सप्ताहांत अवकाश था तो बच्चों के साथ थोड़ा समय बिताने का मौका मिला। वैसे तो मैं इस छुट्टी के दिन का सदुपयोग मन भर सो लेने के लिए करना चाहता हूँ लेकिन बच्चों की दुनिया सामने हो तो बाकी सबकुछ भूल सा जाता है। सत्यार्थ अभी अपना पाँचवाँ जन्मदिन मनाने वाले हैं लेकिन उनका खाली समय जिस प्रकार के कम्प्यूटरी खेलों में बीतता है उसे देखकर मुझे रा.वन, जी.वन और ‘रोबोट’ फिल्म के वशीकरण और चिट्टी के सपने आने लगते हैं। मुझे कभी-कभी चिन्ता होने लगती है कि इस जमाने की हवा कहीं उनका बचपन जल्दी ही न छीन ले। छोटी सी उम्र में इतनी बड़ी-बड़ी हाई-टेक बातें निकलती हैं; ऐसे-ऐसे एक्शन होते हैं कि मैं चकरा जाता हूँ।
मेरी कोशिश होती है कि उनका ध्यान टीवी के कार्टून चैनेल्स और कम्प्यूटर के ऑनलाइन गेम्स की दुनिया से बाहर खींचकर कुछ पारंपरिक और देशज खेलों की ओर ले जाऊँ। लेकिन लूडो और साँप सीढ़ी के खेल उन्हें बोर करते हैं। अब ‘मोनॉपली’ और ‘प्लॉट-फोर’ में वे बड़ों-बड़ों को हराने का आनंद लेते हैं। इसमें वे अपने दादा जी के साथ-साथ मुझे भी मात दे चुके हैं। अब अपने से छः साल बड़ी दीदी के साथ उसके स्तर के खेल पूरी निपुणता से खेलते हैं। कम्प्यूटर पर रोज नया गेम सर्च कर लेते हैं और घंटों ‘की-बोर्ड’ के माध्यम से उछल-कूद, मार-धाड़, लुका-छिपी और निशानेबाजी करते रहते हैं। इसके नुकसान से बचाने के लिए घर में कम्प्यूटर का समय सीमित करने के लिए नियम बनाने पड़े हैं।
इस शनिवार मैंने टीवी और कम्प्यूटर बन्द रखा। इन्हें अपने पास बुलाया और दुनिया भर की बातें करने की कोशिश की। स्कूल का हाल-चाल पूछा। क्लास टीचर मै’म कैसी लगती हैं, कैसा पढ़ाती हैं, यह भी पूछ लिया। लेकिन ये मायूस थे। इनकी दीदी अपनी दोस्त के घर चली गयी थी। वह दोस्त जो बीमारी में स्कूल नहीं जा सकी थी और उसका क्लास वर्क पिछड़ गया था। वागीशा उसी की मदद के लिए कुछ घंटे इनसे दूर चली गयी थी; और ये बुरी तरह से बोर हो रहे थे। जब मैंने दूसरों की मदद करने को अच्छा काम बताया और इन्हें यह सब समझ पाने में ‘समर्थ’ होने के लिए प्रशंसा की और बधाई दी तो ये खुश हो गये। फिर बोले- तो ये तो बताओ, मैं अकेले कौन सा खेल खेलूँ?
मैंने कहा- मोनोएक्टिंग करिए। एकल अभिनय। थोड़े संकेत में ही ये समझ गये। डबल बेड पर खड़ा होकर सबसे पहले हनुमान जी की तरह हवा में गदा भाँजने लगे। फिर रोबोट फिल्म के चिट्टी की तरह मशीनी चाल चलने लगे। एक-एक कदम की सटीक नकल देखकर मैं हैरत में पड़ गया। मैं उन्हें यह खेल थमाकर वहीं एक किनारे लेट गया। ये तल्लीन होकर विविध पात्रों की एक्टिंग करने लगे।
इसी शृंखला में एक पात्र राजा का आया जो अपने अनुचर से तमाम फरमाइशें कर रहा था; और अनुचर अपने ‘आका’ के हुक्म की तामील कर रहा था। प्रत्येक संवाद पर पात्र की स्थिति के अनुसार स्थान परिवर्तन हो रहा था। राजा एक काल्पनिक सिंहासन से बोल रहा था और अनुचर नीचे घुटना टेककर बैठे हुए।
-सिपाही…
-हुक्म मेरे आका…
-जाओ मिठाई ले आओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, बिस्कुट लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, सेब लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, मैगी लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, चॉकलेट लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, कुरकुरे लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, एप्पल लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, बनाना लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, किंडर-जॉय लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, ….
अब फरमाइशी सामग्री का नाम नहीं सूझ रहा था। इसलिए प्रवाह थमने लगा। मेरी भीतरी मुस्कान अब हँसी बनकर बाहर आने लगी थी। मैंने चुहल की- अरे राजा केवल खाता ही रहेगा कि कोई काम भी करेगा?
वे विस्मय छिपाते हुए पूरा आत्मविश्वास सहेजकर बोले- राजा क्या करता है? वह तो बस खाता-पीता और आराम ही करता है।
मैंने कहा- नहीं, ऐसी बात नहीं है। वह अपने राज्य में बड़े-बड़े काम करता है।
उन्होंने पूछा- राजा कौन से बड़े काम करता है?
मुझे मजाक सूझा, मैने कहा- ‘राजा’ बड़े-बड़े घोटाले करता है।
‘घोटाला’ शब्द उनके लिए बिल्कुल नया था। वे सोच में पड़ गये।
थोड़ी देर उधेड़-बुन करने के बाद मुझसे ही पूछ लिया- डैडी, यह घोटाला कैसे किया जाता है?
अब झेंपने की बारी मेरी थी। कैसे समझाऊँ कि कैसे किया जाता है। वे घोटाला करने का अभिनय करने को उतावले थे। मेरी बात पकड़कर बैठ गये। “बताओ न डैडी….”
मैने समझाया- बेटा, जब देश का राजा जनता की मेहनत से कमाया हुआ पैसा हड़प लेता है और उसे जनता की भलाई के लिए खर्च नहीं करता है तो उसे घोटाला करना कहते हैं।
-हड़पने का मतलब क्या होता है?
-मतलब यह कि जो चीज अपनी नहीं है, दूसरे की है उसे जबरदस्ती ले लेना या चुरा लेना।
-अच्छा, तो अब मैं चला दूसरों का पैसा चुराने…
इसके बाद वे बिस्तर से कूदकर नीचे आये और एक काल्पनिक गठरी बगल में दबाए दौड़ते हुए बाहर भाग गये।
उफ़्फ़्, खेल-खेल में मैंने यह क्या सिखा दिया?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
रंजना
नवम्बर 22, 2011 @ 00:25:14
सचमुच…ये क्या बता दिया…?बड़े होकर तो हर कदम इन्हें यही देखना और कुढ़ना है…अब भरपाई बस ऐसे ही होगी कि कुछ वर्षों उपरांत थोडा थोडा कर इन्हें यह सिखाएं कि इन सबका प्रतिकार कैसे करना चाहिए…
shikha varshney
नवम्बर 22, 2011 @ 03:13:03
बच्चों को बच्चा समझ कर हम सबसे बड़ी गलती करते हैं :).वो हमारे गुरु होतेहैं.
प्रवीण पाण्डेय
नवम्बर 22, 2011 @ 07:19:44
राजा कितना सुन्दर नाम हुआ करता था, डुबो दिया गया।
Praveen Trivedi
नवम्बर 22, 2011 @ 07:22:20
राजा का आपने बजा दिया बाजा !
संतोष त्रिवेदी
नवम्बर 22, 2011 @ 08:04:56
खेल-खेल में दुनियादारी सीख ली उसने :-)अब राजा रानी और परियों की कहानी भी तो गायब हो गईं जो बतातीं कि वे कौन हैं ?
Rahul Singh
नवम्बर 22, 2011 @ 08:12:01
व्यंग्य की एक शैली यह भी हो सकती है, प्रभावी.
Arvind Mishra
नवम्बर 22, 2011 @ 08:32:48
अच्छी शिक्षा दे रहे हैं बच्चों को ..मेरी प्रिय चिट्ठाकार कहाँ थीं उस वक्त उनसे बात तो कराईये -आपकी खैर खबर ली जानी चाहिए !
Siddhartha Mishra
नवम्बर 22, 2011 @ 11:05:52
ये वाकई में विचारणीय है की खेल खेल में क्या सिखा दिया और उससे भी मजे की बात है व्यंग्य में छुपी हुयी सच्चाई. बहुत अच्छा लिखा है…मजा आ गया.
Pallavi
नवम्बर 22, 2011 @ 20:24:16
खेल-खेल मे आपने उसको वर्तमान में जीना सीखा दिया :-)बहुत बढ़िया प्रतूती मज़ा आया पढ़कर ….
अनूप शुक्ल
नवम्बर 23, 2011 @ 07:27:57
क्या बात है जी! वाह!
दीपक बाबा
नवम्बर 24, 2011 @ 12:50:39
सही किया बच्चे को बता दिया…कम से कम किसी अँधेरे (अज्ञान) में तो नहीं रहेगा.
uljheshabd
नवम्बर 26, 2011 @ 20:34:02
बहुत ही रोचक ……
GYANDUTT PANDEY
नवम्बर 26, 2011 @ 21:13:39
वाह, क्या आइडिये हैं बालक सत्यार्थ की मोनो एक्टिन्ग के। एब्सोल्यूट होनहार! मैं एक बच्चे को जानता हूं जो सिर्फ चेयरमैन बनना चाहता है। इसलिये कि चेयर मैन को केवल सिग्नेचर करने होते हैं। बाकी काम और लोग करते हैं! 🙂
S.N SHUKLA
दिसम्बर 04, 2011 @ 07:27:29
सार्थक और सामयिक प्रस्तुति,आभार. please visit my blog too.