मैं यहाँ प्रयाग में बैठा तो हूँ लेकिन संजय की तरह अपने गाँव की रंग बिरंगी होली को ठीक-ठीक देख पा रहा हूँ। जैसा कि मैने कल पिछली कड़ी में बताया था आधी रात के बाद होलिका दहन फाग और जोगीरा के गलाफाड़ प्रदर्शन के बीच सम्पन्न हो चुका होगा। सुबह-सुबह घर के बच्चे सम्मत से आग लाकर घर का चूल्हा जलवा चुके हैं। एक दिन पहले ही हरे बाँस का पलौझा (सबसे ऊपरी सिरा जो अधिक खोखला, पतला और हल्का होता है) काटकर देसी पिचकारियाँ बनायी जा चुकी हैं। धूप होने से पहले ही गाँव के मर्द और लड़के सम्मत उड़ाने यानि होलिकादहन की राख का भभूत उड़ाने चल पड़ते हैं।
सम्मत स्थल से राख का प्रसाद (भभूत) एक दूसरे के मस्तक पर लगाकर यथोचित चरण-स्पर्श या आशीर्वाद का अभिवादन करेंगे। जोगीरा के शब्द और भाव बरसने लगेंगे। सभी इस प्रसाद को गमछे और कुर्ते की थैलियों में भरकर गायन मण्डली के साथ गाते-बजाते गाँव के भीतर बाहर के सभी देवस्थलों (बरम बाबा, कालीमाई, कोटमाई, भवानीमाई, महादेव जी, इनरा पर के बाबा) पर जाकर उस विभूति को चढ़ाकर प्रणाम करेंगे। इन सभी स्थलों पर प्रार्थना परक फाग गाया जाएगा।
रास्ते में मिलने वाले सभी लोगों को व अपरिचित राहगीरों को भी सम्मत की राख का प्रसाद विधिवत पोता जाएगा। इस ‘धुरखेल’ का शिकार सबको बनाया जाएगा। इस समय बाँस की पिचकारियों में नाबदान का पानी भरकर हर एक के ऊपर फेंकना गाँव के बच्चे अपना नैसर्गिक अधिकार मान लेते हैं। उन्हे इससे कोई रोक भी नहीं सकता। बड़े लोग भी बाल्टी में गोबर-मिट्टी घोलकर एक दूसरे को और हर आने-जाने वाले को आपादमस्तक नहलाने का काम एक शौर्य प्रदर्शन की भाँति करते हैं। इस बात की जानकारी क्षेत्रीय लोगों को तो होती है लेकिन यदि कोई बाहरी मुसाफिर इस समय राह पर आता मिल गया तो उसकी दुर्गति करने में भी कोई संकोच नहीं करता है। ग्यारह-बारह बजे तक धुरखेल व कनई-माटी (कीचड़-मिट्टी) का खेल चलता रहेगा। उसके बाद सभी अपनी-अपनी दुर्गति कराने के बाद चीथड़ों में लिपटकर नहर या बोरिंग पर नहाने जाएंगे। ऐसी म्लेच्छ अवस्था में घर में प्रवेश वर्जित हो जाता है।
नहाकर घरमें आने के बाद गुझिया, नमकीन, मालपूआ, पूड़ी, खीर, और तेज मसालेदार सब्जी का गम्भीर भोजन होगा। अब रंग खेलने की बारी आएगी। लाल गुलाबी हरे रंगों में डूबी मानव आकृतिया झुण्ड में चलेंगी तो उन्हें अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाएगा। प्रायः सबके चेहरे विविध रंगों और अबीर से पूरी तरह ढके होंगे। गाँव के सभी टोलों से लड़कियों-बच्चों की रंग-टोलियाँ घर-घर में जाकर रंग-स्नान का आदान-प्रदान करेंगी। बड़े लड़के और मर्द फाग मंडली में शामिल होकर सबके दरवाजे पर जाएंगे। छोटे-बड़े के पद के अनुसार पारम्परिक रीति से अभिवादन होगा। सबके दरवाजे पर जाजिम बिछाकर एक-दो फाग गाया जाएगा। गृहस्वामी सबको यथा सामर्थ्य जलपान कराएगा। यह क्रम शाम ढलने तक चलता रहेगा। गायक मण्डली के सदस्य शाम तक अपने ऊपर रंग गुलाल की अत्यन्त मोटी परत चढ़ा चुके होते हैं।
घर के आंगन में रंग |
बाहर फाग मण्डली का सत्कार |
रंग स्नान |
ठण्डई में भाँग तो नहीं? |
शाम को रंग का प्रयोग बन्द करके सभी नहा-धोकर एक-दूसरे से होली मिलने निकलते हैं। घर-घर में जलपान की व्यवस्था होती है। सब जगह कुछ न कुछ लेना ही पड़ता है। रात में इसे पचाने के लिए विशेष दवा का इन्तजाम करना पड़ता है।
होली के दिन सबसे रोचक होता है जोगीरा पार्टी का नाच-गाना। गाँव के दलित समुदाय के बड़े लड़के और वयस्क अपने बीच से किसी मर्द को ही साड़ी पहनाकर स्त्रैंण श्रृंगारों से सजाकर नचनिया बनाते हैं। यहाँ इसे ‘लवण्डा’ नचाना कहते हैं। जोगीरा बोलने वाला इस डान्सर को जानी कहता है। दूसरे कलाकार हीरो बनकर जोगीरा गाते हैं। और पूरा समूह प्रत्येक कवित्त के अन्त में जोर-जोर से सररर… की धुन पर कूद-कूद कर नाचता है। वाह भाई वाह… वाह खेलाड़ी वाह… का ठेका लगता रहता है।
कुछ जोगीरा दलों के (दोहा सदृश) कवित्तों की बानगी यहाँ पेश है :
[दोहे की पहली लाइन दो-तीन बार पढ़ि जाती है, उसके बाद दूसरी लाइन के अन्त में सबका स्वर ऊँचा हो जाता है।]
जोगीरा सर रर… रर… रर…
फागुन के महीना आइल ऊड़े रंग गुलाल।
एक ही रंग में सभै रंगाइल लोगवा भइल बेहाल॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
गोरिया घर से बाहर गइली, भऽरे गइली पानी।
बीच कुँआ पर लात फिसलि गे, गिरि गइली चितानी॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
चली जा दौड़ी-दौड़ी, खालऽ गुलाबी रेवड़ी।
नदी के ठण्डा पानी, तनी तू पी लऽ जानी॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
चिउरा करे चरर चरर, दही लबा लब।
दूनो बीचै गूर मिलाके मारऽ गबा गब॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
सावन मास लुगइया चमके, कातिक मास में कूकुर।
फागुन मास मनइया चमके, करे हुकुर हुकुर॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
एक त चीकन पुरइन पतई, दूसर चीकन घीव।
तीसर चीकन गोरी के जोबना, देखि के ललचे जीव॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
भउजी के सामान बनल बा अँखिया कइली काजर।
ओठवा लाले-लाल रंगवली बूना कइली चाकर॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
ढोलक के बम बजाओ, नहीं तो बाहर जाओ।
नहीं तो मारब तेरा, तेरा में हक है मेरा॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
बनवा बीच कोइलिया बोले, पपिहा नदी के तीर।
अंगना में भउजइया डोले, जइसे झलके नीर॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
गील-गील गिल-गिल कटार, तू खोलऽ चोटी के बार।
ई लौण्डा हऽ छिनार, ए जानी के हम भतार॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
आज मंगल कल मंगल मंगले मंगल।
जानी को ले आये हैं जंगले जंगल॥
जोगीरा सर रर… रर… रर…
कै हाथ के धोती पहना कै हाथ लपेटा।
कै घाट का पानी पीता, कै बाप का बेटा?
जोगीरा सर रर… रर… रर…
ये पंक्तियाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के भोजपुरी लोकगायकों द्वारा अब रिकार्ड कराकर व्यावसायिक लाभ के लिए भी प्रयुक्त की जा रही हैं। शायद यह धरोहर बची रह जाय।
(समाप्त)
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)