया की माँ जो मर गयी अब कैसे आएगी?

इसी दुश्चिन्ता में जब रविवार की सुबह आँख खुली तो मन भारी था। तकनीकी ज्ञान का अभाव मुझे साल रहा था। निःशुल्क वायरस रोधी सॉफ़्टवेयर के फेर में पड़कर मैने बहुत कीमती सामग्री को संकट में डाल दिया था। रविवार को सिविल लाइन्स बन्द होने के कारण उसदिन कुछ हो भी नहीं सकता था इसलिए खालीपन के एहसास के साथ बाजार और वायरस को कोसता हुआ देर तक बिस्तर पर पड़ा रहा। करीब नौ बजे श्रीमती जी ने याद दिलाया कि मेज पर एक आमन्त्रण-पत्र पड़ा है जो किसी पुस्तक पर चर्चा से सम्बन्धित है।

“आप वहाँ जाएंगे क्या?” प्रश्न ऐसे किया गया जैसे मेरे वहाँ न जाने पर ज्यादा खुशी होती। लेकिन मैं…

“अरे वाह!” मुझे तो जैसे तिनके का सहारा मिल गया। अब रविवार अच्छा कट जाएगा। अच्छा क्या, जबर्दस्त बात हो गयी साहब…।

हुआ यूँ कि के.पी.कम्यूनिटी सेन्टर में जो कार्यक्रम आयोजित था उसके मुख्य अतिथि थे- विभूति नारायण राय जी, जिनके सौजन्य से हमने हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हाल ही में सम्पन्न कराया था। इलाहाबाद के डी.आई.जी. जो अब जिले के पुलिस कप्तान होते हैं, चन्द्रप्रकाश जी ने अपने एक मित्र और आई.पी.एस.बैचमेट अशोक कुमार जी की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक पर भव्य परिचर्चा का आयोजन किया था। उत्तर प्रदेश पुलिस मुख्यालय, इलाहाबाद के अपर पुलिस महानिदेशक एस.पी. श्रीवास्तव जी भी, जो स्वयं एक कवि, शौकिया फोटोग्राफर और ब्लॉगर हैं इस गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे। भारत सरकार की ओर से इलाहाबाद में स्थापित उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनन्दबर्द्धन शुक्ल जी भी एक आई.पी.एस. अधिकारी रह चुके हैं। वे इस मंच को विशिष्ट अतिथि के रूप में सुशोभित कर रहे थे।

खाकी में इन्सान पर (पुलिस) परिवर्चा

एक मंच पर पाँच-पाँच आई.पी.एस. इकट्ठा होकर यदि हिन्दी की एक पुस्तक पर परिचर्चा कर रहे हों तो सोचिए नजारा कैसा रहा होगा। मजे की बात यह रही कि उस बहुत बड़े हाल में आमन्त्रित साहित्यप्रेमियों की संख्या से कहीं अधिक पुलिस के जवान दिखायी दे रहे थे। लेकिन वर्दी में नहीं, सादे कपड़ों में। पीछे की आधी सीटें तो प्रशिक्षु रंगरूटों से भर गयी थीं। आगे की सीटों पर शहर के प्रतिष्ठित आमजन, व्यापार मंडल के प्रतिनिधि, अधिकारी वर्ग और मीडिया आदि के लोग जमे हुए थे। लेकिन जब चर्चा शुरू हुई तो मुझे लगने लगा कि आज छुट्टी बेकार नहीं गयी है। पुलिस विभाग में होकर भी बेहद संवेदनशील बने रहकर लोकहित के बारे में सोचने वाले एक ऐसे अधिकारी से साक्षात्कार हो रहा था जिसने बीस साल तक पुलिस महकमें में उच्च पदों पर सेवा देने के बाद अपने अनुभवों को बिना किसी लाग-लपेट के दूसरों से बाँटने का उद्यम कर रहा था।

लेखकीय - अशोक कुमार IPS ऐसे में मेरे भीतर का ब्लॉगर खड़ा हो गया। झटपट मोबाइल कैमरे से तस्वीरें ले डाली और पुस्तक के लेखक को ब्लॉग लिखने की मुफ़्त सलाह दे डाली। वे बोले, “सिद्धार्थ जी, आप मेरा ब्लॉग तैयार कर दीजिए, इसपर जो कॉस्ट आती होगी वह मैं तुरन्त दे दूंगा।” मैने जब यह बताया कि ‘यहाँ सबकुछ मुफ़्त में उपलब्ध है’ तो वे खुश हो गये। तुरन्त लान्च करने की बात करने लगे। अब मैंने संकोचवश बताया कि मेरा कम्प्यूटर घर पर है ही नहीं। आपका काम थोड़ा समय ले सकता है। …लेकिन ब्लॉगरी के प्रसार की गुन्जाइश हो तो किसी ब्लॉगर को प्रतीक्षा करने में चैन कहाँ। हिन्दुस्तानी एकेडेमी का ताला खोलवाया, ब्लॉग बना और इस हिन्दी परिवार में एक चमकीले सितारे का अभ्युदय हो गया। आप यह पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद वहाँ जाइए  और सराहिए खाकी में इन्सान को।

इसी में यह बता दूँ कि आदरणीय आलसी गिरिजेश राव जी ने मेरी कम्प्यूटरी समस्या का समाधान फोन पर ही कर दिया। बोले, एक पोर्टेबल हार्ड डिस्क में सारा डेटा आसानी से आ जाएगा जो १६०, २५०, ३२० जी.बी. या उससे अधिक क्षमता की भी होती है। मैने डीलर से फोन पर कहा तो उन्होंने कहा कि आप इसपर तीन हजार खर्च करने को तैयार हों तो मुझे कोई ‘प्रॉब्लेम’ नहीं है। मरता क्या न करता। मैने हामी भर दी। जब दुकान पर पहुँचा तो उनके इन्जीनियर ने अपनी पुरानी डिस्क में डेटा कॉपी करके फॉर्मेटिंग शुरू कर दी क्यों कि नई डिस्क वे मंगा नहीं पाये थे।  यानि समस्या केवल मेरे अज्ञान के कारण घनीभूत हुई थी। अन्ततः भारी खर्चे की आशंका से ग्रस्त श्रीमती जी को जब मैने बताया कि मुझे केवल पाँच सौ खर्चने पड़े तो उनके चेहरे पर वही मुस्कान फिर लौट आयी थी जो सुबह विलुप्त हो गयी थी। हाँलाकि कम्प्यूटर को अगले दिन दुबारा अस्पताल जाना पड़ा क्योंकि कोई वायरस छिपा रह गया था। फिलहाल विस्टा स्टार्टर हटाकर वापस एक्सपी डलवा लेने के बाद शायद मामला ठीक हो गया है।

एक अच्छी खबर और है- वी.एन.राय साहब ने अनौपचारिक बात चीत में इलाहाबाद के ब्लॉगर सम्मेलन के बाद का हाल-चाल पूछा। जब मैने सच-सच हाल बयान कर दिया तो खुश होकर बोले कि हिन्दी चिठ्ठाकारी की दुनिया पर विचार-विमर्श के लिए वर्धा विश्वविद्यालय प्रति वर्ष एक वृहद राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन करेगा जो विश्वविद्यालय के रमणीक प्रांगण में अक्टूबर-नवम्बर महीने में सम्पन्न हुआ करेगा। नामवर सिंह जी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों की असुविधा का हमें खेद है, लेकिन जबतक वे वहाँ के कुलाधिपति बने रहेंगे तबतक हम उन्हें उद्‍घाटन के लिए बुलाकर सम्मानित करते रहेंगे। अलबत्ता यदि इस पुनीत कार्य के लिए महामहिम राष्ट्रपति हामी भर दें तो बात दीगर हो जाएगी।

आगे-आगे देखिए होता है क्या…!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)