लो अक्टूबर चला गया
मेरा मन क्यूँ छला गया
सोचा भ्रष्टाचार मिटेगा सब खुशहाल बनेंगे अब
अन्ना जी की राह पकड़कर मालामाल बनेंगे सब
काला धन वापस आएगा, रामदेव जी बाटेंगे
अति गरीब पिछड़े जन भी अब धन की चाँदी काटेंगे
लेकिन था सब दिवास्वप्न जो पलक झपकते टला गया
मेरा मन फिर छला गया।
गाँव गया था घर-घर मिलने काका, चाचा, ताई से
बड़की माई, बुढ़िया काकी, भाई से भौजाई से
और दशहरे के मेले में दंगल का भी रेला था
लेकिन जनसमूह के बीच खड़ा मैं निपट अकेला था
ईर्श्या, द्वेष, कमीनेपन के बीच कदम ना चला गया
मेरा मन फिर छला गया
एक पड़ोसी के घर देखा एक वृद्ध जी लेटे थे
तन पर मैली धोती के संग विपदा बड़ी लपेटे थे
निःसंतान मर चुकी पत्नी अनुजपुत्रगण ताड़ दिए
जर जमीन सब छीनबाँटकर इनको जिन्दा गाड़ दिए
दीन-हीन थे, शरणागत थे, सूखा आँसू जला गया
मेरा मन फिर छला गया
मन की पीड़ा दुबक गयी फिर घर परिवार सजाने में
जन्मदिवस निज गृहिणी का था खुश हो गये मनाने में
घर के बच्चे हैप्पी-हैप्पी बर्डे बर्डॆ गाते थे
केक, मिठाई, गिफ़्ट, डांस, गाना गाते, चिल्लाते थे
सबको था आनंद प्रचुर, हाँ बटुए से कुछ गला गया
मेरा मन बस छला गया
सोच रहा था तिहवारी मौसम में खूब मजे हैं जी
विजयादशमी, दीपपर्व पर घर-बाजार सजे हैं जी
शहर लखनऊ की तहजीबी सुबह शाम भी भली बहुत
फिर भी मन के कोने में क्यूँ रही उदासी पली बहुत
ओहो, मनभावन दरबारी राग गवइया चला गया
मेरा मन फिर छला गया।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
नवम्बर 01, 2011 @ 00:13:22
जब कोई दरबारी राजा बन जाए तो उसे राग-द्वेष से क्या काम। बस,…. निर्मोही की तरह सब को छोड देगा॥ ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें॥
नवम्बर 01, 2011 @ 04:12:32
सुंदर गीत रचा है। जगत ही छलना है तो बार-बार लगातार छला जाएगा ही यह मन। धीरज धरिए 🙂
नवम्बर 01, 2011 @ 07:21:00
सारे रंग हैं दुनियाँ में। छलना भी एक रंग है!
नवम्बर 01, 2011 @ 07:49:38
बहुत ही खूबसूरत और प्रभावशाली रचना -ऐसी रचनाएं विरल ही देखने को मिलती हैं ब्लॉग जगत में ….बधाई ! मन छला जाय तो चलो निभ भी जाय मगर छिला जाय तो गनीमत नहीं ..आगे की किसी ऐसी संभावना से बचाईये उसे 😀
नवम्बर 01, 2011 @ 07:52:05
@और हाँ राग दरबारी का गवैया एक सामयिक समीचीन संदर्भ तो है मगर क्या यहाँ राग दरबारी का सुनवैया हो सकता है ?
नवम्बर 01, 2011 @ 07:54:39
बहुत ही खूबसूरत और प्रभावशाली रचना|
नवम्बर 01, 2011 @ 08:30:30
भोला मन कई बार समझ ही नहीं पाता कि छला गया.
नवम्बर 01, 2011 @ 08:56:09
वाह! शानदार गीत का सृजन किया है संवेदनशील मन ने। घर, पड़ोस, गांव, समाज और राष्ट्र की दिशा दशा का समग्र चिंतन प्रस्तुत करती, मन हरती इस अभिव्यक्ति के लिए आपको बहुत बधाई।
नवम्बर 01, 2011 @ 09:35:04
बहुत प्रभावी रचना, बधाई।
नवम्बर 01, 2011 @ 11:54:21
बड़ा जालिम रहा पिछला महीना।
नवम्बर 01, 2011 @ 15:12:25
@लेकिन था सब दिवास्वप्न जो पलक झपकते टला गयामेरा मन फिर छला गया।..बहुत बेहतरीन,आभार.
नवम्बर 01, 2011 @ 17:19:16
ओक्टुबर चला गया.ऐसे ही बाकी महीने भी चले जायेंगे कुछ बदलेगा कुछ नहीं.जीवन ही छलावा है.बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति.
नवम्बर 01, 2011 @ 20:30:04
बेहतरीन !
नवम्बर 02, 2011 @ 21:35:37
ultimate..:-)
नवम्बर 05, 2011 @ 11:40:03
हृदयस्पर्शी!आँसू देने की कोशिश में खुद भी अश्रु बहाते हैंनिश्छल को छलने वाले भी चैन कहाँ फिर पाते हैं
नवम्बर 09, 2011 @ 22:24:04
भावों और शब्दों का काबिले तारीफ मिश्रण. हालाँकि पोस्ट तो पहले ही पढ़ लिया था,लेकिन मेरे विचार से ब्लॉग के इस सर्वोत्तम पोस्ट पर टिप्पड़ी करने में मैंने थोड़ी देर कर दी.
नवम्बर 11, 2011 @ 14:00:53
क्या बात है
नवम्बर 17, 2011 @ 00:14:42
मेरे लिए सुखद आश्चर्य है यह…यह पहली बार आपकी रची कोई कविता/गीत पढ़ रही हूँ…नहीं तो मेरा इम्प्रेशन तो यही था कि आप गद्य ही लिखते हैं…पर पद्य… और वह भी इतना सुन्दर, इतना भावपूर्ण और मनमोहक….बस…. वाह वाह वाह…मुग्ध ही कर लिया आपकी इस अप्रतिम गीत ने…
नवम्बर 25, 2011 @ 00:10:07
यथार्थ का प्रभावी और प्रवाहपूर्ण चित्रण हुआ है इस रचना में बधाई।