इस बार दीपावली की छुट्टियाँ वर्धा विश्वविद्यालय के प्रांगण में ही बीत गयी हैं। अपने पैतृक घर (गाँव) से बहुत दूर हूँ। केवल आने-जाने की यात्रा में ही चार दिन खर्च हो जाते इसलिए जाना न हुआ। वैसे भी अपने निवास स्थान पर ताला डालकर गाँव जाने का काम मैंने कभी भी दीपावली के मौके पर नहीं किया है। जहाँ रहकर रोजी-रोटी चलती हो वहाँ ज्योतिपर्व पर अँधेरा रखना हमारी पारंपरिक आस्था के विपरीत है। गाँव की यात्रा दशहरे के मौके पर ही होती आयी है। अस्तु… हम वर्धा के पंचटीला प्रांगण में ही सपरिवार दीपावली मनाते रहे।
दीपावली के दो दिन पहले धनतेरस के मौके पर हम भी बाजार गये। दिवाली की खास खरीदारी के अलावा बच्चों के कपड़े और नये जूते वगैरह खरीदे गये। बाजार में दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी जी की पूजा संबंधी सामानों की विशेष दुकानें लगी हुई थीं। मिट्टी के दीये, कलश, लक्ष्मी गणेश की मूर्तियाँ, लाल चमकीले रंग में पुते हुए नक्काशीदार दीपक; लाचीदाना, बताशा और धान की लाई से बने ‘प्रसाद’ के पैकेट, देवी-देवताओं के कैलेंडर, उबले हुए सिंघाड़े, गेंदा व कमल के फूल, रंगोली बनाने के सांचे व रंगीन रेत नुमा पाउडर, कच्ची रूई व उससे बनी बाती के पैकेट, आतिशबाजी के सामान और न जाने क्या-क्या। दुकानों पर उमड़ी भीड़ और सड़क पर ठसाठस भरी जनसंख्या को देखकर घबराहट सी हो रही थी। सत्यार्थ को भीड़ की रगड़ से बचाने के लिए गोद में उठाना पड़ा। बहुत से ऐसे सामान भी खरीदे गये जिनकी पहले कोई योजना ही नहीं थी। राह चलते रोककर माल टिका देने वाले अनेक सीजनल विक्रेता टकराते रहे और हम बचते-बचाते भी अपनी जेब खाली करके ही घर वापस पहुँचे।
धनतेरस के अगले दिन छोटी दिवाली मनाने का मेरा ग्रामीण अनुभव बस इतना था कि घर के तृण-तृण और कोने-कोने की सफाई का जो सिलसिला कई दिनों से चला आ रहा है उसको अंतिम सोपान पर पहुँचाकर दीपावली से पहले समाप्त कर लिया जाय। इस ‘नरक चतुर्दशी’ के दिन सूर्यास्त के समय घर से बाहर जिस गढ्ढे में घरेलू कूड़ा और जानवरों का गोबर फेंका जाता है, अर्थात् ‘घूरा’- उसपर (यमराज का) दीया जलाया जाता है। यहाँ वर्धा में यह रस्म करने की गुंजाइश नहीं थी, न आवश्यकता महसूस हुई। श्रीमती जी ने घर की विशेष सफाई का जो लंबा अभियान कई दिनों पहले से चला रखा था उसके बाद आखिरी समय के लिए कुछ खास काम बचा भी नहीं था। ब्लॉगरी का काम भी इन दिनों यूँ ही छूटा हुआ था और मैं किसी फड़कते हुए विषय की प्रतीक्षा के बहाने आलस्य गति को प्राप्त हो चुका था। अहमदाबाद में न्यूजीलैंड के साथ टेस्टमैच का पहला दिन था और सबकी निगाह भारत के सूरमा बल्लेबाजों के नये बनते रिकार्डों की ओर थी।
मैंने भी बैडमिंटन खेलकर लौटने के बाद टीवी के आगे सोफ़े पर आसन जमाया, कुछ ही देर में सहवाग की आतिशबाजी शुरू हो गयी तो एक मसनद लगाकर सोफ़े पर ही लेट गया। पूरे दिन भारत की बल्लेबाजी देखने की मंशा थी इसलिए वहीं आराम के साधन और चाय-नाश्ते के सामान जुटने लगे।
इसी बीच इलाहाबाद से मेरे एक बुजुर्ग परिचित का फोन आया। उन्होंने बहुत बुरी खबर सुनायी। हमारी हमउम्र और इलाहाबाद में हाल तक कार्यरत कोषागार सेवा की महिला अधिकारी जिन्होंने अपना एक गुर्दा अपने पति की जीवन रक्षा के लिए दे दिया था और बीमार पति की सेवा के साथ-साथ दो बच्चों सहित पूरे परिवार का जिम्मा अपने कंधो पर उठा लिया था, धनतेरस के दिन नितांत अकेली हो गयीं। हम लोग जिनके संघर्ष की मिसाल दिया करते थे उनको अलविदा कहते हुए उनके पति ने अचानक दम तोड़ दिया। पदोन्नति पाकर मथुरा स्थानांतरित हो जाने के कारण पति के अंतिम क्षणों में साथ भी नहीं रह पायीं वो। खबर सुनकर मानो हमपर वज्रपात हो गया। सोफे पर सुन्न पड़े रहे। एक दो मित्रों को यह अप्रिय समाचार देने के अतिरिक्त हम कुछ नहीं कर सके।
अब हम बेमन से टीवी देखते हुए समय काट रहे थे। इस बीच मेरी पत्नी रसोई के काम निबटाती हुई ऊपर के कमरे में कंप्यूटर पर जमे बच्चों को आवाज लगाती जा रही थीं कि वो नीचे आकर कुछ खा-पी लें। थोड़ी देर बाद बेटी नीचे आ गयी। आधे घण्टे बीत जाने के बाद भी जब सत्यार्थ नीचे नहीं आया तो उसकी माँ की आवाज तेज हो गयी। बेटी को डाँटते हुए उन्होंने उसे ऊपर भेजा कि ‘बाबू’ को ले आओ। वागीशा ऊपर गयी और फौरन लौटकर बोली कि वो ऊपर नहीं है। फिर उसे नीचे के कमरों में देखा गया। वहाँ भी नहीं था।
इन्होंने कहा, “जाकर देखो डीआर अंकल (डिप्टी रजिस्ट्रार) के घर सनी के साथ खेलने गया होगा।”
वागीशा वहाँ से पूछकर लौट आयी। “मम्मी, बाबू वहाँ भी नहीं है।”
इन्होंने झुँझलाकर उसे डाँटा और खुद ऊपर जाकर सत्यार्थ को खोजने लगीं। दोनो कमरे, बाथरूम, इत्यादि देखने के बाद ऊपर की बालकनी से ही पीछे की ओर रजिस्ट्रार साहब के दरवाजे पर तैनात होमगार्ड से पूछा कि उसने बाबू को कहीं देखा क्या? उसका उत्तर भी नकारात्मक मिला। अब चिंता की लकीरें माथे पर उभरने लगीं। तेज कदमों से पड़ोसी डी.आर. के यहाँ गयीं। घर के भीतर जाकर पूछा। फिर कालोनी में दूसरे प्रायः सभी घरों में ताले पड़े हुए थे। कहाँ जा सकता है? एक किनारे प्रोफेसर भदौरिया का घर खुला हुआ था। वहाँ जाकर माँ-बेटी ने दरियाफ़्त कर ली। लौटकर आयीं तो माथे पर पसीना आ चुका था।
“अरे, आपको कुछ पता है… बाबू बहुत देर से लापता है। सारा अड़ोस-पड़ोस देख आयी हूँ। कहीं नहीं है। आपको तो टीवी के आगे कुछ दिखता ही नहीं है…” आवाज में तल्खी से ज्यादा बेचैनी थी।
मैं हड़बड़ाकर उठा, “एक बार ठीक से घर में ही देख लो, कही सो गया होगा।”
“सब देख चुकी हूँ… आप कहते हैं तो दुबारा देख लेती हूँ” रचना पैर पटकती हुई और बेटे को आवाज लगाती हुई ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। मैंने हाफपैंट और टी-शर्ट में ही स्कूटर स्टार्ट किया और बेटे को खोजने गेस्ट हाउस की ओर बढ़ चला। वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। सभी कमरों में ताले लटक रहे थे। गार्ड ने बताया कि आज कोई भी इधर नहीं है। सबलोग घर गये हैं। …कैंपस में और कहाँ जा सकता है मेरा बेटा? मैंने मुख्य द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मियों से भी पूछा। सभी उसे पहचानते हैं। सबने विश्वास पूर्वक बताया कि वो गेट से बाहर नहीं गया है। वैसे भी आज इतना सन्नाटा है कि इधर से आने-जाने वाले सभी लोगों का रिकार्ड हमारे पास है।
इस सन्नाटे ने ही मेरे मन में भय डाल दिया। बाहर अकेला खेलता पाकर कोई भी उसे उठा सकता था।
सुबह जब मैं बैडमिंटन खेलकर लौटा था तो बेटे के हाथ में एक कमल का फूल देखकर मैने उसके बारे में पूछा था तो पता चला कि सामने की सड़क पर टहलती हुई एक लड़की को हाथ हिलाकर इन्होंने अपने पास बुला लिया था। बताया गया कि बिहार की रहने वाली वह छात्रा गर्ल्स हॉस्टेल में अकेली बची थी। उसी ने अपने नन्हें दोस्त को सुबह-सुबह यह फूल भेंट कर दिया था। मेरे मन में यह आशंका हुई कि शायद उसने ही सत्यार्थ को अपना मन बहलाने के लिए अपने साथ हॉस्टल बुला लिया हो। या कोई और भी इस बातूनी लड़के की बतरस का आनंद लेने के लिए अपने साथ ले गया हो।
स्कूटर मोड़कर मैंने सबसे पहले कुलपति आवास का रुख किया। लेकिन रचना वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थी। उन्होंने दूर से ही हाथ हिलाकर मुझे बता दिया कि बेटा वहाँ भी नहीं है। मैंने अब कैंपस के दूसरे छोर पर स्थित गर्ल्स हॉस्टल की ओर स्कूटर मोड़ा। मेरे घर के पास झुग्गी डालकर रहने वाली मजदूरन सड़क के किनारे कपड़े फैलाती दिखायी दी तो मैंने उससे भी पूछ लिया। इससे पहले इन लोगों से मेरा कभी कोई संवाद उससे नहीं हुआ था लेकिन वह फिर भी हम सबको जानती पहचानती थी। उनके बीच की एक छोटी बच्ची कभी-कभार मेरे बच्चों के खेल में शामिल हो जाया करती थी। उसकी दुबली-पतली काया, साँवले रंग और चंचल प्रवृत्ति के कारण सभी उसे पी.टी.उषा कहकर बुलाते हैं। मेरे बेटे के बारे में उसने भी अनभिज्ञता जाहिर कर दी।
मैंने हॉस्टेल के रास्ते में बैंक व दूरशिक्षा विभाग की लाल बिल्डिंग में चलने वाली एक मात्र खुली हुई दुकान पर रुककर पूछा- “मेरा बेटा तो इधर नहीं दिखा था?” सुनने वाले हैरत से देखने लगे। साढ़े-तीन-चार साल का लड़का इतनी दूर कैसे आ सकता है? मेरे पास झेंपने का भी समय नहीं था। मैंने उन्हें समझाने में वक्त न जाया करते हुए आगे बढ़ना उचित समझा। बीच में टीचर्स कॉलोनी पड़ती है। वहाँ भी केवल दो घर बिना ताले के थे। दोनो जगह पूछ लिया। मेरी खोजबीन उन्हें जरूर बेतुकी लगी होगी लेकिन मैंने उन्हें कुछ पूछने का अवसर नहीं दिया। इसके पहले मेरा उस कॉलोनी के अंदर कभी जाना नहीं हुआ था इसलिए भी यह सब असहज लग रहा था।
निराशा और दुश्चिंता के साथ मैं गर्ल्स हॉस्टल पहुँचा। गार्ड को बुलाकर पूछा। उसने भी किसी बच्चे को देखने से साफ इन्कार कर दिया। उसने बताया कि केवल एक लड़की यहाँ ठहरी हुई है। बाकी कमरे बंद हैं। वह लड़की भी अकेली अपने कमरे में मौजूद है। मैंने इस छोर पर बने प्रवेश द्वार के सुरक्षा कर्मियों से भी पूछा। सबने यही कहा कि वे मेरे बेटे को बखूबी पहचानते हैं और वह इधर कत्तई नहीं आया है।
अब तो मेरी हालत बहुत खराब हो गयी। स्कूटर की सीट पर बैठा मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि अब किधर जाना चाहिए। हाफपैंट और टी-शर्ट पसीने से भींग चुके थे। सारी संभावना तलाश ली गयी थी। मन में बहुत से भयानक विचार चोट करने लगे। इस कैंपस में साँप व बिच्छू निकलते रहते हैं। कहीं मेरा बेटा उनका शिकार होकर किसी झाड़ी में अचेत न पड़ा हो। बच्चों के लुटेरे सौदागर तो इस कैंपस में आ नहीं सकते… लेकिन कौन जाने?
कलेजे में उठती हुई हूक अब आँखों से निकलने को उद्यत थी। कमजोर हाथों से स्कूटर संभालते हुए मैं धीमी गति से घर की ओर लौट पड़ा। दूर से ही अपना घर दिखायी पड़ा तो बाहर किसी को न देखकर विस्मय हुआ। घर वाले मेरी प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे। लगता है कुछ सकारात्मक हो गया है। उस मजदूरन ने मुझे दूर से देखा। उसने इशारे से बताया कि घर के भीतर जाइए। मैं सहमता हुआ स्कूटर खड़ी करके भीतर गया। अंदर शांति थी- ऐसी जो किसी तूफान के गुजर जाने के बाद होती है। रचना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव देखकर मेरा मन हल्का हो लिया। साहबजादे फिर भी नहीं दिखायी दे रहे थे।
कहानी कुछ यूँ पता चली कि दीपावली के लिए जो नये कपड़े आये थे उन्हें जल्दी से जल्दी धारण कर लेने की इच्छा इतनी बलवती हो गयी कि माँ के मना करने के बावजूद ऊपर के कमरे में एकांत पाकर उन्होंने कपड़े डिब्बे से निकालकर पहन लिए। अचानक नीचे से पुकारे जाने पर उन कपड़ों में नीचे जाने की हिम्मत नहीं हुई। आनन-फानन में इन्होंने बालकनी में पनाह ले ली।
बालकनी की ओर खुलने वाली दोनो बड़ी किवाड़ें इतनी चौड़ी हैं कि उन्हें बीच से मुड़ने लायक बनाया गया है। खुली दशा में इन किवाड़ों की फोल्डिंग दीवार से लगकर एक तिकोना गोपनीय कक्ष बना देती हैं। इस घटना से पहले कभी किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। रचना ने जब इन्ही किवाड़ों की ओर पीठ करके बालकनी से गार्ड को पुकारकर बात की थी तो हजरत कोने में दुबककर मुस्करा रहे थे। फिर तो ये माँ, दीदी और डैडी की बेचैनी देखकर लुत्फ़ ही लेने लगे। अंततः जब मम्मी चारो ओर से निराश होकर घर में लौटकर रोने-कलपने लगीं और दीदी भी सीढ़ियों पर बैठकर रोने लगी और ‘बाबू’ को करुण स्वर में पुकारने लगी तब इन्होंने फिल्मी इश्टाइल में ‘‘टैंग्टड़ांग” की आवाज निकालते हुए दीदी के सामने नाटकीय अंदाज में अचानक प्रकट होना जरूरी समझा।
यह सबकुछ बताने में मुझे इतना अधिक समय लग रहा है लेकिन बेचैनी और बेचारगी के वे चरम क्षण मुश्किल से बीस मिनट के रहे होंगे। अब सोचता हूँ तो मन में सवाल उठ खड़ा होता है कि ईश्वर हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहा था या ‘नरक चतुर्दशी’ की तिथि अपने नाम को चरितार्थ कर रही थी। उसके बाद दिन भर कुशल-क्षेम पूछने वालों को जवाब देते बीता।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
नवम्बर 07, 2010 @ 12:16:57
🙂 उन बीस मिनट की कल्पना कर सकते हैं। मंगलकामनायें।
नवम्बर 07, 2010 @ 12:18:15
भाई ये नन्हा ब्लोगर तो शैतानी पर उतर आया है……इसे भी सामाजिक सरोकार की शिक्षा देनी होगी की किसी को इस तरह परेशान करना और वो भी अपने सच्चे माता पिता को …….भाई पहले तो आपकी पोस्ट का शीर्षक देखकर मन अनजाने आशंकाओं से भर गया लेकिन लेकिन पूरा पोस्ट पढने के बाद इस नन्हे सत्यार्थ की शैतानी अच्छी लगी ….लेकिन उस महिला के बारे में जानकर दुःख हुआ जिसे धनतेरस के दिन भगवान ने उसके संघर्षों के बाबजूद अकेला बना दिया,भगवान के खेल भी निराले हैं ….
नवम्बर 07, 2010 @ 13:16:34
इस तरह के वाकये में हालत खराब होना स्वाभाविक है। अपने बच्चों की बेफिकरी के चलते मैं भी भुक्तभोगी रह चुका हूँ ऐसी परेशानी का।
नवम्बर 07, 2010 @ 13:32:05
ऐसी घटनाएँ काल के उपेक्षित आयाम का आभास करा जाती हैं। अंत भला तो सब भला। वह मिथक याद आया जिसमें कृष्ण नारद को पानी में डुबकी लेने के कालखण्ड में ही मायावी संसार का दर्शन करा देते हैं।
नवम्बर 07, 2010 @ 13:50:38
वाकई खौफ़नाक… बच्चे कभी-कभी मुश्किल में डाल देते हैं… और ऐसे वाकये के बाद आप उन्हें कुछ कहने या समझाने की स्थिति में भी नहीं रह जाते… खैर… वैसे तो कैम्पस सुरक्षित है, फ़िर भी ध्यान रखिये…
नवम्बर 07, 2010 @ 13:53:13
बिन बताया आख मिचौनी का यह खेल बहुत शैतानी भरा था …सचमुच बच्चों का भी अपना ही तरीका होता है चीजों से निपटने का !!!
नवम्बर 07, 2010 @ 13:58:51
ओह सिद्धार्थ जी, साँस रोककर पूरा प्रकरण पढ़ा। वाकयी बच्चे नहीं समझ पाते कि उनका मौल क्या है, माता-पिता की निगाहों में? चलिए दीवाली मनाइए और उस नन्हें शैतान के दो चपत लगाइए, प्यार से।
नवम्बर 07, 2010 @ 15:26:58
उन बीस मिनटों की कल्पना कर सकते हैं। बुद्धि कार्य करना बन्द कर देती है। बच्चे पर अपनी रौ में जीवन जी लेते हैं।
नवम्बर 07, 2010 @ 16:37:43
good to know that the child is safe it must have been agonising and painful anyways lets believe it was a prank and nothing more
नवम्बर 07, 2010 @ 16:45:40
हे भगवान!!!!
नवम्बर 07, 2010 @ 17:20:22
आपकी पोस्ट को पढने के बाद थोड़ी देर के लिए मैं भी बचपन में gaya खो और मैंने अपने शरारती स्वभाव को याद किया, मां बाप के मन उठने बाली उन भावनाओं को महसूस किया जो उन्होंने मेरे शरारती स्वभाव के कारण उन्होंने झेली थी , न जाने ऐसे कई बीस मिनट उनकी जिन्दगी में भी आये होगे , सार्थक और सोचने पर विवश करती पोस्ट ….अलविदा
नवम्बर 07, 2010 @ 18:43:18
ये आजकल के बच्चे बहुत शैतान हो गये हैं। आपकी परेशानी समझ सकते हैं। शुभकामनायें।
नवम्बर 07, 2010 @ 19:33:08
बच्चा तो आनंदित ही हुआ होगा.
नवम्बर 07, 2010 @ 19:58:10
एक बार मै दिन में सो रही थी. एकाएक नींद खुली तो देखा मेरी भांजी पावर प्लग के पास बैठी थी कुछ परेशान सी. मैं कारण पूछा तो प्लग की ओर इशारा कर बोली मै इतनी देर से कोशिश कर रही हूँ पर मेरी उंगली इसमें नही घुस पा रही है….कहना न होगा कि मैंने अपना सर पकड़ लिया.बाबू को ढेर सा स्नेह. दीपावली की शुभकामनाएं.
नवम्बर 07, 2010 @ 20:18:29
वाकई बच्चे कभी कभी अनजाने ही परेशानी खड़ी कर देते हैं ।
नवम्बर 07, 2010 @ 21:29:36
बच्चे मां-बाप की जान होते हैं। वे हंसे तो घर आनंदित और रोएं तो पूरा घर परेशान। उनके साथ उनके मुताबिक़ ही जीवन जीना चाहिए।
नवम्बर 07, 2010 @ 22:12:26
अन्त भला तो सब भला
नवम्बर 07, 2010 @ 22:12:43
* ओह ! वे बीस मिनटा!** नटखट बाबू !!*** सदा आनंदा रहै यहि द्वारे..!!!!!!!!!!!!
नवम्बर 07, 2010 @ 22:37:32
` केवल आने-जाने की यात्रा में ही चार दिन खर्च हो जाते'और खर्चा भी…:) २० मिनिट के इस खेल में मिलि फिल्म याद आ गई ॥
नवम्बर 08, 2010 @ 13:40:09
सत्यार्थ बेटे ,यह अच्छी बात नहीं ..मम्मी पापा को ऐसे परेशान नहीं करते …अगली बार से होली दीवाली घर मनाया करिए 🙂
नवम्बर 08, 2010 @ 15:16:48
बाप रे उन बीस मिनट की कल्पना कर सकते हैं ..कैसे रहे होंगे.
नवम्बर 08, 2010 @ 20:49:28
पोस्ट पढ़ लिया और फिर कल्पना कर रहा हूँ उस २० मिनट की…….!!!!!!!!!!!!!
नवम्बर 09, 2010 @ 20:27:27
इस समय हंसी आ रही है. मैं भी खो चुका हूं एक बार. सोरों जी के मेले में. पिता जी के साथ. खो गया. सब लोग ढूंढ़ने लगे. पता नहीं. मौसा-मौसी जी सब साथ. आधे-पौन घंटे बाद मौसा जी ने अकस्मात मेरे पिता जी से कहा-महाराज, बांयें कन्धे पर पड़ा कम्बल हटाकर देखो. कम्बल के नीचे मैं सो रहा था 🙂
नवम्बर 11, 2010 @ 19:03:05
सच सिद्धार्थ जी बच्चे भी न मिसफ़िट पर ताज़ातरीन
नवम्बर 14, 2010 @ 06:02:23
मैं समझ सकता हूँ उन २० मिनटों की हालत ! थोडा देर से ही सही …दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ! दीपवाली के दिन (आपके यहाँ दीपवाली से पहले की रात) में फोन क्या था पर बात नहीं हो पायी !
नवम्बर 20, 2010 @ 16:47:09
bada maja aaya…….kyu ki mai abhi padha hu jab result mil chuka hai…puri post hanshte-hanshte biti…n shayad ye bachpan ki "shaitani" namak vo uplabdhiyaan hain jinhe insaan jivan bhar yad karke purane pal ko yad karta hai aur maje leta hai….