पुराण चर्चा: लिंग पुराण (क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा) भाग-२

7 टिप्पणियां

 

भाग-१: लिंग पुराण का संक्षिप्त परिचय

भाग-२: क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा:

durvasaप्राचीन समय की बात है। राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी।

अंबरीष ने उनका स्वागत किया और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात् दुर्वासा ऋषि की पूजा करके उसने प्रेमपूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे यमुना नदी के तट पर चले गये। वे परब्रह्म का ध्यान कर यमुना के जल में स्नान करने लगे।

इधर द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अम्बरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना – दोनो ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ।”

ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों मे कहा गया है कि पानी भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी है। इसलिये इस समय आप जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल पी लिया और दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे।

जब दुर्वासा ऋषि लौटे तो उन्होंने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष भोजन कर चुके हैं। अत: वे क्रोधित हो उठे और कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तूने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ।”

क्रोधित दुर्वासा ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।

जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल,पृथ्वी,समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी।

ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देवगण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”durvasa1

ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषिवर ! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाएँ। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।”

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दयानिधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”

भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेमपाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु-बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”

नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखकर अंबरीष को अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाय। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।

जबसे दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तबसे राजा अम्बरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अम्बरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा लिये।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

Advertisement

पुराण चर्चा: लिंग पुराण (क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा) भाग-१

12 टिप्पणियां

भाग-१: लिंग पुराण का संक्षिप्त परिचय:

ग्यारह हजार श्लोकों व १६३ अध्यायों में विभक्त इस पुराण में भगवान शिव से संबंधित विभिन्न पौराणिक आख्यानों, उपाख्यानों व घटनाओं का वर्णन करते हुए शैव सिद्धांतों का प्रतिपादन अत्यंत सहज, सरल और तर्कसंगत रीति से किया गया है।

यद्यपि लिंग का एक अर्थ जननेंद्रिय भी होता है, लेकिन इस पुराण में इसका तात्पर्य ‘ॐकार’ से है। समस्त पुराणों में यह माना गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति निर्गुण निराकार ‘परब्रह्म’ से हुई है। उसी निर्गुण परब्रह्म के स्वरूप को व्यक्त करने का प्रतीक है ‘लिंग’। लिंग पुराण में भगवान शिव के तीन रूपों को निम्नवत्‌ परिभाषित किया गया है।

“एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेन शिवेन तु।

अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तयः॥”

अर्थात्‌ भगवान इस सृष्टि से पूर्व ही अव्यक्त लिंग अर्थात्‌ ब्रह्म स्वरूप में सदा विद्यमान रहते हैं। तत्पश्चात्‌ वे ही व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होकर सृष्टि की रचना करते हैं। इस प्रकार वे अव्यक्त (निर्गुण) व व्यक्त (सगुण) दोनो स्वरूपों से सृष्टि में विद्यमान हैं।

लिंग पुराण के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना का विचार किया तो उन्होंने सर्वप्रथम अहम (अविद्या) को उत्पन्न किया। इस अहंकार से क्रमशः पाँच तन्मात्राएँ उत्पन्न हुईं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध। इन पाँच गुणविशेष ने पंचतत्वों को उत्पन्न किया- आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी। इस प्रकार तन्मात्राएँ सूक्ष्म तथा तत्व स्थूल कहे जाते हैं।

इस उत्पत्ति का क्रम निम्नवत्‌ समझाया गया है: अहंकार से शब्द नामक तन्मात्रा, शब्द से आकाश रूपी तत्व, आकाश तत्व से स्पर्श तन्मात्रा, स्पर्श से वायु तत्व, वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से अग्नि तत्व, अग्नि से रस तन्मात्रा, रस से जल तत्व, जल से गंध तन्मात्रा व गंध से पृथ्वी रूपी तत्व का प्रादुर्भाव हुआ। तत्वों और तन्मात्राओं के इसी उत्पत्ति क्रम से सृष्टि का प्राकट्य होता है।

इस पुराण में धर्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि इस चराचर जगत की रचना भगवान द्वारा ही की गयी है।  इसलिए मनुष्य को ऊँच-नीच, जाति-पाँति, तथा वर्ण संकीर्णता को त्यागकर अपने हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति आत्मीयता तथा दया का भाव रखना चाहिए। वस्तुतः यही मनुष्य का धर्म है।

इस पुराण में सदाचार का वर्णन करते हुए साररूप में कहा गया है कि संयमी, धार्मिक, दयावान, तपस्वी, सत्यवादी तथा सभी प्राणियों के लिए हृदय में प्रेम का भाव रखने वाले मनुष्य ही भगवान शिव को प्रिय हैं। जो  मनुष्य अपने जीवन में इन गुणों को उतार लेता है उसे ईश्वर सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करते हैं।

इस पुरान में अंधकासुर नामक दैत्य की उत्पत्ति व भगवान शिव द्वारा उसके पराभव  की कथा, विष्णु भगवान द्वारा वाराहावतार धारणकर पृथ्वी के उद्धार की कथा तथा दैत्य जलंधर के उद्धार की कथा वर्णित है। इन सभी कथाओं द्वारा यह समझाने का प्रयास किया गया है कि एक सदाचारी मनुष्य के सद्कर्म उसकी उन्नति के तथा  तथा दुराचारी व्यक्ति के दुष्कर्म उसके पराभव का कारण बनते हैं। ईश्वर इस न्यायपूर्ण व्यवस्था का नियामक है।

लिंग पुराण में दक्ष प्रजापति की कथा, पार्वती जन्म, कामदेव दहन, शिव-पार्वती विवाह, गणेश जन्म, शिव तांडव, तथा उपमन्यु चरित्र का वर्णन बहुत रोचक शैली में किया गया गया है। ये सभी प्रसंग किसी न किसी सकारात्मक उद्देश्य की ओर भी ले जाते हैं। जम्बू-प्लक्ष आदि सात द्वीपों सहित भारतवर्ष का वर्णन, क्षुप-दधीचि की कथा, ध्रुव की कथा व काशी माहात्म्य इत्यादि देखकर लगता है जैसे यह पुस्तक अपने जमाने की ट्रेवेल गाइड के रूप में भी लिखी गयी होगी।

लिंग पुराण के अंतिम भाग में राजा अंबरीष व महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि की रोचक कथा का वर्णन है जिसके माध्यम से सदाचार एकादशी व्रत के माहात्म्य का निरूपण किया गया है।

भाग-२: क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा:

प्राचीन समय की बात है। राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपन्ने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुशा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी…(जारी)

हरितालिका व्रतकथा में भय तत्व

20 टिप्पणियां

 

imageहरितालिका तीज का व्रत अभी अभी सम्पन्न हुआ। एक दिन पहले पत्नी के साथ कटरा बाजार में जाकर व्रत सम्बन्धी खरीदारी करा लाया। वहाँ अपने उत्सवप्रधान समाज की छटा देखते ही बनती थी। दान के लिए चूड़ी, आलता, बिन्दी, सिन्दूर, साबुन, तेल, कंघी, शीशा, चोटी, रिबन, आदि सामग्रियों की मौसमी दुकानें ठेले पर सज गयी थीं। प्रायः सभी सुहागिनें इन सामानों के रेडीमेड पैकेट्स खरीद रहीं थीं, लेकिन निजी प्रयोग के लिए वही साजो-सामान ऊपर सजी पक्की दुकानों से पसन्द किये जा रहे थे। सभी ‘रेन्ज’ की दुकानें और सामान, और उतने ही रेन्ज के खरीदार भारी भीड़ के बीच एक दूसरे से कन्धा घिस रहे थे।

मैने भी यथासामर्थ्य अपनी धर्मपत्नी को फल, फूल, बिछुआ, पायल, और श्रृंगार व पूजा की सामग्री खरीद कराया। साथ में सड़क की पटरी पर बिक रही हरितालिका व्रत कथा की किताब भी दस रूपये में खरीद लिया। मेरा अनुमान है कि यह पुस्तक लगभग सभी घरों के लिए खरीदी गयी होगी।

तीज के दिन भोर में साढ़े तीन बजे अलार्म की सहायता से जगकर पत्नी को व्रत के लिए तैयार होता देखता रहा। चार बजे आखिरी चाय की चुस्की लेकर इनका उपवास शुरू हुआ। व्रत की पूजा का मूहूर्त प्रातः साढ़े नौ बजे से पहले ही था। इसीलिए स्नान ध्यान और पूजा का क्रम जल्दी ही प्रारम्भ हो गया था। आमतौर पर इस दिन की पूजा का क्रम शनैः-शनैः आगे बढ़ता है, ताकि मन उसी में रमा रहे और भूख को भूलाए रहे। किन्तु इस बार शुभ-मुहूर्त ने थोड़ी कठिनाई पैदा कर दी। image

शिव मन्दिर में जाकर शिवलिंग और पार्वती जी का पूजन-अभिषेक व घर में वेदिका बनाकर विशेष पूजन करते समय किताब में बतायी गयी पूजन विधि का अक्षरशः पालन करने का प्रयास जारी रहा। इस व्रत में उपवास के साथ व्रत की कथा सुनना भी अनिवार्य बताया गया था। घर से दूर अकेले रहने के कारण बड़े-बुजुर्ग या पण्डीजी की भूमिका मुझे ही निभानी पड़ी। धर्मपत्नी ने हाथ मे फूल अक्षत्‌ लेकर आसन जमाया और मेरे हाथ में पोथी थमा दिया।

व्रत की कथा माँ पार्वती और भगवान शंकर के बीच वार्ता के रूप में प्रस्तुत की गयी है। शिव जी अपनी धर्मपत्नी को उन्हीं की कहानी बता रहे हैं कि उन्होंने कैसे कठिन तपस्या करके शिव जी को वर के रूप में प्राप्त किया। अपने पिता द्वारा विष्णु के साथ उनके विवाह का निर्णय लिए जाने पर कैसे उन्होंने विरोध स्वरूप अपनी सखी (आली) के साथ स्वयं का हरण कराया और घने जंगल में जाकर घोर तपस्या करते हुए शिव जी को प्रसन्न किया, वर पाया और अन्ततः अपने पिता को शिव जी के वरण के लिए राजी किया। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को अपनी तपस्या का फल प्राप्त कर चुकी पार्वती जी ने शिवजी से ‘इस व्रत का माहात्म्य पूछा’। (शायद पाठकों और भक्तगणों को सुनाने के लिए उन्होंने ऐसा पुनरावलोकन किया होगा…!)

शिव जी बोले- हे देवि! सभी सुहागिनों को चाहिए कि ‘इन मन्त्रों तथा प्रार्थनाओं के द्वारा मेरे साथ तुम्हारी पूजा करे, तदनन्तर विधिपूर्वक कथा सुने और ब्राह्मण को वस्त्र, गौ, सुवर्ण, आदि प्रदान करे। इस तरह जो स्त्री अपने पति के साथ भक्तियुक्त चित्त से इस सर्वश्रेष्ठ व्रत को सुनती तथा करती है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, और उसे सात जन्म तक सुख तथा सौभाग्य की प्राप्ति होती है। लेकिन जो स्त्री तृतीया तिथि को व्रत न कर अन्न भक्षण करती है, वह सात जन्म तक वन्ध्या रहती है, और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है। वह सदा दरिद्री, पुत्र-शोक से शोकाकुल, कर्कशा स्वभाव की लड़की सदा दुख भोगने वाली होती है। उपवास न करने वाली स्त्री अन्त में घोर नरक में जाती है।’

‘तीज के दिन अन्न खाने से शूकरी, फल खाने से बन्दरिया, पानी पीने से जोंक, दूध पीने से नागिन, मांसाहार करने से बाघिन, दही खाने से बिल्ली, मिठाई खाने से चींटी, और अन्य वस्तुओं को खाने से मक्षिका (मक्खी) के जन्म में आती है। उस दिन सोने से अजगरी और पति को ठगने से कुक्कुटी (मुर्गी) होती है।’

imageइस कथा का यह अन्तिम भाग पढ़ते-पढ़ते मेरा धैर्य जवाब दे गया। मन की आस्था दरकने लगी। घर-घर में निर्जला उपवास कर रही धर्मभीरु गृहिणियों को इस व्रत के लिए तैयार करने तथा दान-पुण्य की ओर प्रवृत्त करने के ऐसे हथकण्डे को देखकर पहले तो थोड़ी हँसी आयी, लेकिन जब इस बकवास को लिखने और बेचने वाले धूर्त और पाखण्डी लोगों की ऐसी करतूत से हमारे समाज को होने वाली हानि की ओर ध्यान गया तो मन रोष से भर गया।

कथा पढ़ने के बाद कल से लेकर आजतक इसके बारे में सोचता रहा। टीवी, इण्टरनेट और अखबारों में सुहागिन स्त्रियों के सजे-सँवरे सुन्दर और उत्साही चित्रों को देखता रहा, मेहदी रचे हाथों को सायास प्रदर्शित करती भाव-भंगिमा को निहारता रहा। उत्सव का ऐसा मनोरम माहौल है कि अपने मन में उमड़ते-घुमड़ते इस विचार को कोई आश्रय नहीं दे पा रहा हूँ। मन में यह खटक रहा है कि इस कठिन व्रत का जितनी पाबन्दी से ये स्त्रियाँ खुशी-खुशी पालन करती दीखती हैं उसके पीछे इस ‘भय तत्व’ का भी कुछ हाथ है क्या?

मैं हृदय से यह मानना चाहता हूँ कि यह सब पति-पत्नी के बीच एक नैसर्गिक प्रेम और विश्वास, पारस्परिक सहयोग व समर्थन तथा मन के भीतर निवास करने वाली श्रद्धा, भक्ति, पूजा और अर्चना की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण ही हो रहा होगा; लेकिन मन है कि बार-बार उस किताब में लिखी बातों में उलझ जा रहा है जो घर-घर पहुँच कर उसी श्रद्धा से बाँची और सुनी गयी होंगी।

इस उलझन से निकलने में कोई मेरी मदद तो करे…!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

कलियुग में सत्य की आराधना: लालच ने छिपायी मूलकथा

24 टिप्पणियां

 

भारतीय सनातन परम्परा में किसी भी मांगलिक कार्य का प्रारम्भ भगवान गणपति के पूजन से एवं उस कार्य की पूर्णता भगवान सत्यनारायण की कथा के श्रवण से समझी जाती है। स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड से इस कथा का  प्रचलित रूप लिया गया है। लेकिन भविष्यपुराण के प्रतिसर्ग पर्व में इस कथा को विशेष रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

इस कथा में कुल पाँच प्रसंग बताये जाते हैं:

  1. शतानन्द ब्राह्मण की कथा
  2. राजा चन्द्रचूड का आख्यान
  3. लकड़हारों की कथा
  4. साधु वणिक्‌ एवं जामाता की कथा
  5. लीलावती और कलावती की कथा

imageइन पाँचो प्रसंगों में कहानी का सार यही है कि सत्यनारायण व्रत-कथा के ‘श्रवण’ से मनुष्य की सभी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं और जीवन की सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है।

नाना प्रकार की चिन्ताओं और न्यूनताओं में डूबता उतराता मनुष्य यदि अपनी सभी समस्याओं के इतने सरल समाधान का वादा किसी धार्मिक पुस्तक के माध्यम से पाता है तो गारण्टी न होने पर भी उसे आजमा लेने को सहज ही उद्यत हो जाता है।

एक कथावाचक पुरोहित को बुलाकर एक-दो घण्टे हाथ जोड़े बैठने और कुछ सौ रुपये दक्षिणा और प्रसाद पर खर्च कर देने से यदि सांसारिक कष्टों को मिटाने में थोड़ी भी सम्भावना बन जाय तो ऐसा कौन नहीं करेगा। धार्मिक अनुष्ठान करने से सोसायटी में भी आदर तो मिलता ही है। इसीलिए इस कथा का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है।

लेकिन हमारे ऋषियों ने सत्यनारायण भगवान की ‘कथा सुनने’ के बजाय इसमें निरूपित मूल सत्‌ तत्व परमात्मा की अराधना और पूजा पर जोर दिया था। गीता में स्पष्ट किया गया है कि ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ अर्थात्‌ इस महामय दुःखद संसार की वास्तविक सत्ता ही नहीं है। परमेश्वर ही त्रिकाल अबाधित सत्य है और एक मात्र वही ज्ञेय, ध्येय एवं उपास्य है। ज्ञान-वैराग्य और अनन्य भक्ति के द्वारा वही साक्षात्कार करने के योग्य है।

सत्यव्रत और सत्यनारायणव्रत का तात्पर्य उन शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करना ही है। संसार में मनीषियों द्वारा सत्य-तत्व की खोज की  बात निर्दिष्ट है जिसे प्राप्तकर मनुष्य सर्वथा कृतार्थ हो जाता है और सभी आराधनाएं उसी में पर्यवसित होती हैं। निष्काम उपासना से सत्यस्वरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है।

प्रतिसर्ग पर्व के २४वें अध्याय में भगवान सत्यनारायण के व्रत को देवर्षि नारद और भगवान विष्णु के बीच संवाद के माध्यम से कलियुग में मृत्युलोक के प्राणियों के अनेकानेक क्लेश-तापों से दुःखी जीवन के उद्धार और उनके कल्याण का श्रेष्ठ एवं सुगम उपाय बताया गया है। भगवान्‌ नारायण सतयुग और त्रेतायुग में विष्णुस्वरूप में फल प्रदान करते हैं और द्वापर में अनेक रूप धारण कर फल देते हैं। परन्तु कलियुग में सर्वव्यापक भगवान प्रत्यक्ष फल देते हैं

धर्म के चार पाद हैं- सत्य, शौच, तप और दान। इसमें सत्य ही प्रधान धर्म है। सत्य पर ही लोक का व्यवहार टिका है और सत्य में ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है, इसीलिए सत्यस्वरूप भगवान्‌ सत्यनारायण का व्रत परम श्रेष्ठ कहा गया है।

लेकिन दुर्भाग्य से धर्म के ठेकेदारों ने सत्य के बजाय धर्म का स्वरूप उल्टे क्रम में दान, तप और शौच के भौतिक रूपों में रूपायित करने की परम्परा को स्थापित किया और वह भी इस रीति से कि उनके लाभ की स्थिति बनी रहे। दान के नाम पर पुरोहित और पण्डा समाज की झोली भरना, तप के नाम पर एक दो दिन भूखा रहना, कर्मकाण्डों में लिप्त रहना और पुरोहित वर्ग को भोजन कराना, और शौच के नाम पर छुआछूत की बेतुकी रूढ़ियाँ पैदाकर शुद्धिकरण के नाम पर ठगी करना। इन पाखण्डों के महाजाल में सत्यनारायण की आराधना भला कैसे अक्षुण्ण रह पाती।

मन, कर्म और वचन से सत्यधर्म का पालन करना अत्यन्त कठिन है इसलिए यजमान को भी इसी में सुभीता है कि पण्डितजी जैसे कहें वैसे करते रहा जाय। उसका पाप-पुण्य भी उन्हीं के माथे जाए।  धार्मिक कहलाने का इससे सस्ता और सुगम रास्ता क्या हो सकता है?

सत्यनारायण कथा इसी सोच का परिणाम यह हुआ कि सत्यनारायण व्रत से पूजा और आराधना का तत्व लुप्त हो गया, सत्य के प्रति आस्था विलीन हो गयी और कथा बाँचने और सुनने का अभिनय प्रधान हो गया। मैने ऐसे कथा-कार्यक्रम में पण्डितजी को अस्फुट ध्वनि में अशुद्ध और अपूर्ण श्लोकों वाली संस्कृत पढ़ते और हाथ जोड़े यजमान को ऊँघते, घर-परिवार के लोगों से बात करते या बीच-बीच में कथा सुनने आए मेहमानों का अभिवादन करते देखा है। प्रायः सभी उपस्थित जन इस प्रतीक्षा में समय बिता रहे होते हैं कि कब कथा समाप्त हो और प्रसाद ग्रहण करके चला जाय।

कहीं कहीं इस कथा का हिन्दी अनुवाद भी पढ़कर बताया जाता है। लेकिन वहाँ भी जो कथा सुनायी जाती है उसमें उपरोक्त प्रसंगों के माध्यम से उदाहरण सहित यही समझाया जाता है कि कथा सुनने से निर्धन व्यक्ति धनाढ्‌य और पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान हो जाता है। राज्यच्युत व्यक्ति राज्य प्राप्त कर लेता है, दृष्टिहीन व्यक्ति दृष्टिसम्पन्न हो जाता है, बन्दी बन्धन मुक्त हो जाता है और भयार्त व्यक्ति निर्भय हो जाता है। अधिक क्या? व्यक्ति जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है वह सब प्राप्त हो जाती है। यह भी कि जो व्यक्ति इस कथा का अनादर करता है उसके ऊपर घोर विपत्ति और दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। सत्यनारायण भगवान उसे शाप दे देते हैं… आदि-आदि।

कलियुग में मनुष्य का मन भौतिकता में इतना खो जाता है कि सत्य की न्यूनतम शर्त भी नहीं निभा पाता। मोक्ष की प्राप्ति के लिए सतयुग, द्वापर और त्रेता में जहाँ कठिन तपस्या और यज्ञ अनुष्ठान करने पड़ते वहीं कलियुग में शुद्ध मन से भगवान का नाम स्मरण ही  कल्याणकारी फल देता है:

नहिं कलि करम न भगति विवेकू। राम नाम अवलम्बन एकू॥

राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥

लेकिन यह छोटी शर्त भी इतनी आसान नहीं है हम कलियुगी मनुष्यों के लिए। हमें तो काम, क्रोध, मद और लोभ ने इस प्रकार ग्रसित कर रखा है कि सत्य न दिखायी पड़ता है, न सुनायी पड़ता है और न वाणी से निकल पाता है। दुनियादारी के नाम पर हम सत्य से बँचने को ही समझदारी और चालाकी मान बैठते हैं।

इसलिए जिस व्रतकथा का माहात्म्य हम बारम्बार सुनते हैं वह कोई कहानी नहीं बल्कि सत्य के मूर्त-अमूर्त स्वरूप में अखण्ड विश्वास और अटल आस्था रखने तथा  मन वचन व कर्म से सत्य पर अवलम्बित जीवनशैली और व्यवहार अपनाने से है। ‘सत्य में आस्था’ की अवधारणा का प्रचार हमारे कथावाचकों के हित में नहीं रहा इसलिए हम ‘कथा की कथा’ ही सुनते आए हैं। अस्तु।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

कथा-पूजा में विघ्न पड़ा… कैसे?

17 टिप्पणियां

 

श्रीसत्यानारायण व्रतकथा मैने पिछली पोस्ट में बताया था कि सत्यनारायण की कथा में लुप्त कथा का सूत्र आप सबके हाथ पकड़ाउंगा। सोचा कि यह बताऊंगा कि पण्डित जी जब कथा कहते हुए साधु वणिक्‌, काष्ठविक्रेता, शतानन्द ब्राह्मण, उल्कामुख, तुंगध्वज, आदि के प्रसंग में इनके द्वारा सत्यानारायण कथा सुनने की बात बताते हैं तो वे कौन सी कथाएं रही होंगी जो इन्होंने सुनी होगी। वे कथाएं कहाँ गयीं और इस कथा का प्रचार कैसे हुआ।

लेकिन जैसाकि हम जानते हैं प्रत्येक यज्ञ, व्रत, अनुष्ठान में विघ्न-बाधाएं आ ही जाती हैं। पुराने समय में ऋषि-मुनि जब कोई यज्ञादि का आयोजन करते थे तो विघ्नकारी तत्वों से रक्षा के लिए विशेष प्रबन्ध करते थे। गुरु वशिष्ठ ने राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिए ही मांगा था। इसी प्रकार मेरे पुण्यकार्य में भी व्यवधान आ गया है। विघ्न डाला है एक शातिर चोर ने…

image कथा प्रसंग यह है कि मेरी श्रीमतीजी अपने मायके से अपने भतीजे के मुण्डन में उपहार आदि बटोरकर इलाहाबाद वापस आ रही थीं। दोनो बच्चे और मेरा भतीजा अचल (१९ वर्ष) चौरीचौरा एक्सप्रेस के एसी कोच में उनके साथ थे। सुबह-सुबह जब बनारस से आगे इनकी नींद खुली तो पता चला कि बर्थ के नीचे जंजीर से बाँध कर रखे एयर-बैग की चेन के बगल में एक लम्बा चीरा लगाकर  भीतर रखा हैण्डबैग उड़ा लिया गया है। उस पर्स में रखी नगदी और ज्यूलरी मिलाकर करीब पच्चीस हजार का चूना तो लगा ही, इनके मन में घर से बाहर निकलकर अकेले यात्रा कर लेने का जो आत्मविश्वास पैदा हो रहा था वह भी सेंसेक्स की तरह धड़ाम से नीचे आ गिरा। 

image चोरी का पता चलने के बाद कोच कण्डक्टर, अटेण्डेन्ट, सुरक्षाकर्मी आदि सभी पल्ला झाड़कर चलते बने। सहयात्रियों ने अपनी-अपनी लुटने की कहानी बता-बताकर इन्हें ढाँढस बँधाया। इलाहाबाद उतरकर जीआरपी थाने में प्राथमिकी दर्ज करायी गयी। पूरा दिन इस प्रक्रिया को पूरा करने और इष्टमित्रों को रामकहानी बताने में चला गया। अगले दिन अखबारों में खबर छप गयी। फिर दिनभर फोन का जवाब देने, कथा सुनाने और संवेदना बटोरने का क्रम चला।

इस विघ्न कथा का एक सर्वसम्मत निष्कर्ष यही निकला कि जो जाने वाला है उसे कोई रोक नहीं सकता। चाहे जैसी सुरक्षा व्यवस्था की गयी हो आप कभी भी आश्वस्त नहीं हो सकते। चोरी का धन्धा कभी मन्दा नहीं होने वाला है। इसी की देखभाल के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों ने बहुत बड़ा पुलिस महकमा जो खड़ा कर रखा है।

हम भी इसी निचोड़ पर ध्यान लगा रहे हैं कि इस अकिंचन मानव के वश का कुछ नहीं है। जीवन में कल्याण और सर्वमंगल की गारण्टी देने की क्षमता इस लोक में किसी के पास नहीं है। यह तो केवल उसी एक परमेश्वर के हाथ में है जो त्रिकाल अबाधित सत्य है। वही सबके अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने वाला है:

नवाम्भोजनेत्रं रमाकेलिपात्रं

चतुर्बाहुचामीकरं चारुगात्रम्‌।

जगत्त्राणहेतुं रिपौ धूम्रकेतुं

सदा सत्यनारायणं स्तौमि देवम्‌॥

तो आइए, हम सभी मिलकर श्री सत्यनारायन व्रत कथा के मूल तक पहुँचने की कोशिश करें। और अपने भीतर भक्तिभाव भरकर इस अमृतमय कथा का रसपान करें…

नोट: खेदप्रकाश करते हुए वचन देता हूँ कि अगली पोस्ट में सीधे कथा ही बता दूंगा 🙂

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

बहुत मिलावटी है जी… पुराण चर्चा

28 टिप्पणियां

 

मेरी पिछली पोस्ट पर मित्रों की जो प्रतिक्रियाएं आईं उनको देखने के बाद मैं दुविधा में पड़ गया। विद्वतजन की बातों को लेकर चर्चा को आगे बढ़ाया जाय या पुराण प्रपंच छोड़कर कुछ दूसरी बात की जाय। कारण यह था कि मैंने पुराणों के बारे में बहुत गहरा अध्ययन नहीं किया है। दो-चार पुस्तकों तक ही सीमित रहा हूँ। मेरा ज्ञान इस बात तक सीमित है कि यद्यपि वेद और पुराण एक ही आदिपुरुष अर्थात्‌ ब्रह्माजी द्वारा मूल रूप से रचित हैं, तथापि इनमें वर्णित ज्ञान, आख्यानों, तथ्यों, शिक्षाओं, नीतियों और घटनाओं आदि में एकरूपता होते हुए भी इनमें कुछ मौलिक भिन्नताएं है:

  • पुराण वेदों का ही विस्तृत और सरल स्वरूप है जो सामान्य गृहस्थ को लक्षित है।
  • वेद अपौरुषेय और अनादि है जिसे ब्रह्माजी ने स्वयं रचा था। किन्तु वेदव्यास जी ने जनमानस के कल्याणार्थ ब्रह्माजी द्वारा मौलिक रूप से रचित पुराण का  पुनर्लेखन और सम्पादन किया और इसके श्लोकों की संख्या सौ करोड़ से घटाकर चार लाख तक सीमित कर दी। अतः पुराण पौरुषेय भी है।
  • वेदों की साधना करने वाले योगी पुरुष ऋषि कहलाये जबकि पुराणों में वर्णित ज्ञान की बातों, मन्त्रों, उपासना विधियों और व्रत आदि का अनुसरण करने वाले योगी मुनि कहलाए।
  • वेदों की अपेक्षा पुराण अधिक परिवर्तनशील और श्रुति परम्परा पर निर्भर होने के कारण लम्बे समय तक स्मृतिमूलक रहे हैं। परिवर्तनशील प्रवृत्ति होने के कारण ही पुराणों में ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक चित्रण मिल जाता है।

वेद-पुराण-उपनिषद वैसे तो समग्र वेद-पुराण के एक मात्र रचनाकार वेद-व्यास जी को माना जाता है लेकिन कोई भी इस विशद साहित्य का आकार जानकर यह सहज अनुमान लगा सकता है कि इतना विपुल सृजन किसी एक व्यक्ति के द्वारा अपने एक जीवनकाल में नहीं किया जा सकता।

भाई इष्टदेव जी ने मुझे मेल भेजकर याद दिलाया कि “…व्यास कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक पूरी परम्परा हैं। जिसने भी उस ख़ास परम्परा के तहत कुछ रचा उसे व्यास कहा गया। अभी भी कथा वाचन करने वाले लोगों को व्यास ही कहा जाता है….”

मेरे ख़याल से पुराणों का स्वरूप कुछ-कुछ हमारे ब्लॉगजगत जैसा रहा है। बल्कि एक सामूहिक ब्लॉग जैसा जिसमें अपनी सुविधा और सोच के अनुसार कुछ न कुछ जोड़ने के लिए अनेक लोग लगे हुए है। बहुत सी सामग्री जोड़ी जा रही है, कुछ नयी तो कुछ री-ठेल। बहुत सी वक्त के साथ भुला दी जा रही है। लिखा कुछ जाता है और उसका कुछ दूसरा अर्थ निकालकर बात का बतंगड़ बना दिया जा रहा है। लेकिन इसी के बीच यत्र-तत्र कुछ बेहतरीन सामग्री भी चमक रही है। अनूप जी के अनुसार यहाँ ८० प्रतिशत कूड़ा है और २० प्रतिशत काम लायक माल है। यहाँ सबको स्वतंत्रता है। चाहे जो लिखे, जैसे लिखे। इसपर यदि बेनामी की सुविधा भी हो तो क्या कहने? पुराणों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ लगता है।

वैदिक ऋषि परम्परा से निकली ज्ञान की गंगा पुराणों की राह पकड़कर जैसे-जैसे आगे बढ़ती गयी उसमें स्वार्थ और लोलुपता का प्रदूषण मिलता गया। धार्मिक अनुष्ठान के नामपर कर्मकाण्ड और पाखण्डपूर्ण आडम्बर बढ़ते गये। पुरोहितों द्वारा यजमान के ऊपर दान-दक्षिणा की नयी-नयी मदें लादी जाने लगीं। धर्म-भीरु जनता को लोक-परलोक का भय दिखाकर उसकी गाढ़ी कमाई उड़ाने की प्रवृत्ति पुरोहितों और पण्डों में बढ़ने लगी। यही वह समय था जब हिन्दू धर्म के प्रति आम जनमानस में पीड़ा का भाव पैदा होने लगा और गौतम बुद्ध व महावीर जैन ने इन कर्म-काण्डों और आडम्बरों के विरुद्ध बौद्ध और जैन धर्म का प्रवर्तन कर दिया। हिन्दू कर्मकाण्डों और नर्क जाने के भय से पीड़ित जनता ने उन्हें हाथो-हाथ लिया। ऐसी विकट परिस्थिति पैदा करने में इन पुराणों का बड़ा दुरुपयोग किया गया था।

तो क्या यह मान लिया जाय कि पुराण अब बेमानी हो चुके हैं? क्या इनसे किनारा करके इन्हें कर्म-काण्डी पुरोहितों के हाथ में छोड़कर अब भी उन्हें मनमानी ठगी करने देना उचित है? अन्धविश्वासों और रूढ़ियों मे पल रही एक बड़ी आबादी आजभी इनपर आस्था रखती है। जिनकी आस्था नहीं है वे भी छिप-छिपाकर सत्यनारायण की कथा करा ही डालते हैं, या जाकर प्रसाद ही ले आते हैं। कदाचित्‌ एक अन्जाना डर उन्हें यह सब करने को प्रेरित करता होगा। कुछ तो सार-तत्व होगा इनमें…!

यहाँ यह भी उल्लेख कर दूँ कि जिन कर्मकाण्डों और आडम्बरों के खिलाफ़ सन्देश देकर ये नये धर्म खड़े हुए, कालान्तर में इनके भीतर भी उसी प्रकार की बुराइयाँ पनपने लगीं। इधर आदि शंकराचार्य (८वीं-९वीं शताब्दि)ने वेदान्त दर्शन की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए यह सन्देश दिया कि सारे वाह्याडम्बर मिथ्या हैं। एक मात्र सत्य ब्रह्म है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के भीतर निवास करने वाली आत्मा ब्रह्म का ही एक रूप है। भौतिक जगत एक माया है जो जीव को जन्म मृत्यु के बन्धन में बाँधे रखती है।

ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव ना परः

हमारे वैदिक ज्ञान भण्डार की मौलिक बातों का पुराणों में सरलीकरण कर दिया गया। कम पढ़े-लिखे गृहस्थ को सामान्य जीवनोपयोगी बातें समझाने के लिए भी धर्म का सहारा लिया गया। यहाँ धर्म का आशय केवल पूजा पद्धति और देवी देवताओं में आस्था पैदा करना नहीं रहा बल्कि मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी धारण करने योग्य था वह धर्म से परिभाषित होता था। जो कुछ भी करणीय था उसे धार्मिक पुस्तकों में शामिल कर लिया गया और जो कुछ अकरणीय था उसके भयंकर परिणाम बताकर उन्हें रोकने की कोशिश की गयी। कदाचित्‌ शुभ-अशुभ और स्वर्ग-नर्क की अवधारणा इसी उद्देश्य से गढ़ी गयी होगी। हमारे ऋषि-मुनियों ने इन पुस्तकों को एक प्रकार से मनुष्य की आचार संहिता बना दिया था। लेकिन लालची पंडितों ने इसका रूप ही बिगाड़ दिया।

ऐसी स्थिति में इन आदिकालीन शास्त्रों को पूरा का पूरा खारिज नहीं किया जा सकता। उचित यह होगा कि इनकी समीक्षा इस रूप में की जाय कि इनमें छिपे मूल सन्देशों को अलग पहचाना जा सके और आधुनिक परिवेश में उनकी उपादेयता को चिह्नित किया जा सके। मेरा विश्वास है कि मानवकल्याण के इन सूत्रों को अपना कर और प्रसारित करके हम आजकल की अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान ढूँढ सकते हैं।

तो क्या आप सच्चे मोतियों की खातिर समुद्र-मन्थन करने को तैयार हैं?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

नोट: सत्यनारायण की कथा में ‘कथा के माहात्म्य’ का जिक्र और मूल कथा के लोप का सूत्र मिल गया है। अगले अंक में उसकी चर्चा होगी।

यहाँ सत्यनारायण की कथा ही नहीं है…!!

22 टिप्पणियां

 

images22हिन्दू परिवारों में सत्यनारायण की कथा से कौन नहीं परिचित होगा। कुछ गृहस्थ तो प्रत्येक मास की पूर्णिमा को इस कथा का आयोजन करते हैं। पंडित जी सत्यनारायण व्रत कथा की पोथी खोलकर बाँचते हैं और प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर शंख बजाते हैं। कथा के अन्त में यजमान को सबसे पहले प्रसाद मिलता है। उसके बाद सभी उपस्थित भक्तों को पञ्चामृत, मोहनभोग, पंजीरी आदि का प्रसाद वितरित किया जाता है। शहरों में भी आस-पड़ोस में आयोजित होने पर इस कथा में सम्मिलित होने का एक विशिष्ट ‘मेन्यू’ बन चुका है।

लेकिन मेरा अनुमान है कि इस कथा की विषयवस्तु के बारे में बहुत कम लोग रुचि लेकर जानने का प्रयास करते हैं। कथा में सशरीर उपस्थित होकर प्रसाद प्राप्त करने को ही अधिक महत्व दिया जाता है। मनसा उपस्थिति प्रायः शून्य ही होती है। इस कथा का मूल श्रोत भविष्य पुराण है। यह इसके प्रतिसर्ग पर्व के २३वें से २९वें अध्याय में वर्णित है। किन्तु भविष्य पुराण में और भी ढेर बातें हैं जो चमत्कृत करती हैं।

महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित भविष्य पुराण में भगवान सूर्य नारायण की महिमा, उनके स्वरूप, पूजा उपासना विधि का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसीलिए इसे ‘सौर-पुराण’ या ‘सौर ग्रन्थ’ भी कहा गया है।

इस पुराण में स्त्री-पुरुष के शारीरिक लक्षणों, विभिन्न रत्नों की शुद्धता परखने का तरीका, विविध स्तोत्र, आयुर्वेद से सम्बन्धित अनेक प्रभावशाली औषधीय गुणों से युक्त वनस्पतियों और सर्प विद्या से सम्बन्धित अनेक अद्‌भुत बाते बतायी गयी हैं।

हजारो साल पहले रचे गये इस पुराण में २००० वर्षों का अचूक वर्णन है। इसकी विषय सामग्री देखकर मन बेहद आश्चर्य से भर उठता है। भविष्य की कोंख में छिपे घटना्क्रम और राजाओं, सन्तों, महात्माओं और मनीषियों के बारे में इतना सटीक वर्णन अचम्भित कर देता है। इसमें नन्द वंश एवं मौर्य वंश के साथ-साथ शंकराचार्य, तैमूर, बाबर हुमायूँ, अकबर, औरंगजेब, पृथ्वीराज चौहान तथा छत्रपति शिवाजी के बारे में बताया गया है। सन्‌ १८५७ में इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया के भारत की साम्राज्ञी बनने और आंग्ल भाषा के प्रसार से भारतीय भाषा संस्कृत के विलुप्त होने की भविष्यवाणी भी इस ग्रन्थ में की गयी है। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित इस पुराण को इसीलिए भविष्य का दर्पण भी कहा गया है।

Image017प्रारम्भ में इस पुराण में पचास हजार (५००००) श्लोक विद्यमान थे लेकिन श्रव्य परम्परा पर निर्भरता और अभिलेख के रूप में उचित संरक्षण न मिल पाने के कारण वर्तमान में केवल अठ्ठाइस हजार (२८०००) श्लोक ही उपलब्ध रह गये हैं। स्पष्ट है कि अभी भी विद्वान उन अद्‍भुत एवं विलक्षण घटनाओं और ज्ञान से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं जो इस पुराण के विलुप्त आधे भाग में वर्णित रही होंगी। सौभाग्य से अब गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा ऐसे अनेक वैदिक व पौराणिक ग्रन्थों का संचयन, संरक्षण, परिमार्जन और प्रकाशन किया जाता है जो इस धर्मप्राण देश की अमूल्य थाती हैं। मूल संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी में अनुवाद और टीकाएं प्रकाशित करने का यह अनुष्ठान प्रणम्य है।

इस वृहद ग्रन्थ की सम्पूर्ण सामग्री का उल्लेख तो यहाँ सम्भव नहीं है लेकिन मैं यहाँ चार पर्वों में विभाजित इस पुराण से कुछ ऐसी लोकप्रिय और जनश्रुत कहानियों और पौराणिक पात्रों तथा व्यक्तियों का नामोल्लेख करना चाहूँगा जिनके बारे में हम अपनी सामान्य बोलचाल में, रीति-रिवाजों के अनुपालन मे, अपने पारिवारिक व सामाजिक दिनचर्या में या साहित्य के अध्ययन की बौद्धिक परम्परा में प्रायः सुनते रहते हैं:

 

१.ब्राह्म पर्व:

गर्भाधान से लेकर यज्ञोपवीत तक के संस्कार, भोजन विधि, ओंकार एवं गायत्री मन्त्र के जप का महत्व, अभिवादन विधि, विवाह योग्य युवक-युवतियों के शुभाशुभ लक्षण, विवाह के आठ प्रकार, पतिव्रता स्त्रियों, पुरुषों तथा राजपुरुषों के शुभाशुभ लक्षण, चतुर्थी व्रत, नागपंचमी व्रत, सर्पदंश से पीड़ित मनुष्यों के लक्षण, सर्पों के विष के वेग, शरीर में विष के पहुँचने, उसके प्रभाव तथा सर्पदंश की चिकित्सा विधि, षष्ठी व्रत (छठ- बिहार वाली), भगवान सूर्यदेव के माहात्म्य से जुड़ी अद्‌भुत और विलक्षण कथाएं,

२.मध्यम पर्व:

सृष्टि एवं विभिन्न लोकों की उत्पत्ति व स्थिति का वर्णन, गृहस्थ आश्रम की महिमा, माता, पिता व गुरू की महत्ता, विभिन्न वृक्षों को लगाने से प्राप्त होने वाले फल, वृक्षारोपण का उचित समय व इसका महत्व, हानिकारक वृक्ष, यज्ञ-हवन की विधियाँ, विभिन्न पक्षियों के दर्शन से प्राप्त होने वाले लाभ; चन्द्रमास, सौरमास, नक्षत्रमास, एवं श्रावण मास का माहात्म्य; ‘मल मास’ में शुभ कार्यों की वर्जना; उद्यानों, जलाशयों, गोचर भूमियों, अश्वत्थ, पुष्करिणी, तुलसि तथा मण्डप आदि की प्रतिष्ठा की महत्वपूर्ण शास्त्रोक्त (वैज्ञानिक) विधियाँ आदि।

३.प्रतिसर्ग पर्व:

ऐतिहासिक व आधुनिक घटनाओं का सुन्दर मिश्रण। ईसा मसीह का जन्म, उनकी भारत-यात्रा, मुहम्मद साहब का आविर्भाव, महारानी विक्टोरिया का राज्यारोहण, तक का वर्णन।

सतयुग, त्रेता (सूर्यवंश व चंद्रवंश), द्वापर और कलियुग के राजा तथा उनकी भाषाएं, ‘नूह’ की प्रलय गाथा, मगध के राजा नन्द, बौद्ध राजा, चौहान व परमार वंश, राजा विक्रम और वेताल की शिक्षाप्रद कहानियाँ- ‘वैताल-पचीसी’, रूपसेन एवं वीरवर, हरिस्वामी, राजा धर्मबल्लभ एवं मन्त्री सत्यप्रकाश, जीमूतवाहन एवं शंखचूड़, गुणाकर, चार मूर्ख,एवं मझले भाई की रोचक व शिक्षाप्रद कथाएं। श्री सत्यनारायण व्रतकथा का पूजन विधि सहित विस्तृत वर्णन जिसमें शतानन्द ब्राह्मण, राजा चन्द्रचूड़, लकड़हारे, साधु वणिक व उसके जामाता की कथा वर्णित है।

देवी दुर्गा की सप्तशती मे वर्णित उनके तीन चरित्र, कात्यायन एवं मगधराज महानन्द, देवी सरस्वती की कृपा से महर्षि पतंजलि द्वारा कात्यायन को शास्त्रार्थ में पराजित करने की कथा। भारत के लगभग १०००ई. के बाद का इतिहास। ईसा मसीह, पैगम्बर मुहम्मद, शंकराचार्य, कृष्णचैतन्य, पृथ्वीराज चौहान, अकबर, जयचन्द, तैमूरलंग, रामानुज, कुतुबुद्दीन ऐबक आदि का वर्णन।

इस पर्व में शंकराचार्य को भगवान शिव का व रामानुजाचार्य को भगवान्‌ विष्णु का अंशावतार बताया गया है तथा काशी में उनके बीच हुए रोचक शास्त्रार्थ का वर्णन किया गया है।

४.उत्तर पर्व:

भुवनकोश, भगवान्‌ विष्णु की माया से देवर्षि नारद के मोहित होने का आख्यान व चित्रलेखा का चरित्र। तिलक व्रत, अशोक व्रत, करवीर व्रत (कनेर के वृक्ष की पूजा), परम गोपनीय और अत्यन्त फलदायी कोकिला व्रत (इस व्रत के प्रभाव से पति-पत्नी के मध्य प्रेम प्रगाढ़ होता है।), अनेक सौभाग्यशाली (रमा, मधूक, ललिता, अवियोग, रम्या, हरकाली, आदि) तृतीया व्रत, शनि ग्रह की पीड़ा से निवारण के लिए शनि व्रत के माहात्म्य सम्बन्धी पिप्पलाद की कथा।

मैने इस अनमोल पुस्तक से कोई एक कथा संक्षेप में प्रस्तुत करने का मन बनाया था लेकिन इसमें छिपे खजाने के बारे में बताने का लोभसंवरण नहीं कर सका। अब मैं आपकी प्रतिक्रियाओं और फ़रमाइशों की प्रतीक्षा करूंगा। जनता की मांग के अनुसार ऊपर गिनाये गये विषयों में से कुछ अंश सत्यार्थमित्र पर प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

धुंधुकारी कौन था? (भाग-२)…पुराण चर्चा।

5 टिप्पणियां

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि धुंधुकारी और गोकर्ण गुरुकुल में जाकर परस्पर विपरीत प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख हुए। अब आगे

धुंधुकारी के भीतर ब्राह्मणोचित गुणों का विकास शून्य था। वह परम क्रोधी और विघ्नतोषी हो गया। बुरी से बुरी वस्तुएं एकत्र करना, चोरी करना, लोगों के बीच झगड़ा करा देना और दीन – दुखियों को कष्ट पहुँचाना उसे बड़ा प्रिय था। वह खतरनाक हथियार लेकर घूमा करता और सज्जनो, मासूम पशु-पक्षियों व अन्य जीवों के लिए आततायी बन जाता। उसे पूजा-अराधना जैसे कार्य तुच्छ और हीन लगते थे। वह उम्र बढ़ने के साथ ही व्यभिचार में लिप्त रहने लगा। उसके वेश्यागमन से आत्मदेव की प्रतिष्ठा तार-तार होने लगी। आत्मदेव पुनः शोकमग्न रहने लगा।

गोकर्ण को अपने पितातुल्य आत्मदेव का दुःख देखा न गया। उसने उन्हें वैराग्य का उपदेश दे डाला। इस जगत को नश्वर और पुत्र, स्त्री व धन को मोह-माया का बन्धन बताते हुए इन्हें समस्त दुःखों का कारण बताया। सुख की प्राप्ति के लिए ऋषि- मुनियों की भाँति मोहरूपी अज्ञान को त्याग देने का उपदेश देकर गोकर्ण ने आत्मदेव को मोक्ष की प्राप्ति हेतु वनगमन करने की सलाह दे डाली।

गोकर्ण के उपदेश से आत्मदेव को अपना मार्ग मिल गया। उन्होंने गोकर्ण से वैराग्य का उपदेश प्राप्त किया और वैराग्य धारण कर वन की ओर प्रस्थान कर गये। वन में भगवत् साधना करते हुए उन्हे परम धाम की प्राप्ति हो गयी।

इधर पिता के चले जाने के बाद धुंधुकारी अधिक उन्मुक्त और स्वतंत्र हो गया। उसके द्वारा निरन्तर बढ़ रहे उपद्रव तथा धन के लिए डराने-धमकाने और प्रताणित करने से व्यथित धुंधुली ने कुँए में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए। गोकर्ण भी माता-पिता का सानिध्य समाप्त हो जाने के बाद लम्बी तीर्थ यात्रा पर निकल गया। धुंधुकारी अब परम स्वतंत्र और निरंकुश हो गया। अब सदा वेश्याओं के साथ ही विलास में डूबा रहता था। इस व्यभिचार और कुकर्मों से उसकी बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो गयी।

धुंधुकारी को दुष्कर्मों में लिप्त पाकर वेश्याओं ने उसका अधिकाधिक दोहन प्रारम्भ कर दिया। एक बार धुंधुकारी ने राजमहल में बड़ी चोरी की और लम्बा हाथ मारा। राजमहल का धन और आभूषण इत्यादि देखकर वेश्याओं ने सोचा कि राजा के सिपाही यदि इस चोरी का पता लगा लेंगे तो धुंधुकारी के साथ ही हम सब भी पकड़ी जाएंगी, और यह अपार सुख त्याग कर कारागार का कष्ट भोगना पड़ेगा।

इस भय से आक्रांत वेश्याओं ने मिलकर सोते हुए धुंधुकारी को दहकते हुए अंगारों से जलाकर मार डाला तथा उसी घर में गढ्ढा खोदकर दफ़ना दिया। अपने कुकर्मों के फल से धुंधुकारी प्रेत बनकर भटकने लगा।

इधर एक दिन गोकर्ण तीर्थों का भ्रमण करते हुए अपने नगर वापस आया तथा उसी पैतृक आवास में रात्रि-विश्राम को रुका। उसे वाहाँ पाकर धुंधुकारी ने भयंकर रूप धारण कर उसे डराने का प्रयास किया। किन्तु ज्ञानी गोकर्ण ने सहज ही अनुमान लगा लिया कि यह कोई दुर्गति को प्राप्त जीव है।

गोकर्ण द्वारा संयत और प्रेमपूर्ण वाणी में परिचय पूछने पर धुंधुकारी फूट-फूटकर रो पड़ा। अपनी दुर्गति और वेश्याओं द्वारा जलाकर मार दिये जाने की कहानी विस्तार से सुनाते हुए उसने गोकर्ण से हाथ जोड़कर प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। अपने भाई के प्रति गोकर्ण के मन में संवेदना का भाव उमड़ पड़ा और उसने उसकी मुक्ति का प्रयास करने का वचन दे दिया।

गोकर्ण से मुक्ति का आश्वासन पाकर धुंधुकारी प्रसन्न भाव लेकर चला गया; किन्तु गोकर्ण की आँखों से नींद गायब हो गयी। अपना वचन पूरा करने का मार्ग नहीं सूझ रहा था। प्रातःकाल उसके नगर आगमन का समाचार पाकर क्षेत्र के विद्वतजन उसके दर्शनार्थ आए। गोकर्ण ने सबसे प्रेतबाधा के निवारण के उपायों पर चर्चा की लेकिन सभी वेदों और शास्त्रों को खंगालने के बाद भी सर्वसम्मत समाधान नहीं मिल सका।

गोकर्ण ने तब भगवान सूर्य की अराधना की और धुंधुकारी की प्रेतयोनि के अन्धकार से मुक्ति का उपाय पूछा।

सूर्यदेव प्रकट हुए और बोले- “वत्स! तुम्हारे भाई की मुक्ति केवल श्रीमद्भागवत पुराण के श्रवण से हो सकती है; इसलिए तुम उसे सप्ताह-श्रवण कराओ।” उन्होंने बताया कि इस दिव्य कथा के श्रवण से न केवल धुंधुकारी को प्रेतयोनि से छुटकारा मिल जाएगा; बल्कि सर्वत्र कलुष मिटेगा और सर्वमंगल की वर्षा होगी।

सूर्यदेव का मार्गदर्शन पाकर गोकर्ण ने धुंधुकारी के उद्धार और सर्वमंगल की कामना से श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने का निश्चय किया। पूरे क्षेत्र में यह शुभ समाचार फैल गया। कथा सुनने के लिए विशाल जन समुदाय उमड़ पड़ा। एक उँचे आसन (व्यास-गद्दी) पर बैठकर गोकर्ण ने कथा का वाचन प्ररम्भ कर दिया।

कथा सुनने के लिए धुंधुकारी-प्रेत भी वहाँ पहुँचा। बैठने का स्थान खोजते हुए उसने वहाँ गाड़े गये सात बाँस देखे। उसी में से एक बाँस के भीतर बैठ गया और ध्यानमग्न होकर अमृतमय कथा का रसपान करने लगा।

संध्या होने पर जब कथा को विराम दिया गया, तभी वह बाँस जोरदार आवाज के साथ फट गया। इसी प्रकार सात दिन की कथा में सातो बाँस क्रमशः फटते गये। अन्तिम दिन धुंधुकारी प्रेतयोनि से मुक्त होकर दिव्यरूप में सबके सामने प्रकट हो गया। चेहरे पर दिव्य आभा, शरीर पर राजसी वस्त्राभूषण और सिर पर तेजमय मुकुट। सभी उसे विस्फारित आँखों से देखने लगे।

तभी वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के पार्षदों को लेकर एक दिव्य विमान उतरा। पार्षदों ने आदरपूर्वक धुंधुकारी से विमान में बैठने का आग्रह किया। विस्मित गोकर्ण ने उन्हें टोका- “मान्यवरों! यहाँ सभी श्रोताओं ने समान रूप से कथा सुनी है; किन्तु आपने मात्र धुंधुकारी को ही इस विमान के लिए क्यों आमन्त्रित किया?”

मुख्य पार्षद ने स्पष्ट किया कि इसफलभेद का कारण श्रवणभेद है। यह सत्य है कि सबने कथा का श्रवण समान रूप से किया, किन्तु इस प्रेत के समान कथा पर मनन किसी और ने नहीं किया। धुंधुकारी ने सात दिनों तक निराहार रहकर अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखते हुए इस कथा का श्रवण किया था, और साथ में इसपर मनन भी करता रहा। इसीलिए यह भगवान श्रीकृष्ण के परम पद को प्राप्त करने का अधिकारी बना।

इतना कहकर सभी पार्षद धुंधुकारी को विमान में लेकर गोलोक को चले गये।
(कथा समाप्त)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

धुंधुकारी कौन था? …पुराण चर्चा।

13 टिप्पणियां

मैं बचपन से अपने गाँव-गिराँव में इस विशेषण का प्रयोग सुनता आ रहा हूँ। कदाचित् आपने भी किसी अत्यन्त उद्दण्ड, शैतान, झगड़ालू या बवाल काटने वाले बच्चे के लिए धुन्धकाली की उपमा सुनी होगी। आइए जानते हैं इस विशेष चरित्र के बारे में जो श्रीमद्भागवतपुराण के माहात्म्य को रेखांकित करने वाली एक रोचक कथा का मुख्य पात्र है:-

प्राचीन काल में तुंगभद्रा नदी के तटपर बसे एक सुन्दर नगर में आत्मदेव नाम का एक धर्मपरायण ब्राह्मण रहता था। उसका विवाह धुंधुली नामक एक उच्च कुल की सुन्दर कन्या से हुआ था। ‘विष रस भरा कनक घट जैसे’ की उक्ति को चरितार्थ करने वाली धुंधुली जितनी ही सुन्दर थी, उसका स्वभाव उतना ही दुष्ट, लोभी, ईर्ष्यालु व क्रूर था। कलहकारिणी पत्नी के साथ रहकर भी आत्मदेव अपनी गृहस्थी सन्तोषपूर्वक चला रहे थे। किन्तु विवाह के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी इस दम्पति को कोई सन्तान नहीं हुई। इसके लिए किये गये सभी उद्यम, यज्ञ-अनुष्ठान, व पुण्य-कर्म निष्फल रहे। अन्ततः हताश होकर प्राणत्याग की मंशा से आत्मदेव ने अपना घर छोड़ दिया।

अज्ञात दिशा में जा रहे आत्मदेव को मार्ग में एक सरोवर मिला। उसी के तटपर व्यथित हृदय बैठ गये। तभी एक तेजस्वी सन्यासी वहाँ से गुजर रहे थे। आत्मदेव को इसप्रकार दुःखी देखकर उन्होनें चिन्ता का कारण पूछा। आत्मदेव ने अपनी एकमात्र चिन्ता को सविस्तार बताया तो उस योगनिष्ठ तेजस्वी सन्यासी ने उसके ललाट को देखकर बताया कि – “निश्चित रूप से तुम्हारे मस्तक की रेखाएं बताती हैं कि तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार तुम्हें सन्तान की प्राप्ति नहीं हो सकती।इसलिए यह विचार छोड़कर सन्तोष कर लो, और भगवत् भजन करो।”

आत्मदेव ने जब हठपूर्वक यह कहा कि बिना सन्तान के जीवित रहने की उसे कोई इच्छा नहीं है तो उस तेजमय सन्यासी ने दयावश उसे एक दिव्य फल दिया और उसे पत्नी को खिला देने का निर्देश देकर चले गये।

आत्मदेव घर लौट आये और सारी कहानी बताकर वह फल पत्नी को खाने के लिए दे दिया; किन्तु उस दुष्टा ने सन्तानोत्पत्ति में होने वाले शारीरिक कष्ट, और उसके बाद पालन-पोषण की भारी जिम्मेदारी से बचने के लिए उस फल को खाने के बजाय कहीं छिपा दिया और आत्मदेव से झूठ में कह दिया कि उसने फल खा लिया है।

कुछ दिनों बाद धुंधुली की बहन मृदुली उससे मिलने आयी। हाल-चाल बताने में धुंधुली ने अपने झूठ के बारे में उसे बता दिया और भेद खुलने की चिन्ता भी व्यक्त करने लगी।

मृदुली ने अपनी बहन को चिन्तित देखकर एक योजना बना डाली। उसने कहा कि वह अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पैदा होने के बाद उसे सौंप देगी। उस समय तक धुंधुली गर्भवती होने का स्वांग करती रहे। घर के भीतर पर्दे में रहते हुए ऐसा करना बहुत कठिन तो था नहीं। यह भी तय किया गया कि मृदुली अपने प्रसव के बारे में यह बता देगी कि जन्म के बाद ही उसका पुत्र मर गया।

योजना पर सहमति बन जाने के बाद मृदुली ने यह भी सलाह दिया कि उस दिव्य फल को तत्काल गोशाला में जाकर किसी गाय को खिला दिया जाय ताकि गलती से भी वह किसी के हाथ न लगे।

उसके बाद योजना के मुताबिक ही सबकुछ किया गया। मृदुली ने पुत्र-जन्म के तुरन्त बाद उसे अपने पति के हाथों ही धुंधुली के पास भेंज दिया और इधर उसकी मृत्यु हो जाने की सूचना फैला दी।

अपने घर में पुत्र के जन्म का समाचार पाकर आत्मदेव परम प्रसन्न हो गए और अन्न-धन इत्यादि का दान करने लगे। एक दिन धुंधुली ने अपनी दुर्बलता और खराब स्वास्थ्य, तथा अपनी सद्यःप्रसूता बहन के पुत्रशोक की कहानी एक साथ सुनाकर योजना के मुताबिक उसे घर बुलाने की मांग रख दी। आत्मदेव के समक्ष एक ओर बीमार और कमजोर पत्नी से उत्पन्न पुत्र को न मिल पाने वाला अमृत-तुल्य मातृ-सुख था तो दूसरी ओर पुत्र शोक में डूबी मृदुली का अतृप्त मात्रृत्व था। उन्हें पत्नी की मांग सहज ही उचित लगी और वे मृदुली को बुलाने स्वयं चले गये।

आत्मदेव ने मृदुली के घर जाकर अपने पुत्र के पालन-पोषण के लिए मृदुली को साथ ले जाने की याचना की। वह तो मानो तैयार ही बैठी थी। आत्मदेव का अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। मृदुली पुत्र का पालन पोषण करने आत्मदेव के साथ धुंधुली के पास आ गयी।

बालक का नाम धुंधुली के नाम पर धुंधुकारी रखा गया।

उधर जिस गाय को वह दिव्य फल खिलाया गया था, उसके पेट से एक दिव्य बालक का जन्म हुआ जो अत्यन्त तेजस्वी था। आत्मदेव उस श्वेतवर्ण के बालक को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा स्वयं उसके पालन-पोषण का निश्चय किया। बालक के कान गाय के समान देखकर उसका नाम गोकर्ण रख दिया गया।

(मैने अपने क्षेत्र के कुछ पुराने लोगों का नाम गोकर्ण, गोकरण, या गऊकरन रखे जाने का सन्दर्भ भी यहीं जाना है।)

…इस प्रकार दोनो बालक एक ही साथ पाले गये। बड़ा होने पर एक ही साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल भेंजे गये; लेकिन वहाँ दोनो के संस्कार विपरीत दिशाओं में प्रस्फुटित हुए। विलक्षण प्रतिभा का धनी गोकर्ण गुरुकुल में अनुशासित रहकर वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करते हुए परम ज्ञानी और तत्ववेत्ता बन गया; जबकि बुरे संस्कारों से उद्भूत धुंधुकारी अपनी उद्दण्डता और तामसिक प्रवृत्तियों के कारण निरन्तर अज्ञान के अन्धकार में समाता चला गया..। (जारी)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

Older Entries