हे संविधान जी नमस्कार…

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हे संविधान जी नमस्कार,

इकसठ वर्षों के अनुभव से क्या हो पाये कुछ होशियार?
ऐ संविधान जी नमस्कार…

संप्रभु-समाजवादी-सेकुलर यह लोकतंत्र-जनगण अपना,
क्या पूरा कर पाये अब तक देखा जो गाँधी ने सपना?
बलिदानी अमर शहीदों ने क्या चाहा था बतलाते तुम;  
सबको समान दे आजादी, हो गयी कहाँ वह धारा गुम?
सिद्धांत बघारे बहुत मगर परिपालन में हो बेकरार,
हे संविधान जी नमस्कार…

बाबा साहब ने जुटा दिया दुनियाभर की अच्छी बातें,
दलितों पिछड़ों के लिए दिया धाराओं में भर सौगातें।
मौलिक अधिकारों की झोली लटकाकर चलते आप रहे;
स्तम्भ तीन जो खड़े किए वे अपना कद ही नाप रहे।
स्तर से गिरते जाने की ज्यों होड़ लगी है धुँआधार,
हे संविधान जी नमस्कार…

अब कार्यपालिका चेरी है मंत्री जी की बस सुनती है,
नौकरशाही करबद्ध खड़ी जो हुक्म हुआ वह गुनती है।
माफ़िया निरंकुश ठेका ले अब सारा राज चलाता है;
जिस अफसर ने सिस्टम तोड़ा उसको बेख़ौफ जलाता है।
मिल-जुलकर काम करे, ले-दे, वह अफसर ही है समझदार,
हे संविधान जी नमस्कार…

कानून बनाने वाले अब कानून तोड़ते दिखते हैं,
संसद सदस्य या एम.एल.ए. अपना भविष्य ही लिखते हैं।
जन-गण की बात हवाई है, दकियानूसी, बेमानी है;
यह पाँच वर्ष की कुर्सी तो बस भाग्य भरोसे आनी है।
सरकारी धन है, अवसर है, दोनो हाथों से करें पार,
हे संविधान जी नमस्कार…

क्या न्याय पालिका अडिग खड़ी कर्तव्य वहन कर पाती है?
जज-अंकल घुस आये तो क्या यह इसमें तनिक लजाती है?
क्या जिला कचहरी, तहसीलों में न्याय सुलभ हो पाया है?
क्या मजिस्ट्रेट से, मुंसिफ़ से यह भ्रष्ट तंत्र घबराया है?
अफ़सोस तुम्हारी देहरी पर यह जन-गण-मन है गया हार
हे संविधान जी नमस्कार…

आप सबको गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ…!!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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सांप्रदायिकता और तुष्टिकरण के बीच पिसता आम मुसलमान

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वर्धा विश्वविद्यालय में हुई धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के १३वें स्थापना दिवस के अवसर पर देश के तीन बड़े बुद्धिजीवियों को आमंत्रित कर जो चर्चा करायी गयी उसका विषय था भारतीय लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता क भविष्य । पिछली पोस्ट में मैने रमशरण जोशी जी द्वारा रखे गये विचार प्रस्तुत किये थे। अब प्रस्तुत है डॉ.रज़ी अहमद और कुलदीप नैयर द्वारा कही गयी बातें :

डॉ.रज़ी अहमद के स्वर में फूट पड़ा सदी का दर्द

गांधी संग्रहालय पटना के सचिव डॉ. रज़ी अहमद स्वयं को इतिहास का विद्यार्थी बताते हैं। इनकी अबतक चौदह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्हें देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में वार्ता देने के लिए बुलाया जाता रहा है। जब इन्होंने बताया कि वर्धा विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर अनेक लोगों ने इनको यहाँ आने से मना किया; मगर ये फिर भी आये तो सभागार में एक अर्थपूर्ण खिलखिलाहट दौड़ गयी। उन्होंने हवाई यात्रा की सुविधा पर भी चुटकी ली। इस बारे में उन्होंने बताया कि एक बार लोहिया जी गांधी जी से मिलने सेवाग्राम के लिए दिल्ली से नागपुर तक हवाई जहाज से आ गये। गांधीजी को पता चला तो उन्होंने टोका- “प्लेन से क्यों आये? दो दिन बाद ही पहुँच जाते तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ता”

लेकिन उसके बाद जब इन्होंने गांधी को आधार बनाकर अपनी बात रखनी शुरू की तो वातावरण गंभीर हो उठा।

बोले- मैं सेकुलरिज़्म की बात गांधी के हवाले से करूँगा जिनकी आत्मा आज़ादी के बाद से अबतक कराह रही है। वह बार-बार पूछती है कि देश को हमने कहाँ लाकर खड़ा कर दिया। सेक्यूलरिज़्म की क्या हालत कर दी?

यदि हम आज़ाद भारत के इतिहास पर नज़र डालें तो शुरुआत से ही धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन हमारे हुक्मरानों द्वारा किया जाता रहा है। देश के पहले राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के मना करने के बावजूद सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन किया था (इसका सिलान्यास शिलान्यास सरदार बल्लभ भाई पटेल ने किया था।) इतना ही नहीं उन्होंने बनारस जाकर १०५ पंडितों के पैर धुले थे। मुसलमानों से उन्हें इतना परहेज़ था कि राष्ट्रपति भवन के सभी मुस्लिम कर्मचारियों को उन्होंने बाहर का रास्ता दिखा दिया। बाद में नेहरू जी ने उन कर्मचारियों को विदेश मंत्रालय व अन्य विभागों में समायोजित कराया।

सत्ता में बैठे लोगों ने हमेशा सेक्युलरिज़्म को रुसवा किया है। वोट की खातिर सांप्रदायिक जहर फैलाया जाता रहा है। मुसलमानों को फुसलाया जाता रहा है। उनके विकास की बात कोई नहीं करता। भावनात्मक शोषण ओता रहा है। यहाँ का आम मुसलमान सांप्रदायिकता(communalism) और तुष्टिकरण(appeasement) के बीच पिसता रहा है। नेहरू के समय में जो इतिहास लिखा गया उसमें हिंदू और मुसलमान को अलग-अलग करके रखा गया। हिंदू पुनर्जागरण अभियानों में भी मुसलमान को अलग रखा गया था। ये हमेशा नदी के दो किनारों की तरह आमने-सामने रहे लेकिन इनमें मेल कभी नहीं हुआ। दयानंद सरस्वती ने भी मुसलमानों को अपने आंदोलन से अलग रखा।

सन्‌ 1857 ई. की क्रांति पर सबसे बेहतरीन किताब वी.डी.सावरकर ने लिखी थी। इसमें हिंदू-मुसलमान के संबंधों को सबसे अच्छे तरीके से निरूपित किया गया था। लेकिन राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उस इतिहास की गलत व्याख्या कर दी गयी। इतिहास को तोड़-मरोड़कर अपने निहित स्वार्थों के लिए प्रयोग करने की प्रवृत्ति सत्ता में बैठे लोगों में सदा से रही है। देश के बँटवारे का इल्ज़ाम मुसलमानों पर थोपा गया।

राजाराम मोहन राय ने जो सबसे पहला स्कूल रामपुर में खोला उसका नाम ‘हिंदू स्कूल’ रखा था लेकिन उन्हें भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा गया; वहीं सर सैयद अहमद ने जब मुस्लिम स्कूल की नींव रखी तो इसे ‘दो देशों के सिद्धांत’ का नाम दे दिया गया। सन्‌ 1916 ई. में बनारस हिंदू वि.वि. की स्थापना करने वाले मालवीय जी को ‘महामना’ की उपाधि दी गयी और शिक्षा का सबसे बड़ा प्रचारक कहा गया, लेकिन 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी स्थापित करने वाले सर सैयद को वह सम्मान नहीं दिया गया; बल्कि उन्हें भारत की एकता का दुश्मन मान लिया गया।

‘मुसलमान पर आज भी अविश्वास की नजर रखी जा रही है। आज़ादी के बाद की तीसरी मुस्लिम पीढ़ी से भी पल-पल देशभक्ति का सबूत मांगा जाता है। आजका मुस्लिम युवक विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहा है।’ यह बात कहते हुए रज़ी साहब मानो रो पड़े। आवाज़ में एक कराह निकल रही थी।

महात्मा गांधी ने हिंदुओं और मुसलमानों को अपनी दो आँखें बताया था। उन्होंने कभी इनमें भेद नहीं किया। उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति अपने भीतर तमाम दूसरे धर्मों और पंथों के तत्व समाहित करने और उनका स्वागत करने को तैयार है। लेकिन आज़ादी के बाद ऐसी स्थिति देखने में नहीं आयी है। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की दूरदर्शी आँखों ने यह देख लिया था। प्रथम गणतंत्र दिवस (26 जनवरी, 1950) की पूर्व संध्या पर उन्होंने कहा था कि कल से हम विरोधाभासों के युग में प्रवेश करने जा रहे हैं। एक तरफ़ हमारा संविधान लागू होगा जो स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा, न्याय और सामाजिक समरसता के सिद्धांतो पर बना हुआ है और दूसरी तरफ़ तमाम वर्गों में बँटा और जाति, धर्म, संप्रदाय, परंपरा आदि से पैदा हुई कुरीतियों से अँटा पड़ा समाज होगा जो इन सिद्धांतों को अपनाने में मुश्किल पैदा करेगा।

आज यदि गांधी जी हमारे गाँवो को देख रहे होंगे तो भ्रमित हो जाते होंगे कि यह सब क्या उनके नाम पर राज करने वालों का किया धरा ही है। विकास के जितने भी मॉडल चलाये जा रहे हैं वे सभी बड़े शहरों और महानगरीय जीवन को लाभ पहुँचा रहे हैं। गाँव की सुध लेने वाला कोई नहीं है। भारतीय संस्कृति, हिंदुस्तानी ज़बान और स्वदेशी पद्धति पर आधारित शिक्षा के प्रति गांधी जी की प्रतिबद्धता की मिसाल किसी और नेता में नहीं मिलती।

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के उद्घाटन के मौके पर तमाम अंग्रेज हुक्काम बुलाये गये थे। गांधी जी वहाँ हिंदी में बोलना चाहते थे लेकिन मालवीय जी ने उनसे अंग्रेजी में भाषण देने को कहा। गांधी जी ने बस इतना कहा- “मैं गंगा के किनारे खड़ा हूँ और मुझे टेम्स का पानी पीने को कहा जा रहा है” इसपर कार्यक्रम का संचालन कर रही एनी बेसेंट ने गांधी जी के हाथ से माइक ले लिया और उन्हें आगे नहीं बोलने दिया गया।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में सन्‌ 1967 ई. में जब पहली बार ग़ैर कांग्रेसी सरकारें  बनी थी उसे रज़ी साहब टर्निंग प्वॉइण्ट मानते हैं। क्षेत्रीयता की भावनाओं को उड़ान भरने का पहली बार मौका मिला। इसके बाद मम्दल मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने के बाद गरीबों के हित की सभी नीतियाँ बर्बाद हो गयीं। जातियों और उप-जातियों की आपसी लड़ाई ने इस देश का सर्वाधिक अहित किया है। यह देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आज हमारे देश में नेता तो बहुतेरे हैं लेकिन द्रष्टा (visionary) कोई नहीं है।

आज यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी के गुजरात को मोदी के गुजरात के नाम से जाना जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि प्रगतिशील शक्तियों (वामपंथियों) ने गांधी को नहीं समझा। उन्हें पूँजीवाद का प्रतिनिधि(दलाल) “agent of Capitalism’ कहा गया। गांधी के मूल्यों को अपनाये बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। आज देश की युवा पीढ़ी को यह बात समझनी होगी।

रज़ी अहमद जब अपनी बात पूरी करके बैठने को हुए तो तालियों के बीच भी एक अजीब किस्म का सन्नाटा हमारे मन-मस्तिष्क पर हथौड़े बरसा रहा था। कुलदीप नैयर ने उनकी पीठ ठोंककर शाबासी दी और तत्काल संचालक द्वारा बुलाये जाने पर माइक संभाल लिया।

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कुलदीप नैयर का विश्वास चमत्कृत करता है :

सन्‌ 1923 ई. में 14 अगस्त को सियालकोट (पाकिस्तान) में जन्मे कुलदीप नैयर अपने वामपंथी रुझान के साथ पाकिस्तानी हित की बात करने वाले तथा भारत की पाकिस्तान विरोधी नीतियों की प्रखर आलोचना करने वाले ऐसे प्रतिष्ठित पत्रकार हैं जिन्होंने देश को आज़ाद होते देखा था और विभाजन की विभीषिका को भोगा था। कानून में स्नातक, पत्रकारिता में एम.एस-सी. और दर्शन शास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ धारण करने वाले कुलदीप नैयर के सिंडिकेट कॉलम दुनिया भर के पचास से अधिक अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं। पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाने के लिए एक बड़ा भियान छेड़ने वाले कुलदीप नैयर ने जब बोलना शुरू किया तो हाल खचाखच भरा हुआ था लेकिन ‘सुई-टपक’ सन्नाटा भी स्थापित था।

बोले- मुझसे पूछोगे कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य क्या है तो मैं पूरे विश्वास से कहूँगा कि भविष्य बहुत सुंदर है। सेक्यूलरिज़्म आगे बड़ा मजबूत होगा। इस देश का आम आदमी कम्युनल नहीं है। मैं बताना चाहता हूँ कि मज़हब ‘कौम’ नहीं बनाता। यह देश भी किसी एक धर्म से नहीं बना है। हिंदू और मुसलमान दोनो इसी देश के वासी हैं।

मौलाना अबुल क़लाम आजाद ने कहा था कि ‘मुझे हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर नाज़ है।’ मैं जब 13 सितंबर 1947 को सियालकोट से चला सबकुछ बदल चुका था। दोनो तरफ़ हजारो लोग मारे जा रहे थे। लेकिन जिन्ना बदल चुका था। उसने पाकिस्तान में रहने वाले सभी लोगों को बराबर का पाकिस्तानी माना था। लेकिन उसकी बात नहीं चली। पहले जिन्ना कहा करते थे कि ‘तुम्हारा खाना-पीना-सोना अलग है इसलिए हम दो देश हैं।’ इस बात का असर ज्यादा रहा। अल्लामा इकबाल कहा करते थे कि हमारी तहज़ीब में सबका योगदान है। खु़दा के सामने सभी उसी तरह झुकते हैं। (लेकिन देश फिर भी बँट गया।)

देश के बँटवारे पर हुए सांप्रदायिक दंगे में दस करोड़ हिंदु-मुसलमान मारे गये और बीस करोड़ लोग बेघर हुए। उन बेघरों में एक मैं भी था। मैं 15 सितंबर को दिल्ली पहुँचा और सबसे पहले बिड़ला हाउस गया- गांधी को देखने। गांधी इसलिए सबसे अलग हैं कि उन्होंने हमें ‘खुद्दारी’ दी। शाम की प्रार्थना सभा में जमा पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये शरणार्थियों से उन्होंने कहा कि ‘आपका गुस्सा हमें पता है… भारत के हिंदू और मुस्लिम मेरी दो आँखें है।’ लेकिन वह समय पागलपन का था। लेकिन आज हम संभल चुके हैं। सेक्युलर फोर्सेज़ आज अपना काम कर रही हैं। देश की अदालते अपना काम कर रही हैं। हमें अपने पर विश्वास करने की जरूरत है।

बीच–बीच में ये जो घटनाएँ हो जाती है- सांप्रदायिक दंगे, बाबरी मस्ज़िद, गुजरात के दंगे, नरेंद्र मोदी आदि- वे महज एक क्षेपक (aberration) की तरह हैं। इनका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ने वाला। इनसे घबराना नहीं चाहिए; बल्कि इनका मुकाबला करना चाहिए। इस देश ने मोदी को कठघरे में खड़ा कर दिया है। सारे देश की मीडिया उसके पीछे पड़ी है। कानून अपना काम कर रहा है।

इस देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाने का काम किया था- इंदिरा गांधी ने। राजनीति से नैतिकता को खत्म करने का गुनाह किया- इंदिरा गांधी ने। उन्होंने ‘मॉरलिटी’ और ‘इम्मॉरलिटी’ के बीच की लाइन मिटा दी। आज हम जो कुछ देख रहे हैं उसकी शुरुआत तभी हुई थी। जयप्रकाश नारायण ने कुछ कोशिश जरूर की लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण वे सफल न हो सके। (आज उनके उत्तराधिकारियों के करतब देखिए…) लेकिन जेपी ने भी एक बड़ी ग़लती कर दी थी। सरकार बनाने के लिए उन्होंने ऐसे लोगों का हाथ थाम लिया जो सेक्यूलर नहीं थे।

हमें आशावादी होना चाहिए। अच्छी बातों को आगे बढ़ाना चाहिए। आज शिक्षा बढ़ रही है। मुस्लिम समुदाय ने अपनी शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। नेहरू की शिक्षा नीति ठीक नहीं थी। उन्होंने मुस्लिम-शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। नेहरू ने जुमले उछाले- Who lives if India dies; Who dies if India lives. आज भी देश में सेक्युलर लोगों की संख्या अधिक है। लेकिन रजनीति ने इसके स्वरूप को खराब कर दिया है।

जब 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी तो अकेले दिल्ली में सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ही करीब तीन हजार सिख मारे गये। लेकिन आज तक किसी गुनाहग़ार को फाँसी नहीं हुई। यह हमारी राजनीति का चरित्र है। याद रखिए कि देश किसी भी नेता से बड़ा है। देश के प्रति ग़लतियाँ मत करो। देश का नेता जब ग़लती करता है तो देश को उसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। कुछ ऐसा करें कि एक व्यक्ति की ग़लती का ख़ामियाजा देश को न भोगना पड़े। सजग रहें।

आज यह स्थिति क्यों हो गयी है कि किसी मुसलमान को किराये पर मकान नहीं मिलता। क्यों उन्हें एक ही इलाके में समूह बनाकर रहना पड़ता है। परस्पर प्यार और सहभागिता की कमी क्यों हो गयी है? sense of accomodation and tolerance की गूँज फीकी पड़ रही है। इसे बढ़ाइए। गाँवों में स्थिति अभी भी ठीक है। शहरों में महौल मीडिया की वजह से ज्यादा ख़राब हुआ है। ज़्यादातर मीडिया अब पॉलिटिकल लाइन पकड़ कर चल रही है।

भाषा का सवाल भी महत्वपूर्ण है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा ठहरा दिया गया। इसे अब राजनीतिक रंग भी दे दिया गया है। मौलाना आज़ाद ने भी कहा था कि ‘देश के विभाजन के बाद उर्दू का मामला कमजोर पड़ गया (Case of Urdu was weakened after partition)।’ एक सुंदर साहित्यिक भाषा (a beauiful literary language) का अंत इस देश में होता जा रहा है। कुलदीप नैयर ने एक प्रसम्ग बताया जब गोविंद बल्लभ पंत की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा हिंदी को देश की प्रथम (राष्ट्रीय) भाषा बनाने और अंग्रेजी को सहयोगी भाषा बनाने का प्रस्ताव तैयार किया गया। जब पंत जी प्रस्ताव का प्रारूप लेकर नेहरू के पास गये तो उन्होंने अंग्रेजी के लिए प्रस्तावित कमतर दर्ज़े को देखकर उन्हें दुत्कार दिया और प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया।

उन्होंने आपसी वैमनस्य की समस्या के समाधान की जिम्मेदारी बहुसंख्यक हिंदुओं के कंधे पर डालते हुए कहा कि यह भारत के हिंदुओं का यह दायित्व है कि वे मुसलमानों के लिए अपने दरवाज़े खोलें। गांधी के इस देश में उनके संदेश को भुलाया नहीं जाना चाहिए। कुलदीप नैयर ने बताया कि एक बार वे काबुल में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ ‘सीमांत गांधी’ से मिलने गये। यहाँ के साम्प्रदायिक दंगो की खबरें सुनकर वे हैरत से भरे हुए थे। उन्होंने आश्चर्य से पूछा – गांधी के देश में  (साम्प्रदायिक) दंगा कैसे हो गया? ये वही गफ़्फ़ार खाँ थे जिनके ‘लाल-कुर्ती’ आंदोलन (red-shirts) ने पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (NWFP) में 1946 का चुनाव जीता था।

नैयर ने जोर देकर कहा कि हम उन लोगों से गद्दारी कर रहे हैं जिन लोगों ने हमें आज़ादी दिलायी। सत्ता की कुर्सी पाने के लिए और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए हम गलत रास्तों पर चल रहे हैं। हम गांधी जी के उस सिद्धाम्त की बलि चढ़ा रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि हमारा साधन अपवित्र है तो साध्य भी निश्चित रूप से अपवित्र हो जाएगा (If your means are vitiated, your ends are bound to be vitiated.)। आज देखता हूँ कि हर व्यक्ति अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में एक छोटे तानाशाह की तरह काम कर रहा है। हमें याद रकना चाहिए कि यहाँ के मुसलमान और सिख भी यहाँ बहुत दिनों से रह रहे हैं जो मिलजुलकर हिंदुस्तानी तहज़ीब का निर्माण करते हैं।

उन्होंने अपने दिल में छिपे उस सपने की चर्चा की जिसमें दक्षिण एशिया के सभी देश मिलकर यूरोपीय यूनियन की भाँति एक संयुक्त इकाई का निर्माण करेंगे और उन्हें अफ़गानिस्तान से लेकर वर्मा तक बिना वीज़ा के आने-जाने की छूट होगी।

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अतिथियों का स्वागत कुलपति व रजिस्ट्रार द्वारा

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कुलदीप नैयर को सुनने भारी भीड़ उमड़ पड़ी

भारत-पाकिस्तान की वाघा सीमा पर प्रत्येक वर्ष अपने और पाकिस्तान के जन्मदिवस (१४ अगस्त) पर शांति की प्रतीक मोमबत्तियाँ जलाने वाले कुलदीप नैयर जब हजारों लोगों के साथ हिंदुस्तान-पाकिस्तान-ज़िंदाबाद के नारे लगवाते हैं तो उनका आशावाद चरम पर होता है। कदाचित्‌ कड़वे यथार्थ से दूर भी।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

पुछल्ला : आजकल वर्धा विश्वविद्यालय में एक के बाद एक शानदार कार्यक्रम हो रहे हैं। सबमें उपस्थित रहना ही मुश्किल हो गया है। उसपर रिपोर्ट ठेलने की फुरसत तो नहीं ही मिल पा रही है। विदेशों में हिंदी पढ़ाने वाले अनेक शिक्षक आजकल यहाँ अभिविन्यास कार्यक्रम में प्रतिभाग कर रहे हैं। एक उपयोगी रिपोर्ट यहाँ है।

शुक्रवारी की परंपरा से…

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“सृजन और नयी मनुष्यता की समस्याएँ” विषयक वार्ता और विमर्श: श्री प्रकाश मिश्र

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रांगण में यूँ तो नियमित अध्ययन-अध्यापन से इतर विशिष्ट विषयपरक गोष्ठियों, सेमिनारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को निरंतर आयोजित किये जाने की  प्रेरणा वर्तमान कुलपति द्वारा सदैव दी जाती रही है, लेकिन इन सबमें ‘शुक्रवारी’ का आयोजन एक अनूठा प्रयास साबित हो रहा है।

परिसर में बौद्धिक विचार-विमर्श को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए ‘शुक्रवारी’ नाम से एक  समिति का गठन किया गया है। इस समिति के संयोजक हैं ख्यातिनाम स्तंभकार व विश्वविद्यालय के  ‘राइटर इन रेजीडेंस’ राजकिशोर। यहाँ के कुछ शिक्षकों को इसमें सह-संयोजक की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी है। विश्वविद्यालय परिवार के सभी सदस्य इस साप्ताहिक चर्चा शृंखला में भागीदारी के लिए सादर आमंत्रित होते हैं। शुक्रवारी की बैठक हर शुक्रवार को विश्वविद्यालय के परिसर में किसी उपयुक्त जगह पर होती है जो विशिष्ट वक्ता और वार्ता के विषय के चयन के साथ ही निर्धारित कर ली जाती है। इस अनौपचारिक विमर्श के मंच पर परिसर से बाहर के अनेक अतिथियों ने भी बहुत अच्छी वार्ताएँ दी हैं। वार्ता समाप्त होने के बाद खुले सत्र में उपस्थित विद्यार्थियों और अन्य सदस्यों द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर भी वार्ताकार द्वारा उत्तर दिया जाता है और बहुत सजीव बहस उभर कर आती है।

गत दिवस मुझे भी ‘शुक्रवारी’ में भाग लेने का अवसर मिला। इस गोष्ठी में कुलपति जी स्वयं उपस्थित थे। इस बार के वार्ताकार थे प्रतिष्ठित कवि, उपन्यासकार, आलोचक व साहित्यिक पत्रिका ‘उन्नयन’ के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र। उनकी वार्ता का विषय था “सृजन और नयी मनुष्यता की समस्याएँ”। उनकी वार्ता सुनने से पहले तो मुझे इस विषय को समझने में ही कठिनाई महसूस हो रही थी लेकिन जब मैं गोष्ठी समाप्त होने के बाद बाहर निकला तो बहुत सी नयी बातों से परिचित हो चुका था; साथ ही श्री मिश्र के विशद अध्ययन, विद्वता व वक्तृता से अभिभूत भी। श्रीप्रकाश मिश्र वर्धा के स्टाफ के साथ

(बायें से दायें) मो.शीस खान (वित्ताधिकारी), शंभु गुप्त (आलोचक), प्रोफ़ेसर के.के.सिंह और श्री प्रकाश मिश्र

अबतक दो कविता संग्रह, दो उपन्यास और तीन आलोचना ग्रंथ प्रकाशित करा चुके श्री मिश्र का तीसरा काव्य संग्रह और दो उपन्यास शीघ्र ही छपकर आने वाले हैं। आप बीस से अधिक वर्षो से साहित्यिक पत्रिका ‘उन्नयन’ का सम्पादन कर रहे हैं जो साहित्यालोचना के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित स्थान पा चुकी है। आलोचना के लिए प्रतिवर्ष ‘रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ इसी प्रकाशन द्वारा प्रायोजित किया जाता है। यह सारा सृजन श्रीप्रकाश जी द्वारा केंद्रीय पुलिस संगठन में उच्चपदों पर कार्यरत रहते हुए किया गया है।

अपने उद्‌बोधन में उन्होंने सृजन की अवधारणा को समझाते हुए कहा कि सृजन एक प्रक्रिया है- बनाने की प्रक्रिया- जिसे मनुष्य अपनाता है। उस बनाने की कुछ सामग्री होती है, कुछ उपकरण होते हैं और उसका एक उद्देश्य होता है। उद्देश्य के आधार पर वह कला की श्रेणी में आता है तो सामग्री और उपकरण के आधार पर संगीत, चित्र, मूर्ति, वास्तु, साहित्य -और साहित्य में भी काव्य, नाटक, कथा आदि – कहा जाता है। इसमें संगीत सबसे सूक्ष्म होता है और वास्तु सबसे स्थूल। सृजन मूल्यों की स्थापना करता है जो सौंदर्य के माध्यम से होती है। इसका उद्देश्य वृहत्तर मानवता का कल्याण होता है। साहित्य के माध्यम से यह कार्य अधिक होता है।

सृजन को चिंतन से भिन्न बताते हुए उन्होंने कहा कि चिंतन विवेक की देन होता है जबकि सृजन का आधार अनुभूति होती है। इस अनुभूति के आधार पर संवेदना के माध्यम से वहाँ एक चाहत की दुनिया रची जाती है जिसका संबंध मस्तिष्क से अधिक हृदय से होता है। लेकिन सृजन में अनुभूति के साथ-साथ विवेक और कल्पना की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती है।

मूल्यों की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि इनका महत्व इसलिए नहीं होता कि वे जीवन में पूरे के पूरे उतार लिये जाते हैं; बल्कि इसलिए होता है कि एक पूरा समुदाय उन्हें महत्वपूर्ण मानता है, उन्हें जीवन का उद्देश्य मानता है- व्यक्ति के भी और समुदाय के भी- उससे भी बढ़कर इसे वह आचरण का मानदंड मानता है। मूल्य मनुष्य की गरिमा की प्रतिष्ठा करते हैं। सृजनकर्ता का दायित्व उस गरिमा में संवेदनाजन्य आत्मा की प्रतिष्ठा करना होता है जिसका निर्वाह बहुत वेदनापूर्ण होता है। सृजन के हर क्षण उसे इसका निर्वाह करना होता है।

मनुष्यता को अक्सर संकट में घिरा हुआ बताते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान में मनुष्यता पर जो संकट आया हुआ है वह दुनिया के एक-ध्रुवीय हो जाने से उत्पन्न हुआ है। उन्होंने रसेल होवान के उपन्यास ‘रिडले वाकर’, डेविड प्रिन के ‘पोस्टमैन’, कामार्क मेकॉर्थी के ‘द रोड’ का उल्लेख करते हुए बताया कि ज्ञानोदय द्वारा रचित मनुष्य की प्रगति और विकास की सभी योजनाएँ आज इतनी संकट में हैं कि उनका अंत ही आ गया है। सच पूछिए तो मनुष्य की मूलभूत अवधारणा ही संकट में है; और यह संकट वास्तविक है। जिस प्रौद्यौगिकी पर मनुष्य ने भरोसा करना सीखा है वह उसके विरुद्ध हो गयी है।

हमारी दुनिया वास्तविक न रहकर आभासित बन गयी है और आदमी मनुष्य न रहकर ‘साइबोर्ग’ बन गया है। साईबोर्ग यानि- “A human being prosthetically inhanced, or hybridized with electronic or mechanical components which interact with its own biological system.”

जलवायु वैज्ञानिक जेम्स लवलॉक का कहना है कि धरती को खोदकर, जल को सुखाकर, और वातावरण को प्रदू्षित कर हम कुछ इस तरह से जीने लगे हैं कि मनुष्य का जीवन बहुत तेजी से विनाश की ओर बढ़ने लगा है। धरती के किसी अन्य ग्रह से टकराने से पहले ही ओज़ोन की फटती हुई पर्त, समुद्र का बढ़ता हुआ पानी, धरती के पेट से निकलती हुई गैस और फटते हुए ज्वालामुखी मनुष्य जाति को विनष्ट कर देंगे।

जॉन ग्रे कहते हैं कि मनुष्य तमाम प्राणियों में एक प्राणी ही है; और उसे अलग से बचाकर रखने के लिए पृथ्वी के पास कोई कारण नहीं है। यदि मनुष्य के कारन कारण पृथ्वी को खतरा उत्पन्न होगा तो वह मनुष्य का ही अंत कर सकती है। वह नहीं रहेगा तो पृथ्वी बच जाएगी। दूसरे प्राणियों का जीवन चलता रहेगा। इस प्रकार राष्ट्रों की आंतरिक नीतियों के कारण मनुष्य का जीवन खतरे में है।

इस खतरे के प्रति कौन आगाह करेगा, उससे कौन बचाएगा? सृजन ही न…!!!

श्री मिश्र ने विश्व की शक्तियों के ध्रुवीकरण और इस्लामिक और गैर-इस्लामिक खेमों के उभरने तथा विश्व की एकमात्र महाशक्ति द्वारा किसी न किसी बहाने अपने विरोधियों का क्रूर दमन करने की नीति का उल्लेख करते हुए  भयंकर युद्ध की सम्भावना की ओर ध्यान दिलाया। आतंकवाद ही नहीं आणविक युद्ध की भयावहता धरती से आकाश तक घनीभूत होती जा रही है। पश्चिमी प्रचार तंत्र द्वारा यह दिखाया जा रहा है कि सभ्य दुनिया बर्बर दुनिया से लड़ने निकल पड़ी है।

अपने विस्तृत उद्‌बोधन में उन्होंने वर्तमान वैश्विक परिदृश्य के तमाम लक्षणों और दुनिया भर में रचे जा रहे साहित्य में उसकी छाया का उल्लेख करते हुए मनुष्यता की अनेक समस्याओं कि ओर ध्यान दिलाया और उनके समाधान की राह तलाशने की जिम्मेदारी सृजनशील बुद्धिजीवियों के ऊपर डालते हुए मिशेल फूको का उद्धरण दिया जिनके अनुसार पश्चिम का समकालीन सृजन मनुष्यता संबंधी इन तमाम चुनौतियों को स्वीकार करने में सक्षम नहीं दिख रहा है। लेकिन, उन्होंने बताया कि अमेरिकन विचारक ब्राउन ली के मत से सहमत होते हुए कहा कि इतना निराश होने की जरूरत नहीं है। अभी भी एशिया, अफ़्रीका और लातिनी अमेरिका का सृजन संबंधी चिंतन मनुष्य को बचाये रखने में और मनुष्यता संबंधी मूल्यों की प्रगति में कुछ योग दे सकता है।

इस लम्बी वार्ता की सभी बातें इस ब्लॉग पोस्ट में समाहित नहीं की जा सकती। उनका पूर्ण आलेख शीघ्र ही विश्वविद्यालय की साहित्यिक वेब साइट (हिंदीसमय[डॉट]कॉम और त्रैमासिक बहुवचन में प्रकाशित किया जाएगा।

निश्चित रूप से शुक्रवारी की जो परंपरा शुरू की गयी है उससे अनेक मुद्दों पर विचार मंथन की प्रक्रिया तेज होने वाली है। वार्ता के बाद वहाँ उपस्थित विद्यार्थियों ने जिस प्रकार के गम्भीर प्रश्न पूछे और विद्वान वक्ता द्वारा जिस कुशलता से उनका समाधान किया गया वह चमत्कृत करने वाला था। हमारी कोशिश होगी कि शुक्रवारी में होने वाली चर्चा आपसे समय-समय पर विश्वविद्यालय के ब्लॉग के माध्यम से बाँटी जाय।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

पुराण चर्चा: लिंग पुराण (क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा) भाग-२

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भाग-१: लिंग पुराण का संक्षिप्त परिचय

भाग-२: क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा:

durvasaप्राचीन समय की बात है। राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी।

अंबरीष ने उनका स्वागत किया और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात् दुर्वासा ऋषि की पूजा करके उसने प्रेमपूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे यमुना नदी के तट पर चले गये। वे परब्रह्म का ध्यान कर यमुना के जल में स्नान करने लगे।

इधर द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अम्बरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना – दोनो ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ।”

ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों मे कहा गया है कि पानी भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी है। इसलिये इस समय आप जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल पी लिया और दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे।

जब दुर्वासा ऋषि लौटे तो उन्होंने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष भोजन कर चुके हैं। अत: वे क्रोधित हो उठे और कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तूने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ।”

क्रोधित दुर्वासा ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।

जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल,पृथ्वी,समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी।

ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देवगण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”durvasa1

ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषिवर ! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाएँ। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।”

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दयानिधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”

भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेमपाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु-बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”

नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखकर अंबरीष को अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाय। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।

जबसे दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तबसे राजा अम्बरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अम्बरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा लिये।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

ये प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं?

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आजकल इण्टरमीडिएट परीक्षा और इन्जीनियरिंग कालेजों की प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित हो रहे हैं। इण्टर में अच्छे अंको से उत्तीर्ण या इन्जीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में अच्छी रैंक से सफलता हासिल करने वाले प्रतिभाशाली लड़कों के फोटो और साक्षात्कार अखबारों में छापे जा रहे हैं। कोचिंग सस्थानों और माध्यमिक विद्यालयों द्वारा अपने खर्चीले विज्ञापनों में इस सफलता का श्रेय बटोरा जा रहा है। एक ही छात्र को अनेक संस्थाओं द्वारा ‘अपना’ बताया जा रहा है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा चरम पर है। इस माहौल में मेरा मन बार-बार एक बात को लेकर परेशान हो रहा है जो आपके समक्ष रखना चाहता हूँ।

मैंने इन सफल छात्रों के साक्षात्कारों में इनकी भविष्य की योजना के बारे में पढ़ा। कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी का कहना है कि वे आई.आई.टी. या यू.पी.टी.यू. से बी.टेक. करने के बाद सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में शामिल होंगे। कुछ ने बी.टेक. के बाद एम.बी.ए. करने के बारे में सोच रखा है। यानि कड़ी मेहनत के बाद इन्होंने इन्जीनियरिंग के पाठ्यक्रम में दाखिला लेने में जो सफलता पायी है उसका प्रयोग वे केवल इन्जीनियरिंग की स्नातक डिग्री पाने के लिए करेंगे। सरकार का करोड़ो खर्च कराकर वे इन्जीनियरिंग सम्बन्धी जो ज्ञान अर्जित करेंगे उस ज्ञान का प्रयोग वैज्ञानिक परियोजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए नहीं करेंगे। ये अपनी प्रतिभा का प्रयोग उत्कृष्ट शोध द्वारा आधुनिक मशीनों के अविष्कार, निर्माण और संचालन की दक्ष तकनीक विकसित करने में नहीं करेंगे। बल्कि इनकी निगाह या तो उस सरकारी प्रशासनिक कुर्सी पर है जिसपर पहुँचने की शैक्षिक योग्यता किसी भी विषय में स्नातक मात्र है,  या आगे मैनेजमेण्ट की पढ़ाई करके निजी क्षेत्र के औद्योगिक/व्यावसायिक घरानों मे मैनेजर बनकर मोटी तनख्वाह कमाने की ओर है जिसकी अर्हता कोई सामान्य कला वर्ग का विद्यार्थी भी रखता है।

साल दर साल हम देखते आये हैं कि आई.आई.टी. जैसे उत्कृष्ट संस्थानों से निकलकर देश की बेहतरीन प्रतिभाएं अपने कैरियर को दूसरी दिशा में मोड़ देती हैं। जिन उद्देश्यों से ये प्रतिष्ठित  संस्थान स्थापित किए गये थे उन उद्देश्यों में पलीता लगाकर देश के ये श्रेष्ठ मस्तिष्क `नौकरशाह’ या `मैनेजर’ बनने चल पड़ते हैं। यह एक नये प्रकार का प्रतिभा पलायन (brain drain) नहीं तो और क्या है?

क्या यह एक कारण नहीं है कि हमारे देश में एक भी मौलिक खोज या अविष्कार नहीं हो पाते जिनसे मानव जीवन को बेहतर बनाया जा सके और पूरी दुनिया उसकी मुरीद हो जाय? यहाँ का कोई वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार के लायक क्यों नहीं बन पाता? हमें राष्ट्र की रक्षा या वैज्ञानिक विकास कार्यों हेतु आवश्यक अत्याधुनिक तकनीकों के लिए परमुखापेक्षी क्यों बने रहना पड़ता हैं? साधारण मशीनरी के लिए भी विदेशों से महंगे सौदे क्यों करने पड़ते हैं? आखिर क्यों हमारे देश की प्रतिभाएं अपने वैज्ञानिक कौशल का प्रयोग यहाँ करने के बजाय अन्य साधारण कार्यों की ओर आकर्षित हो जाती है? क्या यह किसी राष्ट्रीय क्षति से कम है?

इस साल जो सज्जन आई.ए.एस. के टॉपर हैं उन्हें डॉक्टर बनाने के लिए सरकार ने कुछ लाख रुपये जरूर खर्च किए होंगे। लेकिन अब वे रोग ठीक करने का ज्ञान भूल जाएंगे और मसूरी जाकर ‘राज करने’ का काम सीखेंगे। क्या ऐसा नहीं लगता कि चिकित्सा क्षेत्र ने अपने बीच से एक बेहतरीन प्रतिभा को खो दिया?

इसके लिए यदि नौकरशाही को मिले अतिशय अधिकार और उनकी विशिष्ट सामाजिक प्रतिष्ठा को जिम्मेदार माना जा रहा है तो राष्ट्रीय नेतृत्व को यह स्थिति बदलने से किसने रोका है? इस धाँधली(farce) में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में क्या हम सभी शामिल नहीं हैं?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

परदुःखकातर… :(

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वैशाख की दुपहरी में सूर्य देवता आग बरसा रहे हैं… ऑफ़िस की बिजली बार-बार आ-जा रही है। जनरेटर से कूलर/ए.सी. नहीं चलता…। अपनी बूढ़ी उम्र पाकर खटर-खटर करता पंखा शोर अधिक करता है और हवा कम देता है। मन और शरीर में बेचैनी होती है…। कलेक्ट्रेट परिसर में ही दो ‘मीटिंग्स’ में शामिल होना है। कार्यालय से निकलकर पैदल ही चल पड़ता हूँ। गलियारे में कुछ लोग छाया तलाशते जमा हो गये हैं। बरामदे की सीलिंग में लगे पंखे  से लू जैसी गर्म हवा निकल रही है। लेकिन बाहर की तेज धूप से बचकर यहाँ खड़े लोग अपना पसीना सुखाकर ही सुकून पा रहे हैं। …काले बुरके में ढकी-छुपी एक बूढ़ी औरत फर्श पर ही पसर कर बैठी है। शायद अकेली आयी है। ….बाहर गेट पर लगी चाय की दुकान से पॉलीथिन में चाय लेकर एक महिला चपरासी कलेक्ट्रेट की ओर जा रही है। पसीने से भींगी उसकी पीठ पर पड़ती तीखी धूप से भाप उड़ती जान पड़ रही है…। बाबू लोगों की चाय लाना ही इस विधवा की ड्यूटी है। पति की अकाल मृत्यु के बाद उसे अनुकम्पा की नौकरी मिली है…। उसे देखकर मुझे अपने कमरे का माहौल बेहतर लगने लगता है…।

चुनाव आयोग ने ईवीएम (Electronic Voting Machine) के उचित रखरखाव के लिए कुछ सख़्त आदेश जारी किए हैं। उसी के अनुपालन के लिए डी.एम. साहब ने कमेटी बनाकर बैठक बुलायी है। डबल लॉक स्ट्रोंग रूम सिस्टम (द्वितालक दृढ़कक्ष) में इन मशीनों को रखकर उनकी लॉगबुक बनानी है। एक-एक मशीन का सत्यापन होना है। चार-पाँच बड़े अधिकारी जमा हो गये हैं। आयोग के निर्देश के अनुसार कमेटी के गठन का जो आदेश ए.डी.एम. के हस्ताक्षर से जारी हुआ है वह त्रुटिपूर्ण हो गया है। उस ओर ध्यान दिलाने पर ए.डी.एम. साहब बाबू को बुलाकर जोर से बिगड़ते हैं। “क्या गलत-सलत दस्तख़त करा लेते हो? कुछ भी अक़्ल नहीं है क्या?” …बाबू पलटकर सफाई देता है “साहब आदेश टाइप करके आपके सामने ही तो रखा था। आपने पढ़कर ही साइन किया था…”

“दरअसल कल शाम को बिजली चली गयी थी, उसी समय अन्धेरे में इसने उल्टा-सीधा साइन करा लिया” साहब की कैफ़ियत पर सभी मुस्कराते हैं, भीषण गर्मी और उससे उत्पन्न बिजली संकट की चर्चा होती है, लस्सी मंगायी जाती है, एक बेहतरीन स्वाद का चरपरा नमकीन खाया जाता है और नया आदेश बनाने की सलाह के साथ बैठक समाप्त होती है… सभी सदस्यों को किसी न किसी अगली बैठक में जाने की जल्दी है। मैं भी जिला सैनिक बन्धु की मासिक बैठक में शामिल होने चल देता हूँ।

परिसर में गुजरते हुए उधर देखता हूँ जहाँ एक तरफ़ पेशी पर लाये गये बन्दियों को दिन में ठहराने का लॉक-अप है। जेल की गाड़ी उन्हें यहाँ सुबह ले आती है और सुनवायी के बाद शाम को गिनती करके ले जाती है। गाड़ी से उतरकर लॉक-अप में घुसते, अपनी बारी आने पर लॉक-अप से निकलकर कोर्ट तक जाते फिर लौटते और दुबारा जेल वापसी के लिए गाड़ी में जानवरों की तरह भरे जाते समय उन कैदियों की एक झलक पाने के लिए और उनसे दो शब्द बात कर लेने के लिए सुबह से शाम तक टकटकी लगाये धूप में खड़ी उनकी बूढ़ी माँ, पत्नी, बेटे-बेटियाँ या बुजुर्ग बाप दिनभर अवसर की तलाश करते रहते हैं। बड़ी संख्या में पुलिस वाले उन्हें पास फटकने नहीं देते। हट्ट-हट्ट की दुत्कार के बीच वे जैसे-तैसे अपनी बातों के साथ कुछ खाने पीने के सामान की गठरी अपने स्वजन को थमा ही देते हैं। अधिकांश कैदी गरीब, कमजोर और फटेहाल से हैं। उनके मुलाकाती भी दीन-हीन, लज्जित और म्लानमुख…। यह सब टीवी पर दिखाये जाने वाले हाई-प्रोफाइल कैदियों से बिल्कुल अलग सा है। image

चित्रांकन- सिद्धार्थ ‘सत्यार्थमित्र’

जिस दिन कोई अमीर और मजबूत कैदी आता है उस दिन सुरक्षा और बढ़ा दी जाती है। वे इस ‘कैटिल क्लास’ की गाड़ी में ठूस कर नहीं लाये जाते। …घण्टों से धूप में खड़ी मासूम औरतों और बच्चों को देखकर मुझे गर्मी का एहसास कम होने लगता है। फौजियों की बैठक में समय की पाबन्दी जरूरी है…। मैं तेज कदमों से मीटिंग हॉल में प्रवेश करता हूँ।

एक सेवा निवृत्त कर्नल साहब ने जब से जिला सैनिक कल्याण और पुनर्वास अधिकारी का पद सम्हाला है तबसे यह बैठक माह के प्रत्येक तीसरे शनिवार को नियमित रूप से होने लगी है। जिलाधिकारी द्वारा आहूत इस बैठक में पूरे जिले से सेवानिवृत्त फौजी स्वयं अथवा अपने ब्लॉक प्रतिनिधि के माध्यम से अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए यहाँ इकठ्ठा होते हैं। औपचारिक परिचय और उपस्थिति पंजिका पर हस्ताक्षर का काम जल्दी से निपटाकर कार्यवाही शुरू होती है। देश की सेना में जवान, सिपाही, सूबेदार हवलदार आदि पदों पर सेवा कर चुके ये लोग अब ‘सिविलियन’ हो गये हैं और अपनी जिन्दगी को नये सिरे से बसाने की कोशिश में लगे हैं। सरकार ने इन्हें सहारा देने के लिए तमाम इन्तजाम किये हैं, लेकिन इस बैठक को देखने के बाद लगता है कि सेवा निवृत्ति के बाद इन फौजियों के ऊपर मुसीबत का अन्तहीन सिलसिला शुरू हो गया है…।

इनकी जमीन पर अवैध कब्जा, माफ़िया और गुण्डों द्वारा धमकी, शस्त्र लाइसेन्स मिलने या उसके नवीनीकरण में लालफीताशाही, सरकारी दफ़्तरों में धक्के खाने और न पहचाने जाने का संकट इन फौजियों के मुंह से ज्वार की तरह फूट पड़ा। पुलिस और प्रशासन के अधिकारी उन्हें समझाने-बुझाने और जाँच का आश्वासन देकर चुप कराने की कोशिश कर रहे थे।

एक फौजी की बेटी को शरेआम उठा लिया गया था। उसने अपनी बात कहनी शुरू की। वह वास्तव में हकला रहा था कि उसकी पीड़ा उसकी जुबान को लड़खड़ाने पर मजबूर कर रही थी यह मैं अन्त तक नहीं समझ पाया। साहब… मैं सबको जानता हूँ। उन लोगों ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा… पुलिस भी उनको जानती है… दरोगा जी उन लोगों से कहाँ मिलते हैं यह भी जानता हूँ… महीने भर से परेशान हूँ लेकिन मेरी लड़की को मेरे सामने नहीं ला रहे हैं… जब जाता हूँ तो मुझे ही उल्टा समझाने लगते हैं… कहते हैं कि लड़की अठ्ठारह साल की है… अपनी मर्जी से गयी है… मैं कहता हूँ कि एक बार मेरी लड़की को मेरे सामने लाकर दिखा दो तो मैं मान जाऊँगा। लेकिन वे कुछ नहीं कर रहे हैं। डिप्टी एस.पी. साहब मोबाइल पर थानेदार से बात करके दरियाफ़्त करते हैं और बताते हैं कि लड़की ने उस मुस्लिम लड़के के साथ कोर्ट मैरिज कर लिया है… फौजी के चेहरे पर दर्द और घना हो जाता है। साहब, मैं तो बस चाहता हूँ कि एक बार मेरी बच्ची को मेरे सामने ला दो… मैं उसे देख लूंगा तो संतोष कर लूंगा… वह ऐसी नहीं है…. हमारी बच्ची को जबरिया उठाया गया है… मुझे सब मालूम है… वह ऐसा कर ही नहीं सकती… कोई मुझे समझ नहीं रहा है…

पुलिस अधिकारी समझाने की कोशिश करते हैं… देखिए जब आपकी लड़की बालिग हो चुकी है तो वह अपनी मर्जी से जहाँ चाहे वहाँ रह सकती है। हम इसमें कुछ नहीं कर सकते…. नहीं साहब, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि वह ऐसा कैसे कर सकती है… मैं यह नहीं मान सकता… फौजी की आवाज काँप रही है। …असल में आपने अपनी बेटी को तालीम ठीक नहीं दी है। उसने आपको छोड़कर उस लड़के के साथ रहने का निर्णय ले लिया है… इसमें हम क्या कर सकते हैं… ठीक है, तो आपभी मुझे वही समझा रहे हैं जो दरोगा जी समझा रहे थे। हार कर अब मैं अपनी जान दे दूंगा… लेकिन उसके पहले उन दुश्मनों से बदला लेकर रहूंगा… अब मैं खुद ही कुछ करूंगा… मेरी कोई सुनने वाला नहीं है… मेरी बेटी को उन लोगों ने अगवा कर लिया है…। बार-बार यह सब दुहराता है। उसे अपनी सीट पर बैठ जाने का हुक्म होता है। अगला केस बताया जाय…

दूसरा फौजी खड़ा होता है। मेरी बेटी तो सिर्फ़ पन्द्रह साल की है। मैं दो महीने से भटक रहा हूँ। दरोगा जी केवल दौड़ा रहे हैं। मैने नामजद रिपोर्ट लिखवायी है। उन लोगों ने ‘अरेस्ट स्टे’ ले रखा था। मैने हाईकोर्ट से उसे खारिज करवा दिया है… फिर भी पुलिस उन्हें गिरफ़्तार नहीं कर रही है। वे बहुत बड़े माफ़िया हैं। मुझे डर है कि मेरी बेटी को उन लोगों ने कहीं बाहर भेंज दिया है या उसके साथ कोई गलत काम हो रहा है…। वे लोग रोज हाईकोर्ट आ-जा रहे हैं। मैं उन्हें रोज देखता हूँ लेकिन पुलिस को दिखायी नहीं पड़ते। दरोगा जी कह रहे थे कि आई.जी. साहब ने गिरफ़्तार करने से मना किया है…। डिप्टी एस.पी. तुरन्त प्रतिवाद करते हैं। यह सब गलत बात है। आप कप्तान साहब (डी.आई.जी.) से मिलकर अपनी बात कहिए। गिरफ़्तारी तो अब हो जानी चाहिए। लेकिन उनकी बात में विश्वास कम और सान्त्वना अधिक देखकर फौजी विफ़र पड़ते हैं। साहब, थानेदार को तलब कर लिया जाय… मोबाइल पर बात होती है। थानेदार किसी कोर्ट में चल रही बहस में व्यस्त हैं। अभी नहीं आ सकते…। उनसे बात करके बाद में आपको सूचना दे दी जाएगी…। आश्वासन मिलता है।

आगे समोसा, मिठाई, नमकीन की प्लेटें लगायी जा चुकी हैं। फ्रिज का ठण्डा पानी गिलासों में भरकर रखा जा चुका है, जिनकी बाहरी सतह पर छोटी-छोटी बूँदें उभर आयी हैं। सबके सामने कपों में चाय रखी जा रही है। …किसी और की कोई समस्या हो तो बताये। कोषागार से या वित्त सम्बन्धी कोई परेशानी हो तो इन्हें नोट करा दें। यह बात नाश्ता प्रारम्भ होने की भुनभुनाहट में दब जाती है। कोई शिकायत नहीं आती है। कर्नल साहब सबको धन्यवाद देते हैं। बैठक ‘सकुशल’ समाप्त होती है…

मेरा मन ए.सी. की ठण्डी हवा में भी उद्विग्न होकर गर्मी महसूस करने लगता है। सीने पर कुछ बोझ सा महसूस होता है। एक लोक कल्याणकारी राज्य का यह सारा शासन प्रशासन किसकी सेवा में लगा हुआ है…?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

हाय रे तेरी किस्मत…

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तीर्थयात्रा से लौटकर दुबारा कामकाज सम्हालने को जब मैने ऑफिस में प्रवेश किया तो पाया कि नये बॉस ने कदम रखते ही यहाँ रंग-रोगन लगवाकर, गमले रखवाकर, सुनहले अक्षरों में नामपट्टिका लगवाकर और ‘फेसलिफ्ट’ के दूसरे तमाम उपायों द्वारा यह संकेत दे दिया है कि अब हमारा कोषागार किसी कॉर्पोरेट ऑफिस की तरह ही चाकचौबन्द  और समय की पाबन्दी से काम करेगा। सब कुछ चमकता-दमकता हमारे कॉन्फिडेन्स को बढ़ाने वाला था।

अपने कक्ष में जाकर मैने मेज पर लगी फाइलों, बिलों व चेकों के अम्बार को एक-एक कर निपटाना शुरू किया। बीच-बीच में बुजुर्ग पेंशनर्स का आना-जाना भी होता रहा। करीब तीन घण्टे तक लगातार दस्तख़त बनाने के बाद मेज साफ हुई और मुझे यह सोचने की फुर्सत मिली कि घर से क्या-क्या काम सोचकर चले थे।

वायरल हमले से त्रस्त बच्चों व पत्नी की दवा, खराब हो गये घर के कम्प्यूटर को ठीक कराने के लिए किसी तकनीकी विशेषज्ञ की खोज, हिन्दुस्तानी एकेडेमी में जाकर वहाँ होने वाले आगामी कार्यक्रम की तैयारी की समीक्षा, वहाँ से प्रकाशन हेतु प्रस्तावित पुस्तक के लिए ब्लॉगजगत से प्राप्त प्रविष्टियों का प्रिन्ट लेकर उसे कम्पोजिंग के लिए भेंजना, इसी बीच ट्रेनिंग के लिए परिवार छोड़कर एक सप्ताह के लिए लखनऊ जाने की चिन्ता और अपनी गृहस्थी के तमाम छोटे-छोटे लम्बित कार्य मेरे मन में उमड़-घुमड़ मचाने लगे। मेज पर हाल ही में लगा पुराना कम्प्यूटर कच्छप गति से बूट हो रहा था। नेट का सम्पर्क बार-बार कट जा रहा था। लैन(LAN) की खराबी बदस्तूर कष्ट दे रही थी। चारो ओर से घिर आयी परेशानियों का ध्यान आते ही मन में झुँझलाहट ने डेरा डाल दिया।

तभी एक नौजवान कमरे में दाखिल हुआ। चेहरा कुछ जाना-पहचाना लगा। उसने जब एक कागज मेरे सामने सरकाया तो ध्यान आया कि दो-तीन सप्ताह पहले यह एक विकलांग लड़की को पहिए वाली कुर्सी पर बिठाकर ले आया था। उस लड़की को अपने पिता की मृत्यु के बाद पारिवारिक पेंशन स्वीकृत हुई थी। उसी पेंशन के प्रथम भुगतान से पहले दो गवाहों के माध्यम से की जाने वाली औपचारिक पहचान के लिए वह लड़की मेरे सामने लायी गयी थी।

imageइस लड़के की चचेरी बहन थी वह लड़की। मुझे याद आया कि इसने उसकी पेंशन दिलाने में जो मदद की थी उसके लिए मैने इसे  शाबासी दी थी, और पेंशन का चेक उस लड़की के बैंक खाते में तत्काल भिजवा दिया था। वही लड़का आज कुछ परेशान सा जब मुझसे मिला तो मैने पूछा-

“क्या हुआ? पेंशन तो मिल गयी न…?”

“नहीं सर, बैंक वाले बहुत परेशान कर रहे हैं” उसके स्वर में अजीब शान्ति थी।

“क्यों, क्या कह रहे हैं…?”

“आपने तो देखा ही था… वह बोल नहीं पाती है। अनपढ़ है। हाथ-पैर भी सीधे नहीं हैं। सिग्नेचर बना नहीं सकती है।”

“बैंक वालों ने उसका खाता तो खोल ही दिया था न…। शायद उसकी बड़ी बहन के साथ संयुक्त खाता था…?” मैने मस्तिष्क पर जोर देते हुए पूछा।

“जी सर, खाते में पैसा भी चला गया है। …लेकिन जब पैसा निकालने गये तो बोले कि यह पेंशन का पैसा है इसलिए इसे बड़ी बहन के दस्तख़त से नहीं निकाला जा सकता।”

“फिर उसका अंगूठा क्यों नहीं लगवा लेते? …अपने सामने अंगूठा निशान लगवाकर प्रमाणित करें और भुगतान कर दें।” मैने आसान हल सुझाया।

“नहीं सर, वो कहते हैं कि जब तक लड़की से पूछने पर वह बताएगी नहीं कि वह फलाँ है, और अमुक धनराशि निकालना चाहती है तबतक कोई बैंक अधिकारी उसका अंगूठा निशान प्रमाणित नहीं करेगा।” उसने परेशानी बतायी।

“…तो फिर अभिभावक के रूप में बड़ी बहन के साथ संयुक्त खाता इसीलिए तो खोला गया होगा कि वह पैसा निकाल सके और अपनी विकलांग बहन का भरण-पोषण कर सके?”

मैने पूछा तो उसने बताया कि मैनेजर साहब इसे बैंककर्मी की गलती से खोला गया खाता बता रहे हैं और पेंशन का पैसा वापस भेंजने को कह रहे हैं। कहते हैं कि अक्षम बच्चे के लिए केवल माँ-बाप ही गार्जियन हो सकते हैं। दूसरा कोई तभी अभिभावक बन सकता है जब उसे सक्षम न्यायालय अधिकृत करे।

“…वैसे उसके परिवार में और कौन लोग हैं?” मैने उत्सुकतावश पूछ लिया।

“कोई नहीं सर…। चाचा-चाची दोनो मर चुके हैं, तभी तो उसे फेमिली पेंशन मंजूर हुई है। केवल यही दोनो अकेले शहर में रहती हैं। चाचा ने हम लोगों से अलग होकर यहाँ एक छोटा सा मकान बनवा लिया था। हम लोग गाँव पर रहते हैं। इन लोगों का अब गाँव पर कुछ नहीं है।”

“क्यों? तुम्हारे चाचा का हिस्सा तो खेती-बाड़ी में रहा होगा।” मैने उससे कुछ और जानने के उद्देश्य से पूछा।

“ऐसा है सर, चाचा बहुत दारू पीते थे। पुलिस में सिपाही थे। केवल दो बेटियाँ थीं जिसमें एक विकलांग ही थी। इसलिए सब कुछ बेंच-बेंचकर पीते गये। कहते थे- किसके लिए बचाकर रखूंगा…” वह बेहद भावशून्य चेहरे से बता रहा था।

“जब रिटायर हुए तो पता चला कि चाची को कैंसर है। उनके इलाज में भी बाकी जमीनें बिक गयीं। …अन्ततः चाची मर भी गयीं और चाचाजी कंगाल हो गये।” उसका चेहरा बेहद शान्त था।

मैने पूछा कि जब वे रिटायर हुए होंगे तो तीन-चार लाख रूपये तो मिले ही होंगे। उनका क्या हुआ?

“चाची के मरने के तुरन्त बाद चाचा को पता चला कि उनके गले में भी कैंसर है। …तीन बार ऑपरेशन कराया गया। बहुत महंगा इलाज चला…, लेकिन तीसरे ऑपरेशन के आठ दिन बाद वे भी मर गये।” वह यन्त्रवत्‌ बताता जा रहा था।

“उफ़्फ़्‌” मेरे मन में पीड़ा भर गयी। मैं उसकी ओर देख नहीं पा रहा था, “फिर तो कोर्ट का ही सहारा लेना पड़ेगा उसकी बड़ी बहन को अभिभावक बनाने के लिए…”

“सर मैं कोर्ट से भी लौट आया हूँ। …जज साहब ने कहा कि किसी को इसका गार्जियन तभी बनाया जा सकता है जब यह पुष्ट हो जाय कि यह पागल और मानसिक दिवालिया है। इसके लिए सी.एम.ओ. (Chief Medical Officer) से लिखवाकर लाना होगा।”

“तो क्या सी.एम.ओ. के यहाँ गये थे?”

“जी सर, लेकिन वहाँ भी काफी दौड़ने के बाद डॉक्टर साहब ने कह दिया कि यह लड़की जब पागल ही नहीं है तो कैसे लिख दें कि पागल है। …कह रहे थे कि विकलांग होने में और पागल होने में बहुत अन्तर है।”

“उनसे कहो कि यह लिख दें कि इसकी शारीरिक विकलांगता और मानसिक अक्षमता इस प्रकार की है कि बैंक खाते का संचालन नहीं कर सकती…। इसके आधार पर तो जजसाहब को उसका अभिभावक बड़ी बहन को बना देना चाहिए।” मैने आशा जतायी।

“अब मैं बिल्कुल हार चुका हूँ साहब… मैं खुद ही गरीब परिवार का हूँ। इस चक्कर में मेरे अपने बड़े भाई ने मुझे अलग कर दिया है क्योंकि मैं चाचा की लड़कियों की सहायता में अपने घर से पैसा खर्च करता हूँ। …बोले कि अपना हिस्सा बाँट लो और उसी में से खर्च करो इनके ऊपर… मैं अपना नहीं लगाने वाला…।”

अब मैं निरुत्तर हो चुका था। उस लड़के की परिस्थितियाँ विकट थीं… और उससे भी अधिक कठिन उस विकलांग बालिका व उसकी बड़ी बहन की जिन्दगी थी जिनकी बीस व बाइस की उम्र के आगे पीछे कोई नहीं था। इस लड़के का धीरज जवाब दे रहा था। उसने बताया कि पेंशन के एरियर से बड़ी वाली की शादी करना चाहता था और उसके बाद मासिक पेंशन से छोटी वाली का गुजारा हो जाता लेकिन…

मैने बैंक मैनेजर को फोन मिलाया तो उन्होंने यह साफ़ कर दिया कि माँ-बाप के अलावा ‘नेचुरल गार्जियन’ केवल कोर्ट के ऑर्डर से ही बनाया जा सकता है। बिना उस ऍथारिटी के हम पेंशन का पेमेण्ट नहीं कर सकते।

…इसके बाद मुझे अपनी छोटी-मोटी परेशानियाँ क़ाफूर होती नजर आयीं। अब तो उस लड़की की कठिनाई में मन उलझ सा गया है।

अन्ततः हम इस उलझन को सुलझाने के लिए विशेषज्ञों की राय आमन्त्रित करने को मजबूर हुए हैं, मामला अभी लम्बित है। ध्यान रहे कोषागार से पेंशन का भुगतान शत-प्रतिशत पेंशनर के बैंक खाते में ही किए जाने का प्राविधान है।

किसी उचित समाधान के लिए आप अपनी राय देना चाहेंगे क्या?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

ब्लॉगिंग का राष्ट्रीय सेमिनार जो आज हो न सका…

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यदि तिथि बदली न होती और कार्यक्रम अपरिहार्य परिस्थितियों में टला न होता तो मैं आज १९ सितम्बर को इलाहाबाद में देश के अनेक मूर्धन्य चिठ्ठाकारों का दर्शन लाभ पाकर अभिभूत हो रहा होता। हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवारा, और हिन्दी मास की चर्चा-गोष्ठियों में आजकल जो कुछ हम पढ़-सुन रहे हैं उनमें इस महागोष्ठी की खूब चर्चा हो रही होती।

हिन्दी ब्लॉगों में जो बहसें आजकल नमूँदार हुई हैं उन्हें देखकर मन में अभी से लड्डू फूट रहे हैं। जब पुनः निर्धारित तिथि पर वाकई सेमिनार होगा तब इन महानुभावों के मुखारविन्दु से साक्षात्‌ ऐसी बातें सुनकर कैसा लगेगा? क्या एक दूसरे के बारे में हम वैसा ही कह-सुन पाएंगे जैसा इस आभासी संसार में अपने घर के भीतर बैठे-बैठे दूसरों के बारे में टिप्पणी या पोस्ट के माध्यम से ठेल देते हैं? बेनामी महात्माओं द्वारा जो घटियागीरी यहाँ दिखायी जाती है या फर्जी नाम वाले जैसी खरी-खरी यहाँ कह जाते हैं, क्या वहाँ भी साक्षात्‌ उपस्थित होकर मुँह खोलेंगे?

यहाँ अपने-अपने ज्ञान की शेखी बघारने वाले भी हैं, दूसरों को मूर्ख और पाजी समझने वाले भी हैं, भाषा को अपनी स्वतंत्र इच्छा का दास बनाने की चाह रखने वाले भी हैं, अपने लिखे को पत्थर की लकीर मानकर अड़े रहने वाले भी हैं, दूसरों की मौज लेने के फेर में अपनी मौज लुटाने वाले भी हैं, गलाफाड़ हल्ला मचाने के बाद धीरे-धीरे अनसुना कर दिए जाने के कारण अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर दूसरे व्यापार में लग जाने वाले भी हैं, दूसरे की लकुटी-कमरिया लेकर इस घमासान में नये सिरे से बहादुरी दिखलाने वाले भी है, तुरत-फुरत कविता रचकर वाह-वाह कहलाने वाले भी हैं और रोज़बरोज़ पोस्ट का मसाला जुगाड़ने के लिए डिजिटल कैमरा लेकर मुँह अन्धेरे नदी-तट की सैर को निकल जाने वाले भी हैं। बहुत से धीर-गम्भीर साहित्यानुरागी, हिन्दी सेवी, कविहृदय, सामाजिक चिन्तक, व्यंग्यकार, विज्ञान अन्वेषी, तकनीक के जानकार सुधीजन भी हैं जो इस माध्यम को समृद्ध कर रहे हैं।

ऐसी रंगीन दुनिया के सितारे जब आज के दिन अपने स्थूल शरीर और सूक्ष्म मस्तिष्क के साथ एक छत के नीचे एक साथ बैठकर आपस में बातचीत करते तो नजारा क्या होता? लन्च और डिनर के बर्तन साथ खड़काते तो क्या आनन्द आता?

यूँ तो इस सेमिनार के विषय पहले ही तय किये जा चुके थे, और कई ख्यातिनाम चिठ्ठाकारों को उन विषयों को प्रस्तुत करने की तैयारी करके आने के लिए भी बोल दिया गया था, लेकिन ऐन मौके पर कौन क्या बोलना शुरू कर दे इसका कोई ठिकाना न होने से मन में अनिश्चय का भाव भी बना ही हुआ था। इससे मिलने वा्ले सुख का रोमान्च भी कम न था। अब तो प्रतीक्षा आगे बढ़ गयी है।

कुछ विचारणीय शीर्षक जो सत्र विशेष और वार्ताकार विशेष के लिए आदरणीय अनूप जी, अरविन्द जी और दूसरे आदरणीयों से विचार-विमर्श के बाद निर्धारित किए गये थे-

  1. हिन्दी चिठ्ठाकारी का  इतिहास, स्वरूप और तकनीक
  2. हिन्दी चिठ्ठाकारी की दिशाएं: विज्ञान, राजनीति, समाज, धर्म/दर्शन, मनोरंजन
  3. अन्तर्जाल पर हिन्दी साहित्य और इसकी पठनीयता : कविता, कहानी, व्यंग्य, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरण और आपबीती
  4. अन्तर्जाल पर हिन्दी भाषा के कुशल प्रयोग के औंजार, ब्लॉग बनाने और तकनीकी प्रबन्धन के तरीके
  5. हिन्दी ब्लॉग जगत की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-
  • बहस के सामान्य मुद्दे
  • ब्लॉगिंग की  भाषा में शुद्धता बनाम सम्प्रेषणीयता
  • ब्लॉगजगत में गुटबन्दी और गिरोहबन्दी
  • अभिव्यक्ति की उन्मुक्तता और इसमें निहित खतरे
  • समूह ब्लॉगों की उपादेयता
  • चिठ्ठाकारी में समय प्रबन्धन
  • सामाजिक मुद्दों पर ब्लॉगजगत की प्रतिक्रियाएं
  • ब्लॉगजगत के कुंठासुर/बेनामी या छद्‍मनामी टिप्पणीकार
  • ब्लॉगजगत का आभासी परिवार और आन्तरिक गतिविधियाँ, ब्लॉगर कैम्प आदि।

ये सारी बातें मैं भूतकाल में कर रहा हूँ तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया।  आज यह सब मैं इस लिए बता रहा हूँ कि जो कार्यक्रम आज नहीं हो सका वह आगामी २४-२५ अक्टूबर को आयोजित किए जाने का निर्णय लिया जा चुका है।

महात्मा गान्धी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय जी ने स्वयं इस सेमिनार की परिकल्पना करते हुए इसके आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इलाहाबाद स्थित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के साथ मिलकर इस राष्ट्रीय स्तर के आयोजन की रूपरेखा बनायी जा चुकी थी। अतिथि वार्ताकारों और प्रतिभागियों के नाम तय किए जा चुके थे, बस निमन्त्रण पत्र भेंजने की तैयारी हो रही थी तभी कुलपति जी को कतिपय अपरिहार्य परिस्थितियों ने कार्यक्रम की तिथि आगे बढ़ाने पर मजबूर कर दिया। उनका खेद प्रकाश प्राप्त करने के बाद हम कुछ समय के लिए हतप्रभ हो गये थे। लेकिन उन्होंने तत्समय ही अगली तिथि भी निर्धारित कर दी।

MGAHV-logo प्रतीक चिह्न

हमारा उत्साह फिर कम नहीं हुआ है। हम तो अगली निर्धारित तिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब ऊपर गिनाए गये विषयों पर जोरदार सजीव बहस सुनने और देखने को मिलेगी। ब्लॉगजगत के अनेक भूतपुर्व और अभूतपूर्व लिक्खाड़ों से गलबहिंया डाले फोटू खिंचाने का मौका हाथ लगेगा। एक तरफ पारम्परिक साहित्य के पुरोधा होंगे तो दूसरी तरफ़ अन्तर्जाल पर बाइट बहाने और बटोरने वाले बटोही होंगे। आदरणीय कुलपति जी के औदार्य से कार्यक्रम का वित्तीय परिव्यय विश्वविद्यालय द्वारा वहन किया जाएगा तो हिन्दुस्तानी एकेडेमी का प्रांगण जो अबतक हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़ी प्रायः सभी भूतकालीन और वर्तमान विभूतियों का प्रत्यक्षदर्शी रहा है, अपनी गौरवशाली परम्परा और अहर्निश आतिथेय की भूमिका में पूरी निष्ठा से लगा होगा।

आप सभी अपनी रुचि के अनुसार मन ही मन तैयारी कर लीजिए। कार्यक्रम की सूक्ष्म रूपरेखा तैयार हो जाने और धनराशि का परिव्यय स्वीकृत हो जाने के बाद इसकी विधिवत घोषणा हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा अन्तर्जाल पर की जाएगी। मेरी तो इच्छा है कि जिस प्रकार इलाहाबाद के कुम्भमेला में सारा हिन्दुस्तान उमड़ पड़ता है उसी प्रकार यह कार्यक्रम भी एक विशाल ब्लॉगर महाकुम्भ साबित हो जाय। अन्तर्जाल की धारा में अपने-अपने घाट पर डुबकी लगाने वाले विविध चिठेरे प्रयाग की धरती पर आकर अपना अनुभव एक दूसरे से बाँटें और बाकी दुनिया को यह भी बतायें कि इक्कीसवीं सदी में संचार के क्षेत्र में जो तकनीकी क्रान्ति आयी है उसे हिन्दी सेवियों ने भी आत्मसात किया है और अब इस देवनागरी की पहुँच दुनिया के कोने-कोने में होने लगी है।

जब से यह कार्यक्रम टला मुझे निराशा ने ऐसा घेरा कि कुछ लिखते न बना। अब आज जब यह दिन भी बीत गया है तो इसकी चर्चा से ही बात शुरु कर सका हूँ। अभी इतना ही…।

आप सबको शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं और ईद मुबारक।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

प्रगति मैदान के पुस्तक मेले से खबरें अच्छी नहीं हैं…

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किताबों की खुसर-फुसर… भाग-४

“…स्टॉल में रखी किताबें एकदम अकेली हैं। उनका अकेलापन अस्तित्ववादी नयी कविता और नयी कहानी के अकेलेपन से ज्यादा बड़ा सच है और भयावह है। दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता। दिखते हैं तो ऊँघते प्रकाशक और उनके कर्मचारी। लोग उनतक नहीं पहुँच रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा यही किया जा सकता है कि मेला लगा दिया जाय, लेकिन अगर कोई नहीं आए तो क्या करें?”

यह दृश्य दिल्ली के प्रगति मैदान का है और यह व्यथा बयान कर रहे हैं दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री सुधीश पचौरी जी जो ‘बिन्दास’ नाम से स्तम्भ लिखते हैं। यह पढ़कर मुझे वह खुसर-फुसर फिर याद गयी जो मैने पिछले दिनों सत्यार्थमित्र पर आपसे बाँटना शुरू किया था, लेकिन बात पूरी नहीं हो पायी थी। मैने हिन्दुस्तानी एकेडेमी सभागार में आयोजित एक पुस्तक विमोचन समारोह के समय इस संस्था के बिक्री अनुभाग की आलमारियों में बन्द (कैद) किताबों का कष्ट वहाँ बैठकर देखा और सुना था।

इस संस्था ने अबतक हिन्दी की लगभग डेढ़ सौ और उर्दू की क़रीब तीस पुस्तकों का प्रकाशन किया है। इनमें से कोई पच्चीस किताबें तो पिछले डेढ़-दो वर्ष के भीतर ही आयी हैं। इन्ही नयी नवेली किताबों की आपस में जो बतकही सुनायी दी थी उससे मेरा मन खिन्न हो गया था।

abhidharm1 Bhartiya Jyotish Me Prayag Diye Ka Raag रामकथा और तुलसीदास Vrat aur parva घाघ और भड्डरी

(पुस्तकों को बड़ा करके देखने के लिए उनपर चटका लगाएं)

मैने बिक्री अनुभाग के उस कमरे में देखा कि डॉ. कविता वाचक्नवी की लिखी एक पुस्तक इस बात से तो खुश थी कि पाण्डुलिपि के रूप में लम्बा समय अज्ञातवास के रूप में बिताने के बाद अन्ततः आकर्षक रूप में इसका प्रकाशन हो गया और समारोह पूर्वक लोकार्पण भी करा दिया गया, लेकिन बड़े साहित्यिक मंचों और पत्र-पत्रिकाओं में इस शोधपरक कृति की समीक्षा नहीं होने से निराशा के भाव भी स्पष्ट नजर आ रहे थे। उसे ‘दिये का राग’ ने समझाया कि ऐसी जाने कितनी किताबें इस संस्था की आलमारियों और तहखाने में छापकर रखी गयी हैं जिनको सिर्फ़ लिखने वाला ही भलीभाँति जानता होगा।

ऐसा इसलिए नहीं है कि उनकी गुणवत्ता में कोई कमी है, या उन्हें कोई बेचना नहीं चाहता, बल्कि समस्या यह है कि निजी प्रकाशकों की भाँति बाजार को समझने, प्रचार-प्रसार की आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करने और सरकारी विभागों द्वारा थोक खरीद के लिए चयनित कराने की कोई सुविचारित नीति इस संस्था द्वारा न तो बनायी गयी है और न ही उसके क्रियान्वयन का कोई ढाँचा ही खड़ा किया गया है।

PrayagPradeep भारतीय चित्रकला उर्दू साहित्य में हिन्दुस्तानी तहज़ीब ज्ञान कोश सूर्यविमर्श समाज भाषा विज्ञान

कभी देश भर के साहित्यकारों और हिन्दुस्तानी भाषा व साहित्य के अनुरागियों की तीर्थस्थली रही यह संस्था आज योग्य और ऊर्जावान कर्मचारियों तथा पूर्णकालिक पदाधिकारियों की कमी का दंश झेल रही है। शासन ने स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों को इस संस्था को संचालित करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी सौंप दी है। संस्था के मनोनीत सचिव द्वारा अपनी व्यक्तिगत अभिरुचि के जोर से अनेक उम्दा पुस्तकों के प्रकाशन कराये गये और कुछ उपयोगी विचार गोष्ठियाँ भी करायी गयीं। लेकिन ऐसे अधिकारी के पास अपने मूल विभाग के प्रशासनिक कार्यों से जो समय बचता है वह इस गुरुतर कार्य के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता।

“तुम्हें क्या लगता है, यह दुकान वृद्ध हो चले दरबारी जी के हाथों में कितने दिन और चल पायेगी..?” प्रयाग प्रदीप ने  विजयदेव नारायण शाही के छँठवा दशक से पूछा।

श्री शालिग्राम श्रीवास्तव की १९३७ में प्रकाशित यह पुस्तक पाठकों की भारी मांग पर पुनर्मुद्रित होकर हाल ही में आयी है। इलाहाबाद से किसी भी रूप में जुड़े होने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह पुस्तक अनिवार्य संग्रह के लायक है, लेकिन पुरानी साख के बावजूद इसकी बिक्री भी बहुत उत्साहजनक नहीं है।

निराला की काव्यदृष्टि Diye Ka Raag Maa ke Liye Chawal Naye-Naye Kavita Ki Jatiyata सूर्यविमर्श

इस अनुभवी प्रश्न का जवाब दिया नये नवेले सूर्य विमर्श ने, “पिछले दिनों यहाँ से  पुस्तकालयाध्यक्ष, बिक्री सहायक, विपणन प्रभारी, प्रकाशन अधिकारी, वेब साइट संचालन विशेषज्ञ, आदि अनेक पदों हेतु प्रस्ताव किया गया है। लेकिन समस्या यह है कि इस स्वायत्तशासी संस्था की शक्तियाँ जिस कार्य परिषद में निहित हैं उसका अस्तित्व ही अधर में लटका हुआ है। कार्यपरिषद के गठन और उसके द्वारा सर्व शक्तिमान कार्य समिति के चुनाव के बाद ही कार्मिक प्रबन्धन किया जा सकता है।”

“फिर तो यह काफी लम्बी प्रक्रिया लगती है… शायद निकट भविष्य में पूरी होती नहीं दिखती…” घाघ और भड्डरी ने सहज अनुमान लगाते हुए बात पूरी की।

फादर (डॉ.) कामिल बुल्के द्वारा १९७६ में दिये गये व्याख्यान पर आधारित लोकप्रिय पुस्तक रामकथा और तुलसीदास के तीसरे संस्करण ने बताया कि जब वह पहली बार १९७७ में छपकर आयी थी तब भी ये कर्मचारी इसी प्रकार एकेडेमी की सेवा कर रहे थे। सरकारी अनुदान से इन्हें जो वेतन तब मिलता था वही वेतन आज भी मिल रहा है।

हिन्दुस्तानी लेख अनुक्रमणिका छठवा दशक Roop Lahariya Deep Dehari Dwar Keshav Granthavali-1 Hai To Hail

(पुस्तकों को बड़ा करके देखने के लिए उनपर चटका लगाएं)

वर्ष १९३३ में पहली बार प्रकाशित भारतीय चित्रकला के दूसरे नवीन संस्करण ने इन कर्मचारियों का जो चित्र खींचा वह मन को दुःखी कर गया। आजादी से पहले के जमाने से संस्था में जुटने वाले बड़े-बड़े साहित्यकारों और विद्वानों की सेवा में अपने किशोरवय से लगे रहने वाले और एकेडेमी को ही अपने जीवन का श्रेय-प्रेय मान चुके श्री ईश्वर शरण अब छिहत्तर साल की उम्र में कार्यालय अधीक्षक तो बने हुए हैं लेकिन इसके बदले उन्हें जो मानदेय मिल रहा है उससे दो जून की रोटी जुटाना ही दूभर है, अपनी बिटिया की शादी का बोझ कैसे उठाएं? दूसरों की हालत भी इनसे कुछ अलग नहीं है।

“…जो उम्र परिवार के बीच आराम करने की है उसमें एकेडेमी की नौकरी क्यों..?” संस्कृति पुरुष पं. विद्यानिवास मिश्र ने पूछा।

“क्योंकि यहाँ के कर्मचारियों को सेवानैवृत्तिक लाभ दिये जाने की कोई व्यवस्था नहीं है…।” मेरे मुँह से यह बरबस निकल पड़ा। लेकिन दूसरों की दृष्टि में अकारण हवा में बात करता जान कर मैने अपने को संयत कर लिया।

अभिधर्म कोश के चार खण्ड एक साथ बोल पड़े, “जाने क्यों १९६५ के बाद किसी परवर्ती वेतन आयोग की संस्तुति  इन कर्मचारियों पर लागू नहीं हुई। आज जो कर्मचारी यहाँ सबसे ज्यादा वेतन पाता है उसको भी किसी सरकारी चपरासी से आधी तनख्वाह ही मिलती है। १९६५ के वेतनमान अभी भी चल रहे हैं। पेंशन आदि की तो कोई बात ही नहीं है…।”

यहाँ बताते चलें कि  १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में आचार्य नरेन्द्र देव अहमदनगर किले की जेल में बन्द किए गये थे। वहीं पर उन्होंने वसुबन्धु कृत बौद्ध दर्शन की व्याख्या के ग्रन्थ का फ्रेन्च भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस अनुवाद के आठ अध्यायों को एकेडेमी ने १९५८ में चार खण्डों में प्रकाशित किया था। इसका दूसरा संस्करण २००८ में प्रकाशित कराया गया है। लेकिन इस अमूल्य निधि को भारतवर्ष और दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाने की प्रतीक्षा लम्बी होती जा रही है।

बातें तो और भी जारी थीं, …लेकिन एक कर्मचारी ने मेरी तन्द्रा भंग करते हुए बताया कि पुस्तक विमोचन समारोह के मुख्य अतिथि महोदय पधार चुके हैं और काम भर की भीड़ भी इकठ्ठा हो चुकी है…। मैने अपनी डायरी उठायी और सभागार की ओर चल पड़ा। पीछे से खुसर-फुसर की आवाजें तेज होती चली गयीं…।

उन बेबस ध्वनियों ने मेरा पीछा करना जारी रखा है…। मैने अपनी सीमाओं के भीतर रहते हुए कुछ रास्ते तलाशने भी जारी रखे हैं। लेकिन पुस्तक मेले की खबरें पढ़ने के बाद मेरे धैर्य की परीक्षा और कठिन हो गयी है।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 

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