संगोष्ठी स्मृति भेंटबहुत दिनों बाद आज छुट्टी टाइप मूड के साथ बिस्तर छोड़ने को मिला। जगने के बाद तुरन्त कोई जरूरी काम नहीं था। सिविल सर्विसेज की मुख्य परीक्षा के सिलसिले में कोषागार के द्वितालक दृढ़कक्ष (double-lock strong-room) को सुबह -सुबह खोलने की जिम्मेदारी भी आज नहीं निभानी थी। आज कोई पेपर नहीं था। इधर ब्लॉगरी में भी कोई नयी बात होती देखने की उत्सुकता नहीं थी। गंगा जी का पानी शान्त होकर अब अघोरी के किस्से कहने लगा है। ब्लॉगर संगोष्ठी की स्मृतियाँ ही बची हैं।

बिस्तर पर ही मुझे सूचना मिली कि मेरा परिवार मेरी भली पड़ोसन (प्रशिक्षु आई.ए.एस.) के साथ उनकी गाड़ी से ही सभी बच्चों समेत सुबह की ठण्डी हवा खाने पार्क में जा रहा है। मैने करवट बदलकर ‘ओके’ कहा और नींद की एक बोनस किश्त के जुगाड़ में पड़ गया। ….लेकिन कुछ देर बाद ही काम वाली के खटर-पटर से जागना पड़ा। सूने घर में अकेले पड़े बोर होने से अच्छा था कि मैं भी उधर ही निकल लूँ जहाँ बच्चे गये थे। स्कूटर से अल्फ्रेड पार्क जाने में पाँच मिनट लगे।

यह वही पार्क है जिसमें चन्द्र शेखर आजाद (को अंग्रेजो ने मार डाला था।)  को जब अंग्रेजों ने घेर लिया तो उन्होंने खुद को गोली मार ली और मरते दम तक आजाद रहे। २७ फरवरी, १९३१ को जब वे इस पार्क में सुखदेव के साथ किसी चर्चा में व्यस्त थे तो किसी मुखवीर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। इसी मुठभेड़ में आज़ाद शहीद हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसका नाम अब ‘चन्द्रशेखर आज़ाद राजकीय उद्यान’ कर दिया गया है।

ताकि भटक न जायें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दक्षिण जी.टी.रोड से लगे हुए करीब १८३ एकड़ क्षेत्र पर फैले इस विशाल परिसर में अंग्रेजों के जमाने से स्थापित अनेक संस्थाएं आज भी अपने गौरव और ऐतिहासिकता के कारण बाहरी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। इसी परिसर में इलाहाबाद संग्रहालय है, अल्फ्रेड पब्लिक लाइब्रेरी है, हिन्दुस्तानी एकेडेमी है, और मदन मोहन मालवीय स्पोर्ट्स स्टेडियम भी है। इसी परिसर में उद्यान विभाग द्वारा संचालित दो पौधशालाएं हैं जो आम, अमरुद, आँवला और सजावटी फूलों के पौधे बहुत कम कीमत पर उपलब्ध कराती हैं। परिसर में कहाँ क्या है...

बहुत से औषधीय पौधे भी इस परिसर में यत्र-तत्र बिखरे हुए मिल जाते हैं। हाल ही में ‘भैया दूज’ के दिन श्रीमती जी ने ताना मारा कि इलाहाबाद आने के बाद लगता है आप गोधन कूटने और भाई को सरापने का पारम्परिक अनुष्ठान छुड़वा ही देंगे। ललकारे जाने पर ताव में आकर मैंने भजकटया, झड़बेरी, बरियार और चिचिड़ा (लटजीरा) सब का सब जुटाकर रख दिया था। गोबर्धन पूजा में लगने वाली ये कटीली झाड़ियाँ मैं यहीं से खोज कर लाया था। मेरी इज्जत रख ली इस उद्यान ने।

सुबह-सुबह नारियल पानी...शहर के बीचोबीच बसे इस हरे-भरे उद्यान में दूर-दूर से आकर टहलने, ताजी हवा खाने, व्यायाम करने, दोस्तों-यारों के साथ मधुर क्षण गुजारने और पिकनिक मनाने वालों की अच्छी भीड़ लगी रहती है। पार्क बन्द होने का समय रात ९:०० बजे से सुबह ४:०० बजे तक का ही है। शेष समय यहाँ कोई न कोई  लाभार्थी मौजूद ही रहता है।

सुबह पहुँचा तो गेट पर नारियल पानी वाला मिला, “इतनी सुबह कौन तुम्हारा ग्राहक होता है जी?”

“दिन भर लगाता हूँ जी, कोई न कोई इस समय भी आ जाता है।” फ्रूट सलाद और बहुत कुछ

सामने की ओर केला, पपीता, सेब, खीरा, ककड़ी, अंकुरित चना, मूली, इत्यादि का सलाद बनाकर बेचने वाले ठेले लगे हुए थे। जूस का खोमचा भी दिखा।  भीतर घुसते ही नीम, पीपल, पाकड़ और अन्य बड़े-बड़े पेड़ों की छाँव में खड़ी कारों, जीपों और दुपहिया वाहनों की कतार बता रही थी अन्दर बहुत से साहब और सेठ लोग भी हैं। दिनभर शहर के प्रदूषण में इजाफ़ा करने वाली गाड़ियाँ यहाँ हरियाली के बीच मानो खुद को रिफ़्रेश कर रही थीं।हरी ताजगी लेती गाड़ियाँ

मुझे अपने बच्चों को ढूँढने में देर नहीं लगी थी। चादर बिछाकर योगासन करती मम्मी लोग के पास बैठे बच्चे बोर हो रहे थे। मैने उन तीनो को साथ लिया और पार्क का चक्कर लगाने निकल पड़ा। शरदकालीन फूलों का खिलना अभी शुरू नहीं हुआ है। क्यारियाँ तैयार की जा रही हैं। कुछ जगह तो अभी जुताई ही हुई है। लेकिन सदाबहार किस्म के फूल बदस्तूर मुस्कराते मिले। उनकी मुस्कराहटों के बीच करीब पौने तीन किलोमीटर के पैदल परिक्रमा पथ पर टहलने के बाद सुस्ताते हुए अनेक बुजुर्ग, जवान, औरतें और बच्चे मिले। झाड़ि्यों की झुरमुट के पीछे और घने पेड़ों के नीचे लगी बेन्चों पर बैठे लड़के-लड़कियाँ भी मिले।

 हम यहाँ बोर होने नहीं आये हैं..!

रविवार का लाभ उठाते हुए कुछ साप्ताहिक सैर करने वाले परिवार भी मिले। हमने अपने बच्चों की फोटुएं उतारी। वागीशा और सत्यार्थ के साथ पड़ोस की कीर्तिचन्द्रा भी अपनी मम्मी को छोड़कर तोप पर सवारी करती हुई तस्वीर खिंचाने में खुश हो रही थी। मास्टर सत्यार्थ ने जरूर अपने उत्साह पर हावी होते डर को प्रकत करने के लिए कुछ क्षण के लिए मुँह रुआँसा कर लिया। लेकिन कैमरे का फ्लैश बड़ों बड़ों से ऐक्टिंग करा देता है तो वह कैसे बच जाता।

पार्क में एक सफेद रंग की गुम्बजाकार इमारत मिली जिसके केन्द्र में एक ऊँचा चबूतरा था। पता चला कि इस चबूतरे पर किसी जमाने में महारानी विक्टोरिया की बड़ी सी प्रतिमा विराजमान थी। पार्क के बीचोबीच जो बड़ा सा घेरा बना है उसके चारो ओर लगी बेंचों पर बैठकर अंग्रेज बहादुर लोग अपनी-अपनी मेमों के साथ सुबह-शाम हवा खाते थे। घेरे के बीच में जो गोल चबूतरा है उसपर बैंडसमूह पाश्चात्य संगीत बजाते थे। अभी भी उस चबूतरे को ‘बैण्ड-स्टैण्ड’ ही कहा जाता है। आजादी के बाद विक्टोरिया महारानी यहाँ से हटा दी गयी हैं जो अब संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही हैं।

महारानी विक्टोरिया का चबूतरा थोड़ा सुस्ता लें..
बीता जमाना बैण्ड स्टैण्ड वाला घेरा
मैं तो डर गया डर हुआ काफूर
ध्यान-योग की कक्षा सूरज उग चुका है
विश्राम करते दादा जी लोग थक गया डैडी..!

उद्यान में एक तरफ कोई योगगुरू कुछ लोगों को ध्यान और योगासन सिखा रहे थे। कुछ लोग बिना गुरू के ही अपना अभ्यास कर रहे थे। कुछ कम-उम्र और हम‍-उम्र जोड़े भी अपनी बतकही में व्यस्त थे। हमने उधर ध्यान न देना ही उचित समझा और अपने साथ के बच्चों को फोटो खिंचाने के इधर से उधर ले जाता रहा। इसी उपक्रम में संयोग से एक रोचक स्नैप ऐसा भी क्लिक हो गया है।यह भी खूब रही......

औरतनुमा पुरुष जाते हुए और पुरुषनुमा महिला आती हुई’  इस तस्वीर में आ गयी है यह घर आने पर पता चला। यद्यपि टहलने वालों की भीड़ वापस लौट चुकी थी और `इतवारी’ टाइप कम ही लोग बचे रह गये थे लेकिन बच्चों ने घूम-घूमकर इतना मजा किया, और फोटू खिंचाने में इतना मशगूल रहे कि काफी देर तक बाहर गाड़ी में प्रतीक्षा करती मम्मी लोगों को इनकी खोज करने के लिए फॉलोवर को भेंजना पड़ा।

तन्दुरुस्ती हजारो नियामत है

मैने भी कैमरा समेटा और डाँटे जाने का मौका न देते हुए स्कूटर की ओर बढ़ लिया।  चलते चलते एक मोटे से पेंड़ में लटके बहुश्रुत संदेश की फोटू भी कैमरे में कैद कर ली। इस परिसर को किसी ने इलाहाबाद का फेफ़ड़ा कहा था जहाँ शुद्ध ऑक्सीजन की आपूर्ति लेने दूर दूर से लोग आते हैं। आप भी इसे देखिए और अपनी अगली इलाहाबाद यात्रा पर इस परिसर के लिए कम से कम एक दिन जरूर रखिए। धन्यवाद।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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