पिछले दिनों क्वचिदन्यतोऽपि की अचानक गुमशुदगी की सूचना चारो ओर फैल गयी। हिंदी ब्लॉग जगत के सबसे सक्रिय ब्लॉग्स में से एक अचानक गायब हो गया। इंटरनेट के सागर में इतने बड़े ब्लॉग का टाइटेनिक डूब जाय तो हड़कंप मचनी ही थी। बड़े-बड़े गोताखोर लगाये गये। महाजालसागर को छाना गया। कुछ चमत्कार कहें कि डॉ. अरविंद मिश्रा की लम्बी साधना का पुण्य प्रताप जो बेड़ा गर्क होने से बच गया। सच मानिए उनकी पोस्ट पढ़कर मेरे पूरे शरीर में सुरसुरी दौड़ गयी थी। यह सोचकर कि ऐसी दुर्घटना यदि मेरे साथ हो गयी तो मैं इससे हुए नुकसान का सदमा कैसे बर्दाश्त करूंगा? गनीमत रही कि जल्दी ही निराशा के बादल छँट गये और ब्लॉग वापस आ गया।
इस घटना का प्रभाव हिंदी ब्लॉगजगत में कितना पड़ा यह तो मैं नहीं जान पाया लेकिन इतना जरूर देखने को मिला कि गिरिजेश जी जैसे सुजान ब्लॉगर ने आलसी चिठ्ठे का ठिकाना झटपट बदल कर नया प्लेटफॉर्म चुन लिया। कबीरदास की साखी याद आ गयी।
बूड़े थे परि ऊबरे, गुरु की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा, ऊतरि पड़े फरंकि॥
मुझे ऐसा करने में थोड़ा समय लगा क्योंकि तकनीक के मामले में अपनी काबिलियत के प्रति थोड़ा शंकालु रहता हूँ। लेकिन मुख्य वजह रही मेरी ब्लॉगरी के प्रति कम होती सक्रियता। इस बात से दुखी हूँ कि इस प्रिय शौक को मैं पूरी शिद्दत से अंजाम नहीं दे पा रहा हूँ। आज मैंने थोड़ा समय निकालकर इस सुस्त पड़ी गाड़ी को आगे सरकाने की कोशिश की। वर्डप्रेस पर आसन जमाने का उपक्रम किया और यह पोस्ट लिखने बैठा।
इस पोस्ट को लिखने के बीच में जब मैने आलसी का चिठ्ठा खोलकर उस स्थानान्तरण वाली पोस्ट का लिंक देना चाहा तो फिर से चकरा गया। महोदय वापस लौट आये हैं। पुराना पता फिर से आबाद हो गया है। वर्डप्रेस के पते पर एक लाइन का संदेश भर मिला है। पूरी कहानी उन्हीं की जुबानी सुनने के लिए अब फोन उठाना होगा।
फिलहाल जब इतनी मेहनत करके यह नया टेम्प्लेट बना ही लिया है तो इस राम कहानी को ठेल ही देता हूँ। इस नये पते को कम ही लोग जानते होंगे। जो लोग यहाँ तक आ गये हैं उन्हें बता दूँ कि मेरा मूल ब्लॉग सत्यार्थमित्र ब्लॉगस्पॉट के मंच पर पिछले पौने-चार साल से बदलती परिस्थितियों के अनुसार मद्धम, द्रुत या सुस्त चाल से चल रहा है। अब लगता है कि फिलहाल वहीं चलता रहेगा।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
दिसम्बर 07, 2011 @ 21:37:34
चलो अच्छा हुआ ,आप जल्द चेत गए !
नए ठिकाने की शुभकामनायें !
दिसम्बर 08, 2011 @ 21:00:22
लेकिन जहाँ कहीं भी चला जाऊँ अपने पुराने घर का मोह नहीं छूट रहा। अभी खतरे की गम्भीरता भी समझ में नहीं आ रही है। थोड़ा कन्जर्वेटिव सा हूँ शायद।
दिसम्बर 07, 2011 @ 22:12:27
आपका यहाँ भी वहां भी इस जहाँ में जहाँ भी जाएँ वही स्वागत है !
दिसम्बर 08, 2011 @ 21:03:13
बहुत-बहुत धन्यवाद। आप की हौसला आफ़जाई मेरे लिए बहुत कारगर साबित हुई है।
दिसम्बर 07, 2011 @ 22:45:04
चलते रहने के लिये बधाई! मंगलकामनायें। 🙂
दिसम्बर 08, 2011 @ 21:04:33
साथ देने के लिए हार्दिक आभार।
दिसम्बर 08, 2011 @ 10:30:25
यहाँ अच्छा लग रहा है।
दिसम्बर 08, 2011 @ 21:06:35
हाँ, कुछ नया रंग रोगन जो हो गया है।
दिसम्बर 08, 2011 @ 22:37:13
पूरी कहानी कहां लिखी आपने ! आपने समझा कि सभी समझदार हैं मगर हम जैसे तो और भी अनाड़ी हैं।