जनवरी की बेहद सर्द रात… एलार्म की घण्टी भोर में साढ़े चार बजे बज उठी है। घर के तीनो मोबाइल सेट एक साथ बजे हैं। तीनों में एलार्म इस लिए सेट किए कि कहीं कोई चूक न हो जाय। मामला इतना संवेदनशील है कि तैयार होकर साढ़े पाँच बजे तक हर हाल में निकल पड़ना है। सीजन का सबसे ठण्डा दिन… दाँत बज रहे हैं। बाहर कुहरे की मोटी चादर फैली हुई है। गहरी नींद और गर्म रजाई से निकलकर बाथरूम में… ऊफ़् टैप का पानी तो हाथ काटे दे रहा है। इमर्सन रॉड से पानी गरम करने में आधा घण्टा लग जाएगा…. चलो तबतक ब्रश करके सेव करते हैं… किसी तरह ये दिन ठीकठाक बीत जाय …नहाकर पूजा करते हुए यही प्रार्थना मन में चल रही है…।
ड्राइवर का मोबाइल स्विच ऑफ़ है… उफ़्। यदि वह समय से नहीं आया तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। सुरक्षाकर्मी न आया तो अकेले ही निकल लूंगा लेकिन ड्राइवर और गाड़ी के बिना तो कुछ भी सम्भव नहीं। रात ग्यारह बजे छोड़ते वक्त मैने उन दोनो को ठीक से समझा दिया था कि सुबह साढ़े पाँच बजे निकलना है… एक मिनट भी देर की तो मैं डीएम साहब के यहाँ जाकर दूसरी गाड़ी ले लूंगा… उसके बाद तुम लोग जेल जाना… मैं तो चुनाव कराने चला ही जाऊंगा…। लेकिन क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ? खुद की फसन्त भी तो है। डीएम साहब पूछेंगे कि रात में आए ही क्यों… क्या जवाब दे पाऊंगा। ड्राइवर ने फिर भी मोबाइल बन्द कर लिया है। उफ़्…! टेन्शन… टेन्शन…टेन्शन… चुनाव में यह किस-किसको नहीं झेलना पड़ता है…!
पूजा अधूरी छोड़नी पड़ी। भगवान को क्या समझाना… वह तो सब जानता है। चुनाव ड्यूटी के लिए छूट दे ही देगा। लेकिन ५:२५ पर भी ड्राइवर का फोन बन्द होना डरा रहा है। अचानक मुँह जल जाता है तो पता चलता है कि श्रीमती जी गरम चाय हाथ में दे गयी हैं। पहले उस ओर ध्यान नहीं गया। मोबाइल पर अटका हुआ है… अब क्या करूँ…??? सुबह-सुबह टेन्शन…।
ठीक साढ़े-पाँच बजे काल-बेल बज उठती है। दौड़ कर दरवाजा खोलता हूँ…। प्याली की चाय छलक जाती है। बाहर ड्राइवर और गार्ड दोनो मौजूद हैं। जान में जान आती है। चुनाव ड्यूटी का खौफ़ किसे न होगा…? फाइल लेकर गाड़ी में बैठ जाता हूँ।
“तुमने मोबाइल क्यों बन्द कर लिया भाई…?” मन में खुशी है कि समय पर प्रस्थान हो गया है।
“साहब, बैटरी डिस्चार्ज हो गयी है। रात में लाइट नहीं थी…” ओहो, मैने तो इन्हें ग्यारह बजे छोड़ा ही था। इन्हें अपने घर जाकर सोते हुए बारह बज गये होंगे फिर भी सुबह ठीक समय पर हाजिर हैं… इन्हें तो मुझसे भी कम समय सोने को मिला… मन को तसल्ली देता हूँ।
फिर उनके बारे में सोचने लगा जो उस देहात के अन्धेरे में कड़ी ठण्ड से ठिठुरते हुए ब्लॉक में बने बूथ पर टिके हुए हैं। चुनाव कराने गये करीब बीस शहरी लोगों की सुविधा के नाम पर ब्लॉक में लगा एक ‘इण्डिया मार्क-टू हैण्ड पम्प’, खुली खिड़कियों वाले बड़े से हाल में बिछी टेन्ट हाउस की चरर-मरर करती चारपाइयाँ और उनपर बिछे धूलधूसरित गद्दे, बीडिओ और ‘पंचायत साहब’ के सौजन्य से रखी कुछ मटमैली रजाइयाँ। रात में ब्लॉक के स्टाफ़ ने पूरी सेवा भावना से जो गरम-गरम पूड़ी और आलू की मसालेदार सब्जी खिलायी थी उसे खाने के बाद उस शौचालयविहीन परिसर में रुककर सोने की हिम्मत न हुई। वहाँ से मैं रात में दस बजे भाग आया। करीब साठ किलोमीटर की यात्रा वहाँ रुकने से कम दुखदायी थी।
हालाँकि ऑब्जर्वर महोदय की इच्छा थी कि सेक्टर मजिस्ट्रेट भी बूथ पर ही रात्रि विश्राम करें। यह भी कि रात भर इसपर निगरानी रखी जाय कि किसी दल या प्रत्याशी द्वारा पोलिंग पार्टी को प्रभावित करने का प्रयास न हो। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए ‘कुछ भी करेगा’ टाइप तैयारी। …पोलिंग पार्टी जब खा-पीकर सो गयी तब मैं वहाँ से हटा और जब सुबह सात बजे हाजिर हो गया तो पार्टी वाले अभी जगकर पहली चाय की बाट जोह रहे थे।
मतदान आठ बजे से प्रारम्भ होना था… आनन-फानन में हाल खाली करके मतदान की तैयारी कर ली गयी। मतदान के लिए गोपनीय घेरा बना लिया गया था। पुलिस वालों को स्ट्रेट्जिक प्वाइण्ट्स पर तैनात किया गया, वीडियो कैमरा वाले को लगातार आठ घण्टे वोटिंग की रिकॉर्डिंग करने के लिए जरूरी बैटरी बैकअप और कैसेट के साथ तैयार किया गया… पीठासीन अधिकारी अपनी टीम के साथ मुस्तैद होकर माननीय मतदाता की राह देखने लगे… प्रथम वोटर ग्यारह बजे पधारे।
***
“साहब आप बहुत गलत कर रहे हैं, इतनी सख़्ती करेंगे तब तो हम चुनाव ही हार जाएंगे… ‘भाई’ को मुँह दिखाने लायक ही नहीं रह जाएंगे” प्रत्याशियों की ओर से तैनात मतदान अभिकर्ताओं में से एक ने व्यग्र होकर कहा।
प्रत्येक मतदेय स्थल (पोलिंग बूथ) पर प्रत्याशी द्वारा अपना एजेन्ट नियुक्त किया जाता है जो मतदाताओं की पहचान करने में पोलिंग पार्टी की मदद करते हैं और प्रतिद्वन्दी पार्टी द्वारा सम्भावित धाँधली पर भी नजर रखते हैं। इन्हें हाल के भीतर ही कुर्सियाँ दी जाती हैं। ये प्रत्येक मतदाता को देखते हैं और किसी भी फर्जी मतदाता की पहचान को चैलेन्ज कर सकते हैं। जो महोदय शिकायत कर रहे थे उनको मैने वोट डाल रहे मतदाताओं के नजदीक जाकर मतपत्र देखने की कोशिश से रोक दिया था। मतदान की गोपनीयता भंग होने की इजाजत कतई नहीं दी जा सकती थी। हारकर वे हाल से बाहर आ गये थे और मुझे ‘समझाने-बुझाने’ की कोशिश करने लगे
“मैं समझा नहीं, आप चाहते क्या हैं…?” मैने अनभिज्ञता प्रकट की।
“अरे साहब, यदि वोटर को हमें वोट नहीं दिखाने देंगे तब तो वह धोखा दे देगा”
“कैसा धोखा…? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, गुप्त मतदान का तो उसे अधिकार है। इसी की रक्षा के लिए तो यह सारी मशीनरी लगी है”
“कैसा अधिकार साहब…, चार-चार लोगों से पैसा खाकर बैठे हैं सब… अगर ऐसे वोट डलवा देंगे तब तो यह हमारा खाकर भी दूसरे को वोट दे देंगे…”
“नहीं-नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता… ये सभी खुद ही जनप्रतिनिधि हैं। जनता के वोट से चुनकर प्रधान और बीडीसी मेम्बर बने हैं। आज ये अपना एम.एल.सी चुनने आये हैं। ये लोकतन्त्र के खिलाफ़ कैसे जा सकते हैं?”
“बेकार की बात कर रहे हैं आप, इसी एलेक्शन की राजनीति में मैने जिन्दगी गुजार दी है साहब… यहाँ हमारी जाति के वोटर नहीं हैं। आपने अगर मदद नहीं की तो यहाँ से तो हम हार ही जाएंगे”
“मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ? मदद तो वोटर ही करेगा। आपके प्रत्याशी खासे लोकप्रिय हैं, मैने सुना है आसानी से जीत रहे हैं…” मैने ढाढस देते हुए कहा।
“बात वो नहीं है। चुनाव तो ‘भाई’ जीत ही रहे हैं, लेकिन इस बूथ से हार हो जाएगी तो मेरी बड़ी फजीहत हो जाएगी। क्या मुँह दिखाऊंगा मैं?”
“मुँह तो मैं नहीं दिखा पाऊंगा अगर यहाँ कोई धाँधली हो गयी… मेरी तो नौकरी ही चली जाएगी” मैने मजबूरी बतायी।
“किसकी मजाल है साहब जो आँख उठाकर देख ले… सख्ती सिर्फ़ आप कर रहे हैं। यहाँ किसी भी एजेण्ट की हिम्मत नहीं है जो हमारे खिलाफ़ खुलकर ऑब्जेक्शन करे। पता नहीं, आप ही क्यों नहीं समझ रहे है?”
“अभी यहाँ जोनल मजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और स्वयं ऑब्जर्वर कभी भी आ सकते हैं… आप किसी अनियमितता की उम्मीद मत करिए। तुरन्त शिकायत हो जाएगी…”
“कोई कुछ नहीं कहेगा साहब, ये साले वोटर एक बार मुझसे आँख मिलाएंगे तो जो मैं चाहूंगा वही करेंगे।”
मैने साफ हाथ जोड़ लिया। मुझसे निराश हो जाने के बाद एजेण्ट महोदय उठकर बेचैनी से टहलने लगे। थोड़ी दूर जाकर मोबाइल मिलाने लगे। दूर से उनका हाव-भाव बता रहा था कि काफ़ी कोशिश के बाद फोन मिल गया है। फोन के उस ओर जो भी था उसे कुछ समझाने लगे… काफ़ी देर तक समझाने के बाद मेरे नजदीक आए और मोबाइल मुझे थमाते हुए बोले-
“लीजिए साहब, बहुत मजबूरी में मुझे यह कदम उठाना पड़ा है… भाई से ही बात कर लीजिए”
“ओहो…! हेलो… कौन साहब बोल रहे हैं?” मैने गर्मजोशी से अभिवादन करते हुए कहा।
“साहब नमस्ते… ‘मैं’ बोल रहा हूँ… कैसे हैं? सब ठीक चल रहा है न…” इस बीच बगल से एजेण्ट महोदय ने इशारे से बता दिया कि फोन पर उनके प्रत्याशी हैं।
“हाँ-हाँ, सब आपकी दुआएं हैं। सब कुछ फ्री एण्ड फेयर चल रहा है। इधर निरक्षर मतदाता अधिक हैं इसलिए प्रिफ़रेन्शियल वोट डालने में समय अधिक लग रहा है। नियमानुसार आवश्यक होने पर वोटिंग हेल्पर की सुविधा दी जा रही है”
“वो तो ठीक है, लेकिन `इनको’ आप कोई सुविधा नहीं दे रहे हैं… ऐसे काम नहीं चलेगा, थोड़ी मदद कर दीजिए…”
“कैसी मदद, पोलिंग पार्टी तो वोटर्स की मदद कर ही रही है… आराम से वोट पड़ रहे हैं। किसी को कोई शिकायत नहीं है”
“अरे, इनकी शिकायत पर तो ध्यान दीजिए… कह रहे हैं कि आप वोट देखने नहीं दे रहे हैं…”
“नेता जी, क्या आप यह कहना चाहते हैं कि मैं मतदान की गोपनीयता भंग हो जाने दूँ”
“नहीं-नहीं, बस इनको देख लेने दीजिए, नहीं तो वोटर टूट जाएंगे, हमारा नुकसान कराकर आप को क्या मिल जाएगा…?”
“भाई साहब, इसके लिए माफ़ करिए। मैं अकेला नहीं हूँ यहाँ। पीठासीन अधिकारी है, माइक्रो ऑब्जर्वर हैम, पुलिस वाले हैं, दूसरे उच्चाधिकारी हैं, आयोग के ऑब्जर्वर हैं और सबके बाद पूरी वोटिंग की वीडियो रिकॉर्डिंग हो रही है जिसे ऑब्जर्वर द्वारा देखकर संतुष्ट होने के बाद ही मतगणना करायी जाएगी। किसी प्रकार की धाँधली मतदान निरस्त करा सकती है। सरकार की और प्रशासन की बड़ी बदनामी हो जाएगी। आप अब भगवान के ऊपर छोड़ दीजिए… जो होगा अच्छा ही होगा।”
एक साँस में अपनी बात कहकर मैने फोन बन्द कर दिया और एजेन्ट महोदय से खेद प्रकट करते हुए उन्हें मोबाइल वापस कर दिया। भाई से हुई बात की जानकारी मैने अपने नजदीकी उच्चाधिकारी को फोन से दे दी। थोड़ी देर में अतिरिक्त फोर्स भी आ गयी। चार बजे की निर्धारित समय सीमा पूरी हो जाने तक एक स्थिर तनाव बना रहा। अन्ततः ९५ प्रतिशत मतदाताओं ने अपना वोट डाला।
***
पंचायतीराज व्यवस्था के लागू होने के बाद ग्राम पंचायत अध्यक्ष (ग्राम-प्रधान) और क्षेत्र पंचायत समिति के सदस्य (बीडीसी मेम्बर) पदों पर अनेक महिलाएं चुनी जा चुकी हैं। विधान परिषद के स्थानीय प्राधिकारी निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता यही पंचायत प्रतिनिधि होते हैं। मतदान के लिए वहाँ आयी हुई अधिकांश महिलाएं अनपढ़ और निरक्षर थीं। उन्हें जिस वोट का अधिकार मिला था वस्तुतः उसका प्रयोग उनके पति, श्वसुर, देवर या पुत्र द्वारा ही किया जाना प्रतीत होता था। एक रबर स्टैम्प की भाँति उन्होंने बतायी गयी जगह पर ‘१’ की लकीर खींची होगी, शायद कुछ वोट सही जगह न पड़ पाने के कारण निरस्त भी करना पड़े। लोकतन्त्र की दुन्दुभि बजाते ये चुनाव क्या देश के जनमानस का सही प्रतिनिधि दे पा रहे हैं। ऐसा नेता जो हमें आगे की ओर सही दिशा में ले जा सके?
चुनाव के एक दिन पहले सुबह-सुबह कलेक्ट्रेट परिसर से पोलिंग पार्टियों की रवानगी से लेकर अगले दिन शाम तक वापस मतपेटियों के जमा होने तक की प्रक्रिया तो चुनावी महागाथा का बहुत संक्षिप्त अंश है। करदाता से वसूले गये करोड़ो रूपयों को खर्च करने, आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त करने और लाखों कर्मचारियों-अधिकारियों द्वारा अपना रुटीन खराब करने के बाद चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न होती है तो एक ऐसे विजयी उम्मीदवार के नाम की घोषणा से जो अगले कुछ सालों में कुछ भी गुल खिला सकता है:
वह सदन में प्रश्न पूछने के लिए पैसा खा सकता है, सरकार चलाने के लिए माफ़िया से हाथ मिला सकता है, सरकार बचाने के लिए दलबदल कर करोड़ो कमा सकता है, कबूतरबाजी कर सकता है, साम्प्रदायिक और जातीय दंगे करवा सकता है, ईमानदार अधिकारियों की हत्या करा सकता है, आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकता है, बेईमान अधिकारियों का गोल बनाकर सरकारी खजाना लूट सकता है, सरकारी ठेके दिला सकता है, सरकारी सौदों में दलाली खा सकता है, आम जनता और गरीबों का हक छीन कर अपनी तिजोरी भर सकता है, आतंकवादियों को जेल से छुड़ाकर उनके देश भेंज सकता है, राजभवन में पहुँचकर एय्याशी कर सकता है, मधु कोड़ा बन सकता है, देश बाँटने की साजिश रच सकता है।
ऐसी प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाकर क्या हम उस पाप के भागी नहीं बन रहे हैं?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
Udan Tashtari
जनवरी 12, 2010 @ 05:44:11
ऐसी प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाकर क्या हम उस पाप के भागी नहीं बन रहे हैं?-शायद नहीं..आप ऐसी ही प्रक्रिया को सुधारने में पहला कदम उठा रहे हैं कि कम से कम, जो चुना जाये वो निष्पक्ष जनता की पसंद हो. एक बार जनता का विश्वास लौटेगा तो पसंद भी सुधरेगी और स्थितियाँ बदलेंगी. सकारात्मक सोच तो यही कहती है.खीज आना स्वभाविक है.
गिरिजेश राव
जनवरी 12, 2010 @ 06:29:32
ये पाप है क्या ये पुण्य है क्यारीतों पर धर्म की मुहरे हैं – चित्रलेखा :)नए जमाने की रीतियाँ और धर्म। नए जमाने के देवता और ईश्वर। हमरे आका।लोकतंत्र का यह मॉडल बहुत बड़ी साजिश है। सफल है – हम जो विफल हैं।हमें भी अपनी ऐसी तैसी करवाने में मजा आता है। 62 साल से तो यही चल रहा है।
सतीश पंचम
जनवरी 12, 2010 @ 07:07:40
अभी अभी न्यूज में देख रहा था कि इंदौर में सरपंच के पद की बोली लगी और करीब साढे पांच लाख की कीमत में यह पद बेचा गया। उस खबर के बाद तुरंत बाद ही आपकी यह पोस्ट पढ रहा हूँ । लगता है इंदौर वाले ज्यादा समझदार हैं जो सारी कवायद को ही खत्म कर सिर्फ एक लग्गी के सहारे अपना प्रतिनिधि चुन रहे हैं, सारी सरकारी मशीनरी का पैसा बचा सो अलग…..सोचता हूँ यह प्रणाली जो कि अब तक ढके छुपे तौर पर चल रही थी शायद अपना घूँघट उठाने को बेताब है। देखें, आगे और कौन सा गुल खिलता है। बढिया पोस्ट।
डॉ. मनोज मिश्र
जनवरी 12, 2010 @ 09:44:58
लोकतन्त्र की दुन्दुभि बजाते ये चुनाव क्या देश के जनमानस का सही प्रतिनिधि दे पा रहे हैं। ऐसा नेता जो हमें आगे की ओर सही दिशा में ले जा सके?….असली यक्ष प्रश्न तो यह है.
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
जनवरी 12, 2010 @ 10:19:18
घनघोर अंधकार में रोशनी की एक किरण भी पर्याप्त होती है। ये निरक्षर महिलाएँ चाहे अपने परिवार पुरुषों के कहने पर ठप्पा लगा रही हों पर कुछ ही सालों में उन्हें अपना महत्व पता लगने लगता है। उन में से कुछ जल्दी और कुछ देर से अपनी भूमिका में आने लगती हैं। कुछ नहीं से कुछ होना बेहतर है। आप ने जो भूमिका अदा की उस का भी बड़ा असर होगा। यदि आप उन्हें छूट देते तो एक सामान्य व्यक्ति होते। आप ने अपना कर्तव्य निभा कर उन व्यक्तियों के समक्ष भी अडिग चरित्र का परिचय दिया है। उन की निगाह में निश्चित ही आप का मान बढ़ा होगा। भले ही फोरी तौर पर मन ही मन उन्हों ने आप को कुछ गालियों से नवाजा हो।
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
जनवरी 12, 2010 @ 10:56:04
जिस जीवन में आप व्यस्त थे , जहाँ निराशा संवेदनशील-जन को होनी ही है , जिसमें रहकर विचार करना दूभर है , जहाँ के योगदान से नौकरशाही और नेताशाही निष्कंटक होते हों , ,,,,, वहां पर रहते हुए ऐसे विचारों को रखना धारा के विरुद्ध नाव खेना है और आप जैसे नाविक 'उस धारा ' के समानांतर अपनी प्राणधारा को बचाए हैं ,यह स्तुत्य है …..रोष आना जरूरी है , लेखन होता रहे तो एक दायित्व से मुसलसल साब्काबना रहता है ………………. आभार ,,,
Anil Pusadkar
जनवरी 12, 2010 @ 11:28:13
यंहा भी चुनाव चल रहे हैं,नगर निगम के निपटे हैं और पंचायत के शुरू हुये हैं।नगर निगम मे एक एक पार्षद ने शराब की नदियां बहा दी और खर्च लाखों मे महापौर का तो पूछिये मत और पंचायत चुनाव मे तो गांव वाले पहले पूछ्ते हैं चेपटी(शराब का पौव्वा,चपटी बोतल)कंहा है।क्या फ़ायदा चुनाव का जो चेप्टी के बिना होता नही है।इसका नाम इलेक्शन की बजाये रिजेक्शन होना चाहिये।सारे प्रत्याशियों मे से गंदे लोगों को रिजेक्ट करो और जो सबसे कम खराब हो उसे मजबूरी मे वोट दो।
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
जनवरी 12, 2010 @ 16:06:38
आपकी चिंता जायज है, पर हम कर भी क्या सकते हैं?——–अपना ब्लॉग सबसे बढ़िया, बाकी चूल्हे-भाड़ में।ब्लॉगिंग की ताकत को Science Reporter ने भी स्वीकारा।
पंकज
जनवरी 12, 2010 @ 17:28:52
पिछले दिनों एक होर्डिंग पर नजर गयी. एक "भाई" झांक रहे थे. नीचे देखा तो उनका पदनाम था, प्रधान पति. मैं चौंका ये क्या पद है? फिर पता लगा कि महिला आरक्षण के कारण उनकी पत्नी प्रधान चुनी गयी थी. सो अब "भाई" प्रधान से प्रधान पति हो गये.
मनोज कुमार
जनवरी 12, 2010 @ 17:47:35
आपका आलेख अच्छा लगा। आपकी चिंता सही है। शुरुआत भी तो हम से ही हो।
रंजना
जनवरी 12, 2010 @ 18:29:53
ANTIM PAIRA ME AAPNE NICHOD KAH DIYA…AUR PRASHN JO AAPNE POOCHHA HAI,YAHI PRASHN AAMJAN KO ITNA HATOTSAHIT KAR CHUKA HAI KI ITNE TAAM JHAAM KE BAAVJOOD AAJ 50% PRATISHAT VOTAR BHI VOTE DENE MATDAAM KENDRA NAHI PAHUNCH RAHA….LOKTANTRA ME AB LOK RAH KAHAN GAYA HAI….
राज भाटिय़ा
जनवरी 12, 2010 @ 19:24:00
हम बहुत कुछ कर सकते है, जेसे आप ने किया, अगर सब आप की तरह से करे तो यह चोर ओर गुंडे जो हमारे नेता बने है सब गायब हो जाये, ओर हमे जन्ता को भी जागरुक करना चाहिये, एक शराब की बोतल ले कर जो अपना वोट बेच रहा है वो पांच साल की गुलामी उस बोतल के संग ले रहा है… यह बाते हमे समझानी चाहिये इन जनता कोबहुत अच्छा लगा आप का आज का यह लेख
अजय कुमार झा
जनवरी 12, 2010 @ 20:42:10
सबसे असली और सच्ची बात तो आपने शीर्षक में कह दी ,कि एक घटिया व्यक्ति को चुनने के लिए इतनी मेहनत अजय कुमार झा
Devendra
जनवरी 12, 2010 @ 20:51:27
ऐसी प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाकर क्या हम उस पाप के भागी नहीं बन रहे हैं?..नहीं, बिलकुल नहीं …आपने तो अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन किया. साधारणतया आप यही तो कर सकते थे. लेकिन आपने एक और विशिष्ट कार्य किया…ब्लाग में इतनी खूबसूरती से चुनाव के माहौल का चित्रण किया और अपने विचारों से हमें सुख पहुँचाया.हम आपके आभारी हुए.
ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
जनवरी 13, 2010 @ 11:22:18
बहुत साहसिक कार्य किया सिद्धार्थ आपने। और बहुत अनुकरणीय भी। हमाये अधिकांश पोलिँग अधिकारी ऐसे हो जायें तो सार्थक परिवर्तन बहुत तेजी से हों। वैसे विधान परिषद तो संवैधानिक निरर्थकता है और इसे समाप्त कर देना चाहिये।
Harshkant tripathi"Pawan"
जनवरी 13, 2010 @ 12:19:40
post padhkar bahut log apne sujhaw aur samvedna presit kar denge lekin kitne log isko follow karte hain ye bat dekhne wali hogi. sabne aapke sahas ki tarif to kar di lekin aisa kuchh karne se pahle aapke dilo dimag par kya kuchh gujra hoga iske bare me bhi sochna hoga aur we log in paristhitiyon me kya khud ko waha khada pate hain? sahsik karya lekin dukh is bat ka hai ki sab aisa nahi karte,nahi to ????????????????????
rashmi ravija
जनवरी 13, 2010 @ 21:34:34
सिद्धार्थ जी,आप मेरे ब्लॉग पर पधारे बहुत बहुत शुक्रिया….मुझे भी अफ़सोस है कि मैं पहले आपके ब्लॉग पर क्यूँ नहीं आई…..लेकिन ये पोस्ट अगर देखने से रह जाती तो बहुत दुःख होता..क्यूंकि यह सब मेरे मन के बहुत करीब है…बहुत नज़दीक से देखा है यह सब मैंने…मेरे पिताजी एक बहुत ही ईमानदार सरकारी पदाधिकारी थे…उन्हें भी ये सारी मुसीबतें झेलनी पड़ती थीं…अकसर घर में ऐसे ही उदगार उनके मुहँ से भी निकलते थे…पहले तो मतगणना मैन्युअल होती थी…पूरी पूरी रात चलती थी…दिन भर ऑफिस का काम और रात भर जागरणपर सभी जगह यही हाल है…अपना कर्तव्य तो ईमानदार से निभाना ही पड़ेगा…मैंने भी एक पोस्ट लिखी थी…अपने चुनाव के दौरान अनुभवों के ऊपर…पदाधिकारी के परिवार को भी बहुत कुछ झेलना पड़ता है…कभी वक़्त मिले तो इस पोस्ट को देखें.http://mankapakhi.blogspot.com/2009/10/blog-post_09.html
Anup shukla
जनवरी 14, 2010 @ 17:10:24
Badi mehanat kar dali jade me. DM padhenge to explation call kar sakate hain ki raat ko vapas kyon laut aaye. Lage rahen sab log , badalav aise hee aayegaa dheere -dheere. Sundar. Lucknow air port se mobile se baanchkar roman me tipiya rahe hain -jabariya
RAJ SINH
जनवरी 14, 2010 @ 19:45:02
जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत हैजहां सरों को गिनते हैं ,तौला नहीं करते _ अकबर इलाहाबादी
अमित
जनवरी 14, 2010 @ 23:50:45
सिद्धार्थ जी, सराहनीय कार्य किया आपने, और उससे भी अधिक यह कि इसका जिक्र आपने अपने ब्लॉग पर भी किया। हो सकता है कि कुछ लोग आपके अनुकरण करने का प्रयत्न करें।
सुलभ 'सतरंगी'
जनवरी 15, 2010 @ 11:42:37
जो कर्तव्यनिष्ठा आपने क्षेत्र में दिखाई है वो सराहनीय है. साथ ही ब्लॉग पर सार्थक लेखन कर एक जिम्मेदार ब्लोगर की भूमिका निभायी है.बहुत धन्यवाद आपका.धीरे धीरे ही सही उजाले की और ही बढना है.
K M Mishra
जनवरी 15, 2010 @ 23:41:19
imandari se naukari bazane ke liye Badhayee.Accha kaam kiya apne.
महाशक्ति
जनवरी 17, 2010 @ 15:59:21
aapke likhne ki kala bahut hi achchhi hai, sahi baat ka dosharopan aap apne upar le le rahe hai. chunav ki jo prakiya hai vo bahut hi gandi hai sach me to janta hi bahut gandi hai. ham jis ghatiya logo ko hamne chuna un ghatiya logo ne aurghatiya logo ko chuna. aap to apna kartvya nibha rahe the 🙂
Satyendra Kumar
जनवरी 20, 2010 @ 16:41:57
अच्छा आलेख और सार्थक लेखन , पिछले 16 दिन से मै इस ब्लाग जगत मे विचरण कर रहा हू , 5 स्थानो को छोड़्कर कही भी सार्थक लेखन नही दिखा , आपके घाट पर अच्छा लगा ।http://kumarsatyendra.blogspot.com/
shikha varshney
जनवरी 22, 2010 @ 19:09:30
saarthak lekh ..aapki chinta jayaj hai ..pahal hamen hi karni hogi.