मुझे इलाहाबाद में नौकरी करते हुए ढाई साल हो गये। इसके पहले एक दशक से कुछ ही कम साल विद्यार्थी के रूप में यहाँ गुजार चुका हूँ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सर गंगानाथ झा छात्रावास में रहते हुए हम रोज शाम को लक्ष्मी टाकीज चौराहे पर चाय पीने आते और फलों की दुकान से मौसमी फल ले जाते। जाड़ा शुरू होते ही इलाहाबाद के प्रसिद्ध अमरूद मिलने लगते- बिल्कुल ताजे और स्वादिष्ट। पहली बार में ही इनकी खुशबू और मिठास का दीवाना कौन न हो जाय…! हमें जब गाँव जाना होता तो बैग भरकर अमरूद ही ले जाते। जब डिमाण्ड बढ़ती गयी तो एक बार यहाँ के खुसरूबाग से अमरूद का पौधा ही लेते गये। गाँव पर उसका पेड़ तो तैयार हो गया लेकिन वहाँ फल का स्वाद इलाहाबादी अमरूदों जैसा न रहा।
दुबारा इलाहाबाद की पोस्टिंग मिलने पर हम इस कारण से भी खुश हो लिए थे कि अब सेब से टक्कर लेते लाल-लाल अमरूदों का आनन्द खूब मिलेगा। उसपर जब सरकारी आवास मिला तो यह देखकर खुशी दोगुनी हो गयी कि घर के आगे-पीछे अमरूद के तीन-चार पेड़ लगे हुए थे। पिछवाड़े कोने में लगा पेड़ तो काफी बड़ा था और फलने के लिए पूरी तरह तैयार था। यानि वह अनुपम सुख बिना पैसा खर्च किए मिलने वाला था। मुझे यह भी बताया गया कि साल में इस पेड़ में दो-तीन बार फल लगते हैं।
फिर क्या था- पेड़ में फूल लगे और देखते-देखते फलों में बदलते गये। मैं इनके पकने का इन्तजार करने लगा। इनका आकार भी अच्छा खासा हो गया। असली इलाहाबादी ही थे। लेकिन कई दिनों के बाद भी जब मुझे कोई पका फल नहीं दिखा तो मैने थोड़ी निगरानी की। पता चला कि जब मेरे ऑफिस और बेटी के स्कूल चले जाने के बाद श्रीमती जी घर के भीतर अपनी गृहस्थी सम्हालने में व्यस्त हो जातीं, तो सुनसान देखकर कलेक्ट्रेट कैम्पस में रहने वाले कुछ कर्मचारियों के परिवारों से बच्चों के झुण्ड आते और चारदीवारी पर चढ़कर पेड़ की पूरी पैमाइश कर जाते।
एक बार मुझे अचानक ऑफिस से घर आना हुआ तो मैने देखा- दो बच्चे पेड़ पर, तीन दीवार पर और कुछ नीचे खड़े होकर पेड़ को खंगाल रहे थे। मुझे आता देख नीचे खड़े बच्चे सरपट भाग गये। दीवार वाले सीधे कूद पड़े और लड़खड़ाते हुए भागने लगे। पेड़ की डाल पर चढ़े हुए शूरमा भी हाथ के अमरूद फेंककर तेजी से उतरने लगे। मुझे चिन्ता हुई कि वे कहीं हड़बड़ी में गिरकर चोट न खा बैठें। मैनें हाथ के इशारे से उन्हें आश्वस्त किया कि घबराने की जरूरत नहीं है। (यानि मैं उनका कुछ करने वाला नहीं हूँ।) यह भी कि जो फल तोड़ लिए गये हैं वे उन्हीं के हैं…। मैने उन्हें आराम से उतरकर जाने दिया। बस एक सलाह देकर कि पहले अमरूद पक जाने देते…। गाँव पर बाग से आम की चोरी करते पकड़े गये बच्चों पर पिताजी के नर्म व्यवहार की याद आ गयी थी।
लेकिन उस दिन मुझसे जो ‘गलती’ हुई उसका खामियाजा अबतक भुगत रहा हूँ। मेरे पूर्वाधिकारी ने कदाचित् अपने रौब और गार्डों के माध्यम से उन बच्चों के मन में जो डर बनाया होगा वह उसी दिन से काफूर हो गया। …और निःशुल्क ताजे पके अमरुद खाने का मेरा सपना चकनाचूर हो गया। अब तो वे बेधड़क अपनी मर्जी से दीवार के सहारे चढ़कर अमरूद तलाशते रहते हैं।
हमने आशा का दामन फिर भी नहीं छोड़ा था। पेड़ में बहुत से अमरूद छिपे हुए भी होते हैं, जिनपर जल्दबाजी में काम करने वाले शिकारी बच्चों की निगाह नहीं पड़ती। मैं पेड़ों का मालिक होने के कारण आराम से खोज-खोजकर उन बचे-खुचे फलों को तोड़ सकता था। वे मेरे छोटे से परिवार के आनन्द के लिए पर्याप्त होते। लेकिन तभी मुझे एक और शिकारी वर्ग से दो-चार होना पड़ा। मैने देखा कि पेड़ के नीचे कच्चे और अधपके फलों के छोटे-छोटे टुकड़े गिरे हुए हैं। ऊपर देखा तो हैरान रह गया। कई फल टहनी से तो लगे हुए थे लेकिन आधा-तिहाई खाये जा चुके थे। यानि कि मेरे सपने पर केवल मनुष्य ही नहीं पक्षी भी तुषारापात करने को कमर कस चुके थे। भूरे रंग की स्थानीय देशी चिड़िया; जिसका नाम मुझे नहीं मालूम (शायद मैना), झुण्ड में आकर पेड़ की एक-एक डाल पर मंडराने लगी। फिर अपने तोताराम कैसे पीछे रहते? ये भी सपरिवार पधारने लगे। बड़ी सफाई से फलों को कुतरा जाने लगा। टहनी से बिना अलग किए अमरूद का ज्यादातर हिस्सा चट हो जाता।
फिर तो मेरे आकर्षण का केन्द्र अमरूद न होकर ये अनोखे मेहमान हो गये। मैं चुपके से छिपकर इनका फल कुतरना देखता। सच में इनकी कारीगरी देखकर मजा आने लगा। मैने जब भी इनकी फोटो खींचनी चाही, जाने कैसे इन्हें पता चल जाता और ये फुर्र हो जाते। फिर भी मेरा प्रयास जारी रहा। अन्ततः आज तोते की एक जोड़ी मेरे कैमरे की पकड़ में आ ही गयी। वह भी ऐसे कि चोरी का माल पंजे में दबाए साबुत बरामद हुआ। अमरूद की हरी-हरी पत्तियों और हरे फलों के बीच बैठे हुए ये हरे पंख और लाल चोंच वाले आकर्षक जीव आँखों को इतनी तृप्ति देते हैं कि मैं इनपर सारे फल खुशी-खुशी न्यौछावर कर दूँ।
समाधान के तौर पर मैं एक दिन बाजार से कुछ अमरूद खरीद लाया तो श्रीमती जी का ताना सुनना पड़ा कि घर का अमरूद दूसरे खा रहे हैं और आप बाजार से ला रहे हैं… लानत है। तबसे मैने बाजार के अमरूद की ओर आँख उठाना भी छोड़ दिया है। अब आप ही बताइए मुझे इलाहाबादी अमरूद का सुखद स्वाद कैसे मिलेगा?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
जनवरी 04, 2010 @ 07:42:17
हम तो मलदहिया देख ही ललचा गये….’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.-सादर, समीर लाल ’समीर’
जनवरी 04, 2010 @ 07:47:18
अरे बहुत दिनों बाद हमको भी याद आ ही गयी ……लक्ष्मी चौराहे के पास बिताए वह दिन !जाड़े में मैं अमरुद और गाजर का काकटेल बनाता था और उसमे ताजे आंवले का तडका लगा कर खाता था !क्या दिन थे हुजूर !!वैसे आप अब भी वहीँ से अमरुद ले लिया करें !
जनवरी 04, 2010 @ 08:15:40
जब आपै नाउम्मीद हैं तब हम भी संतोष करते हैं …वही तो सोंचूं की अमरुद का मौसम, है और डाली नहीं आयी इलाहाबाद सेतोते का फोटो बहुत सोणा है ..उस भूरी चिड़िया की भी कोशिश करेंजरा मैं भी तो पहचानूं !
जनवरी 04, 2010 @ 08:26:01
इलाहाबादी अमरूद … अरे वाह-वाह … बहुत मज़ेदार होते हैं … बहुत दिनों से खाया नहीं .. खाया क्या देखा ही नहीं। आज आपके सौजन्य से ढ़ेरों देखने को मिल गए। धन्यवाद।
जनवरी 04, 2010 @ 08:59:50
बजर देहाती ही रह गए। अब्बो, अमरूच के पेंड़ पर सुग्गा जो निहार रहे हो !हमें तो ये नजारा देखे जाने कितने बरस हो गए। गुप्ता जी के दरवज्जे के अमरूद पर चढ़ कर खूब खाते थे। कोई रोक टोक नहीं थी। बाद में एकाध साँप पेंड़ पर पाए गए तो निषेध हुआ।इहाँ तो ठेले भर भर इलाहाबादी अमरूद बिकता है। मलिकाइन को बौत पसन्द है। खोंखी के रिस्क पर भी खाना नहीं चूकतीं। बजार से लै आव और खूब खाओ। लानत भेजने वालों को दिखा दिखा कर खाओ। नमक मिर्च लगा कर खाओ। उनके मुँह में पानी जो आए तो आराम आराम से खाओ लेकिन खाओ जरूर।
जनवरी 04, 2010 @ 09:07:09
इ सुख पर तो इलाहाबादियों का ही एकाधिकार हैं ,काहें सुबह-सुबह ललचा रहें हैं सिद्धार्थ भइया.
जनवरी 04, 2010 @ 09:32:47
बहुत मेहनत से खींची गई तस्वीर। आपने दूसरों के सुख की खातिर घर के अमरूदों का त्याग किया। ईश्वर आपको इसके बदले कोई दूसरा फल ज़रूर देगा। उसे प्रेम से खाइएगा।
जनवरी 04, 2010 @ 10:03:34
रामजी का खेत रामजी की चिड़िया,खाओ भर-भर पेट किसान फारमूला। फसल लेनी है तो रखवाली तो करनी होगी।
जनवरी 04, 2010 @ 12:10:56
lalchawa diya na!
जनवरी 04, 2010 @ 15:21:15
हां ऐसा ही होता है यदि पेड बाहर के अहाते में हो. हमें भी अपने घर के अमरूद कभी खाने को नहीं मिलते.
जनवरी 04, 2010 @ 16:57:32
इलाहाबादी अमरुद तो खूब बिकते देखे ठेलों पर …पेड़ पर लगे एक मुद्दत बाद देखा …हम जो लगा आये थे लोग खा रहे हैं चहक कर …अब फिर से लगाया है नए निवासस्थान पर …पहले साल में 3 अमरुद आये …अगले मौसम का इन्तजार है ..
जनवरी 04, 2010 @ 19:19:34
बड़ी हसीं मजबूरी है. और एक बाद बताता चलूँ की अमरुद मेरा पसंदीदा फल है. थोडा कम पका, और अभी पता चला है कि इस पसंद के चक्कर में मेरे घर पर अमरुद आना बंद है, माँ देखकर सेंटी हो जाती है कि मेरा बेटा होता तो खाता ! खैर… हाँ तो हमने भी खून उडाये हैं अमरुद दूसरों के बाग़ से… अच्छा किया आपने जो छूट दे रखी है :)आपको सपरिवार नववर्ष कि मंगलकामनायें !
जनवरी 04, 2010 @ 22:11:19
हमे तो करीब तीस सल हो गये अमरुद की शकल देखे आज आप ने याद दिला दिया
जनवरी 04, 2010 @ 23:55:50
भाई सिद्धार्थ जी, साधारण सा उपाय है। चुपके से अमरूद खरीद लाइये और पेड पर रख दीजिए। फिर भीतर जाकर अमरूद तोडने का नाटक कीजिए। हां, सावधानी यह बरतनी चाहिए कि पेड पर अमरूद रखते समय न पत्नी देखे और ना आपके वो हरे मेहमान 🙂
जनवरी 05, 2010 @ 01:00:45
वाह वाह …ये गुलाबी अमरुद, हरा सुग्गा ..और आपकी पोस्ट सभी एकदम बढ़िया लगे आपके समस्त परिवार को , नव – वर्ष की मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं भी प्रेषित कर रही हूँ स्नेह सहीत ,- लावण्या
जनवरी 05, 2010 @ 20:36:42
अब आप ही बताइए मुझे इलाहाबादी अमरूद का सुखद स्वाद कैसे मिलेगा? lo G Padosi ka ped kub kaaam ayega.
जनवरी 07, 2010 @ 16:07:07
khane ko bhale na mile ham to isi baat se khush ho-lete hai ki amrood kahi ke ho bikte hai allahabadi kah kar hi.
जनवरी 07, 2010 @ 22:36:03
पिछले साल तक तो हमारे एक मित्र भेजते थे इलाहाबादी अमरूद. अब उनका तबादला हो गया. कौन भेजेगा ? आप बनेगे हमारे दोस्त.
जनवरी 10, 2010 @ 05:06:10
तोता मैना खुद चलकर आ रहे हैं कहानी लिखवाने और आप अमरुद के चक्कर में पड़े हैं. लिख डालिए कुछ कालजयी. तोते का चित्र बहुत अच्छा लगा [वैसे आलेख भी कोई ख़ास बुरा नहीं है]
जनवरी 10, 2010 @ 19:26:57
तोते की फोटो बहुत बढिया है. जहाँ तक अमरुदों के ना खा पाने की बात है, तो भाई एक बार यह सोच कर सुबह पेड़ देखो कि आज उस पर के सारे अमरूद मित्रों के यहां पहुंचाना है, तो ढेर सारे साबूत फल पेड़ पर लगे हुए पाओगे.
जनवरी 14, 2010 @ 17:27:30
Free ke amrood khane ki hasarat free me hava ho gayi. Srimati ji ki latad kee pushti kaun karega? Kahi yah unako badnam karane ki aur khud ko udarmana sabit karane ki sazish to nahi?