आज प्रेमचंद की जन्मतिथि है। लखनऊ में उनकी याद में अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए। कल भी उनकी कहानियों का मंचन, विचारगोष्ठी, परिचर्चा इत्यादि आकार्यक्रम योजित किये गए। आज के अखबारों में उनकी प्रचुर चर्चा रही। आज उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में रवीन्द्र कालिया जी बोलने आये थे। लगभग उसी समय उनकी धर्मपत्नी ममता कालिया जी सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के सभागार में ‘लमही सम्मान’ ग्रहण कर रही थीं। वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति जी ‘लमही सम्मान’ कार्यक्रम में ही आने वाले थे इसलिए मैं भी वहीं चला गया। वहाँ जनसंदेश टाइम्स के संपादक डॉ. सुभाष राय जी मिले। उनके अखबार में प्रेमचंद जी पर सुविचारित संपादकीय आलेख के साथ अन्य संबंधित सामग्रियाँ भी प्रमुखता से छपी थीं जिसे सभागार में निःशुल्क वितरित किया गया। उसे पढ़ते हुए कार्यक्रम में विलम्ब की बात किसी को नहीं खटकी।
इस अखबार के मुखपृ्ष्ठ पर विभूतिनारायण राय का बेबाक आलेख छपा है : नेपथ्य से अब मंच पर आ गया है अपराधी। वरिष्ठ आई.पी.एस. श्री राय लिखते हैं कि –
“पुराने वाले, समाज से वहिष्कृत, पुलिस के डर से जंगलों में भागने वाले अपराधी की जगह अब एक ऐसे अपराधी ने ले ली है जो लक्ज़री गाड़ियों में घूमता है, मोबाइल फोन से अपने शिकार से संपर्क करता है, शहर के बीचोबीच कॉलोनी में रहता है और गाहे-बगाहे आप उसे खुली जीप में फूल मालाओं से लदे जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए समर्थकों के साथ बीच शहर से गुजरते हुए देख सकते हैं। इस अपराधी के पास अकूत धन है, आधुनिकतम हथियार हैं और सबसे बड़ी बात है कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। अब लोग उससे नफरत नहीं करते बल्कि चाहते हैं कि उनके बच्चों में से कोई उस जैसा बने”
पूरा आलेख पठनीय है। इसे ऑनलाइन खोजकर पढ़ा जा सकता है।
हम यह अखबार पढ़ ही रहे थे कि कार्यक्रम प्रारंभ हो गया। ममता जी (2009) के अलावा वर्ष 2010 का ‘लमही सम्मान’ मशहूर अफ़साना निग़ार साजिद रशीद (अब दिवंगत) साहब को दिया गया। डॉ. श्रुति द्वारा औपचारिक प्रशस्ति वाचन के बाद ममता जी की कहानियों पर चर्चा हुई। प्रतिष्ठित कथाकार और साहित्य संपादक अखिलेश जी (तद्भव वाले) ने ममता जी की कहानियों और उपन्यासों की चर्चा करते हुए उन्हें आधुनिक परिवेश की पूर्वदर्शी लेखिका बताया और उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ा। इनके अपने समय की ‘बोल्ड’ लेखिका होने की बात लगभग सभी वक्ताओं ने दुहरायी। अध्यक्षीय भाषण करते हुए कामतानाथ जी ने तो इनकी एक बहुचर्चित कविता की चार लाइनें सुना डाली जिसमें ‘प्यार’ नामक शब्द के घिसकर चपटा हो जाने की बात की गयी है और इससे आगे बढ़ने की इच्छा खुलेआम व्यक्त की गयी है। कवि नरेश सक्सेना ने भी इनकी प्रशंसा में कविता पढ़ी।
प्रेमचंद के पैतृक गाँव के नाम पर अपनी पत्रिका शुरू करने वाले ‘लमही’ त्रैमासिक के प्रधान संपादक विजय राय ने इस प्रकाशन और सम्मान कार्यक्रम के निहित उद्देश्यों, लक्ष्यों व अबतक की उपलब्धियों पर लिखित आलेख पढ़कर प्रकाश डाला। मंच संचालक डॉ. सुशील सिद्धार्थ ने अन्य औपचारिकताएँ पूरी करायीं।
लगातार प्रशंसा सुनसुनकर उकता चुकी ममता जी जब बोलने आयीं तो अपने भाव छिपा न सकीं। बोलीं- यह बहुत विचित्र स्थिति है जब आपको मंच पर बिठा दिया जाय और एक के बाद एक आपकी तारीफ़ के पुल बाँधे जाय। यह सुनना आसान काम नहीं है। मैं बहुत संकोच का अनुभव कर रही हूँ। फिर उन्होंने जोड़ा कि लेखक की खुराक होती है – उपेक्षा और तिरस्कार। सारा जीवन इसी का अनुभव करते बीतता है। ऐसे में जब कहीं सम्मान मिलने लगता है तो मन में एक अजीब सा संकोच बैठ जाता है।
आगे उन्होंने साहित्य जगत के बड़े पुरस्कारों में होने वाली धाँधली की चर्चा की। कह रही थीं कि वह दिन दूर नहीं जब रात के बारह बजे कोई सरकारी अधिकारी आपका दरवाजा खटखटाएगा और चुपके से दो-तीन लाख का साहित्यिक पुरस्कार गले लगाकर चला जाएगा। दुनिया जान भी नहीं पाएगी कि किसे क्या मिला और क्यों मिला।
आह, ऐसा दिन (या रात?) मेरे घर कब आएगा…?
आज मेरी इच्छा तो थी प्रेमचंद की एक विलक्षण कहानी पढ़वाने की, क्योंकि उन्हें याद करने का बेहतरीन तरीका तो उनकी रचनाओं में डूब जाना ही है; लेकिन यही आख्यान लम्बा हो गया है। राम कहानी तो और भी है। लेकिन अब पब्लिश बटन दबाना ही होगा नहीं तो यह जुलाई खाली चली जाएगी। शेष बातों के लिए अब अगली पोस्ट की प्रतीक्षा कीजिए। इसबार बहुत जल्द लौटूंगा !
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
अगस्त 01, 2011 @ 00:22:54
प्रेमचन्द पहले रचनाकार हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन के विभिन्न चरित्रों को मनोवैज्ञानिक तरीके से चित्रित किया और उनके पात्र मानवीय संवेदना की प्रतिमूर्ति लगने लगे। उनकी कहानियाँ मनोरंजन के उद्देश्य से ऊपर उठकर सम्पूर्ण समाज के यथार्थ को उजागर करती हुई सामने आईं। प्रेमचंद जी को शत-शत नमन।
अगस्त 01, 2011 @ 07:00:57
जो आस लगा गए हैं उसी का इंतज़ार है-बाकी कर्तव्य आपने निभाया है यह कम नहीं आज की इस आपाधापी की दुनिया में !
अगस्त 01, 2011 @ 07:54:15
प्रेमचंद आगे बढ़ रहे हैं।
अगस्त 01, 2011 @ 09:03:03
श्री विभूति नारायण जी की बात सोलह आने सच है,बढ़िया पोस्ट.
अगस्त 01, 2011 @ 09:55:40
प्रेमचन्द के उपन्यासों में परिस्थितियाँ ही सबसे बड़ी खलनायिका थीं, अब तो कोई कमी नहीं है इन सबकी।
अगस्त 01, 2011 @ 11:57:41
बड़ा रोचक विवरण रहा। विभूति नारायण जी ने बहुत सटीक बात कही। अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है।
अगस्त 01, 2011 @ 14:22:39
ठीक है, जल्दी लौटो प्यारे!
अगस्त 01, 2011 @ 21:40:33
Bahut hee rochak post! Ab agalee post ka intezaar rahega!
अगस्त 05, 2011 @ 07:47:41
विभूति जी का लेख अखबार में पढ़ा था।पोस्ट यहीं पर बांची थी। अच्छा लगा आपका दुबारा नियमित सा लिखना शुरु होना। 🙂
अगस्त 10, 2011 @ 07:25:03
@लगातार प्रशंसा सुनसुनकर उकता चुकी ममता जी …अच्छी रपट है … जानकर खुशी हुई कि प्रेमचन्द जी मुख्य अतिथि नहीं थे।