ब्लॉग जगत की हलचल से अलग रहते हुए अपनी सरकारी नौकरी बजाने में ही हलकान हो जाने पर मैने मन को समझा लिया कि इसमें बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। ऑफ़िस से लौटकर घर आने के बाद शर्ट की बटन खोलने के पहले कम्प्यूटर का बटन ऑन करने की आदत पड़ गयी थी। उसे बड़े जतन से बदल लिया है। आलसी की कुर्सी खाली देख उसे ही हथिया लिया है मैंने।
अहा, निष्क्रियता के भी क्या मजे हैं…! क्या हुआ जो नयी पोस्ट डाले हफ़्ते से ज्यादा हो गये…? क्या फ़र्क पड़ता है जो गूगल रीडर में सैकड़ों पोस्टें पढ़े जाने का इन्तजार कर रहीं हैं…? मेरी श्रीमती जी जो कम्प्यूटर से मेरी इस बढ़ती दूरी से मन ही मन प्रसन्न रहने लगी थीं, उन्होंने भी लम्बे ब्रेक के लिए टोक दिया तो क्या हुआ..! मैं तो बस आराम से आराम करने की जिद पर अड़ा अकर्मण्यता के मजे ले रहा था।
मेरा बेटा जो बैट-बॉल के खेल में मुझे अनायास पाकर हर्षित हो रहा था उसने भी अन्ततः मुझे ‘कम्प्यूटर पर पढ़ाई’ करने की सलाह दे डाली। बेटी की परीक्षा की तैयारियों में मेरी अचानक बढ़ती रुचि से वह भी हैरत में पड़ गयी- “डैडी, तुम्हें अब कुछ पोस्ट नहीं करना है?” लेकिन मैं तो अपने मस्तिष्क को कोई कष्ट देने के मूड में ही नहीं था। ऑफिस के काम से ही दिमाग का दही बन जाय तो घर पर उसकी लस्सी घोंटने की हिम्मत कहाँ बचती है? सोच रहा था कि अब मार्च बीतने तक ऐसा ही रहने वाला है।
अब हम ज्ञान जी जैसी खोजी शक्ति से सम्पन्न तो हैं नहीं कि जहाँ नजर उठायी वहीं से एक पोस्ट का माल जुटा लिया। कुछ अच्छा और नया लिखने के लिए जो पैनी नजर, सृजनात्मकता और घ्राण शक्ति चाहिए वह तो मुझमें सीमित ही है। केवल उत्साह के दम पर कबतक आस-पास की सर्वविदित बातें ठेलते रहेंगे? हिन्दी चिट्ठों पर भाई लोग कितना कुछ तो लिख रहे हैं। मेरे लिए कुछ छोड़ें तब न…। मन को यही सब समझा-बुझाकर अपनी निष्क्रियता के आनन्द सागर में गोते लगाते हुए मैं दिन काट रहा था तभी ये मुंआ वेलेन्टाइन आ धमका…।
एक दिन पहले से ही तार टूट जाने से मेरे सरकारी मुहल्ले की बिजली गुल थी। किसी ने कॅम्प्लेन्ट नहीं दर्ज करायी क्योंकि साहब लोगों के घर बिजली का आना जाना जल्दी पता ही नहीं चलता। जब रात में इन्वर्टर जवाब दे गया तो पता चला कि बिजली दस घण्टे से गुल थी। कम्प्यूटर भी घूल धूल से नजदीकियाँ बढ़ा रहा था।
सुबह सुबह जब मोबाइल पर ‘एसेमेस’ आने लगे तो हम उन्हें मिटाने लगे। कई तो बिना पढ़े ही। फिर एक फोन आया- एक पुरानी साथी का था।
“हैप्पी वेलेन्टाइन डे”
“थैंक्यू- सेम टू यू…” मैने अचकाते हुए कहा फिर झेंप मिटाते हुए बोला, “अरे, बहुत दिन बाद… अचानक आज के दिन? सब खैरियत तो है?”
“क्यों, ऐसे क्यों पूछ रहे हैं… विश नहीं कर सकते क्या?”
“क्यों नहीं, जरूर करिए… अधिक से अधिक लोगों को कर डालिए, प्यार तो बहुत अच्छी चीज है…”
सामने से मुस्कराती हुई श्रीमती जी ने पूछा किसका फोन है। मेरे जवाब देने से पहले उधर से लाइन कट गयी। फिर मैं यूनिवर्सिटी के दिनों की बातें बताने लगा। कई बार बता चुका था फिर भी नये सन्दर्भ में बताना पड़ा। अब दिनभर सण्डे टाइप काम-धाम होते रहे। तेल में तली हुई लज्जतदार बाटी और आलू-बैगन-टमाटर का भर्ता व चने की तड़का दाल बनी। चटखारें ले-लेकर खाया गया। बनाने वाली की बड़ाई की गयी।
शाम को एक भाभी जी का मेसेज आया। वही भगत सिंह को फाँसी दिए जाने की तिथि को भुलाकर वेलेण्टाइन मनाने को लानत भेंजने वाली। श्रीमती जी ने मुझे दिखाया। मुझे बात खटक गयी। उस समय भौतिकी के एक सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर मेरे घर आये हुए थे। उनसे चर्चा हुई। मैने याद करके बताया कि फाँसी मार्च में हुई थी। उन्होंने समर्थन किया। यह भी कि गान्धी जी को इसके बाद लाहौर जाते समय रास्ते में बहुत गालियाँ पड़ी थी कि उन्होने लॉर्ड इर्विन से समझौते के समय फाँसी की माफी नहीं मांगी। मैने रचना से कहा कि नेट खोलकर चेक कर लो। ये नेट पर तो आयीं लेकिन अपनी ताजी पोस्ट की टिप्पणियाँ देखने लगीं।
जी-मेल पर गिरिजेश भैया मिल गये। चैट पर उनसे ही सवाल दाग दिया- भगत सिंह को फाँसी कब हुई? जवाब आया- २३ मार्च। उसके बाद ‘धन्यवाद’ टाइप करने के बजाय इन्होंने गलती से ‘0’ छाप दिया। भइया ने समझा कि परीक्षा में उन्हें शून्य अंक मिला है। उन्होंने लिखा- मुझे तो यही पता है, सही जवाब आप बताइए।
इसी समय प्रोफ़ेसर साहब को विदा करके मैं कमरे में आया। चैट की कमान मैने सम्हाल ली और विकीपीडिया से कॉपी-पेस्ट किया- सरदार भगत सिंह (28 सितंबर 1907 – 23 मार्च 1931) और बात बिगड़ने से बच गयी, नहीं तो आज जेठ-भवइ के बीच कालिदास और विद्योत्तमा का शास्त्रार्थ शुरू होने वाला था। 🙂
उसके बाद मैने उन भाभी जी को फोन किया और उस मेसेज को दुरुस्त करने की सलाह दी। उन्होंने उस डॉक्टर मित्र को लानत भेंजी जिसने उन्हें यह मेसेज किया था और अधिकाधिक लोगों तक फॉर्वर्ड करने को भी कहा था। मैंने बाद में जब यही कुछ मानसिक हलचल पर देखा तो हैरान रह गया कि किसी एक खुराफ़ाती दिमाग ने कितने भले लोगों की वॉट लगा दी है।
बात ही बात में उन भाभी जी ने मुझे एक संकट में डाल दिया। पूछ लिया कि ‘आपने किसी को वेलेण्टाइन विश किया कि नहीं…।’ मैने झटसे ईमानदारी पूर्वक कह दिया – ‘नहीं’ और यह भी जोड़ दिया कि ‘मेरी तो कोई वेलेण्टाइन है ही नहीं’
लीजिए साहब, सामने खड़ी श्रीमती जी की गहरी मुस्कराहट देखकर मैं घक् से रह गया। मेरी इस सपाटबयानी को जरूर निराशापूर्ण अर्थ में ग्रहण कर लिया गया होगा। सोचने लगा- अब इन्हें कैसे समझाऊँगा…???
तभी भाभी जी ने यह पूछ कर मेरा काम आसान कर दिया- “क्यों? आपकी इतनी अच्छी पत्नी हैं …उन्हें?”
“वो मेरी वेलेण्टाइन कैसे हुई? वो तो मेरी मलकाइन (मालकिन) हैं। उनकी जो हैसियत है उसके पासंग भर भी कोई वेलेण्टाइन नहीं हो सकती… आप सागर की तुलना एक छोटे तालाब से कर रही हैं। …हम उनसे जो पाते हैं वह कोई वेलेन्टाइन क्या दे पाएगा? …हम एक दिन के चोंचले में विश्वास नहीं करते, हम तो रोज उस अन्दाज में जीते हैं जिसकी आज के दिन पार्कों और क्लबों में घूमने वाले तमाम कृत्रिम जोड़े कल्पना भी नहीं कर सकते।” इस बीच रचना चाय के खाली कप समेटकर वहाँ से जा चुकी थीं।
शाम को मुझे कम्प्यूटर पर बैठने की प्रेरणा हुई। सफ़ेद घर पर बाल्टिआन बाबा को कड़ाही चढ़ायी जा रही थी। गुरुदेव की पोस्ट पर भगत सिंह की फाँसी का मेसेज चिठ्ठाजगत में भी खुराफ़ात करता दिखायी पड़ा। लेकिन उनकी पोस्टेरस की नयी उड़ान और मोबाइल ब्लॉगिंग की हाइटेक शुरुआत की बात पढ़कर मुझे हीनता ग्रन्थि ने घेरना शुरू कर दिया। उसके बाद मैं पहुँचा- आलसी के चिट्ठे पर।
यहाँ जो लिखा हुआ पाया उसे पढ़ने के बाद तो मेरा कान गरम हो गया। रे सिद्धार्थ, लानत है तुझपर। देख, अपनी जीवन संगिनी को देखने का सही ढंग। उस चलते फिरते स्तम्भ को तू क्यों न देख पाया? बड़ा अपने को शब्दशिल्पी समझता रहा। दूसरे भी तुम्हारी शब्दसम्पदा की प्रशंसा करते रहे… लेकिन तुम तो पाजी निकले। तुमसे यह सब क्यों न लिखा गया?
मैने यहाँ लौटकर बहुत कोशिश की कुछ लिखने की। अपने हृदय की गहराइयों में बहुत नीचे तक उतरकर उसे पकड़ने की कोशिश की लेकिन मैं उसे बाहर निकाल नहीं पाया। शब्द बेगाने होकर साथ छोड़ गये हैं। पिछले ग्यारह साल के साथ को याद करके उसकी गर्माहट और आश्वस्ति महसूस तो कर सकता हूँ लेकिन चाह कर भी लिख नहीं पा रहा। जैसे मूढ़मति होकर बहती हुई गंगा की धारा के बीच आँखें बन्द किए खड़ा हूँ। बुद्धू सा।
किनारे एक बड़ा सा बोर्ड लगा है- गंगे तव दर्शनार्थ मुक्तिः।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
फरवरी 15, 2010 @ 06:06:22
तो यह थी आपकी वैलेंटायींन स्पेशल -खट मिठ सी ..
फरवरी 15, 2010 @ 06:58:37
ओह बहुत कुछ सोच लिये, और लगभग सारी बातें कह गये.. जो कहना इतना आसान भी नहीं होता है।
फरवरी 15, 2010 @ 08:21:46
आह!! यही गल्ती हमसे भी हुई है प्रभु और पत्नी का मूँह फूल गया कि हमें वेलेन्टाईन का दर्जा क्यूँ नहीं..आपसे सीख अब बता देते हैं उन्हें कि तुम तो मालकिन हो!! :)बढ़िया पोस्ट..अब जरा ढील छोड़ें और नियमित हो जाईये.
फरवरी 15, 2010 @ 09:02:43
'घूल' है कि 'धूल'?मलिकाइन को अच्छा बनाया! @ मूढ़मति होकर बहती हुई गंगा की धारा के बीच आँखें बन्द किए खड़ा हूँ।अब और क्या लिखोगे शब्द शिल्पी?
फरवरी 15, 2010 @ 09:03:16
कल ऐसा ही गलत संदेश किसी ओर के पास भी आया। भगत सिंह को गिरफ्तार किया गया हो शायद इस तिथि को..लेकिन फाँसी तो 23 मार्च 1931 को ही दी गई। हिन्दुस्तान में भगत सिंह पर एक साथ पाँच फिल्में बनी थी, और उससे पहले भी एक दो फिल्में बनी हैं, लेकिन फिर भी इतना गलत संदेश क्यों।
फरवरी 15, 2010 @ 09:18:37
कहानी तो बनबै करेगी । कुछ करिये या कुछ न करिये । बुद्ध का मध्यमार्ग कहाँ से लाइयेगा ।
फरवरी 15, 2010 @ 10:08:46
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट….
फरवरी 15, 2010 @ 18:07:55
सुबह सुबह जब मोबाइल पर ‘एसेमेस’ आने लगे तो हम उन्हें मिटाने लगे। कई तो बिना पढ़े ही।वाह भैया…बहुत सही.
फरवरी 15, 2010 @ 18:14:32
मेरे पास भी ऐसा संदेश आया था, लेकिन उस समय मैं एक विवाह समारोह में थी तो बात ध्यान से ही निकल गयी। आपने तो आज कई दिनों की कसर निकाल दी शायद मलकिन से पूछ कर और आज्ञा लेकर ही लिखा है सब कुछ। बहुत आनन्द आया पोस्ट पढ़कर।
फरवरी 15, 2010 @ 18:43:30
achha to ye message itna karamat kar chuka hai. kal subah mere pas ek msg patna se to dusra chennai se mila,same contents aur thik yahi galatfahme. fir to is msg ka tata lag gaya.pahle to mai reply kar ke galatfahmiya dur karta raha lekin antatah mera dhairya jawab de gaya aur maine reply karna band kar diya. achhi post…………….
फरवरी 15, 2010 @ 19:48:56
गंगे तव दर्शनार्थ मुक्तिः—भई वाह.
फरवरी 15, 2010 @ 22:53:52
बहुत सुंदर जी , हम ठहरे गवांर यानि हम रहते है गांव मै, ओर गांव देहात मै तो क्या मुया सा नाम है हा याद आया Valentine's Dayतो कोई मनाता ही नही, क्योकि यहां तो पता ही नही इस दिन पुजा पहले करते है या कुछ ओर… लेकिन हम ने होली की तेयारी पहले कर ली है. राम राम
फरवरी 16, 2010 @ 01:54:11
bhai sahab, kul milakar kahu to dil khush ho gaya aapki yah post padhkar
फरवरी 16, 2010 @ 11:58:24
पत्नी से वेलेण्टियाना तो इस दिवस को मार्केट बनाने/करने वालों के अर्थ शास्त्र को रास नहीं आयेगा। पर हम से एक पत्नीव्रत और कर भी क्या सकते हैं! 🙂
फरवरी 16, 2010 @ 17:30:46
तो फाइनली बाल्टियान बाबा ने आपको भी शब्द चुआने को विवश कर ही दिया न….जय हो बाल्टियान बाबा की…वैसे यह तो सही है…जीवन भर की संगिनी को जीवन भर प्रेम करना है,एकदिवसीय प्रेम परंपरा पर हम भारतीयों की आस्था नहीं जमती…
फरवरी 16, 2010 @ 21:02:57
उम्दा पोस्ट!! भाई साहब आपने हमज़बान का लिंक देकर मुझे अनुगृहित किया आभार!
फरवरी 18, 2010 @ 12:47:25
agar buddhupan se aisi post nikalati hai to yah buddhupan sabhi ko hasil ho.shandar post.
फरवरी 23, 2010 @ 05:39:00
कमाल है भई, क्या गज़ब लिखते हैं आप!