जाओ जी, अच्छा है…

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happy_new_year_2012_by_abu_hany-d4ksy1k_largeअच्छा जी, जाओ !

बड़ी राहत मिलेगी शायद
तुमने एक साल तक हमें परेशान रखा
कितने करोड़
नहीं, कितने अरब
या उससे भी कहीं ज्यादा
चोर उड़ा ले गये

चोर नहीं, डकैत कहना चाहिए
सबकी आँखों के सामने ही तो लूट होती रही
मीडिया जानती थी
टीवी पर रोज डिबेट होती थी
पत्रकार रपट देते थे
सी.ए.जी. की ऑडिट बताती थी
बाबा भी चिल्‍लाते रहे
अन्ना भी अनशन करते रहे
लेकिन तुमने सब हो जाने दिया
नामाकूल !

संसद की दीवारों के भीतर 
लोकतंत्र को कैद करने की कोशिश
फिलहाल सफल हो जाने दी तुमने
रामलीला मैदान और जंतर मंतर  की हुंकार
बन गयी
नक्कारखाने में तूती की आवाज
भ्रष्टतंत्र को तुमने जीत जाने दिया 
तुमने थका दिया इतना कि
लोकतंत्र को बुखार आ गया
थोड़ी सहानुभूति के शब्द सुनाकर तुम भी चलते बने
कुछ लोगों के साथ

मामूल के मुताबिक
तुम्हारी विदाई पर जश्न का माहौल है
लेकिन किसी खुशफहमी में मत रहना
दर‍असल यह तुम्हारे उत्तराधिकारी के आगमन का जश्न है
तुम्हारे जाने से हम भावुक होकर दुखी हो जाएंगे
ऐसा नहीं है
तुम्हारा तो जल्दी से जल्दी चला जाना ही अच्छा है
बुरा मत मानना
लेकिन यह बता देना जरूरी है
तुमने बहुत दुखी किया

बस एक खुशी मिली थी
जब अठ्ठाइस साल बाद एक वर्डकप दिलाया था तुमने
लेकिन इस खेल की एक किंवदन्ती को नहीं दिला सके
एक अदद शतक जो हो सकता था महाशतक
पाजी कहीं के !

तुमसे निजात पाकर
हम नये सिरे से आशा कर सकते हैं
शायद इस बार बिल पास हो जाय
उस कानून का जन्म हो जाय
जिसके लिए एक फकीर ने देश को जगाने का प्रयास किया
शायद उसे इस बार सफलता मिल जाय

लेकिन डर भी है
कौन जाने
तुम्हारे पीछे तुमसे भी ज्यादा
धुर्त और पाज़ी आ रहा हो

इसी लिए हम प्रार्थना कर रहे हैं
अब जो आये वह अच्छा ही आये
नया साल शुभ हो

!!! हार्दिक शुभकामनाएँ !!!

(चित्रांकन : http://weheartit.com/entry/20302771 से साभार)

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मेरा मन क्यूँ छला गया…?

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लो अक्टूबर चला गया

मेरा मन क्यूँ छला गया

 

सोचा भ्रष्टाचार मिटेगा सब खुशहाल बनेंगे अब

अन्ना जी की राह पकड़कर मालामाल बनेंगे सब

काला धन वापस आएगा, रामदेव जी बाटेंगे

अति गरीब पिछड़े जन भी अब धन की चाँदी काटेंगे

लेकिन था सब दिवास्वप्‍न जो पलक झपकते टला गया

मेरा मन फिर छला गया।

 

गाँव गया था घर-घर मिलने काका, चाचा, ताई से

बड़की माई, बुढ़िया काकी, भाई से भौजाई से

और दशहरे के मेले में दंगल का भी रेला था

लेकिन जनसमूह के बीच खड़ा मैं निपट अकेला था

ईर्श्या, द्वेष, कमीनेपन के बीच कदम ना चला गया

मेरा मन फिर छला गया

 

एक पड़ोसी के घर देखा एक वृद्ध जी लेटे थे

तन पर मैली धोती के संग विपदा बड़ी लपेटे थे

निःसंतान मर चुकी पत्नी अनुजपुत्रगण ताड़ दिए

जर जमीन सब छीनबाँटकर इनको जिन्दा गाड़ दिए

दीन-हीन थे, शरणागत थे,  सूखा आँसू जला गया

मेरा मन फिर छला गया

 

मन की पीड़ा दुबक गयी फिर घर परिवार सजाने में

जन्मदिवस निज गृहिणी का था खुश हो गये मनाने में

घर के बच्चे हैप्पी-हैप्पी बर्डे बर्डॆ गाते थे

केक, मिठाई, गिफ़्ट, डांस, गाना गाते, चिल्लाते थे

सबको था आनंद प्रचुर, हाँ बटुए से कुछ गला गया

मेरा मन बस छला गया

 

सोच रहा था तिहवारी मौसम में खूब मजे हैं जी

विजयादशमी, दीपपर्व पर घर-बाजार सजे हैं जी

शहर लखनऊ की तहजीबी सुबह शाम भी भली बहुत

फिर भी मन के कोने में क्यूँ रही उदासी पली बहुत

ओहो, मनभावन दरबारी राग गव‍इया चला गया

मेरा मन फिर छला गया।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

कविता बहुत कठिन कर्म है : आलोकधन्वा

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alokdhanwa-jiकवि आलोकधन्वा वर्धा विश्वविद्यालय में जब ‘राइटर इन रेजीडेन्स’ के रूप में आये तो सबको उम्मीद हुई कि अब ‘दद्दा’ अपनी वर्षों से बंद पड़ी कलम में नयी स्याही डालेंगे। कुछ और सादे कागजों में अपनी कविता का रंग भरकर उन्हें हमेशा के लिए सहेजकर रखने लायक बना देंगे। विश्वविद्यालय के फादर कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास (गेस्ट हाउस) में उनके साहचर्य का सुख भोग रहे शिक्षकों व अन्य अंतर्वासियों को जब ख्यातिलब्ध कवि जी अपने तरह-तरह के अनुभव अत्यंत रोचक शैली में सुनाते; अपने प्रेम के बारे में, अपने विलक्षण विवाह के बारे में और फिर उससे उत्पन्न विछोह के बारे में बताते हुए जब वे अपने से दूर चली गयी पत्नी की तस्वीर अपने पर्स से निकालकर दिखाते; और परिसर की सड़कों पर चहलकदमी करते हुए देर रात तक देश-दुनिया की तमाम बातों की चर्चा करते रहते तो यह सहज ही था कि हम सभी उनसे यह उम्मीद लगा बैठते कि वे हिंदी साहित्य जगत को नये सिरे से कुछ अनमोल भेंट देने वाले हैं।

अपनी एक मात्र काव्य पुस्तक में छपी कुल जमा इकतालीस (41) कविताओं से ही आलोकधन्वा ने गम्भीर काव्यप्रेमियों के बीच ऐसा स्थान बना लिया जो बिरलों को ही नसीब होता है। पूरी दुनिया में चर्चित और अनेक भाषाओं में अनूदित उनकी कविताएँ एक दौर में देश के पढ़े-लिखे नौजवानों के दिलो-दिमाग पर छायी रहती थीं और व्यवस्था के प्रति रोष से उत्पन्न आंदोलनों में प्रेरक क्रांतिगीत के रूप में समूहों द्वारा पढ़ी जाती थीं।  आज भी इन कविताओं का महत्व कम नहीं हुआ है।

alokdhanwa-happyइस दौरान विश्वविद्यालय द्वारा अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियाँ आयोजित होती रहीं और उनमें इन्होंने लगातार अपनी ओजस्वी और बेलाग बातें प्रभावी ढंग से रखी। सभागारों में आलोकधन्वा के वक्तव्य खूब तालियाँ बटोरते रहे। लोग उनकी बातों पर बहस-मुबाहिसा करते रहे। कंप्यूटर और इंटरनेट की एबीसीडी से भी अनभिज्ञ रहने वाले कवि आलोकधन्वा ने जब ‘चिठ्ठाकारी की आचारसंहिता’ विषयक राष्ट्रीय सेमीनार में अपनी बात रखी तो सबसे अधिक तालियाँ उनके हिस्से में ही आयीं। सभी भौचक होकर देख रहे थे- जब उन्होंने इस माध्यम की तुलना रेलगाड़ी के ईजाद से कर डाली और बोले कि जब पहली बार रेल चलना शुरू हुई तो लोग उसपर बैठने से डरते थे- इस आशंका में कि पता नहीं एक बार चल पड़ने के बाद यह रुक भी पाएगी या नहीं। तमाम डरावनी बातें इस सवारी को लेकर उठती रहीं। लेकिन समय के साथ इसका उपयोग बढ़ा और आज हम इसके बिना सामान्य जीवन की कल्पना नहीं कर सकते।

लेकिन कवि आलोकधन्वा की पहचान तो उनकी कविता है न! सभी उनसे कुछ नये प्रतिमान गढ़ती कविता की आस लगाये रहे। फरमाइशें बढ़ती रहीं और फिर ‘तगादे’ का रूप लेती गयीं।

आखिरकार उन्होंने बड़े मनोयोग से लिखी चार कविताएँ विश्वविद्यालय की साहित्यिक पत्रिका ‘बहुवचन’ को प्रकाशन के लिए उपलब्ध करायीं। पत्रिका छपकर आयी तो चारो ओर इन कविताओं की ही चर्चा होने लगी। सभी अपनी-अपनी राय देने लगे। सबको अलग-अलग कविताएँ पसन्द आयीं। एक समय में `गोली दागो पोस्टर’, `ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और `जनता का आदमी’ सरीखी कालजयी क्रांतिकारी कविताएँ लिखकर मशहूर होने वाले कवि ने जब नये समय में दूरस्थ प्रेयसी से मुलाकात की आतुरता बयान करती, गाय व बछड़े के ऊपर भावुक बातें करती और आम के बाग़ पर लुभावनी रसपान कराती कविता लिखी हैं तो आभास होता है कि समय के साथ व्यक्ति का कैनवास कैसे बदल जाता है। मानव मन कैसे-कैसे करवट लेता है और उसके निजी अनुभव उसकी वैचारिक प्राथमिकताओं को कैसे बदल देते हैं। कविमन की स्वतंत्रता और उदात्तता दोनो ही के दर्शन इनकी इन कविताओं में होते हैं।

alok-dhanwaमैने अनुरोध किया कि इन चारो कविताओं को इंटरनेट के पाठकों के लिए उपलब्ध कराने की अनुमति दीजिए। वे सहर्ष तैयार हो गये- इस शर्त पर कि उन्हें हूबहू किताब जैसे फॉर्मैट में देना होगा। मैने उन्हें विश्वास दिलाना चाहा तो भी उन्हें संतोष न हुआ। स्वयं ‘बहुबचन’ लेकर मेरे लैपटॉप के सामने बैठ गये। एक-एक हिज्जे को लाइन दर लाइन पत्रिका से मिलाते रहे। उसमें प्रकाशित कविता की कुछ पंक्तियों को  बदलवा दिया, एक-दो नयी पंक्तियाँ भी जोड़ डालीं। रात काफी बीत चुकी थी; लेकिन जबतक वे संतुष्ट नहीं हो गये कि सभी शब्द पूर्णतः शुद्ध और पंक्तियाँ दुरुस्त हो चुकी हैं तबतक बैठे रहे। स्क्रीन पर अपनी कविता को अपलक निहारते रहे- जैसे कोई माँ अपनी नवजात संतान को निहारती है। बार-बार पढ़ते रहे और मुग्ध होते रहे।

मैने कहा- आदरणीय, अब इसे पब्लिक डोमेन में जाने दीजिए, कबतक सीने से चिपकाए रहेंगे!

उन्होंने जवाब दिया- कविता बहुत कठिन कर्म है त्रिपाठी जी, एक-एक लाइन प्रसव वेदना देती है…

आखिर उन्होंने ओ.के. कहा और मैने पब्लिश बटन दबाया। चारों कविताएँ यहाँ नमूदार हो गयीं। हिंदी-समय पर आलोक धन्वा की सभी कविताएँ उपलब्ध हैं। चार नयी कविताओं में से एक आपके लिए यहाँ प्रस्तुत करता हूँ-

 

मुलाक़ातें

अचानक तुम आ जाओ

इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास

कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की

कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं

मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त

घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक चारखाने की
सूती साड़ी
कंधे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग दौड़ में भरोसे के लायक

तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर

दुख-सुख तो
आते जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहीं
हवा में !
इनसे बनती हैं नयी जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

आलोकधन्वा

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

अंकल जी…

26 टिप्पणियां

पिछले कुछ समय से

जब राह चलते स्कूल-कॉलेज के बच्चे

किसी पार्टी या बारात में उछलते-कूदते लड़के-लड़कियाँ

किसी रिश्तेदार या मित्र के घर

कालबेल बजाने पर दरवाजा खोलते

किशोर-किशोरियाँ

मेरा अभिवादन करते

तो मैं सतर्क हो जाता

‘अंकल जी’ सुनकर

चिहुँक जाता

मेरा युवा मन मचल उठता

यह बताने को कि मैं उनका दोस्त सरीखा हूँ

अभी इतना बड़ा नहीं कि पिछली पीढ़ी का कहलाऊँ

भैया या सर कहलाना अच्छा लगता

चाचा नहीं

लेकिन अब

समय की पटरी पर वह चिह्‍न आ ही गया

जब स्वीकार लूँ

मेरे नीचे एक नयी पीढ़ी आ चुकी है

चालीस बसंत जो देख लिए

सोचता हूँ

अब तो बड़ा बनके रहना पड़ेगा

बहुत कठिन है यह सब

जिम्मेदारी का काम है

अनुशासन और मर्यादा की चिंता

जो पहले भी थी

लेकिन एक शृंगार की तरह

अब तो जवाबदेही होगी

नयी पीढ़ी के प्रति

तथापि

मन तो युवा रहेगा ही

हमेशा

image

(सिद्धार्थ)

हे संविधान जी नमस्कार…

25 टिप्पणियां

 

हे संविधान जी नमस्कार,

इकसठ वर्षों के अनुभव से क्या हो पाये कुछ होशियार?
ऐ संविधान जी नमस्कार…

संप्रभु-समाजवादी-सेकुलर यह लोकतंत्र-जनगण अपना,
क्या पूरा कर पाये अब तक देखा जो गाँधी ने सपना?
बलिदानी अमर शहीदों ने क्या चाहा था बतलाते तुम;  
सबको समान दे आजादी, हो गयी कहाँ वह धारा गुम?
सिद्धांत बघारे बहुत मगर परिपालन में हो बेकरार,
हे संविधान जी नमस्कार…

बाबा साहब ने जुटा दिया दुनियाभर की अच्छी बातें,
दलितों पिछड़ों के लिए दिया धाराओं में भर सौगातें।
मौलिक अधिकारों की झोली लटकाकर चलते आप रहे;
स्तम्भ तीन जो खड़े किए वे अपना कद ही नाप रहे।
स्तर से गिरते जाने की ज्यों होड़ लगी है धुँआधार,
हे संविधान जी नमस्कार…

अब कार्यपालिका चेरी है मंत्री जी की बस सुनती है,
नौकरशाही करबद्ध खड़ी जो हुक्म हुआ वह गुनती है।
माफ़िया निरंकुश ठेका ले अब सारा राज चलाता है;
जिस अफसर ने सिस्टम तोड़ा उसको बेख़ौफ जलाता है।
मिल-जुलकर काम करे, ले-दे, वह अफसर ही है समझदार,
हे संविधान जी नमस्कार…

कानून बनाने वाले अब कानून तोड़ते दिखते हैं,
संसद सदस्य या एम.एल.ए. अपना भविष्य ही लिखते हैं।
जन-गण की बात हवाई है, दकियानूसी, बेमानी है;
यह पाँच वर्ष की कुर्सी तो बस भाग्य भरोसे आनी है।
सरकारी धन है, अवसर है, दोनो हाथों से करें पार,
हे संविधान जी नमस्कार…

क्या न्याय पालिका अडिग खड़ी कर्तव्य वहन कर पाती है?
जज-अंकल घुस आये तो क्या यह इसमें तनिक लजाती है?
क्या जिला कचहरी, तहसीलों में न्याय सुलभ हो पाया है?
क्या मजिस्ट्रेट से, मुंसिफ़ से यह भ्रष्ट तंत्र घबराया है?
अफ़सोस तुम्हारी देहरी पर यह जन-गण-मन है गया हार
हे संविधान जी नमस्कार…

आप सबको गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ…!!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

क्या अखबार का पाठक चिरकुट है…?

12 टिप्पणियां

राष्ट्रीय संगोष्ठी में बहस का मुद्दा बना एक प्रबंध संपादक का बयान

देश की प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रतिनिधि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में जुटे थे। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले प्रोफ़ेसर, बड़े अखबारों के संपादक और न्यूज चैनेल्स के एंकर सिर जोड़कर वर्धा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के छात्रों और अकादमिकों को मीडिया की असली दुनिया से परिचित करा रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता पर बहस चल रही थी। मीडिया द्वारा मिशन छोड़कर व्यावसायिकता की ओर मुड़ जाने पर चिंता व्यक्त की जा रही थी। मीडिया और राडिया के अंतर्सम्बन्ध खंगाले जा रहे थे। तभी एक प्रतिष्ठित अखबार के प्रबंध संपादक ने यह मंतव्य रखा कि जब एक साबुन की टिकिया के लिए लोग अपना अखबार बदल देते हैं तो उनसे प्रतिबद्धता की उम्मीद क्या की जाय। दो-ढाई रूपये देकर क्या उन्होंने अखबार के मालिक को खरीद लिया है जो उससे मिशन और नैतिकता की अपेक्षा करते हैं?

पाठकों को उक्त प्रकार से चिरकुट बताने से पहले उन्होंने पत्रकारों को भी उनकी औकात बताने की कोशिश की। बोले- आप इस भ्रम में मत रहिएगा कि यह राज-काज आपके भरोसे चल रहा है। आपकी स्थिति उस छिपकली जैसी है जो छत से चिपककर यह भ्रम पाल बैठी है कि इसे उसी ने रोक रखा है; या हाथी की पीठ पर बैठी उस मक्खी की तरह है जो उसे छोड़कर अकेले जंगल में इसलिए नहीं जाने देती कि उसके बिना इसकी (हाथी की) रक्षा नहीं हो सकेगी।

उनके पहले के वक्ताओं ने “मिशनरी पत्रकारिता- संदर्भ और प्रासंगिकता” नामक विषय पर बोलते हुए देश में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार, माफ़ियागीरी, घोटालों, इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका पर अनेक सुंदर व्याख्यान दिए थे और भविष्य के मीडियाकर्मियों को उनकी बढ़ती जिम्मेदारियों का बोध कराने का प्रयास किया था। चहुँओर निराशा के घने बादलों के बीच आशा का एक मात्र सूरज समाज के चौथे स्तंभ को बताया गया था। तब प्रबंध सम्पादक जी ने अपनी बात की शुरुआत एक रोचक कहानी से की थी-

बताने लगे- एक वृद्ध मौलवी लैंप पोस्ट के नीचे सड़क पर बहुत देर से कुछ ढूँढ रहा था।  एक नौजवान को उसकी परेशानी देखी नहीं गयी। सहायता करने की गर्ज़ से पूछा- बाबा क्या खोज रहे हो?

“बेटा, मैं अपनी टोपी सी रहा था, अचानक सुई हाथ से गिर गयी। वही ढूँढ रहा हूँ लेकिन मिल नहीं रही है” मौलवी ने तफ़सील से बताया।

“अच्छा बताइए टोपी कहाँ सिल रहे थे और सूई ठीक कहाँ गिरी? मैं खोजता हूँ।” युवक ने सहानुभूति दिखायी।

“बेटा सुई तो मस्ज़िद में गिरी थी लेकिन वहाँ बहुत अंधेरा है इसलिए यहाँ रोशनी में ढूँढ रहा हूँ।”

हाल में ठहाका लगना तय था ही। तालियाँ थमीं तो उक्त वक्ता ने बताया कि आज यहाँ की चर्चा भी कुछ इसी प्रकार की हो रही है। समस्या की असली जड़ जहाँ है उसे कोई नहीं देखना चाहता। सबका समाधान मीडिया से कराना चाहता है। देश की सरकारें भ्रष्ट है, संसद अपना काम नहीं कर पा रही। न्यायालय भी संदेह से परे नहीं रह गये हैं। उद्योगपति तेजी से अपना पैसा बढ़ा रहे हैं। गुप्त गठबंधन हो रहे हैं। हर आदमी लाभ कमाने के उद्यम में लगा है, लेकिन मीडिया को नैतिकता और मिशन का पाठ पढ़ाया जाता है। जब हम मीडिया में प्रोफ़ेशनलिज़्म की बात करते हैं तो इसे गाली समझा जाता है। आजादी से पहले अखबारों ने एक मिशन के साथ काम किया था- देश को गुलामी से मुक्त कराने का मिशन। लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है। आज यह अन्य प्रोफेशन्स की तरह एक पेशा के रूप में क्यों नहीं पहचाना जाना चाहिए? अख़बार या टीवी चैनेल का जो मालिक करोड़ो रुपये का पूँजी निवेश करता है उसे लाभ कमाने के बारे में क्यों नहीं सोचना चाहिए? मात्र दो रूपये में चालीस पृष्ठ का अखबार आपके दरवाजे पर पहुँचाने का प्रबंध करने वाला अखबार मालिक आपके बारे में कितना सोचे जब आप दो रुपये की साबुन की टिकिया पाने के लिए अपना वर्षों पुराना अखबार बदल देते हैं। आपकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है तो अखबार चलाने वालों से आप क्या अपेक्षा रखते हैं?

उन्होंने अखबार पहुँचाने वाले हॉकर के प्रति पाठकों के रूखे व्यवहार का वर्णन भी किया कि कैसे वह विपरीत मौसम में भी सुबह छः बजे घर पर अखबार पहुँचाता है और कभी देर हो जाने पर सुबह की चाय का स्वाद खराब कर देने का दोषी बन जाता है। बिना नागा किए तीस दिन अखबार देने के बाद जब वह पैसा लेने पहुँचता है तो महानुभावों को  ‘आज नहीं कल’ का जवाब देते देर नहीं लगती। “ऐसे लोग जब बिना जाने समझे अखबार के मालिक, अखबार के सम्पादक और अखबार के रिपोर्टर पर आरोप लगाते हैं तो मुझे आपत्ति होती है।”

कोई भी व्यवसाय जब प्रारम्भ किया जाता है तो उसकी प्रगति का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। लाभ कमाना एक सर्वमान्य लक्ष्य है। उसके लिए जरूरी उपाय तलाशे जाते हैं और उन्हें अपनाया जाता है। स्वतंत्रता मिलने के बाद पत्रकारिता भी किसी अन्य  व्यवसाय की तरह कुछ लक्ष्यों की पूर्ति के उद्देश्य से आगे बढ़ी। समय के साथ तालमेल बिठा कर चलने वाले सफल हुए। यह कार्य आज भी एक मिशन बना हुआ है, लेकिन इसका स्वरूप बदल गया है। आज पत्रकारिता ‘स्वांतः सुखाय’ नहीं है।

धारा प्रवाह बोलते हुए उन्होंने एक-दो और चुटकुले और आख्यान सुनाये और बोले- यह अजीब स्थिति है कि प्रायः सभी पत्रकार अपने प्रबंधन को कोसते रहते हैं। उनके अनैतिक कार्यों और शोषक प्रवृत्तियों का रोना रोते हैं। लेकिन वे ही जब स्वयं प्रबंधक अर्थात्‌ मालिक बन जाते हैं तो वे सारी मिशनरी बातें हवा हो जाती हैं और वे सभी बुराइयाँ अपना लेते हैं जिन्हें कोसते इनका समय बीता है। फिर उन्होंने जोड़ा कि इन सारी बातों के बावजूद आज भी जब देशहित का मुद्दा उठता है तो देश की पूरी मीडिया एकजुट होकर आवाज उठाती है। उन्होंने इसके कई उदाहरण भी गिना डाले।

अपने को एक अदना सा पत्रकार बताते हुए उन्होंने ‘छोटे-छोटे प्रयासों का महत्व’ रेखांकित करने के लिए उस गिलहरी की कथा सुनायी जिसने समुद्र पर रामसेतु के निर्माण की प्रक्रिया में योगदान कर्ताओं की सूची में अपना नाम लिखाने के लिए बार-बार तट पर लोटपोट कर शरीर में रेत बटोरने और पुल पर जाकर शरीर झाड़ देने का उद्यम किया था। ताकि भविष्य में इतिहास लिखने वाले यह न लिखें कि जब सारा  बानर समाज पुल बना रहा था तो वहाँ मौजूद एक गिलहरी कुछ नहीं कर रही थी। अस्तु कुछ न कुछ यथा सामर्थ्य करते रहना चाहिए। इसके बाद उन्होंने एक जोरदार वीररस की कविता सुनायी। मैं एक ही पंक्ति नोट कर पाया क्योंकि उन्होंने दुहराया नहीं था। हाल को गुँजाने वाली तालियाँ बजीं और अगले वक्ता बुलाये गये।

यहाँ तक तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन जब प्रश्न-उत्तर का दौर चला तो प्रबंध-संपादक महोदय को उठकर सफाई देनी पड़ी। छात्र श्रोताओं के तीखे प्रहार वाकई बेचैन करने वाले थे। अंततः कुलपति जी को अध्यक्षीय भाषण में इस मसले पर अंतिम बात कहनी पड़ी। वह बहुत ही मार्मिक और सजग करने वाली बात थी। लेकिन उसकी चर्चा अगली कड़ी में। अभी तो आप उस वीररस की कविता का आनंद लेते हुए इस ‘चिरकुटई के आरोप’ का जवाब दीजिए।

गूगल महराज ने उस एक लाइन का ‘जामन’ लेकर पल भर में अपने क्षीर सागर के भंडार से पूरी कविता की दही परोस कर रख दी।

वह लाइन थी-

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में

इस लंबी कविता के मूल कवि हैं डॉ. हरिओम पवार। इसके आगे पीछे की कुछ और लाइनें यहाँ आपके लिए। पूरी कविता यहाँ है।

इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का
एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है
अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो
चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो
हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो
गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में
हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं

जब तक भोली जनता के अधरों पर डर के ताले हैं
तब तक बनकर पांचजन्य हम हर दिन अलख जगायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

अगवानी हर परिवर्तन की भेंट चढ़ी बदनामी की
हमने बूढ़े जे.पी. के आँसू की भी नीलामी की
परिवर्तन की पतवारों से केवल एक निवेदन था
भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था

अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर
शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर

निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में जाकर
बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुलाकर
यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं
माँ , बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है

जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक हम हर सिंहासन को अपराधी बतलायेंगे
बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

हाय, मैं फुटबॉल का दीवाना न हुआ… पर हिंदी का हूँ !!

24 टिप्पणियां

 

इलाहाबाद से वर्धा आकर नये घर में गृहस्थी जमाने के दौरान फुटबॉल विश्वकप के मैच न देख पाने का अफ़सोस तो मुझे था लेकिन जब मैने इसका प्रसारण समय जाना तो मन को थोड़ी राहत मिल गयी। यदि मेरा टीवी चालू रहता और केबल वाला कनेक्शन भी जोड़ चुका होता तबभी देर रात जागकर मैच देखना मेरे वश की बात नहीं होती। इस खेल के लिए मेरे मन में वैसा जुनून कभी नहीं रहा कि अपनी दिनचर्या को बुरी तरह बिगाड़ लूँ। जैसे-जैसे टुर्नामेण्ट आगे बढ़ता गया इसकी चर्चा का दायरा भी फैलता गया। ऑफ़िस से लेकर कैंटीन तक और गेस्ट हाउस से लेकर घर के नुक्कड़ तक जहाँ देखिए वहीं चर्चा फुटबॉल की। मैं इसमें सक्रिय रूप से शामिल नहीं हो पाता क्योंकि मैं कोई मैच देख ही नहीं पा रहा था।कांस्य पदक के साथ जर्मन खिलाड़ी

हमारे कुलपति जी रात में मैच भी देखते और सुबह हम लोगों के साथ साढ़े पाँच बजे टहलने के लिए भी निकल पड़ते। आदरणीय दिनेश जी ने तो रतजगा करने के बाद मैच की रिपोर्ट ठेलना भी शुरू कर दिया। मैने अखबारों से लेकर न्यूज चैनेलों तक जब इस खेल का बुखार चढ़ा हुआ देखा तो मुझे अपने भीतर कुछ कमी नजर आने लगी। कैसा मूढ़ हूँ कि दुनिया के सबसे बड़े उत्सव के प्रति उदासीन हूँ। मैंने तुरन्त टीवी सेट तैयार किया और केबल वाले को आनन-फानन में ढूँढकर कनेक्शन ले लिया। यह सब होने तक क्वार्टर फाइनल मैच पूरे हो चुके थे। नेट पर देखकर पता चला कि सेमी फाइनल मैच सात और आठ जुलाई को खेले जाने हैं। मैंने रतजगे की तैयारी कर ली।

शाम को ऑफिस से आया तो पता चला कि दोपहर की बारिश के बाद टीवी बन्द पड़ा है। ऑन ही नहीं हो रहा है। मैने देखा तो टीवी का पावर इन्डीकेटर जल ही नहीं रहा है। मैने बिजली का तार चेक किया। इसमें एक छोटी सी खरोंच पर सन्देह करते हुए नया तार लगा दिया। फिर भी लाइट नहीं जली। मैने टीवी का पिछला ढक्कन खोलकर चेक किया तो इनपुट प्वाइण्ट पर बिजली थी लेकिन उसके अन्दरूनी हिस्से में कहीं कोई गड़बड़ थी। यह सब करने में पसीना भी बहा। सुबह तो अच्छा भला चलता छोड़कर गया था… फिर यह अचानक खराब कैसे हो गयी?

श्रीमती जी बताया कि दोपहर में बारिश के समय जोर की गर्जना हुई थी। कहीं आसपास ही बिजली गिरी होगी शायद। मुझे सन्देह हुआ कि केबल के रास्ते बिद्युत तड़ित की उर्जा टीवी में जा समायी होगी और किसी पुर्जे का सत्यानाश हो गया होगा। मैंने फौरन इसे गाड़ी में लादा और दुकान पर ले गया। वहाँ बिजली से आहत कुछ और टीवी सेट रखे हुए थे। दुकानदार ने बताया कि नागपुर से मिस्त्री आएगा तब चेक करके बताएगा कि क्या खराबी है? मैने पूछा कि कितना समय और पैसा लगेगा तो उसने मेरा मोबाइल नम्बर मांग लिया। बोला कि मिस्त्री के चेक करने के बाद ही बता पाऊंगा। यदि जला हुआ स्पेयर पार्ट यहाँ मिल गया तब तो तत्काल ठीक करा लूंगा नहीं तो उसे नागपुर से मंगाने में दो-तीन दिन लग जाएंगे।

मुझे न चाहते हुए भी इलाहाबाद छोड़ने का पछतावा होने लगा। श्रीमती जी कि फब्तियाँ सुनना तो तय जान पड़ा- अच्छा भला शहर और काम छोड़कर इस वीराने में यही पाने के लिए आये थे- बच्चों का स्कूल सात किलोमीटर, सब्जी बाजार आठ किलोमीटर, किराना स्टोर पाँच किलोमीटर, दूध की डेयरी छः किलोमीटर… हद है, नजदीक के नाम पर है तो बस ईंट पत्थर और सूखा- ठिगना पहाड़… ले देकर एक पार्क है तो वह भी पहाड़ी पर चढ़ाई करने के बाद मिलता है। वहाँ भी रोज नहीं जा सकते…

मैं अपने को यह सब पुनः सुनने के लिए तैयार करता हुआ घर लौट आया। यह भी पक्का हो गया कि अब दोनो सेमी फाइनल भी नहीं देख पाऊंगा। मन मसोस कर रह गया। आखिरकार अगले दिन मिस्त्री ने खबर दी कि सामान नागपुर से आएगा औए साढ़े नौ सौ रूपए लगेंगे। मरता क्या न करता। मैने फौरन हामी भरी। टीवी बनकर आ गयी। मैने पता किया कि तीसरे-चौथे स्थान का मैच १०-११ की रात में होगा। मैने शनिवार की छुट्टी को दिन में सोकर बिताया ताकि रात में जागकर मैच देख सकूँ। दस बजे रात को परिवार के अन्य सदस्य सोने चले गये और मैं बारह बजने का इन्तजार करता रहा। इस दौरान टीवी पर कुछ फालतू कार्यक्रम भी देखने पड़े। स्टार प्लस पर ‘जरा नच के दिखा’ का ग्रैण्ड फ़िनाले चल रहा था जिसमें नाच से ज्यादा नखरा और उससे भी ज्यादा विज्ञापन देखना पड़ा।

नींद के डर से प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा रहा लेकिन जब पहलू में कष्ट हुआ तो भारी भरकम सोफ़ा उठाकर टीवी के सामने ले आया। गावतकिया लगाकर आराम से देखने का इन्तजाम हो गया। मैच शुरू हुआ। जर्मनी ने पहला गोल दागा और जब बोर्ड पर यह स्कोर लिख कर आया तब मैंने पक्के तौर पर जाना कि काली जर्सी वाले खिलाड़ी जर्मन टीम के हैं। इसके बाद युरुग्वे ने गोल उतारा फिर बढ़त ले ली। अब मुझे ऑक्टोपस पॉल की जान सांसत में नजर आने लगी। तभी जर्मनी ने बराबरी कर ली। मैच में जोश आया हुआ था लेकिन सोफ़े पर आराम से पसरा हुआ मैं जाने कब सो गया। जब नींद खुली तो खिलाड़ियो को मैदान से बाहर जाते देखा और चट से विज्ञापन शुरू हो गया। अन्तिम परिणाम देखने के लिए न्यूज चैनेल पर जाना पड़ा। वहाँ की हेडलाइन थी- ऑक्टोपस पॉल की भविष्यवाणी एक बार फिर सही साबित हुई। जर्मनी तीसरे स्थान पर। युरुग्वे को ३-२ से हराया।

***

अफ़सोस है कि मैं दूसरों की तरह फुटबॉल का दीवाना नहीं बन पाया। कुछ लोग मुझे जरूर कोसेंगे कि कैसा अहमक है। चलिए कोई बात नहीं…। मेरी दीवानगी कहीं और तो है। आज स्वप्नलोक पर विवेक जी ने एक कविता ठेल दी लेकिन कविता अंग्रेजी में देखकर मुझे ताव आ गया। मैने आनन-फानन में उसका हिन्दी तर्जुमा करके टिप्पणी में पेश कर दिया है। मेरी दीवानगी का आलम यहीं देख लीजिए। स्वप्नलोक तक बाद में जाइएगा 🙂

“Though I have done no mistake,
Excuse me for God’s sake.
I am poor, you are great.
You are master of my fate.

गलती मेरी नहीं है काफी

प्रभुजी दे दो फिर भी माफी

मैं गरीब तू बड़ा महान

भाग्यविधाता लूँ मैं मान

But remember always that,
human, lion, dog or cat,
all creatures are same for God.
No sound is, in his rod.

पर इतना तुम रखना ध्यान

नर नाहर बिल्ली और श्वान

सबको समझे एक समान

मौन प्रहार करे भगवान

He, who will afflict others,
will be facing horrid curse.
Killing weak is not correct.
This is universal fact.”

जिसने परपीड़ा पहुँचाई

वह अभिशप्त रहेगा भाई

निर्बल को मारन है पाप

दुनिया कहती सुन लो आप

Listening this the hunter said,
“Don’t teach me good and bad.”
Gun fire ! but no scream ?
Thank God it was a dream !

सुन उपदेश शिकारी भड़का

ले बन्दूक जोर से कड़का

धाँय-धाँय… पर नहीं तड़पना

शुक्र खुदा का यह था सपना

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

ताजा हवाओं ने कहला दी एक ग़जल…

22 टिप्पणियां

 

पिछले दिनों त्रिवेणी महोत्सव की धूम में एक बहुत अच्छे कार्यक्रम की चर्चा करने से चूक गया था। मैने पहले भी आपलोगों का परिचय इमरान प्रतापगढ़ी और उनकी संस्था ताजा हवाएं से कराया था। इस नौजवान शायर में कुछ अलग हटकर अनूठे सांस्कृतिक आयोजन करने का उत्साह देखते ही बनता है। मई २००८ में ब्लॉगरी की कक्षा लगाने का प्रयोग इन्हीं के माध्यम से सफ़ल हो पाया था।

गत २१ फरवरी को रविवार के दिन इन्होंने उत्तर प्रदेश और आसपास के अनेक सरकारी अधिकारियों को इकठ्ठा कर लिया। किसी मीटिंग आदि के लिए नहीं बल्कि उनके भीतर बसे कवि और शायर को सम्मानित करने के लिए तथा उनसे काव्य पाठ सुनवाने के लिए। इसमें नीतिश्वर कुमार जैसे आई.ए.एस. अधिकारी भी थे तो रिज़वान अहमद व एस.पी. श्रीवास्तव जैसे वरिष्ठ आई.पी.एस. अधिकारी भी थे। इन्द्रमणि जैसे रेलवे के विजिलेन्स अफ़सर भी थे राजकुमार सचान जैसे वरिष्ठ पी.सी.एस. अधिकारी भी। प्रशासनिक व्यस्तता के कारण कई अधिकारी अन्तिम क्षणों में न आ सके। इन अधिकारियों की खासियत यह थी कि इन लोगों ने एक मन्च पर पाल्थी मारकर बैठे हुए जूनियर-सीनियर का प्रोटोकॉल दरकिनार करके विशुद्ध काव्यरस का आदान-प्रदान किया। प्रायः सभी अधिकारी कवियों ने अपनी काव्य प्रतिभा से चमत्कृत कर दिया। कुछ चुनिन्दा रचनाओं की रिकॉर्डिंग मैं अगली पोस्टों में सुनवाने का प्रयास करूंगा।

अभी तो मैं यह बताना चाहता हूँ कि इस कार्यक्रम में बजने वाली तालियों ने मुझे कविताई की ओर बड़ी मजबूती से ढकेलना शुरू कर दिया। यमुना तट पर सितारों के जमघट, ट्रेजरी की नौकरी और होली की भागदौड़ के बीच कुछ शब्दों की जोड़-गाँठ रुक-रुककर चलती रही। आज जब होली की छुट्टी पूरी होने के बाद भी इलाहाबाद में एक दिन अतिरिक्त रंग खेला जा रहा है तो मैं घर में दुबका हुआ यह कारनामा पूरा करने में सफ़ल हो गया हूँ। अब गुणी जन इसे पढ़कर बताएं कि मुझे इस क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए कि नहीं 🙂

 

दिल की हर बात सरे-राह निकाली नहीं जाती

प्यार की धड़कन पर दिल में दबा ली नहीं जाती

 

हमने देखे हैं बहुत लोग जिन्हें प्यार हुआ

पर ये दौलत सभी लोगों से संभाली नहीं जाती

 

था हुनरमन्द और गैरत-ओ- ईमान का पक्का

फिर भला कैसे उसकी उसकी पगड़ी उछाली नहीं जाती

 

बहुत गरीब था यह जुर्म किया था उसने

वर्ना मासूम उसकी बेटी उठा ली नहीं जाती

 

सितम तमाम दफ़न हैं चमकती खादी में

वर्ना हसरत वज़ीर बनने की पाली नहीं जाती

 

तंग नाले के किनारे जला लिया चूल्हा

कामगारों से भूख अब जरा टाली नहीं जाती

 

लूट, हत्या, गबन, फिरका परस्ती, महंगाई

इनसे अखबार की सुर्खी कभी खाली नहीं जाती

 

देख ‘सत्यार्थमित्र’ अपने रहनुमाओं को

जिनके घर सजते हैं हरहाल दिवाली नहीं जाती

-सिद्धार्थ 

 

चलते-चलते आपको अपने मित्र और उम्दा शायर मनीष शुक्ला की वो ग़जल सुनवाता हूँ जिसने उस प्रशासनिक अधिकारियों के कवि सम्मेलन में खूब तालियाँ बटोरी। मुझे विश्वास है ये आपको जरूर पसन्द आएगी।

 

वादा किया गया था उजालों का क्या हुआ…

राम रसोई हुई मुखर…|

23 टिप्पणियां

बुरा हो इस ब्लॉगजगत का जो चैन से आलस्य भी नहीं करने देता। एक स्वघोषित आलसी महाराज तुरत-फुरत कविता रचने और ठेलने की फैक्ट्री लगा रखे हैं। इधर-उधर झाँकते हुए टिपियाते रह्ते हैं। रहस्यमय प्रश्न उछालते हैं और वहीं से कोई सूत्र निकालकर कविता का एक नया प्रयोग ठेल देते हैं। उधर बेचैन आत्मा ने एक बसन्त का गीत लिखा- महज दो घण्टे में। उसपर आलसी महाराज ने दो मिनट में एक टिप्पणी लिखी होगी। उसके बाद क्या देखता हूँ कि उनके कविता ब्लॉग पर एक नयी सजधज के साथ कुछ नमूदार हुआ है। पता नहीं कविता ही है या कुछ और।

इस अबूझ आइटम की दो लाइनें ही मेरी समझ में आ सकीं। उन लाइनों पर सवार होकर मैं अपने गाँव चला गया। मिट्टी के चूल्हे में जलती लकड़ी के आँच पर बड़ी बटुली में भात और छोटी बटुली में दाल बनाती माँ दिख गयी। लकड़ी की आँच की लालच में वहीं सटकर बैठ गया हूँ। मैं पहँसुल पर तेजी से चलते उसके हाथों को देखता हूँ जो तरकारी काट रहे हैं। बड़ी दीदी सिलबट्टे पर चटनी पीस रही है। कान में कई मधुर आवाजों का संगीत बज रहा है जिसमें गजब का ‘स्वाद’ है। यह सब मुश्किल से पाँच मिनट में रच गया क्यों कि संगीत की गति अनोखी है:

 

अदहन खदकत भदर-भदर
ढक्कन खड़कत खड़र-खड़र
करछुल टनकत टनर-टनर
लौना लहकत लपर-लपर

बटुली महकत महर-महर
पहँसुल कतरत खचर-खचर
सिलबट रगड़त चटर-पटर
लहसुन गमकत उदर-अधर

राम रसोई हुई मुखर
कविता बोली देख इधर

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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