इतवार का बिहान
सिर तक रजाई लिए तान
घर में की खटपट से बन्द किए कान
…
आंगन में धूप रही नाच
छोटू ककहरा किताब रहा बाँच
फिर भी न आलस पर आने दी आँच
…
कुंजीपट खूँटी पर टांग
धत् कुर्सी कर्मठता का स्वांग
दफ़्तर में अनसुनी है छुट्टी की मांग
…
कूड़े का ढेर
फाइल में फैला अंधेर
चिट्ठों में आँख मीच रहे उटकेर
…
आफ़त में जान
भला है बन बैठो अन्जान
देह नहीं मन में घुस पैठी थकान
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
जनवरी 31, 2010 @ 19:37:01
प्रयोग भूमि में स्वागत है।ये प्रयोग तो अद्भुत हैं:कूड़े का ढेरफाइल में फैला अंधेरचिट्ठों में आँख मीच रहेदेह नहीं मन में घुस पैठी थकानलय के साथ मात्रा ज्यामिति के सौन्दर्य को देख रहा हूँ, सीख रहा हूँ। आभार बन्धु !
जनवरी 31, 2010 @ 20:02:10
धत् कुर्सी कर्मठता का स्वांगकी प्रशंसा तो छूट ही गई थी। इसलिए दुबारा आया।
जनवरी 31, 2010 @ 20:16:57
हमारा भी वही है हाल! गाड़ियां कुछ चलने लगी हैं तो थकान और चटक गई है! 🙂
जनवरी 31, 2010 @ 20:19:13
"देह नहीं मन में घुस पैठी थकान"असमय में यह कैसी क्लैव्यता पार्थ ?उत्तिष्ठ कौन्तेय !
जनवरी 31, 2010 @ 20:37:32
मन में घुस पैठी थकान,बहुत खूब….
जनवरी 31, 2010 @ 23:14:54
कविमना हैं. सही दृश्य खिंचा है.
फरवरी 01, 2010 @ 10:38:27
थकित ही होगा पहला कविथकन से उपजा होगा गाननिकल कर कलमों से चुपचापबनी होगी कविता मुस्कान लेकिनमन को नहीं थकाना साथीतन चाहे थक जाय
फरवरी 01, 2010 @ 19:36:24
बढिया है! इतवार को भी दफ़्तर सताता है। वाह! मन में घुस बैठी थकान! घर वाली से पूछकर ही न बैठी है! क्या किराया तय हुआ है! बताइये न जी!इस तरह के प्रयोग करते रहिये! अच्छा प्रवाह है कविता नुमा इस चीज का!
फरवरी 07, 2010 @ 01:38:12
रिवाइटल.. जियो, जी भर के