चुनावी कुण्डलियाँ… वाह नेता जी!

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आजकल चुनावी सरगर्मी में कोई दूसरा विषय अपनी ओर ध्यान नहीं खींच पा रहा है। दिनभर दफ़्तर से लेकर घर तक और अखबार-टीवी से लेकर इण्टरनेट तक बस चुनावी तमाशे की ही चर्चा है। सरकारी महकमें तो बुरी तरह चुनावगामी हो गये हैं।

ऐसे में मेरा मन भी चुनावी कविता में हाथ आजमाने का लोभ संवरण नहीं कर सका। तो लीजिए पेश हैं:

चुनावी कुण्डलियाँ

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वामपन्थ की रार से अलग पड़ गया ‘हाथ’।
सत्ता की खिचड़ी पकी, अमर मुलायम साथ॥

अमर मुलायम साथ चले कुछ मास निभाए।
बजा चुनावी बिगुल, छिटक कर बाहर आए॥

यू.पी. और बिहार में, नहीं ‘हाथ’ का काम।
तीन-चार मोर्चे बने, ढुल-मुल दक्षिण-वाम॥

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अडवाणी की मांग पर, मनमोहन हैं मौन।
सत्ताधारी पीठ का,     असली  नेता कौन॥

असली नेता कौन समझ में अभी न आया।
अडवानी,  पसवान,  मुलायम,  लालू,  माया॥

लोकतंत्र का मन्त्र,  जप रही बर्बर वाणी।
‘पी.एम. इन वेटिंग’ ही  बन बैठे अडवाणी॥

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नेता पहुँचे क्षेत्र में, भाग-भाग हलकान।
वोटर से विनती करें, हमें चुने श्रीमान्‌॥

हमें चुनें श्रीमान्,    करूँ वोटर की पूजा।
मैं बस एक महान, नहीं है काबिल दूजा॥

मचा   चुनावी शोर,  घोर घबराहट देता।‌
पाँच वर्ष के बाद    लौटकर आया नेता॥

आप चुनाव का भरपूर आनन्द लीजिए। लेकिन एक विनती है कि मतदान के दिन धूप, गर्मी, और शारीरिक कष्ट की परवाह किए बिना अपना वोट ई.वी.एम. मशीन में लॉक कराने जरूर जाइए। यदि हम इस महत्व पूर्ण अवसर पर अपने मताधिकार का सकारात्मक प्रयोग नहीं करते हैं तो राजनीतिक बहसों में हिस्सा लेने का हमें कोई हक नहीं है।

(सिद्धार्थ)

होली की छुट्टी में बैठे-ठाले…? (भाग-२)

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image मैं यहाँ प्रयाग में बैठा तो हूँ लेकिन संजय की तरह अपने गाँव की रंग बिरंगी होली को ठीक-ठीक देख पा रहा हूँ। जैसा कि मैने कल पिछली कड़ी में बताया था आधी रात के बाद होलिका दहन फाग और जोगीरा के गलाफाड़ प्रदर्शन के बीच सम्पन्न हो चुका होगा। सुबह-सुबह घर के बच्चे सम्मत से आग लाकर घर का चूल्हा जलवा चुके हैं। एक दिन पहले ही हरे बाँस का पलौझा (सबसे ऊपरी सिरा जो अधिक खोखला, पतला और हल्का होता है) काटकर देसी पिचकारियाँ बनायी जा चुकी हैं। धूप होने से पहले ही गाँव के मर्द और लड़के सम्मत उड़ाने यानि होलिकादहन की राख का भभूत उड़ाने चल पड़ते हैं।

सम्मत स्थल से राख का प्रसाद (भभूत) एक दूसरे के मस्तक पर लगाकर यथोचित चरण-स्पर्श या आशीर्वाद का अभिवादन करेंगे। जोगीरा के शब्द और भाव बरसने लगेंगे। सभी इस प्रसाद को गमछे और कुर्ते की थैलियों में भरकर गायन मण्डली के साथ गाते-बजाते गाँव के भीतर बाहर के सभी देवस्थलों (बरम बाबा, कालीमाई, कोटमाई, भवानीमाई, महादेव जी, इनरा पर के बाबा) पर जाकर उस विभूति को चढ़ाकर प्रणाम करेंगे। इन सभी स्थलों पर प्रार्थना परक फाग गाया जाएगा।

रास्ते में मिलने वाले सभी लोगों को व अपरिचित राहगीरों को भी सम्मत की राख का प्रसाद विधिवत पोता जाएगा। इस ‘धुरखेल’ का शिकार सबको बनाया जाएगा। इस समय बाँस की पिचकारियों में नाबदान का पानी भरकर हर एक के ऊपर फेंकना गाँव के बच्चे अपना नैसर्गिक अधिकार मान लेते हैं। उन्हे इससे कोई रोक भी नहीं सकता। बड़े लोग भी बाल्टी में गोबर-मिट्टी घोलकर एक दूसरे को और हर आने-जाने वाले को आपादमस्तक नहलाने का काम एक शौर्य प्रदर्शन की भाँति करते हैं। इस बात की जानकारी क्षेत्रीय लोगों को तो होती है लेकिन यदि कोई बाहरी मुसाफिर इस समय राह पर आता मिल गया तो उसकी दुर्गति करने में भी कोई संकोच नहीं करता है। ग्यारह-बारह बजे तक धुरखेल व कनई-माटी (कीचड़-मिट्टी) का खेल चलता रहेगा। उसके बाद सभी अपनी-अपनी दुर्गति कराने के बाद चीथड़ों में लिपटकर नहर या बोरिंग पर नहाने जाएंगे। ऐसी म्लेच्छ अवस्था में घर में प्रवेश वर्जित हो जाता है।

नहाकर घरमें आने के बाद  गुझिया, नमकीन, मालपूआ, पूड़ी, खीर, और तेज मसालेदार सब्जी का गम्भीर भोजन होगा। अब रंग खेलने की बारी आएगी। लाल गुलाबी हरे रंगों में डूबी मानव आकृतिया झुण्ड में चलेंगी तो उन्हें अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाएगा। प्रायः सबके चेहरे विविध रंगों और अबीर से पूरी तरह ढके होंगे। गाँव के सभी टोलों से लड़कियों-बच्चों की रंग-टोलियाँ घर-घर में जाकर रंग-स्नान का आदान-प्रदान करेंगी। बड़े लड़के और मर्द फाग मंडली में शामिल होकर सबके दरवाजे पर जाएंगे। छोटे-बड़े के पद के अनुसार पारम्परिक रीति से अभिवादन होगा। सबके दरवाजे पर जाजिम बिछाकर एक-दो फाग गाया जाएगा। गृहस्वामी सबको यथा सामर्थ्य जलपान कराएगा। यह क्रम शाम ढलने तक चलता रहेगा। गायक मण्डली के सदस्य शाम तक अपने ऊपर रंग गुलाल की अत्यन्त मोटी परत चढ़ा चुके होते हैं।

 

होलीघर के आंगन में रंग होली (6)  बाहर फाग मण्डली का सत्कार
होली (3)       रंग स्नान होली (7)     ठण्ड‍ई में भाँग तो नहीं?

शाम को रंग का प्रयोग बन्द करके सभी नहा-धोकर एक-दूसरे से होली मिलने निकलते हैं। घर-घर में जलपान की व्यवस्था होती है। सब जगह कुछ न कुछ लेना ही पड़ता है। रात में इसे पचाने के लिए विशेष दवा का इन्तजाम करना पड़ता है।

होली के दिन सबसे रोचक होता है जोगीरा पार्टी का नाच-गाना। गाँव के दलित समुदाय के बड़े लड़के और वयस्क अपने बीच से किसी मर्द को ही साड़ी पहनाकर स्त्रैंण श्रृंगारों से सजाकर नचनिया बनाते हैं। यहाँ इसे  ‘लवण्डा’ नचाना कहते हैं। जोगीरा बोलने वाला इस डान्सर को जानी कहता है। दूसरे कलाकार हीरो बनकर जोगीरा गाते हैं। और पूरा समूह प्रत्येक कवित्त के अन्त में जोर-जोर से सररर… की धुन पर कूद-कूद कर नाचता है। वाह भाई वाह… वाह खेलाड़ी वाह… का ठेका लगता रहता है।

कुछ जोगीरा दलों के (दोहा सदृश) कवित्तों की बानगी यहाँ पेश है :

[दोहे की पहली लाइन दो-तीन बार पढ़ि जाती है, उसके बाद दूसरी लाइन के अन्त में सबका स्वर ऊँचा हो जाता है।]

जोगीरा सर रर… रर… रर…

फागुन के महीना आइल ऊड़े रंग गुलाल।

एक ही रंग में सभै रंगाइल लोगवा भइल बेहाल॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

गोरिया घर से बाहर ग‍इली, भऽरे ग‍इली पानी।

बीच कुँआ पर लात फिसलि गे, गिरि ग‍इली चितानी॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

चली जा दौड़ी-दौड़ी, खालऽ गुलाबी रेवड़ी।

नदी के ठण्डा पानी, तनी तू पी लऽ जानी॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

चिउरा करे चरर चरर, दही लबा लब।

दूनो बीचै गूर मिलाके मारऽ गबा गब॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

सावन मास लुग‍इया चमके, कातिक मास में कूकुर।

फागुन मास मनइया चमके, करे हुकुर हुकुर॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

एक त चीकन पुरइन पतई, दूसर चीकन घीव।

तीसर चीकन गोरी के जोबना, देखि के ललचे जीव॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

भउजी के सामान बनल बा अँखिया क‍इली काजर।

ओठवा लाले-लाल रंगवली बूना क‍इली चाकर॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

ढोलक के बम बजाओ, नहीं तो बाहर जाओ।

नहीं तो मारब तेरा, तेरा में हक है मेरा॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

बनवा बीच कोइलिया बोले, पपिहा नदी के तीर।

अंगना में भ‍उज‍इया डोले, ज‍इसे झलके नीर॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

गील-गील गिल-गिल कटार, तू खोलऽ चोटी के बार।

ई लौण्डा हऽ छिनार, ए जानी के हम भतार॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

आज मंगल कल मंगल मंगले मंगल।

जानी को ले आये हैं जंगले जंगल॥

जोगीरा सर रर… रर… रर…

कै हाथ के धोती पहना कै हाथ लपेटा।

कै घाट का पानी पीता, कै बाप का बेटा?

जोगीरा सर रर… रर… रर…

 

ये पंक्तियाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के भोजपुरी लोकगायकों द्वारा अब रिकार्ड कराकर व्यावसायिक लाभ के लिए भी प्रयुक्त की जा रही हैं। शायद यह धरोहर बची रह जाय।

 (समाप्त)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

हम हैं जिन्दा ये बताने का वक्त आया है… (एक गजल?)

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नवम्बर का महीना शुरू होते ही कोषागार कार्यालय (Treasury Office) में चहल–पहल बढ़ जाती है; बल्कि यूँ कहें कि पेन्शन भोगियों का मेला लग जाता है। वैसे तो कोषागार द्वारा पेन्शन का भुगतान हर महीने पेन्शनर के बैंक खाते में भेंज करके किया जाता है, लेकिन साल में एक बार उन्हें कोषागार में आकर यह लिखित रूप से बताना पड़ता है कि वे अभी `जीवित’ हैं। एक साल बाद यदि यह प्रमाणपत्र दुबारा नहीं प्रस्तुत होता है तो पेन्शन रोक दी जाती है।

इसी जीवित रहने के प्रमाणपत्र (Life Certificate) को जमा कराने का कार्य मेरे कार्यालय सहित प्रदेश के सभी कोषागारों में पहली नवम्बर से प्रारम्भ किया गया है। शनिवार को ऐसा पहला दिन था।

शुक्रवार देर रात तक जागकर मैने पंकज सुबीर जी की ग़जल की कक्षा के कुछ पाठ पढ़ रखे थे। सुबह जब ऑफ़िस पहुँचा तो पेन्शनरों की भीड़ लग चुकी थी। साठ साल से लेकर अस्सी-नब्बे साल तक के बूढ़े और ‘जवान’, विनम्र या रौबदार, दुबले-पतले या थुलथुले, भारी-भरकम या कृषकाय, जीर्ण-शीर्ण या चाक-चौबन्द, या मध्यम श्रेणी के ही ; हर प्रकार के बुजुर्गों का जमघट था। कुछेक कम उम्र की विधवा औरतें भी थीं, तो एकाध अलपवयस्क लड़के-लड़कियाँ भी आये थे।

मैने उनकी पहचान करने और लाइफ़ सर्टिफिकेट पर उनके हस्ताक्षर लेकर प्रमाणित करने का सिलसिला शुरु किया; जो शाम तक चलता रहा। बीच-बीच में ग़जल की कक्षा का पाठ भी मन में चहल कदमी करता रहा।

चित्र: tribuneindia.com से साभार

मेरे मनमस्तिष्क में विचरण कर रही इन दो धाराओं को मेरे दिल ने जाने कैसे एक साथ जोड़ दिया; और इस संगम का जो नतीजा मेरे हृदय से बाहर निकलकर कागज पर उतरा, उसे मेरी पहली आधिकारिक ग़जल कहना उचित होगा।

पेश है ये ग़जल:-
(पसन्द आए तो दाद जरुर दीजिएगा, नौसिखिया जो ठहरा)

हम हैं जिन्दा ये बताने का वक्त आया है।
हूजूम -ए- पेंशनर ने ये हमें दिखाया है॥

ये नवम्बर के महीने में कोषागार का दफ्तर।
जैसे सरकार ने मेला इधर लगाया है॥

कोई सत्तर, कोई अस्सी, है कोई साठ बरस का।
सबकी गुजरी है जवानी, बुजुर्ग काया है॥

कमसिनी में ही चल बसा है जिसका पालनहार।
उसे बेवक्त यहाँ वक्त खींच लाया है॥

कोई मुन्सिफ, कोई हाकिम, तो कोई पेशकार था
वक्त ने सबको बराबर यहाँ बनाया है॥

देख ले हाल सिद्धार्थ उन बुजुर्गों का।
जिनकी आँखों में बागवाँ का दर्द छाया है॥

छुट्टी की छटा…!! :))

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दुर्गा-पूजा शुरू हुई तो हो ली छुट्टी।
बेटी विद्यालय से आकर बोली- छुट्टी॥१॥

मामाजी लेने आते जब आती छुट्टी।
लालू की गाड़ी से सैर कराती छुट्टी॥२॥

स्टेशन पर विकट भीड़ बढ़वाती छुट्टी।
कुली-लाल, टीटी-काला दिखलाती छुट्टी॥३॥

धक्का-मुक्की ठेलम-ठेल मचाती छुट्टी।
खेल-तमाशा नाटक-नाच नचाती छुट्टी॥४॥

मम्मी संग नानी के घर मैं आयी छुट्टी।
डैडी ऑफ़िस करें मिल नहीं पायी छुट्टी॥५॥

दादा, ताऊ, काका से मिलवाती छुट्टी।
दूर देश से भइया को बुलवाती छुट्टी॥६॥

अम्मा, दादी, बूआ रोज मनाती छुट्टी।
देख शरारत इनको नहीं सुहाती छुट्टी॥७॥

घर में सुन्दर मंगलदीप सजाती छुट्टी।
बच्चों के मुख पर मुस्कान खिलाती छुट्टी॥८॥

दफ़्तर की माया से मोह छुड़ाती छुट्टी।
घर-आंगन से गाँव-गिराँव जुड़ाती छुट्टी॥९॥

रोज-रोज के ऑफ़िस के चक्कर से छुट्टी।
जोड़ घटाना गुणा भाग कर-कर से छुट्टी॥१०॥

बाबू, चपरासी, दफ़्तरी मनाते छुट्टी।
साहब कभी–कभी ही लेने पाते छुट्टी॥११॥

रौनक से भर उठे गाँव जब होती छुट्टी।
लौटे हैं घर शंकर, महंगू, मोती छुट्टी॥१२॥

चित्र tribuneindia.com से साभार

मेलों में कुश्ती दंगल लड़वाती छुट्टी।
गाँव-गाँव से झगड़े फिर करवाती छुट्टी॥१३॥

शहरी रहन-सहन से भेंट कराती छुट्टी।
महानगर का एड्स गाँव तक लाती छुट्टी॥१४॥

दुनिया भर का हाल यहाँ बतलाती छुट्टी।
फैशन का भी माल लाद कर लाती छुट्टी॥१५॥

सबने उछल-कूदकर खूब मनायी छुट्टी।
होना इसका अन्त लगे दुःखदायी छुट्टी॥१६॥

(सिद्धार्थ)

विकट नतीजे लेकर आयी मेरी छुट्टी… ॥!!

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मेरा बेटा सत्यार्थ नाटक की तैयारी में [??:)]

घर खाली है निपट अकेले पड़े हुए है।
बीबी-बच्चे गाँव गये हैं, अड़े हुए हैं॥
मस्त रहा ब्लॉगिंग में, सबने करली कुट्टी।
विकट नतीजे लेकर आयी मेरी छुट्टी॥

बिटिया ने जब छुट्टी का सन्देश सुनाया।
नानी के घर जाने का अरमान बताया॥
मैने सोचा, चलो भली ये गाँव की मिट्टी।
विकट नतीजे लेकर आयी मेरी छुट्टी॥

सोचा था एकान्त रहेगा खूब लिखेंगे।
इतने सारे नये – पुराने ब्लॉग पढ़ेंगे॥
भर लेंगे गीतों, लेखों से अपनी किट्टी।
विकट नतीजे लेकर आयी मेरी छुट्टी॥

बैठे-बैठे बीत गये दिन खाली घर में।
लिख ना पाया, अटक गये लो गीत अधर में॥
बात हुई क्या, गुम क्यों है अब सिट्टी-पिट्टी?
विकट नतीजे लेकर आयी मेरी छुट्टी॥

ना बेटे का हँसना, रोना या चिल्लाना।
ना बेटी का होमवर्क है हमें कराना॥
नाहक हुई पलीद यहाँ जी मेरी मिट्टी।
विकट नतीजे लेकर आयी मेरी छुट्टी॥

सोच रहा हूँ, गाँव चलूँ, उनको ले आऊँ।
वहाँ दशहरा के दंगल में दाँव लगाऊँ ॥
सुनो चिठेरों लेता हूँ कुछदिन की छुट्टी।
विकट नतीजे लेकर आयी मेरी छुट्टी॥

(सिद्धार्थ)

पानी में प्यासे बैठे हैं…

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मेरा एक घर जहाँ मेरे दादाजी ने अपना अधिकांश जीवन बिताया था, बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले में नारायणी नदी (बूढ़ी गण्डक) के किनारे है। वहाँ प्रायः प्रत्येक वर्ष घर के आंगन का पवित्रीकरण उफ़नाती नदी के जल से हो ही जाता है। इन दिनों जब बालमन ने समाचारों में बाढ़ की विभीषिका देखी तो उन्हें अपने वो दिन याद आ गये जब वे एक बार हफ़्तों वहाँ पानी से घिरे रहे:

पानी के सैलाबों में से, कुछ जगह दिखाई देती है।
कुछ लोग दिखाई पड़ते है, आवाज सुनाई देती है॥
सब डूब गया, सब नष्ट हुआ,कुछ बचा नहीं खाने को है।
बीवी को बच्चा होना है, और भैंस भी बियाने को है ॥

अम्मा जपती है राम-नाम, दो दिन से भूखी बैठी है।
वो गाँव की बुढिया काकी थी,जो अन्न बिना ही ऐंठी है॥
मोहना की मेहरारु रोती, चिल्लाती है, गुस्से में है।
फूटी किस्मत जो ब्याह हुआ, यह नर्क पड़ा हिस्से में है॥

रघुबर काका बतलाते हैं, अबतक यह बाढ़ नही देखी।
सत्तर वर्षों की उमर गयी, ऐसी मझधार नहीं देखी॥
कल टी.वी. वाले आये थे, सोचा पाएंगे खाने को।
बस पूछ्ताछ कर चले गए,मन तरस गया कुछ पाने को॥

http://www.divyabhaskar.co.in से साभार

पानी में प्यासे बैठे हैं, पर शौच नही करने पाते।
औरत की आफ़त विकट हुई, जो मर्द पेड़ पर निपटाते॥
पानी में बहती लाश यहाँ, चहुँओर दिखाई देती है।
कातर सी देखो गौ-माता, डंकार सुनाई देती है॥

मन में सवाल ये उठता है, काहे को जन्म दिये दाता ?
सच में तू कितना निष्ठुर है, क्यों खेल तुझे ऐसा भाता ?
किस गलती की है मिली सजा,जिसको बेबस होकर काटें।
सब साँस रोककर बैठे हैं, रातों पर दिन – दिन पर रातें॥

हो रहा हवाई सर्वेक्षण, कुछ पैकेट गिरने वाले हैं।
मन्त्री-अफसर ने छोड़ा जो, वो इनके बने निवाले हैं॥
है अंत कहाँ यह पता नहीं, पर यह जिजीविषा कैसी है।
‘कोसी’ उतार देगी गुस्सा, आखिर वो माँ के जैसी है॥

daylife.com से साभार

शब्द-दृश्यांकन: बालमन

हिन्दी ब्लॉग जगत का नारीवाद

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हिन्दी ब्लाग जगत में अनेक नारीवादी चिट्ठे पढने और उनपर आने वाली गर्मा-गरम टिप्पणियों और प्रति-टिप्पणियों को पढ़ने के बाद मन में हलचल मच ही जाती है। ‘चोखेरबाली’ और ‘नारी ’ ब्लाग के क्या कहने…। समुद्र मंथन में एक से एक अमूल्य रत्न-सुभाषित निकल कर आ रहे हैं। बीच-बीच में कभी-कभार दोनो ओर से “विष रस भरा कनक घट जैसे” विचार भी प्रकट हो जाते हैं। अभी इस प्रक्रिया के ठोस निष्कर्ष आने बाकी हैं, फिर भी मन कभी- कभी उद्विग्न हो ही जाता है। डा.अनुराग की शब्दावली में कहूँ तो- ऐसे ही बवंडर के बीच कुछ लफ़्ज हवा में लड़ते से दिख गये जिन्हें पकड़कर काग़ज (सफ़्हे?) पर चिपका दिया और यह तुकान्त कविता बन गई-

चित्रकृति http://www.sulekha.com से साभार

प्रगतिशील स्वातन्त्र्य-प्रेम की लौ जलती है,
समता के अधिकारों की इच्छा पलती है।
इस समाज ने डाल दिये हैं जो भी बन्धन
छिन्न-भिन्न करने देखो,‘नारी’ चलती है॥

घर की देवी, पुण्य-प्रसूता, कुल की रानी,
ममतामयी, सहचरी, प्रिया, बात-बेमानी।
अब दुर्गा, काली का रूप धर रही माया;
करुणा छोड़ ध्वंस करने की इसने ठानी॥

वैवाहिक बंधन अब बेड़ी सा लगता है,
है नर का वर्चस्व, भाव ऐसा जगता है।
इस अन्याय भरी दुनिया के खण्डन से ही;
इनके मन से क्षोभ-कलुष देखो भगता है॥

जंगल के बाहर मनुष्य का वो आ जाना,
नर-नारी के मिलन-प्रणय का नियम बनाना।
घर, परिवार, समाज, देश की रचना करके
कहतीं, “नर ने बुना स्वार्थ का ताना-बाना”॥

पढ़ी ‘सभ्यता के विकास’ की गाथा सबने,
इन्सानी फ़ितरत को अर्स दिया था रब़ ने।
इन कदमों को रोक सकेगी क्या चिन्गारी;
जिसे हवा देती हैं नारीवादी बहनें॥

क्या लम्बी यात्रा पर निकला पुरुष अकेला?
बिन नारी क्या सृजित कर लिया जग का मेला?
इस निसर्ग के कर्णधार से पूछ लीजिये,
जिसने देखी प्रथम-प्रणय की वह शुभ बेला॥

प्रकृति मनुज की है ऐसी, ‘होती गलती है’,
पर विवेक से, संयम से यह भी टलती है।
है ‘सत्यार्थ मित्र’ को पीड़ा चरमपंथ से;
छिन्न-भिन्न करती नारी मन को खलती है॥

(सिद्धार्थ)

चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से…

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ब्लॉग मण्डली दहल रही है, मचल रहे तूफान से।
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥१॥

‘मसि’जीवी अब हुआ पुरातन, ‘माउस’जीवी उछल रहा,
धूल खा रही कलम-दवातें, बिन कागज सब निकल रहा।
नयी प्रोफ़ाइल खोल रहे हैं, ब्लॉगर देखो शान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥२॥

स्वतंत्रता तब भले रही हो,लेकिन अवसर कमतर था ,
लिखने की अभिलाषा थी, पर छपता तो मुठ्ठी भर था।
ढूँढ रहे थे पाठक तब, वे लगे रहे जी जान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥ ३॥

प्रिन्ट-मीडिया के प्रहरी, नौ-सिखिए को धकियाते थे,
प्रतिभा खरी धरी रह जाती,घर-बैठे बतियाते थे।
आज मुझे लौटा डाला जी उसने बड़े मकान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥ ४॥

संपादक जी को रचनाएं पोस्ट बहुत सी कर आया,
धन्यवाद के साथ लिफाफा, हरदम वापस घर आया।
जो भी उसने सुना इधर से,निकल गया उस कान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥ ५॥

पर अब भागम-भाग थम गयी इण्टरनेट के आने से,
ब्लॉगजगत ने अवसर खोला लिखने लगे ठिकाने से।
इलेक्ट्रॉन की करें सवारी जुड़ने लगे जहान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥ ६॥

क्या लिखना है, क्यों लिखना है, कैसे उसे सजाना है?
सब कुछ अपने हाथ आ गया, मनचाहा छप जाना है।
रपट, कहानी, कविता लिख लें या भर दें अब गान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥ ७॥

यूँ मिलती इस आजादी का, कृष्णपक्ष कुछ देखा है,
उचित संग अनुचित भी है, मिट रही बीच की रेखा है।
चिठ्ठाकारों में कुछ भाई, भरे हुए अभिमान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥ ८॥

निज-भाषा और सभ्यता की, मर्यादा कुछ-कुछ डोल रही,
नंगी स्वतंत्रता हुई आज, जो सिर चढ़कर के बोल रही।
कड़वी सच्चाई की बातें, करते जो विकट-बयान से
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥ ९॥

कुछ स्वर तो इतने तीखे हैं, ज्यों गरल-पान कर आये हैं,
मानो ब्लॉगिंग के भस्मासुर, शिव जी ने इन्हें बनाये हैं।
जैसे हुई विरक्ति इन्हें नर-नारी के गुणगान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥१०॥

कुछ विकट चिठेरे कलमतोड़, हमलावर बन कर लिखते हैं,
किंचित् प्यारा है विघ्नतोष, रणभूमि जमाये दिखते हैं।
अब क्या उम्मीद करें भाई इस बदले से इन्सान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥११॥

कुछ नारीवादी बहनें हैं, हथियार लिये पहरा देतीं,
जो कुछभी बोल पड़े ‘भाई’, तो घाव वहाँ गहरा देतीं।
हो गयी शिकायत है इनको, शायद अपने भगवान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥१२॥

क्या कोई सत्य नहीं ऐसा, जो सार्वभौम माना जाए,
क्या सदा जरूरी है विरोध, जो बस विरोध ठाना जाए?
अज्ञानी अन्धियारा तो मिटता है सच्चे ज्ञान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥१३॥

बस चाहे यह ‘सत्यार्थमित्र’, यूँ बात बिगड़ने ना पाती।
सबके सच का हो आमेलन, इक साझी दुनिया बस जाती॥
कुछ अच्छे संकेत मिले दुनिया को हिन्दुस्तान से;
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥१४॥

ब्लॉग मण्डली दहल रही है, मचल रहे तूफान से।
चरमपंथ की हवा चली है, मध्यमार्ग हलकान से॥

(हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें.- सत्यार्थमित्र)

ले दनादन ट्वेन्टी-२०

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वन-डे ने जब टेस्ट को, टक्कर में दी मात।
ट्वेन्टी-ट्वेन्टी ने किया, तब आकर उत्पात॥

तब आकर उत्पात मचा, डी.एल.एफ़ कप में।
जुटे धुरंधर देश-देश के नाहक गप में॥

धन-कुबेर इस मेले की रौनक बढ़वाते।
फ़िल्मी तारे आकर टी. आर.पी. चढ़ाते॥

चीयर-लीडर थक गये, नाच-नाच बेहाल।
चौके-छक्के पड़ रहे भज्जी हो गये लाल॥

भज्जी हो गये लाल, दनादन हार गये जब।
जीना हुआ मुहाल, सन्त को मार गये तब॥

सुन सत्यार्थमित्र, ये खेल है गज़ब निराला।
भाई के हाथों भाई को पिटवा डाला॥

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