कार्यशाला उम्दा थी, गलती मेरी थी…

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मेरी पिछली पोस्ट में आपने साइंस ब्लॉगिंग कार्यशाला के लिए मेरी लखनऊ की यात्रा का हाल पढ़ा था। अनेक मित्रों ने पसंद किया और मुझे अपना स्नेह दिया। मैं भी बड़ा प्रसन्न था कि अपनी प्रसन्नता भरी यात्रा और सेमिनार के अनुभव बाँटकर शायद मैने अच्छा काम किया है। उत्साह में मैने कार्यशाला के दूसरे दिन साइंस ब्लॉगर एसोसिएशन नामक ब्लॉग पर लाइव कमेण्ट्री भी पोस्ट कर डाली। (इसका गैर-योगदानकर्ता सदस्य लम्बे समय से था।) जैसे-जैसे प्रशिक्षण कार्यक्रम आगे बढ़ता जाता पोस्ट में उसका हाल जुटता जाता। दूसरे दिन के प्रथम सत्र पर एक नहीं दो पोस्ट्स सत्र के दौरान ही तैयार हो गयीं और तत्क्षण पब्लिश भी हो गयीं। मुझे तो बड़ा मजा आया। आदरणीय गिरिजेश राव जी के मोबाइल कैमरे से खिंची तस्वीरें ब्लूटूथ पर सवार होकर मेरे लैपटॉप पर आतीं और लाइव राइटर द्वारा सीधे ब्लॉग-पोस्ट में जा समातीं। क्षणभर में ट्रेनिंग देते विशेषज्ञ और सीखते प्रशिक्षु नेटतरंगों पर सवार हो अन्तर्जाल की सैर पर निकल पड़ते।

कार्यशाला हम तो इस अनुभव को आपसे यहाँ बाँटने को उतावले थे कि कैसे देखते-देखते एक आर्ट्‌स  साइड(मानविकी)  के साधारण विद्यार्थी से हम एक वैज्ञानिक सेमिनार के विशेषज्ञ बन गये। धन्य है यह ब्लॉगरी जो एक राई को पहाड़ बनाने की क्षमता रखती है। इस प्रक्रिया का सच्चा उदाहरण बनने का अनुभव बाँटकर मैं बहुतों को अचम्भित करने की तैयारी में था। लेकिन यह हो न सका। पहला कारण तो बनी वर्धा में कुछ समय के लिए वीएसएनएल की ठप पड़ गयी इंटरनेट सेवा, जिससे लिखना विलम्बित हो गया। लेकिन दूसरा बड़ा कारण बना मेरे उस भ्रम का ही टूट जाना जो आदरणीय डॉ. अरविंद जी की निम्न महत्वपूर्ण टिप्पणी से सम्भव हुआ-

Arvind Mishra said…

वैज्ञानिक समागमों में सत्र का अध्यक्ष ही मंच का संचालन करता है -इस कार्यशिविर में एक अनजाने में हुयी कमी रह गयी कि आयोजकों में से किसी ने आहूत विशेषज्ञों के लिए आरम्भ में एक उद्बोधन नहीं रखा -संभवतः यह मानकर कि उन्हें वैज्ञानिक आयोजनों के प्रोटोकाल मालूम होंगें .-वैज्ञानिक सम्मलेन और पारम्परिक साहित्यिक सांस्कृतिक सम्मेलनों के प्रोटोकोल थोडा अलग होते हैं –
बाकी तो यह देवी का भड़रा नहीं था -न ही चलो बुलावा आया है जैसा कोई आयोजन -अनाहूत ब्लॉगर वहां न पहुच कर विवेक का काम तो किये ही अपनी अनुपस्थिति से आयोजन को सफल बनाए में योगदान भी किये -उनकी अनुपस्थिति इस लिहाज से उभरती गयी ….
बाकी आप लोगों के खान पान रहन सहन अवस्थान में आयोजकों ने शायद ही कोई कसर छोडी हो -समय पर बेड टी के साथ लंच और डिनर भी ….और रहने के ऐ सी कमरे -इन उज्जवल पक्षों को भी इस लम्बी रिपोर्ट में समेटते तो वृत्तांत का सही परिप्रेक्ष्य भी उभरता -किसी विशेषग्य के साथ कोई भेद भाव भी नहीं था -जैसे किसी को ऐ सी तो किसी को नान ऐ सी …आपने इन बातों को भी नोट किया होगा ..हाँ अन्य विशेषज्ञों को ऐ सी २ का भुगतान किया गया था क्योंकि उन्हें एन सी एस टी सी का अनुमोदन प्राप्त था …..और उनके मानदेय भी अधिक थे …… ये अनुभव आपके कम आयेगें -इन्हें सहेज कर रखें !
बाकी उदघाटन सत्र की अध्यक्षता के लिए बधायी -तेल बाती के लिए तो हम काफी थे …आपने क्यों जहमत उठाई ? अगर उठाई तो ! और यह तो व्यक्ति की सहजता और विनम्रता का परिचायक है न कि कटूक्ति का -सायिनिज्म का !

Monday, 30 August, 2010

अब मैं तो किंकर्तव्यविमूढ़ सा इसे देखता रहा। अपनी पोस्ट इस टिप्पणी के आलोक में दुबारा पढ़ी, तिबारा पढ़ी…। इसकी शुरुआत ही इन पंक्तियों से की थी, “जब मैंने वर्धा से लखनऊ आने के लिए टिकट बुक कराया तो मन में यह उत्साह था कि हिंदी ब्लॉगरी की यात्रा मुझे एक ऐसे मुकाम पर ले जाने वाली है जहाँ अपनी तहज़ीबों और नफ़ासत के लिए मशहूर शहर की एक शानदार शाम अपने् प्रिय ब्लॉगर मित्रों की खुशगवार सोहबत में बीतेगी।”

फिर बाकी टिप्पणियाँ भी दुबारा देख डाली। कन्फ़्यूजन बढ़ता गया। फिर मैने सोचा कि वे बड़े  भाई हैं,  अनुभवी ब्लॉगर हैं, मेरे शुभेच्छु हैं और सबसे बढ़कर एक वैज्ञानिक हैं और विज्ञान प्रसारक हैं इसलिए जो कह रहे हैं वह ठीक ही कह रहे होंगे। मैंने मन ही मन हाथ जोड़कर उन्हें धन्यवाद दिया।फिर लगा कि यह धन्यवाद तो उनतक पहुँच ही नहीं पाएगा। सो मैंने उन्हें प्रति-टिप्पणी  के माध्यम से जवाब देना चाहा। जब टिप्पणी टाइप कर चुका तो पब्लिश बटन दबाने के पहले इसे कॉपी करके सेव कर लेना जरूरी समझ में आया। दर‌असल ब्लॉगर वाले कई बार गच्चा दे चुके हैं। अक्सर लम्बी टिप्पणियों को गायब करके ‘सॉरी’ बोल देते हैं। कमाल देखिए कि हुआ भी वही जिसकी आशंका थी। टिप्पणी लम्बी थी, गायब हो गयी। अब मजबूरी में वह टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

आदरणीय अरविंद जी,

मैने इस पोस्ट में इस कार्यक्रम की इतनी आलोचना कर दी है यह तो मुझे पता हि नहीं था। वह तो भला हो आदरणीय अली जी, रविन्द्र प्रभात जी और आपका जो मुझे इस बात का पता चल गया। आप तीनो का हार्दिक धन्यवाद।

ब्लॉगर्स की अनुपस्थिति की चर्चा तो मैने व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें ‘मिस’ करने के कारण की थी। वर्धा से लखनऊ जाकर मैं उम्मीद कर रहा था कि अनेक बड़े लोगों से मुलाकात होगी, सुबह शाम की गप-शप और अनुभवों का आदान-प्रदान होगा। लेकिन मुझे क्या पता था कि मेरी निजी इच्छा का पता चलते ही आपलोग आहत हो जाएंगे। मुझे यह कार्यक्रम स्थल पर पहुँचने के बाद पता चला कि यह गैर ब्लॉगर को ब्लॉगर और वह भी साइंस ब्लॉगर बनाने की कार्यशाला थी जो सरकार द्वारा विज्ञान के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य की पूर्ति के लिए चलायी जा रही एक योजना का हिस्सा थी। वहाँ ब्लॉगर भाइयों को न पाकर मेरी सहज प्रतिक्रिया थी यह पोस्ट, न कि कोई शिकायत।

आप द्वारा गिनायी गयी खान-पान, रहन-सहन, बेड-टी, ए.सी., नॉन-ए.सी., मानदेय, ऑटो, टैक्सी जैसी बातों पर ध्यान देना, तुलनात्मक अध्ययन करना और उसकी समीक्षा करना मुझे बहुत तुच्छ काम लगता है, इसलिए अपनी पोस्ट में उसका जिक्र न करने पर मुझे कोई पछतावा नहीं है। मेरे हिसाब से आयोजन के तमाम दूसरे उज्ज्वल पक्ष थे जिनका लिंक मैने इस पोस्ट में दे दिया था। समय पाकर मैं भी कुछ बताने की कोशिश करता लेकिन इसके पहले ही ‘सिनिकल’ होने का ठप्पा लग गया।

वैसे दूसरे दिन के प्रथम सत्र में मैंने साइंस ब्लॉगर्स एसोसिएशन के ब्लॉग पर लाइव कमेण्ट्री पोस्ट करने की कोशिश की थी। जिसे आपने कदाचित्‌ पसंद भी किया था।

एक गलती आयोजकों ने जरूर की जिसे मैं अब समझ पाया हूँ। इतने बड़े और उत्कृष्ट वैज्ञानिक आयोजन में एक अदने से अवैज्ञानिक ब्लॉगर को बुला लिया और उसे उद्‍घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के बगल में बिठा दिया, जिसे किसी प्रोटोकॉल की जानकारी भी नहीं थी। इतना ही नहीं, मुख्य अतिथि भी भले ही दो-दो विश्वविद्यालयों के कुलपति रह चुके हों लेकिन ब्लॉगिंग के बारे में उनकी जानकारी भी उतनी ही थी जितनी डॉ.अरविंद मिश्र ने उद्घाटन के ठीक पहले उन्हें ब्रीफ किया था। एन.सी.एस.टी.सी. से एप्रूव कराने का काम आयोजकों का ही था तो ‘अनएप्रूव्ड’ व्यक्ति को बुलाने की गलती कैसे हो गयी?

मैं तो गलती से इतने सम्मानित मंच पर बुला लिया गया, इसलिए अब आपकी बधायी स्वीकारने में भी संकोच का अनुभव कर रहा हूँ। आपने मुझे ए.सी. कमरे में ठहरा दिया इस बात को छिपा ले जाने की मेरी कोशिश असफल हो गयी, शर्मिंदा हूँ।

मैंने अपनी पूरी पोस्ट बहुत हल्के-फुल्के अंदाज में लिखने की कोशिश की थी लेकिन यदि इसमें कोई कटुक्ति आ गयी है तो इसे मैं अपनी असफलता ही मानता हूँ। सादर खेद प्रकाश करता हूँ।”

IMG443-01 तो मित्रों, मैं एक बार फिर बता दूँ कि मेरी पिछली पोस्ट पर अन्जाने में मुझसे जो घनघोर आलोचना हो गयी थी वह मेरे अनाड़ीपन के कारण हो गयी थी। सच तो यह है कि मैं इस कार्यक्रम में नाहक ही बुला लिया गया था। अब इसपर NCSTC क्या रुख अपनाती है इसे सोचकर थोड़ा चिंतित हूँ। जैसा कि आदरणीय विद्वत्‌‍जनों ने बताया है कि  कार्यशाला बेहद उम्दा और उत्कृष्ट कोटि की थी, इसमें लखनऊ के ब्लॉगर्स का कोई काम ही नहीं था, मैंने उन्हें नाहक ही याद किया। इसलिए मैं अपनी गलती मानते हुए पुनः खेद प्रकाश करता हूँ।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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रेल में पकवान और कार्यशाला वीरान… लखनऊ के ब्लॉगर नदारद…?

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जब मैंने वर्धा से लखनऊ आने के लिए टिकट बुक कराया तो मन में यह उत्साह था कि हिंदी ब्लॉगरी की यात्रा मुझे एक ऐसे मुकाम पर ले जाने वाली है जहाँ अपनी तहज़ीबों और नफ़ासत के लिए मशहूर शहर की एक शानदार शाम अपने् प्रिय ब्लॉगर मित्रों की खुशगवार सोहबत में बीतेगी। मैंने कुलपति जी से अनुमति माँगी और उन्होंने सहर्ष दे दी। एक आदरणीय ब्लॉगर मित्र ने ही टिकट पक्का कराया और मैं सेवाग्राम से लखनऊ के लिए राप्तीसागर एक्सप्रेस पर सवार हो लिया।

जब मैं अपने टिकट पर अंकित बर्थ संख्या पर पहुँचा तो देखा कि मेरे कूपे में तमिलभाषी तीर्थयात्रियों के एक बहुत बड़े समूह का एक हिस्सा भरा हुआ था। नीचे की मेरी बर्थ पर एक प्रौढ़ा महिला सो रही थीं। उनकी गहरी नींद में खलल डालने में मुझे संकोच हुआ। थोड़ी देर मैं चुपचाप खड़ा होकर सोचता रहा। अगल-बगल की बर्थों पर भी तीर्थयात्री या तो जमकर बैठे हुए थे, सो रहे थे या उनका सामान लदा हुआ था। मैने अपना बैग उठाकर दुबारा पटका ताकि उसकी आवाज से मेरे आने की सूचना उनके कानों तक पहुँच सके। (बाद में मैंने ध्यान दिया कि अधिकांश ने अपने कानों में सचमुच की रूई डाल रखी थी। खैर…) दोपहर के भोजन के बाद की नींद थी, शायद ज्यादा गहरी नहीं थी। सामने की बर्थ पर लेटी हुई दूसरी महिला ने आँखें खोल दीं। उन्होंने मेरी सीट वाली महिला को हल्की आवाज देकर कुछ कहा- शायद यह कि अब उठ जाओ, जिसके आने का अंदेशा था वह आ चुका है- इन्होंने आँखें खोल दी। मुझे खड़ा देखकर झटपट अपने को समेटने की कोशिश करने लगीं। 

लेकिन यह इतना आसान नहीं था। ईश्वर ने उन्हें कुछ ज्यादा ही आराम की जिंदगी दी थी। जिसका भरपूर लाभ उठाते हुए उन्होंने काफ़ी वजन इकठ्ठा कर लिया था। वजन तो उस समूह की प्रायः सभी महिलाओं और पुरुषों का असामान्य था। कोई भी फुर्ती से उठने-बैठने लायक नहीं था। मुझे मन हुआ कि कह दूँ- आप यूँ ही लेटी रहिए, मैं कोई और बर्थ खोजता हूँ। उनकी आँखों में भी कुछ ऐसी ही अपेक्षा झाँक रही थी तभी बगल की बर्थ पर लेटे एक भीमकाय बुजुर्ग ने टूटी हिंदी में कहा कि ‘वो ऊपर चढ़ नहीं सकता’। मैंने ऊपर की साइड वाली सीट देखी- खाली थी। मैंने झट ऊपर अपना लैपटॉप का बैग चढ़ाया, प्रौढ़ा माता जी को लेटे रहने का इशारा किया और अपना ट्रेवेल बैग खिड़की वाली बर्थ के नीचे फिट करने लगा। उनकी आँखों में धन्यवाद और आशीर्वाद के भाव देखकर मैं भावुक हो लिया, बल्कि मेरी अपनी माँ याद आ गयी जो बहुत दिनों बाद मेरे पास रहने का समय निकालकर वर्धा आ पायी हैं।

आयोजकों ने ए.सी.थ्री की सीमा पहले ही समझा दी थी। ऐसे में लगातार लेटकर यात्रा करने की कल्पना से मैं परेशान था। लेकिन जब मुझे साइड की ऊपरी सीट मिल गयी तो मन खुश हो लिया। उसपर तुर्रा यह कि सहयात्रियों ने मुझे बड़े दिल वाला भी समझ लिया। अब तो ऊपर बैठकर, लेटकर, करवट बदल-बदलकर, आधा लेटकर, तिरछा होकर, चाहे जैसे भी यात्रा करने को मैं स्वतंत्र था। किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं होने वाला था। लेकिन इस अवसर का ज्यादा हिस्सा मैने एक मौन अध्ययन में बिताया। चेतन भगत की पुस्तक ‘टू स्टेट्स’ हाल की दिल्ली यात्रा में पढ़ने को मिली थी। उसमें मद्रासी (तमिल) परिवार के खान-पान और आचार-व्यवहार का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया गया है। मैंने उस रोचक वर्णन का सत्यापन करने के उद्देश्य से इनपर चुपके से नजर रखनी शुरू की।

उस कहानी के पात्रों के विपरीत मैने यह पाया कि वे तमिल बुजुर्ग् बड़े खुशमिजाज़ और शौकीन लोग थे। जिन माताजी को मैने अपनी बर्थ दी थी उन्होंने तो मानो मुझे अपना बेटा ही मान लिया। भाषा की प्रबल बाधा के बावजूद (उन्हें हिंदी/अंग्रेजी नहीं आती थी और मैं तमिल का ‘त’ भी नहीं जानता था) उन्होंने बार-बार मुझे अपनी दर्जनों गठरियों में रखे खाद्य पदार्थ (मैं उनके नाम नहीं ले पा रहा- बहुतेरे थे) ऑफर किए। मैंने हाथ जोड़कर मना करने के संकेत के साथ धन्यवाद  कहा जो उन्हें समझ में नहीं आया। डिब्बे का मुँह खोलकर मेरी ओर उठाए उनके हाथ वापस नहीं जा रहे थे तो मैँने एक टुकड़ा उठाकर ‘थैंक्यू’ कहा और आगे के लिए मना किया, लेकिन वो समझ नहीं रही थीं या समझना नहीं चाहती थी। नतीजा यह हुआ कि उन लोगों के खाने के अनन्त सिलसिले का मैं न सिर्फ़ प्रत्यक्षदर्शी रहा बल्कि उसमें शामिल होता रहा। सुबह के वक्त तो उन्होंने मुझसे पूछना भी जरूरी नहीं समझा और मेरे रेल की रसोई (Pantry) से आये नाश्ते के ऊपर से अपनी जमात का उपमा, साँभर, इडली और ‘बड़ा’ एक साथ लाद दिया। मैंने जिंदगी में पहली बार ये चार सामग्रियाँ एक साथ खायीं।

वे लोग मेरे बारे में जाने क्या-क्या बात करते रहे। मैं समझ नहीं पा रहा था, इसलिए थोड़ी झुँझलाहट भी हो रही थी। एक लुंगीधारी बुजुर्ग ने मुझसे मेरा नाम और काम पूछा था। मैंने जो बताया था वही शब्द उनकी तमिल के बीच-बीच में सुनायी दे रहे थे। जो इस बात के गवाह थे कि उनकी चर्चा का एक् विषय मैं भी था। तभी उन माता जी ने मुझसे कुछ पूछा। मैं तमिल् समझ न सका। दूसरे बुजुर्गवार ने अनुवादक बन कर कहा- तुमरा कितना बड़ा बच्चा है? मैंने बताया- एक बेटी दस साल की और एक बेटा चार साल का। उम्र समझाने के लिए उंगलियों का प्रयोग करना पड़ा। इस पर उनके बीच आश्चर्य व कौतूहल मिश्रित हँसी का फव्वारा फूट पड़ा। जो दूसरे कूपे तक भी गया। मैं चकराकर दुभाषिया ढूँढने लगा।

इस बातचीत का रस लेने ऊपर की बर्थ पर लेटा एक तमिल नौजवान भी नीचे चला आया था। मैंने उससे परिचय चलाया तो पता चला कि वह भैरहवा (नेपाल) से एम.बी.बी.एस. कर रहा था। नीचे वाले बुजुर्ग ने उसकी पीठ ठोकते हुए तस्दीक किया था। मैने उससे पूछा- “what were they talking about me?”

उसने मुस्करा कर कहा – “They said that you have got two children, still you look so young.’’

मैं मन ही मन खुश हो लिया लेकिन चेहरे पर थोड़ी शर्म आ ही गयी। मैंने अपनी ओर उठी हुई उन सबकी प्रश्नवाचक निगाहों को जवाब दिया – “Thanks a lot to all of you… this is one of the rarest complements for me as here I am told to have an older look of face than my actual age” महिलाओं ने तमिल में नकारा और पुरुषों ने मुस्कराकर चुप्पी लगा ली।

गाड़ी जब लखनऊ पहुँची तो मुझे ध्यान आया कि मैं ब्लॉग लेखन की पाँच दिवसीय कार्यशाला में भाग लेने आया हूँ और मुझे पहली बार किसी सत्र की अध्यक्षता करनी है। मैंने सबको एक बार फिर धन्यवाद दिया, अच्छी यात्रा के लिए और दक्षिण भारतीय व्यंजनों के लिए। स्टेशन से बाहर आकर ऑटो लिया और गेस्ट हाउस की ओर चल पड़ा। रास्ते में यहाँ का गर्म मौसम देखकर रमजान के रोजेदारों का ध्यान हो आया।

(२)

Invitationदूर-दूर तक भेंजा गया था निमंत्रण-पत्र 

राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी संचार परिषद(NCSTC), नई दिल्ली और लखनऊ की ‘तस्लीम’ संस्था द्वारा एक पाँच दिवसीय कार्यशाला ‘ब्लॉग लेखन के द्वारा विज्ञान संचार’ विषय पर आयोजित थी। तस्लीम ब्लॉग पर इसकी सूचना अनेकशः प्रकाशित हुई थी। जाकिर भाई और बड़े भाई डॉ. अरविंद जी मिश्र ने मुझसे और मेरे जैसे अनेक ब्लॉगर्स को लखनऊ पहुँचने के लिए कहा था। मेरी यात्रा सुखद रही थी इसलिए आगे भी मामला चकाचक रहने की पूरी आशा थी। मैंने गेस्ट हाउस पहुँचकर नहाने और तैयार होने में बहुत कम समय लगाया। आभासी दुनिया के साथियों से प्रत्यक्ष मुलाकात का सुख पाने की लालसा जोर मार रही थी। ज़ाकिर भाई घटनास्थल… सॉरी कार्यक्रम स्थल से पल-पल की सूचना मोबाइल पर दे रहे थे। मुझे लेने कोई गाड़ी आने वाली थी। उसके खोजे जाने, चल पड़ने और गेस्ट हाउस पहुँच जाने के बीच तीन-चार बार फोन आ गये। मैं घबराकर नीचे उतरकर रिसेप्शन पर जाकर खड़ा हो गया। जो ही दो-चार मिनट बचा लिए जाते।

मैं ठीक दो बजे वहाँ पहुँच गया। अरविंद जी तैयारियों को अंतिम रूप में बुरी तरह व्यस्त थे। शायद उन्होंने ज़ाकिर भाई से कमान अपने हाथों में ले ली थी। ज़ाकिर भाई रमजान के महीने में पसीने से तर-बतर दिखायी पड़े। मैने गर्मजोशी से हाथ मिलाया। वे बोले- “बस दस मिनट में लंच आ रहा है। खा लीजिए फिर शुरू करते हैं।” मैं सोचने लगा कि कार्यक्रम की शुरुआत में सिर्फ़ मेरे खा लेने की प्रतीक्षा आड़े आ रही है तो उसे टाल देते हैं। तभी अरविंद जी ने संयोजक महोदय को झिड़की दी- “मुख्य अतिथि को बैठाकर आप खाना खिलाने की बात कर रहे हैं? चलिए कार्यक्रम शुरू करते हैं” मैं उनसे सहमत होने के एक मात्र उपलब्ध विकल्प पर सिर हिलाते हुए आगे बढ़ गया।

“लेकिन दूसरे भाई लोग कहाँ हैं?” मैंने ज़ाकिर से पूछा। हाल में अभी तीन-चार छात्र टाइप प्रतिभागी दिखा्यी दे रहे थे। कुछ पंजीकरण काउंटर पर अपना नाम लिखा रहे थे। मेरी उम्मीद से उलट वहाँ एक भी ऐसा ब्लॉगर चेहरा नहीं दिखा जो मुझसे पहले न मिला हो। वहाँ थे तो बस अरविंद जी और ज़ाकिर भाई। जाहिर है कि तीसरा सुपरिचित बड़ा नाम मेरा ही था 🙂

‘अवध रिसर्च फाउंडेशन’  नामक निजी संस्था के कार्यालय में ही कार्यशाला आयोजित थी। ज़ाकिर भाई उन खाली कुर्सियों की ओर देख रहे थे जो वर्तमान और भविष्य के ब्लॉगर्स की राह देख रही थीं। आमद बहुत धीमी और क्षीण थी। पूर्व कुलपति प्रो. महेंद्र सोढ़ा जी ठीक समय पर पधार चुके थे। अरविंद जी भी समय की पाबंदी पर जोर देने लगे और कार्यक्रम तत्काल शुरू करने का निर्णय हुआ। मैने मन ही मन ट्रेन वाली उन माता जी को एक बार फिर धन्यवाद दिया जिन्होंने सुबह नाश्ते के नाम पर मुझे दिन भर के लिए भूख से मुक्त कर दिया था। हमने उद्‍घाटन सत्र प्रारम्भ किया। इसका हाल आप यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं।

उद्‍घाटन सत्र के बाद हमने लजीज व्यंजनों से भरा लंच पैकेट खोला और तृप्त हुए। अरविंद जी ने दो बार बताया कि वे बहुत जिद्दी इंसान हैं और जो बात एक बार तय कर लेते हैं उसे करवाकर मानते हैं। हम उनकी इसकी बात का लोहा मानते हुए खाना खाते रहे। समय की पाबंदी को जबतक जिद्द का विषय न बनाया जाय तबतक उसका भारत में अनुपालन असंभव है। इस बीच NCSTC के प्रेक्षक महोदय भी आ चुके थे और उद्घाटन सत्र की सफलता से गदगद हो रहे थे। सबकी भूख प्रायः शांतिपथ पर चल पड़ी थी।

लेकिन कदाचित्‌ मेरी दूसरी भूख अतृप्त ही रहने वाली थी। मैंने आखिरकार पूछ ही लिया- “भाई साहब, आप ये बताइए कि आपने किस-किसको बुलाया था जो नहीं आये?” ज़ाकिर भाई एक से एक नाम गिनाने लगे और उनके न आने के ज्ञात-अज्ञात कारण बताने लगे। मैं निराश होकर सुनता रहा। हद तो तब हो गयी जब उन्होंने यह बताया कि आज के प्रथम तकनीकी सत्र के मुख्य वक्ता ज़ीशान हैदर ज़ैदी और वक्ता अमित ओम के आने में भी संदेह उत्पन्न हो गया है। सारांशक अमित कुमार का न आना तो पक्का ही है। मैंने अरविंद जी से पूछा कि मेरी ज़िंदगी की ‘पहली अध्यक्षी’ मंच पर अकेले ही गुजरेगी क्या? वे इस सत्र में जाकिर भाई के साथ किनारे बैठकर उद्‌घाटन सत्र पर एक ब्लॉग पोस्ट तैयार करके तुरंत ठेलने की योजना बना रह थे। बोले- “यह सत्र आपके हाथ में है। जैसे चाहिए संचालित करिए।” मैंने कहा- “अध्यक्ष की भूमिका तो चुपचाप बैठने और सबसे अंत में यह बोलने की होती है कि किसने क्या बोला? अब यहाँ तो सीधे स्लॉग ओवर की नौबत आ गयी है।”

इसपर उन्होंने ‘आधुनिक सेमिनारों में अध्यक्ष की बढ़ती भूमिका’ विषय पर  एक लम्बी व्याख्या प्रस्तुत कर दी जिसका सारांश यह था कि अध्यक्ष को पूरा सेमिनार हाइजैक करने का पावर होता है। उसे शुरुआत से लेकर अंत तक वे सारे काम खुद करने पड़ते हैं जो करने वाला कोई और नहीं होता है। दीपक जलाने के लिए पंखा बंद करने से लेकर तेल की बत्ती से अतिरिक्त तेल निचोड़ने तक और अतिथियों व प्रतिभागियों के स्वागत से लेकर धन्यवाद ज्ञापन तक उसे हर उस तत्वज्ञान से गुजरना पड़ता है जो किसी सेमीनार की सफलता के लिए आवश्यक होते हैं। मुझे शरद जोशी द्वारा बताये गये ‘अध्यक्ष बनने के नुस्खे’ बेमानी लगने लगे।

अपनी नैया किनारे पर ही डूबती देख मैंने भगवान को स्मरण किया। बाईचान्स भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन भी ली। सत्र प्रारम्भ होने के ठीक पहले ओम जी भागते हुए पहुँच ही तो गये। मैंने उनके लिए फ़ौरन चाय-पानी का इंतजाम करने को कहा। पता चला कि उन्होंने जिंदगी में कभी चाय पी ही नहीं। यह मजाक नहीं सच कह रहा हूँ। मेरे सामने एक ऐसा निर्दोष सुदर्शन नौजवान खड़ा था जिसके शरीर में चाय नामक बुराई का लेशमात्र भी प्रवेश नहीं हो पाया था। ऐसे पवित्र आत्मा के आ जाने के बाद सफलता पक्की थी। अब मेरी भगवान में आस्था और बढ़ गयी।

मैंने एक बार हाल में झाँककर प्रतिभागियों का मुआयना किया। दिल जोर से धड़क गया। कुल जमा पाँच विद्यार्थी यह जानने बैठे हैं कि ‘साइंस ब्लॉगिंग’ क्या है…! इन्हें यह समझाने में दो घंटे लगाने हैं। वह भी तब जब इसी बिन्दु पर अरविंद जी अपना पॉवर-प्वाइंट शो एक घंटा पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं। मैं भी थोड़ा बहुत जो कुछ पता था वह उद्घाटन सत्र में ही उद्घाटित कर चुका हूँ। नये वक्ता ओम जी पर सारा दारोमदार था। इसी उधेड़-बुन में लगा रहा कि पसीना बहाते एक दढ़ियल नौजवान नमूदार हुआ। मानो खुदा ने कोई फ़रिश्ता भेंज दिेया हो। परिचय हुआ तो पता चला कि ये ही जनाब जीशान हैदर ज़ैदी साहब हैं। ये साइंस फिक्शन के माहिर लेखक हैं और वैज्ञानिक विषयों को रोचक शैली में प्रस्तुत करने का हुनर रखते हैं। आप रोजे से थे और अपने मेडिकल कॉलेज में परीक्षा कराकर भागते चले आये थे।

बस फिर क्या था। तकनीकी सत्र शुरू हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता और जनसंचार विभाग के बच्चों ने पंजीकरण करा रखा था जिनके आने से हाल भरा-भरा सा लगने लगा। मैने माइक संभाला। सबसे संक्षिप्त परिचय लिया, उनका मन टटोलने के लिए। सभी उत्सुक लगे। जिज्ञासु  विद्यार्थी किसे नहीं भाते? जीशान ने अपनी कुशलता का परिचय दिया। मैंने दुतरफ़ा संवाद सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रतिभागियों को टिप्पणी करना अनिवार्य कर दिया। अध्यक्षीय फरमान था। पूरा अनुपालन हुआ। प्रश्नोत्तर का दौर कुछ लम्बा ही हो गया। कुछ प्रश्न अगले सत्रों के लिए टालने पड़े। …सब आज ही जान लोगे तो अगले चार दिन क्या करोगे भाई…? मैने उनका हौसला बढ़ाते हुए पहले हि कह दिया था कि जब मेरे जैसा कोरा आर्ट्स साइड का विद्यार्थी साइंस ब्लॉगिंग सेमिनार में अध्यक्षता कर सकता है तो आप लोग तो बहुतै विद्वान हो। उनका उत्साह बहुत बढ़ गया। अरविंद जी ने उद्‍घाटन के समय कह ही दिया था कि ब्लॉग बनाने में केवल तीन मिनट लगते हैं।

मुझे अंदेशा हुआ कि कहीं ये ऐसा न समझ लें कि ब्लॉग सच्ची में तीन मिनट का खेल है। मैंने फिर संशोधित सूचना दी। ब्लॉग बना लेना उतना भर का काम है जितना एक भारी-भरकम किताब खरीदकर ले आना और पहला पन्ना खोल लेना। असली मेहनत तो उसके बाद शुरू होती है जिसका कोई अंत ही नहीं है। अगर पन्ना पलट-पलत कर पढ़ाई नहीं की गयी तो किताब पर धूल जम जाएगी और खरीदना बेकार हो जाएगा। वही हाल ब्लॉग का है….

अंत में अमित ओम ने सारांशक की भूमिका निभाते हुए सारी बातें दुबारा बताना शुरू कर दिया। बच्चे तबतक काफी कुछ सीख चुके थे इसलिए उठकर जाने लगे। मौके की नज़ाकत भाँपते हुए मैने फिर पतवार थामी और नाव को सीधा किनारे लगाकर खूँटे से बाँध दिया। अब कल खुलेगी।  कल के नाविक कोई और हैं। लेकिन वह बहुत अनुभवी, मेहनतकश और मजेदार बातें करने वालों की टीम है। हम भी नाव में बैठकर यात्रा करेंगे। शायद कल कुछ लखनवी ब्लॉगर्स के दर्शन भी हो जाय।

समय: ११:५५ रात्रि (२७ अगस्त,२०१०)

स्थान: २१३, एन.बी.आर.आई. गेस्टहाउस, गोखले मार्ग, लखनऊ।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)