साबुन की फैक्ट्री चलाने वाली मानसिकता छोड़नी होगी अखबार के मालिकों को…
पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि कैसे एक प्रतिष्ठित अखबार के प्रबंध संपादक ने अखबार की दुनिया की कथित ‘सच्चाई’ बताते हुए अखबार पढ़ने वालों की प्रतिबद्धता और पत्रकार बिरादरी की शक्तियों पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिये थे। उनके बाद हिंदी साहित्य की दुनिया के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर प्रो. गंगा प्रसाद विमल बोलने आये। उन्होंने बिना लाग-लपेट के अखबार मालिकों और संपादकों पर हमला बोल दिया। बोले- आज हमारे बीच अखबारों की संख्या और प्रसार में बहुत वृद्धि हो गयी है लेकिन अखबारों ने आम पाठक की चिंता करना छोड़ दिया है। उन्होंने अपने वक्तव्य में मीडिया जगत पर तीन गम्भीर आरोप लगाये-
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अत्यल्प को छोड़कर अधिकांश संपादक बिचौलिए की भूमिका निभा रहे हैं।
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अंग्रेजी अखबारों ने भारतीय भाषा के अखबारों के साथ घोर दुष्कृत्य किया है।
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एक आम पत्रकार के लिए ‘प्रोफ़ेशनलिज़्म’ का सीधा अर्थ है अपने मालिक के लिए पैसा खींचना।
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि आजकल मनुष्यता का सवाल कहीं नहीं उठाया जा रहा है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ क्या व्यवहार होना चाहिए इसपर कुछ उच्च आदर्शात्मक (lofty) किस्म की बातें प्राथमिक स्तर की स्कूली किताबों में भले ही मिल जाय लेकिन अखबारों और दूसरी मीडिया से यह गायब हो गयी हैं। आजकल ऊँची तनख्वाह पर काम करने वाले बड़े पत्रकार अपने मालिक के ‘टटके गुलाम’ हो गये हैं। व्यावसायिक हित सर्वोपरि हो गया है। भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझना, इसे मिटाने के वैश्विक षड़यंत्र को पहचानना और उसे निष्फल करने के लिए देश को तैयार करने की जिम्मेदारी मीडिया में बैठे बुद्धिजीवियों की है; लेकिन इनके बीच ऐसे लोग घुसे हुए हैं जिनका एजेंडा ही अलग है। आज मीडिया को बाहर से कम चुनौतियाँ दरपेश हैं। भीतर के लोगों से ही खतरा है जिनसे लड़ना जरूरी हो गया है।
इनके बाद बोलने की बारी सत्र की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय की थी। उनके बोलने से पहले श्रोताओं को पूर्व वक्ताओं से प्रश्न करने का अवसर दिया गया। अनेक छात्र तो जैसे इसी पल का इंतजार कर रहे थे। प्रश्नों की झड़ी लग गयी। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की ऐसी रूपरेखा की कल्पना कदाचित् आदर्श पत्रकारिता का स्वप्न पाल रहे विद्यार्थियों ने नहीं की होगी। मुनाफ़ा कमाने के हिमायती प्रबंध संपादक को अपनी स्थिति स्पष्ट करने दुबारा आना पड़ा। भारतीय समाज में व्याप्त अन्याय और शोषण के विरुद्ध आम जनता को न्याय दिलाने और उसके लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने के माध्यम के रूप में इन समाचार माध्यमों की जवाबदेही के प्रश्नों का उनके पास फिर भी कोई जवाब नहीं था। प्रश्नों का शोर जब थमने का नाम नहीं ले रहा था तब कुलपति जी ने माइक सँभाला।
बोले- पूर्व के एक वक्ता की यह धारणा कि चालीस पेज़ के अखबार के लिए दो रूपये देने वाले पाठक कोई हक नहीं रखता सर्वथा ग़लत है। अखबार मालिक ने अपनी पूँजी जरूर लगा रखी है लेकिन पाठक के stakes अखबार वालों से ज्यादा हैं। उसका पूरा जीवन ही दाँव पर लगा है। वह ज्यादा बड़ा जोखिम उठा रहा है। मार्क ट्वेन को उद्धरित करते हुए उन्होंने कहा- “If you don’t read newspapers, you are uninformed; but if you read newspapers you are misinformed’’
आज जिस ठसक के साथ अखबार के पूँजीपति मालिक के मुनाफ़े के हक में दलील दी जा रही है वह कभी शर्म की बात मानी जाती थी। कोई संपादक या दूसरे बुद्धिजीवी ऐसी बात कहते झेंपते थे। लेकिन अब समय बदल गया है। यह बिडम्बना ही है कि आम जनता में ही दोष निकाले जा रहे हैं। यह वैसा ही है जैसा ब्रेख्त ने कहा था कि राजा अब बदला नहीं जा सकता इसलिए अब प्रजा को ही बदल देना होगा। यह स्थिति कतई ठीक नहीं है। जनता के प्रति अखबार की जिम्मेदारी उस प्रकार की नहीं है जैसी किसी फैक्ट्री मालिक की अपने उत्पाद के ग्राहकों के प्रति।
उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करने के लिए प्रसिद्ध संपादक स्व.राजेंद्र माथुर जी के साथ अपनी एक बहस का हवाला दिया। वृंदावन में आयोजित एक गोष्ठी में राजेन्द्र माथुर जी ने कुछ ऐसे ही विचार रखते हुए कहा था कि एक स्टील कारखाना लगाने वाला उद्योगपति अथवा साबुन की फैक्ट्री चलाने वाला मालिक अपने निवेश पर लाभ कमाने के लिए स्वतंत्र है; लेकिन अखबार निकालने के लिए करोड़ो खर्च करने वाला हमारा मालिक यदि कुछ मुनाफ़ा कमाना चाहता है तो आपको यह बुरा क्यों लगता है? उस समय (1980 के दशक) की परिस्थितियों को देखते हुए यह बड़ा ही साहसिक वक्तव्य था। उनकी इस बात का विरोध उस समय भी हुआ था और आज भी इस तरह की सोच को नकारा जाना चाहिए।
कुलपति जी ने बताया कि स्टील या साबुन का कारखाना चलाने की तुलना में अखबार निकालना एकदम अलग किस्म का कार्य है। यदि किसी कारणवश स्टील या साबुन की फैक्ट्री बंद होने की नौबत आ जाय तो उससे आम जनता आंदोलन नहीं करती। लेकिन अखबार पर यदि किसी तरह की पाबंदी लगती है तो जनता सड़कों पर उतर आती है। राजीव गांधी के जमाने में सेंसरशिप कानून लगाने की कोशिश हुई तो पूरे देश में उबाल आ गया था। मीडिया को जो शक्तियाँ मिली हुई हैं वह इसी पाठक ने दी हैं। दो रूपये में अखबार देकर आप न तो एहसान कर रहे हैं और न ही घाटे में है। आप करोड़ों के विज्ञापन इसी जनता के कारण पाते हैं।
बाद के सत्रों में साधना चैनल प्रमुख व ब्रॉडकास्टिंग एडीटर्स एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी एन.के.सिंह, आईबीएन के वरिष्ठ संवाददाता अनन्त विजय, दैनिक भास्कर के समूह संपादक प्रकाश दूबे, लोकमत समाचार- नागपुर के संपादक गिरीश मिश्र, सुपसिद्ध न्यूज एंकर और स्तंभकार पुण्य प्रसून वाजपेयी, हिंदुस्तान टाइम्स के प्रदीप सौरभ इत्यादि ने विस्तार से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की वस्तुनिष्ठता, सामाजिक सरोकार और जिम्मेदारियों को समझने के बारे में सुंदर वक्तव्य दिये।
प्रो.गंगा प्रसाद विमल और विभूतिनारायण राय द्वारा लगाये गये आरोपों (बिचौलियापन व भ्रष्ट आचरण) पर अनंत विजय ने गम्भीर आपत्ति दर्ज़ करते हुए कहा कि हमारे बारे में इस प्रकार का सामूहिक आरोप लगाने के पहले आपको सबूत जुटाना चाहिए। आप एक जिम्मेदार पद पर रहते हुए जब भी कुछ कहते हैं तो पूरा देश उसपर ध्यान देता है और अपनी राय बनाता है।
उक्त आपत्ति का जवाब देते हुए कुलपति जी ने अपनी पूरी बात दुहराते हुए अंत में कहा कि इस समय जब हमारे समाज के सभी अंग भ्रष्टाचार की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, मैं अपनी उस मूर्खता को कोस रहा हूँ जो एक स्वस्थ और ईमानदार मीडिया की इच्छा रखती है। लेकिन यदि हमने आशावाद नहीं बनाये रखा तो जल्दी ही हम cynical state में चले जाएंगे।
इस कार्यक्रम से संबंधित कुछ और रिपोर्टें यहाँ और यहाँ हैं।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
जनवरी 14, 2011 @ 11:19:39
“If you don’t read newspapers, you are uninformed; but if you read newspapers you are misinformed’’हमें तो बस यही सत्य लगता है।
जनवरी 14, 2011 @ 13:48:43
बढ़िया प्रस्तुति.मकर संक्रांति पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ….
जनवरी 14, 2011 @ 14:49:05
लोहड़ी, मकर संक्रान्ति पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
जनवरी 14, 2011 @ 15:31:21
जाग्रति-प्रेरक प्रस्तुति!!लोहड़ी,पोंगल और मकर सक्रांति : उत्तरायण की ढेर सारी शुभकामनाएँ।
जनवरी 14, 2011 @ 17:11:56
लोकतंत्र के सारे स्तंभ धराशायी हो रहे हैं, मीडिया भी। पत्रकारों को अपना कैनवास बड़ा करना होगा और विश्वसनीयता (credibility) बनाये रखनी होगी। पुण्य प्रसून वाजपेयी जी की बात अच्छी लगी.मकर संक्रांती की शुभकामनाये.
जनवरी 14, 2011 @ 17:15:44
वो दिन लद गए जब इंसाफ़ की लडाई लडने के लिए समाचार पत्र खोलने की बात होती थी, अब तो पैसे कमाने के लिए ही पत्र-पत्रिकाएं चलाई जाती हैं॥
जनवरी 14, 2011 @ 21:49:51
मकर संक्रान्ति पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई.
जनवरी 14, 2011 @ 23:31:08
जितने मौलिक प्रश्न हैं, काश उत्तर भी उतने ही मौलिक आते।
जनवरी 15, 2011 @ 07:46:51
किसी व्यवसाय-उद्यम और नैतिकता-कर्तव्यपरायणता में विरोध कहाँ है? क्या कमाई करते हुए निष्ठावान नहीं रहा जा सकता? बदलते युग में प्रिंट मीडिया को स्वयं को जीवित रखने के लिए बदलना था ही – अर्थ मूल आवश्यकता है, लेकिन अर्थ के चक्कर में अनर्थ! हरगिज नहीं। मनुष्य़ की लिप्सा की कोई उच्च सीमा नहीं होती। स्वनियमन की अगर कहीं सबसे अधिक आवश्यकता है तो मीडिया और ज्यूडीशियरी में। ग्लैमर और अर्थ की चकाचौंध से ग्रसित होकर ध्वंस करना, उसके लिए राह बनाना और बात है और 'पैसा कमाना' और बात। जाने यह अंतर विशाल मेधा के स्वामियों को कब समझ आयेगा?
जनवरी 15, 2011 @ 16:20:11
pichle post ka 'vir-ras' andolit karta laga…is post ka tag-line 'ajit mam' ne kahdiya…bakiya nir-kshir, bhai raw sahab kargaye……aur ant me bajariye 'p.p – jitne moulik prashn….kash ke uttar bhi utne moulik hote'to na apko ye post likna hota….nahum anargal tippani kar pate……pranam.
जनवरी 16, 2011 @ 00:29:58
इस समस्या के खिलाफ़ लिखता रहा हूँ , यहाँ पढ़कर लगा अकेला नहीं हूँ ।
जनवरी 16, 2011 @ 16:24:15
वाह क्या धाँसू रिपोर्टिंग कर रहे हैं आप भी सिद्धार्थ जी ! विचारोत्तेजक परिचर्चा ! मीडिया को भी युग धर्म निभाने का पूरा हक़ है !
जनवरी 16, 2011 @ 17:28:40
बहुत अच्छी रिपोऎटिन्ग की है। ये पँक्तियउक्त आपत्ति का जवाब देते हुए कुलपति जी ने अपनी पूरी बात दुहराते हुए अंत में कहा कि इस समय जब हमारे समाज के सभी अंग भ्रष्टाचार की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, मैं अपनी उस मूर्खता को कोस रहा हूँ जो एक स्वस्थ और ईमानदार मीडिया की इच्छा रखती है। लेकिन यदि हमने आशावाद नहीं बनाये रखा तो जल्दी ही हम cynical state में चले जाएंगे। कुलपति जी को बधाई इतना स्पष्ट और साहसपूर्ण वक्तव्य देने के लिये।
जनवरी 16, 2011 @ 19:26:25
हा! हा! अखबार क्या, बहुत से ब्लॉगर भी कर्सनभाई पटेल छाप हैं! 🙂
जनवरी 17, 2011 @ 16:12:37
कितनी बड़ी बड़ी बातें कहीं गयीं, पर स्थिति सुधरने में व्यावहारिक रूप में ये बड़े बड़े नाम कोई सार्थक कदम उठाएंगे…बिलकुल भी नहीं लगता…विश्वसनीयता तो सचमुच ही खंडित हो चुकी है आज…अधिकांशतः खबर बिके खरीदे हुए लगते हैं…स्थिति यही रही तो इस चौथे खम्भे के वर्तमान swaroop को ढहने से कोई नहीं रोक पायेगा…
जनवरी 19, 2011 @ 19:57:38
बढ़िया प्रस्तुति| धन्यवाद|
जनवरी 25, 2011 @ 15:59:44
इस विचारोत्तेजक परिचर्चा को हम तक पहुंचाने का शुक्रिया।——-क्या आपको मालूम है कि हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग कौन से हैं?