मेरा मन क्यूँ छला गया…?

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लो अक्टूबर चला गया

मेरा मन क्यूँ छला गया

 

सोचा भ्रष्टाचार मिटेगा सब खुशहाल बनेंगे अब

अन्ना जी की राह पकड़कर मालामाल बनेंगे सब

काला धन वापस आएगा, रामदेव जी बाटेंगे

अति गरीब पिछड़े जन भी अब धन की चाँदी काटेंगे

लेकिन था सब दिवास्वप्‍न जो पलक झपकते टला गया

मेरा मन फिर छला गया।

 

गाँव गया था घर-घर मिलने काका, चाचा, ताई से

बड़की माई, बुढ़िया काकी, भाई से भौजाई से

और दशहरे के मेले में दंगल का भी रेला था

लेकिन जनसमूह के बीच खड़ा मैं निपट अकेला था

ईर्श्या, द्वेष, कमीनेपन के बीच कदम ना चला गया

मेरा मन फिर छला गया

 

एक पड़ोसी के घर देखा एक वृद्ध जी लेटे थे

तन पर मैली धोती के संग विपदा बड़ी लपेटे थे

निःसंतान मर चुकी पत्नी अनुजपुत्रगण ताड़ दिए

जर जमीन सब छीनबाँटकर इनको जिन्दा गाड़ दिए

दीन-हीन थे, शरणागत थे,  सूखा आँसू जला गया

मेरा मन फिर छला गया

 

मन की पीड़ा दुबक गयी फिर घर परिवार सजाने में

जन्मदिवस निज गृहिणी का था खुश हो गये मनाने में

घर के बच्चे हैप्पी-हैप्पी बर्डे बर्डॆ गाते थे

केक, मिठाई, गिफ़्ट, डांस, गाना गाते, चिल्लाते थे

सबको था आनंद प्रचुर, हाँ बटुए से कुछ गला गया

मेरा मन बस छला गया

 

सोच रहा था तिहवारी मौसम में खूब मजे हैं जी

विजयादशमी, दीपपर्व पर घर-बाजार सजे हैं जी

शहर लखनऊ की तहजीबी सुबह शाम भी भली बहुत

फिर भी मन के कोने में क्यूँ रही उदासी पली बहुत

ओहो, मनभावन दरबारी राग गव‍इया चला गया

मेरा मन फिर छला गया।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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पोला पर्व की धूम और विदर्भ पर इन्द्रदेव का कोप

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भारत का विदर्भ क्षेत्र खेती-बाड़ी के प्रयोजन से बहुत उर्वर और लाभकारी नहीं माना जाता। कपास, सोयाबीन इत्यादि की खेती करने वाले किसान अनेक समस्याओं से जूझते रहते हैं। मौसम की मार से फसल बर्बाद होने का सिलसिला लगातार चलता रहता है। कर्ज और बदहाली से तंग आकर उनके आत्महत्या कर लेने तक की घटनाएँ सुनायी देती रहती हैं। वर्धा विश्वविद्यालय के प्रांगण में रहते हुए मुझे दो माह से अधिक हो गये हैं। यहाँ के बरसाती मौसम में इस बार खूब जलवृष्टि हुई है। चारो ओर से बाढ़ और फसल की बर्बादी की खबरें आ रही हैं। ऐसे में जब पिछली शाम को अचानक पूर्वी आकाश में इन्द्रधनुष दिखायी दिया तो बारिश बंद होने की आशा जगी। लगातार होती बारिश ने हम जैसे अकिसान की नाक में भी दम कर रखा था।

    घर के पीछे पूर्वी क्षितिज पर उगा इंद्रधनुष    ठीक उसी समय पश्चिमी क्षितिज पर सूर्यास्त

अगले दिन बुधवार की सुबह जब सोकर उठा तो  इंद्रधनुष और मेरे अनुमान को धता बताते हुए बादल फिर से छा गये थे। बारिश बेखौफ़ सबकी छाती पर मूंग दल रही थी। लेकिन जब मैं स्टेडियम जा रहा था तो रास्ते में एक नया नज़ारा मिला। तमाम लोग ऐसे मिले जो बारिश की परवाह किए बिना सड़क किनारे बंजर जमीन में उगे पलाश की झाड़ियों से टहनियाँ और पत्ते तोड़कर ले जा रहे थे। जब मैं चौराहे पर पहुँचा तो एक ठेले पर यही पलाश बिक्री के लिए लदा हुआ दिखायी पड़ा। साइकिल पर पलाश की टहनियाँ दबाकर ले जाते एक दूधवाले से मैने पूछा  कि ये पलाश क्या करोगे। वह हिंदी भाषी नहीं था। मुझे उसने उचटती निगाह से देखा और कठिनाई से इतना बता सका- “परस बोले तो …पोला वास्ते” उसने पलाश को परस कहा यह तो स्पष्ट था लेकिन पोला? मैं समझ न सका।

शाम के वक्त बारिश की रिमझिम के बीच आर्वी नाका (चौराहा जहाँ से आर्वी जाने वाली सड़क निकलती है) की ओर जा रहा था तो अनेक जोड़ी बैल पूरी सजधज के साथ एक ही दिशा से आते मिले। सींगे रंगी हुई, गले में घण्टी लगी माला और मस्तक पर कलापूर्ण श्रृंगार, पीठ पर रंगीन ओढ़नी और नयी रस्सी से बना पगहा (बागडोर)। इनकी डोर इनके मालिक के हाथ में थी। टुन-टुन की आवाज करते, अपने मालिक के साथ लगभग दौड़ते हुए ये किसी एक मेला स्थल से वापस आ रहे थे। मैं मन मसोस कर रह गया कि काश इनकी तस्वीरें ले पाता। शुक्र है इसकी कुछ क्षतिपूर्ति गूगल सर्च से और कुछ सुबह के अखबार से हो गयी।

अगले दिन सुबह अखबार खोलकर देखा तो मुखपृष्ठ पर सजे-धजे बैल की पूजा करते किसान परिवार की रंगीन तस्वीर छपी थी। लेकिन उसके बगल में यह दिल दहला देने वाली खबर भी थी कि विदर्भ क्षेत्र के पाँच किसानों ने पिछले चौबीस घण्टे में आत्महत्या कर ली जिसमें एक वर्धा के निकट ही किसी किसान ने कुँए में कूदकर जान दे दी थी। खबर के अनुसार पिछले कई दिनों से जारी घनघोर बारिश के कारण उनकी कपास की फसल घुटने तक पानी में पूरा डूब गयी थी। जब वे खेत से यह बर्बादी का नज़ारा देखकर आये तो आगे आने वाली तक़लीफ़ों की कल्पना से इतना तनावग्रस्त हो गये कि आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। समाचार पढ़कर मुझे इस उत्सव की उमंग फीकी लगने लगी। मैंने शहर की ओर जाते समय देखा कि आर्वी नाके पर पलाश की टहनियों का ढेर जमा हो चुका था और उसमें आग लगा दी गयी थी। pola 004हाई-वे बाई-पास से शहर की ओर जाने वाली सड़क के नुक्कड़ पर सुबह-सुबह अस्थायी कसाईबाड़ा देककर मुझे हैरत हुई। बहुत से बकरे काटे जा रहे थे, और ग्राहकों की भीड़ इकठ्ठा होने लगी थी। मैंने स्टेडियम में अपने एक साथी खिलाड़ी से इस पर्व के बारे में पूछा तो उन्होंने बहुत रोचक बातें बतायी जो आपसे बाँट लेता हूँ। 

भादो महीने की अमावस्या के दिन शुरू होने वाला दो दिवसीय पोला-पर्व मराठी संस्कृति का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है। यह कृषक वर्ग द्वारा मनाया जाने वाला खेती का उत्सव है। पारंपरिक रूप से बैल किसान का सबसे बड़ा सहयोगी रहा है। भादो महीने के मध्य जब खेतों में जुताई इत्यादि का कार्य नहीं हो रहा होता है तब गृहस्थ किसान अपने बैलों को सजा-सवाँरकर उनकी पूजा व सत्कार करता है। दरवाजे पर पलाश की डालियाँ सजायी जाती है और उनकी पूजा होती है। अच्छी फसल के लिए मंगल कामना की जाती है। वह अपने हलवाहे को नया वस्त्र देता है, उसके पूरे परिवार को अपने घर पर भोजन कराता है। हलवाहा उन सजे-धजे बैलों की जोड़ी लेकर गाँव के ऐसे घरों के दरवाजे पर भी जाता है जहाँ बैल नहीं पाले गये होते हैं। pola 003ऐसे प्रत्येक घर से बैलों की पूजा होती है, और सभी लोग हलवाहे को कुछ न कुछ दक्षिणा या बख्शीश भेंट करते हैं। शाम को गाँव के सभी बैलों की जोड़ियाँ एक नियत स्थान पर जमा होती हैं। इस स्थान को रंगीन झंडियों और पत्तों से बने तोरण द्वार से सजाया जाता है। यहाँ बैलों की सामूहिक पूजा होती है और उनकी दौड़ जैसी प्रतियोगिता होती है। इसमें विजेता बैल के मालिक को समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा ईनाम भी दिए जाते हैं।

मेले से प्रसाद के साथ लौटकर आने के बाद किसान के घर में उत्सव का माहौल छा जाता है जो रात भर चलता है। यह पर्व खाने-पीने के शौकीन लोगों को अपना शौक पूरा करने का अच्छा बहाना देता है। श्रावण मास में मांसाहार से परहेज करने वाले लोग भादो माह के इस पर्व की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। गरीब हलवाहा भी इसदिन लोगों की बख्शीश पाकर कम खुश नहीं होता। इस खुशी का इजहार प्रायः वह शराब पीकर करता है। मांस खाने और दारू पीने का यह दौर दूसरे दिन तक चलता है। रात को जिस पलाश की पूजा होती है अगले दिन सुबह उसे एकत्र कर जलाया जाता है। मान्यता है कि इसके जलने से वातावरण में कीड़े-मकोड़ों और मच्छरों की संख्या कम हो जाती है।

भाद्रपद शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन महिलाओं का तीज व्रत आ जाता है जिसे यहाँ  ‘कजरातीज’ कहा जाता है। आज दिनभर इस व्रत-त्यौहार संबंधी सामग्री से बाजार अटा हुआ था। केले के हरे पौधे, नंदी के खिलौने, फल-मूल और सुहागिन औरतों के श्रृंगार के साजो-सामान लिए एक महिला की दुकान की तस्वीर लेने के लिए जब मैं आगे बढ़ा तो वह हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। गरीबी की दुहाई देने लगी। उसे लगा कि मैं कोई सरकारी आदमी हूँ जो सड़क पर दुकान लगाने के खिलाफ़ कार्यवाही करने वाला हूँ। मैंने उसे आश्वस्त किया लेकिन उसका चेहरा किसी अन्जानी आशंका से ग्रस्त होता देख मैं वापस मुड़ गया। हाँ, एक फोटो खींच लेने का लोभ-संवरण मैं फिर भी नहीं कर पाया।

आप जानते ही हैं कि भाद्रपद शुक्लपक्ष चतुर्थी के दिन महाराष्ट्र में गणपति की स्थापना होती है। उसके बाद महालक्ष्मी और दुर्गा के त्यौहार आ जाते हैं। इसप्रकार यहाँ त्यौहारों का मौसम पूरे उफ़ान पर है। ऐसे में इंद्रदेव की वक्रदृष्टि के शिकार विदर्भ के अधिकांश किसान विपरीत परिस्थितियों में भी पोला का पर्व धूमधाम से मना रहे हैं। लेकिन कुछ ने हिम्मत छोड़ दी और मौत को गले लगा लिया। यह विडम्बना देखकर मन परेशान है। क्या करे?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

त्रिवेणी महोत्सव में प्रयाग की धरती पर उतरे सितारे…।

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उन्नीस फरवरी से पच्चीस फरवरी तक लगातार सात दिनों तक इलाहाबाद में गीत, संगीत, नृत्य, कविता और शायरी की स्वर लहरियाँ यमुना नदी के तट पर बने शानदार मंच से बिखरती रहीं और रोज शाम को शहर का सारा ट्रैफिक बोट-क्लब मुक्तांगन की ओर मुड़ जाता रहा। सेवेन वण्डर्स ने जो विशाल मंच तैयार किया था उसकी शोभा देखते ही बनती थी। इस मंच पर जब पहले दिन उद्‌घाटन कार्यक्रम में आगरा से आये सुधीर नारायण ने अपने भजनो के साथ सुमधुर शुरुआत की तभी यह अन्दाज लग गया कि अगले कुछ दिन अभूतपूर्व आनन्द के रस में डूबने का अवसर मिलने वाला है।

उद्‌घाटन कार्यक्रम की औपचारिकता पूरी होने के तत्काल बाद श्रेया घोषाल ने एक रेल के डिब्बे से मंच पर उतरकर सबको रोमांचित कर दिया। दर्शक दीर्घा में शान्ति बनाए रखना पुलिस वालों के लिए असम्भव सा हो गया। एक के बाद एक हिट गानों को सजीव सुनते हुए दर्शक जोश में  खड़े होकर नाचते रहे, जाने कितनी कुर्सियाँ शहीद हुईं मगर जश्न का माहौल थमने का नाम नहीं ले रहा था। भगवान ने इस लोकप्रिय गायिका को जितना सुरीली आवाज दी है उतनी ही सुन्दरता से भी नवाज़ा है।

एक से बढ़कर एक उम्दा कार्यक्रम देखकर देर रात दो-तीन बजे घर लौटना, दिन भर उनींदी आँखों से दफ़्तर का काम निपटाना  और शाम होते ही फिर उसी महोत्सव का रुख कर लेना मेरा रूटीन बन गया… ऐसे में ब्लॉगिंग क्या खाक होती…? पिछली पोस्ट पर प्राप्त टिप्पणियों में लगभग सभी ने मुझसे रिपोर्ट की उम्मीद जतायी थी। मैने इसका मन भी बनाया था। कैमरा भी साथ लेकर जाता रहा, लेकिन सारी तैयारी धरी रह गयी। उस माहौल में तो बस झूम कर नाच उठने का मन करता था। डायरी कलम संभालने और फोटो खींचने की सुध ही नहीं रही। फिर भी आप लोगों को निराश नहीं करना चाहता हूँ। कुछ तस्वीरें जो मैने उतार ली थीं उनको देखकर माहौल का अन्दाज लगाइए। शेष बातें और वीडियो अगली पोस्ट में….

 

DSC02332 मंच की भव्यता देखते ही बनती थी

आइए देखते हैं कुछ यादगार तस्वीरें

 

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       जबर्दस्त आतिशबाजी

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मन्त्री जी ने उद्‍घाटन किया

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लोकनृत्य-राजस्थानी चाकरी

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लोकनृत्य-मणिपुरी

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लोकनृत्य-मथुरा की होली

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लोकनृत्य-कश्मीरी

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       श्रेया घोषाल

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बच्चों के साथ (बीच में वागीशा)

 

malini awasthi 

मालिनी अवस्थी की सज-धज एक भारतीय नारी की पारम्परिक वेश-भूषा में थी तो गायन में लोकरंग का अद्‍भुत पुट था। दर्शकों के बीच में जाकर उनसे सीधा सम्वाद करने की अदा ने सबका मन मोह लिया।

abhijit bhattacharya

अभिजीत दा ने अपने हिट गीतों से सबको मन्त्रमुग्ध तो किया ही उनके साथ आयी नृत्य मण्डली ने सभी नौजवानों को साथ थिरकने पर मजबूर कर दिया। दर्शकों की फ़रमाइश पर इन्होंने किशोर कुमार के सदाबहार गीत भी अलग अन्दाज में सुनाए।

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बच्चों, नौजवानों समेत सभी दर्शक अभिजीत दा से हाथ मिलाने और बात करने के लिए उन तक पहुँचना चाहते थे लेकिन इसका सौभाग्य मिला आयोजन से जुड़े अधिकारियों को, मुख्य अतिथि को और मंच की संचालक उद्‌घोषिका को

 

शान की लुटायी मस्ती बटोरने के लिए जब दर्शक अनियन्त्रित होने लगे तो आई.जी. और डी.आई.जी. खुद ही स्थिति संभालने के लिए खड़े हो गये (देखिए सबसे नीचे वाले बायें चित्र में)। भीड़ ने उनकी एक न सुनी। कार्यक्रम समय से पहले बन्द करना पड़ा। लेकिन तबतक सैकड़ों कुर्सियाँ टूट चुकी थीं जिनपर खड़े होकर नौजवानों ने डान्स किया था।

shaan

बहती हवा सा था वो… (शान)

शान और जूनू

  शान और जूनू


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पुलिस कप्तान हुए हलकान

DSC02496 मन्त्री जी द्वारा शान का सम्मान

तस्वीरें तो और भी ढेर सारी हैं लेकिन इनसे पेट तो भरने वाला है नहीं, इसलिए अब रहने देता हूँ। गिरिजेश भइया की इच्छा थी मालिनी अवस्थी की रिकॉर्डिंग सुनने की। मैने उसे रिकॉर्ड तो कर लिया है लेकिन सोनी के डिजिटल कैमरे में आवाज साफ़ नहीं रिकॉर्ड हो पायी है। सावधानी बरतते हुए मैने एनालॉग कैमरे (Handycam) से भी रिकॉर्ड किया है जो बहुत स्पष्ट और कर्णप्रिय है लेकिन इसको कम्प्यूटर में चढ़ाने के लिए एक कन्वर्टर की जरूरत है। मेरा टीवी ट्यूनर कार्ड अभी ऑडियो इनपुट नहीं ले रहा है। कोई तकनीकी विशेषज्ञ इसमें मदद कर सकता है क्या?

समीर जी मुझे आपकी फरमाइश भी याद है। लेकिन यही हाल कवि सम्मेलन का भी है। कैसेट में रिकॉर्डिंग मौजूद है लेकिन कम्प्यूटर पर कैसे चढाऊँ?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

हमें खेद है कि हम इनकी चर्चा न कर पाये-

उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के कलाकार, सुगन्धा मिश्रा (लाफ़्टर चैलेन्ज), हिमानी और तोषी, वडाली बन्धु, निज़ामी बन्धु, गुलाम अली, अमजद अली खान, कुँवर बेचैन, राहत इन्दौरी, बसीम बरेलवी, मुनव्वर राना, ताहिर फ़राज, प्रदीप चौबे, पद्‍मश्री रंजना गौहर (ओडिसी), नीरजा श्रीवास्तव(कत्थक), इमरान प्रतापगढ़ी, यश मालवीय, शबा बलरामपुरी और ढेर सारे अन्य कवि, शायर और कलाकार जिन्होंने दर्शकों को बाँधे रखा।

ब्लॉगिंग का राष्ट्रीय सेमिनार जो आज हो न सका…

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यदि तिथि बदली न होती और कार्यक्रम अपरिहार्य परिस्थितियों में टला न होता तो मैं आज १९ सितम्बर को इलाहाबाद में देश के अनेक मूर्धन्य चिठ्ठाकारों का दर्शन लाभ पाकर अभिभूत हो रहा होता। हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवारा, और हिन्दी मास की चर्चा-गोष्ठियों में आजकल जो कुछ हम पढ़-सुन रहे हैं उनमें इस महागोष्ठी की खूब चर्चा हो रही होती।

हिन्दी ब्लॉगों में जो बहसें आजकल नमूँदार हुई हैं उन्हें देखकर मन में अभी से लड्डू फूट रहे हैं। जब पुनः निर्धारित तिथि पर वाकई सेमिनार होगा तब इन महानुभावों के मुखारविन्दु से साक्षात्‌ ऐसी बातें सुनकर कैसा लगेगा? क्या एक दूसरे के बारे में हम वैसा ही कह-सुन पाएंगे जैसा इस आभासी संसार में अपने घर के भीतर बैठे-बैठे दूसरों के बारे में टिप्पणी या पोस्ट के माध्यम से ठेल देते हैं? बेनामी महात्माओं द्वारा जो घटियागीरी यहाँ दिखायी जाती है या फर्जी नाम वाले जैसी खरी-खरी यहाँ कह जाते हैं, क्या वहाँ भी साक्षात्‌ उपस्थित होकर मुँह खोलेंगे?

यहाँ अपने-अपने ज्ञान की शेखी बघारने वाले भी हैं, दूसरों को मूर्ख और पाजी समझने वाले भी हैं, भाषा को अपनी स्वतंत्र इच्छा का दास बनाने की चाह रखने वाले भी हैं, अपने लिखे को पत्थर की लकीर मानकर अड़े रहने वाले भी हैं, दूसरों की मौज लेने के फेर में अपनी मौज लुटाने वाले भी हैं, गलाफाड़ हल्ला मचाने के बाद धीरे-धीरे अनसुना कर दिए जाने के कारण अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर दूसरे व्यापार में लग जाने वाले भी हैं, दूसरे की लकुटी-कमरिया लेकर इस घमासान में नये सिरे से बहादुरी दिखलाने वाले भी है, तुरत-फुरत कविता रचकर वाह-वाह कहलाने वाले भी हैं और रोज़बरोज़ पोस्ट का मसाला जुगाड़ने के लिए डिजिटल कैमरा लेकर मुँह अन्धेरे नदी-तट की सैर को निकल जाने वाले भी हैं। बहुत से धीर-गम्भीर साहित्यानुरागी, हिन्दी सेवी, कविहृदय, सामाजिक चिन्तक, व्यंग्यकार, विज्ञान अन्वेषी, तकनीक के जानकार सुधीजन भी हैं जो इस माध्यम को समृद्ध कर रहे हैं।

ऐसी रंगीन दुनिया के सितारे जब आज के दिन अपने स्थूल शरीर और सूक्ष्म मस्तिष्क के साथ एक छत के नीचे एक साथ बैठकर आपस में बातचीत करते तो नजारा क्या होता? लन्च और डिनर के बर्तन साथ खड़काते तो क्या आनन्द आता?

यूँ तो इस सेमिनार के विषय पहले ही तय किये जा चुके थे, और कई ख्यातिनाम चिठ्ठाकारों को उन विषयों को प्रस्तुत करने की तैयारी करके आने के लिए भी बोल दिया गया था, लेकिन ऐन मौके पर कौन क्या बोलना शुरू कर दे इसका कोई ठिकाना न होने से मन में अनिश्चय का भाव भी बना ही हुआ था। इससे मिलने वा्ले सुख का रोमान्च भी कम न था। अब तो प्रतीक्षा आगे बढ़ गयी है।

कुछ विचारणीय शीर्षक जो सत्र विशेष और वार्ताकार विशेष के लिए आदरणीय अनूप जी, अरविन्द जी और दूसरे आदरणीयों से विचार-विमर्श के बाद निर्धारित किए गये थे-

  1. हिन्दी चिठ्ठाकारी का  इतिहास, स्वरूप और तकनीक
  2. हिन्दी चिठ्ठाकारी की दिशाएं: विज्ञान, राजनीति, समाज, धर्म/दर्शन, मनोरंजन
  3. अन्तर्जाल पर हिन्दी साहित्य और इसकी पठनीयता : कविता, कहानी, व्यंग्य, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरण और आपबीती
  4. अन्तर्जाल पर हिन्दी भाषा के कुशल प्रयोग के औंजार, ब्लॉग बनाने और तकनीकी प्रबन्धन के तरीके
  5. हिन्दी ब्लॉग जगत की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-
  • बहस के सामान्य मुद्दे
  • ब्लॉगिंग की  भाषा में शुद्धता बनाम सम्प्रेषणीयता
  • ब्लॉगजगत में गुटबन्दी और गिरोहबन्दी
  • अभिव्यक्ति की उन्मुक्तता और इसमें निहित खतरे
  • समूह ब्लॉगों की उपादेयता
  • चिठ्ठाकारी में समय प्रबन्धन
  • सामाजिक मुद्दों पर ब्लॉगजगत की प्रतिक्रियाएं
  • ब्लॉगजगत के कुंठासुर/बेनामी या छद्‍मनामी टिप्पणीकार
  • ब्लॉगजगत का आभासी परिवार और आन्तरिक गतिविधियाँ, ब्लॉगर कैम्प आदि।

ये सारी बातें मैं भूतकाल में कर रहा हूँ तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया।  आज यह सब मैं इस लिए बता रहा हूँ कि जो कार्यक्रम आज नहीं हो सका वह आगामी २४-२५ अक्टूबर को आयोजित किए जाने का निर्णय लिया जा चुका है।

महात्मा गान्धी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय जी ने स्वयं इस सेमिनार की परिकल्पना करते हुए इसके आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इलाहाबाद स्थित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के साथ मिलकर इस राष्ट्रीय स्तर के आयोजन की रूपरेखा बनायी जा चुकी थी। अतिथि वार्ताकारों और प्रतिभागियों के नाम तय किए जा चुके थे, बस निमन्त्रण पत्र भेंजने की तैयारी हो रही थी तभी कुलपति जी को कतिपय अपरिहार्य परिस्थितियों ने कार्यक्रम की तिथि आगे बढ़ाने पर मजबूर कर दिया। उनका खेद प्रकाश प्राप्त करने के बाद हम कुछ समय के लिए हतप्रभ हो गये थे। लेकिन उन्होंने तत्समय ही अगली तिथि भी निर्धारित कर दी।

MGAHV-logo प्रतीक चिह्न

हमारा उत्साह फिर कम नहीं हुआ है। हम तो अगली निर्धारित तिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब ऊपर गिनाए गये विषयों पर जोरदार सजीव बहस सुनने और देखने को मिलेगी। ब्लॉगजगत के अनेक भूतपुर्व और अभूतपूर्व लिक्खाड़ों से गलबहिंया डाले फोटू खिंचाने का मौका हाथ लगेगा। एक तरफ पारम्परिक साहित्य के पुरोधा होंगे तो दूसरी तरफ़ अन्तर्जाल पर बाइट बहाने और बटोरने वाले बटोही होंगे। आदरणीय कुलपति जी के औदार्य से कार्यक्रम का वित्तीय परिव्यय विश्वविद्यालय द्वारा वहन किया जाएगा तो हिन्दुस्तानी एकेडेमी का प्रांगण जो अबतक हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़ी प्रायः सभी भूतकालीन और वर्तमान विभूतियों का प्रत्यक्षदर्शी रहा है, अपनी गौरवशाली परम्परा और अहर्निश आतिथेय की भूमिका में पूरी निष्ठा से लगा होगा।

आप सभी अपनी रुचि के अनुसार मन ही मन तैयारी कर लीजिए। कार्यक्रम की सूक्ष्म रूपरेखा तैयार हो जाने और धनराशि का परिव्यय स्वीकृत हो जाने के बाद इसकी विधिवत घोषणा हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा अन्तर्जाल पर की जाएगी। मेरी तो इच्छा है कि जिस प्रकार इलाहाबाद के कुम्भमेला में सारा हिन्दुस्तान उमड़ पड़ता है उसी प्रकार यह कार्यक्रम भी एक विशाल ब्लॉगर महाकुम्भ साबित हो जाय। अन्तर्जाल की धारा में अपने-अपने घाट पर डुबकी लगाने वाले विविध चिठेरे प्रयाग की धरती पर आकर अपना अनुभव एक दूसरे से बाँटें और बाकी दुनिया को यह भी बतायें कि इक्कीसवीं सदी में संचार के क्षेत्र में जो तकनीकी क्रान्ति आयी है उसे हिन्दी सेवियों ने भी आत्मसात किया है और अब इस देवनागरी की पहुँच दुनिया के कोने-कोने में होने लगी है।

जब से यह कार्यक्रम टला मुझे निराशा ने ऐसा घेरा कि कुछ लिखते न बना। अब आज जब यह दिन भी बीत गया है तो इसकी चर्चा से ही बात शुरु कर सका हूँ। अभी इतना ही…।

आप सबको शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं और ईद मुबारक।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

ब्लॉगिंग कार्यशाला: पाठ-३ (डॉ.अरविन्द मिश्रा- साइंस ब्लॉगर)

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“हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया” के बारे में जो कार्यशाला इलाहाबाद में हुई उसकी तस्वीरें, विषय-प्रवर्तन, अखबारी चर्चा और अनूप शुक्ल जी की कथा-वार्ता आप पिछली कड़ियों में देख और पढ़ चुके है। अब आगे…

डॉ.अरविन्द मिश्रा.. अनूप जी की कथा-वार्ता के बाद इमरान ने हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वाले बनारस के डॉ. अरविन्द मिश्रा जी को आमन्त्रित किया। अरविन्द जी का साईंब्लॉग हिन्दी जगत के चिठ्ठों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वे पिछले कई दशक से विज्ञान के संचार के क्षेत्र में सक्रिय हैं। 

इन्होंने अपने वैज्ञानिक लेखों की लम्बी श्रृंखला में लोकप्रिय विज्ञान, जानवरों का व्यवहार, सौन्दर्य व सौन्दर्यशास्त्र (beauty and aesthetics), साँप और सर्पदंश, अन्तरिक्ष तथा धर्म और विज्ञान जैसे विषयों पर खोजपरक और उपयोगी लेखन किया है। 

विज्ञान की बात करनी हो और वह भी अन्तर्जाल पर इसके लेखन की बात करनी हो तो जाहिर है कि तकनीक का प्रयोग होना ही था। सो, इन्होंने विषय को ‘पॉवर प्वाइण्ट’ के माध्यम से प्रस्तुत किया। इमरान शायर बार-बार इसे ‘पॉवर प्रेजेण्टेशन’ कहते रहे और मैं दर्शकों की विपरीत प्रतिक्रिया की सम्भावना से शंकाग्रस्त होता रहा। डर था कि कहीं कोई इसे ‘शक्ति-प्रदर्शन’ न समझ बैठे।

खैर इमरान जी ने माइक थमाया तो अरविन्द जी ने भी सबसे पहले यही बताया कि इलाहाबाद के लिए वे मेहमान नहीं हैं। यहीं के विश्वविद्यालय से वर्ष १९८३ में उन्होंने प्राणिशास्त्र में डी.फिल. किया था। यहीं उनका alma mater है। यह अपने घर जैसा लगता है। बोले, “यहाँ लगता है जैसे कि मैं अपने माँ के पास आया हूँ।”

डॉ.अरविन्द मिश्रा

थोड़ी मशक्कत के बाद ही सही लेकिन ज्ञानदत्त पाण्डेयजी के नियन्त्रणाधीन लैपटॉप से निसृत होकर श्रोताओं के  सामने जमायी गयी स्क्रीन (श्‍वेत-पटल ) पर पहली स्लाइड चमक उठी। आगे की प्रत्येक स्लाइड में विषय वस्तु को कुञ्जी रूप में व्यवस्थित किया गया था। अरविन्द जी क्रम से उन विन्दुओं की व्याख्या करते रहे और ज्ञानजी ‘नेक्स्ट’ का निर्देश पाकर माउस से स्लाइड्स आगे बढ़ाते रहे। कहीं कोई भटकाव नहीं, कोई दुहराव नहीं। मुझे प्राइमरी में पढ़ी हुई विज्ञान की परिभाषा याद आने लगी।

यहाँ संक्षेप में इन झलकियों की विषय-वस्तु प्रस्तुत कर रहा हूँ:

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ब्लॉग क्या है?image

  • वेब+लॉग = ब्लॉग
  • १९९७- दुनिया में ब्लॉग्स का आविर्भाव
  • अब प्रत्येक दस सेकेण्ड में एक नया ब्लॉग बन रहा है।
  • वेब लॉग शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जे.बार्गर ने १९९७ में किया था।
  • इसमें प्रविष्टियाँ या पोस्टें उल्टे समयानुक्रम मेम दिखायी देती हैं- अर्थात्‌ आखिरी पोस्ट सबसे पहले प्रदर्शित होती है।smile_regular

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  • प्रविष्टियों में आलेख, चित्र, वीडियो, और दूसरे जालस्थलों की कड़ियाँ निहित होती हैं।
  • पाठक इन प्रविष्टियों पर टिप्पणी कर सकते हैं जिससे यह दो-तरफा आदान-प्रदान का अनुभव देता है।
  • इसमें आर.एस.एस. की फीड शामिल होती है।

imageब्लॉग बहुत सी भिन्न सामग्रियों से तैयार हो सकता  है…

  • व्यक्तिगत डायरी या पत्रक
  • समाचार और सूचना सेवा
  • चालू प्रोजेक्ट की रिपोर्ट्‍स
  • चित्र वीथिका
  • अन्तर्जाल की कड़ियों का संग्रह
  • इत्यादि… और भी बहुत कुछ

 

  • image विज्ञान की चिठ्ठाकारी
  • एक विज्ञान का चिठ्ठा वह है जिसे कोई विज्ञान-वेत्ता लिखे
  • शोध और व्यक्तिगत डायरी के तत्व शामिल हों
  • प्रायः विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर लिखा जाय
  • या दोनो बातें ही हों…।

इसे कैसे खोजें?image

  • ब्लॉगिंग इन्डेक्स और खोजी-इन्जन
  • टेक्नॉराती- http://www.technorati.com/
  • गूगल ब्लॉग खोज-
  • आपका संकलन कर्ता: जैसे- ब्लॉगवाणी, चिठ्ठाजगत, नारद

imageशब्दावली

  • ब्लॉगर: वह व्यक्ति जिसने ब्लॉग बना  रखा है और उसपर लिख-पढ़ रहा है।
  • ब्लॉगिंग: ब्लॉग बनाने और चलाने का कार्॥
  • ब्लॉगरोलिंग: ब्लॉगजगत में एक ब्लॉग से दूसरे ब्लॉग पर विचरण करना।
  • ब्लॉ्ग्‍रोलोडेक्स: दूसरे ब्लॉगों की सूची जो प्रायः अपने ब्लॉग के साइड-बार पर लगायी जाती है।
  • ब्लॉगेरिया: प्रतिदिन सैकड़ों पोस्टें पढ़ने और लिखने की सनक, विषय सबकुछ और कुछ भी।

 आर.एस.एस. क्या है?image

  • यह अन्तर्जाल पर अद्यतन जानकारी बाँटने का जुगाड़ है।
  • रिच साइट समरी
  • रियली सिम्पल सिण्डिकेशन,
  • आर.एस.एस. अन्तर्जाल पर चढ़ाई गयी प्रत्येक सामग्री सबको सुलभ कराता है।

imageसंकलक:

  • ब्लॉग संकलन कर्ता एक्स.एम.एल. जाल स्थलों को पूर्वनिर्धारित समय से संकलित करते हैं ( प्रत्येक मिनट से लेकर केवल अनुरोध के अनुसार अनियमित तौर पर कभी-कभार भी।)
  • शार्प रीडर (?)

विज्ञान चिठ्ठाकारीimage

यहाँ क्या-क्या हो सकता है…?

  • अन्धविश्वासों से भिड़न्त
  • छद्‍म विज्ञान का विरोध
  • वैज्ञानिक विनोदशून्य मशीन की भाँति चलायमान जीव नहीं हैं। उनमें भी सम्वेदनाएं हैं। उनके जीवन में भी ‘रास-रंग’ है।
  • विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर आधारित समाचारों पर सजग दृष्टि रखना
  • विज्ञान का इतिहास लेखन
  • विज्ञान का कला विषयों के साथ आमेलन
  • सीधे अपने कार्यक्षेत्र से चिठ्ठाकारी
  • सामुदायिक प्रकाशन: ब्लॉग महोत्सव का आयोजन
  • लोकप्रिय विज्ञान पत्रिकाओं के सम्पादकों द्वारा चिठ्ठाकारी

कुछ लोकप्रिय विज्ञान-विषयक ब्लॉग

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अरविन्द जी ने अपनी वार्ता में उदाहरण देकर समझाया कि किस प्रकार में अन्धविश्वासों ने जड़ जमा रखा है। ब्लॉगिंग के हथियार से इनका मूलोच्छेदन किया जा सकता है। यह सत्य है कि ‘बड़ी माता’ नामक बिमारी का उन्मूलन हो चुका है। लेकिन अभी भी प्रत्येक १०-१५ किलोमीटर पर शीतला माता का मन्दिर बना हुआ है। आज भी समाज कूप-मण्डूकता का शिकार बना हुआ है।

फलित ज्योतिष के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाने का काम हो रहा है। यह एक छद्‍म विज्ञान है। बाजारों में अनेक नीम-हकीम [क्वैकायुर्वेदाचार्य :)] लोगों की अशिक्षा और अन्धविश्वास पर पल रहे हैं।

आये दिन अखबारों में अवैज्ञानिक खबरें छपती रहती हैं। प्रायः हम पढ़ते हैं कि तस्करों से चीते की खाल बरामद हुई। जबकि भारत में चीता पाया ही नहीं जाता है। वस्तुतः Tiger का हिन्दी अनुवाद व्याघ्र ( देखें कामिल बुल्के)  है। किन्तु भार्गव की डिक्शनरी ने गलती से इसे चीता बता दिया। अब लिट्टे वाले भी तमिल चीता ही कहलाते हैं जो गलत है।

अरविन्द जी ने यह चर्चा भी किया कि विज्ञान को मानविकी से जोड़कर अनेक अच्छी पुस्तकें लिखी गयी हैं। आजकल चार्ल्स डार्विन की द्विशती मनायी जा रही है। उन्होंने विज्ञान का विशद लेखन किया। विज्ञान गल्प अब धीरे-धीरे डगमग कदमों से चलना शुरू कर रहा है। उन्होंने बताया कि सन्‌ १९०० में पहली विज्ञान कथा ‘चन्द्रलोक की यात्रा’ केशव प्रसाद सिंह जी ने लिखी थी जो तबकी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ में छपी थी।

यहाँ बताते चलें कि डॉ अरविन्द ने सभी वार्ताकारों को अपनी प्रतिनिधि विज्ञान कथाओं के संग्रह ‘एक और क्रौंच वध’ की प्रतियाँ भेंट कीं। इनमें उनकी लिखी बारह रोचक कहानियों का संकलन किया गया है। अरविन्द जी से अनुरोध है कि इन्हें अपने ब्लॉग पर यदि अबतक पोस्ट न किए हों तो अवश्य कर दें। पहले से मौजूद हो तो लिंक दें।

पोस्ट बहुत लम्बी होती जा रही है। अनूप जी की छाया पड़ गयी लगती है। अन्त में इतना बता दूँ कि इस वार्ता के अन्त में एक बुजुर्ग सज्जन ने यह सवाल दाग दिया था कि हिन्दी ब्लॉगिंग की चर्चा के कार्यक्रम में पॉवर प्वाइण्ट अंग्रेजी में क्यों दिखाया गया? अब इसका सम्यक उत्तर देने की जरूरत वहाँ नहीं समझी गयी, क्यों कि अरविन्द जी ने पूरी चर्चा हिन्दी में ही की थी। स्लाइड्‍स का प्रयोग केवल विषय पर केन्द्रित रहने के लिए किया गया था।

इस प्रकरण पर विस्तृत चर्चा ज्ञान जी की मानसिक हलचल पर हो चुकी है। यहाँ मैने उन स्लाइड्‍स का हिन्दी रूपान्तर करने की कोशिश की है। आशा है उन सज्जन की शिकायत भी दूर हो जाएगी। यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद।

…जारी

अगला पाठ:

डॉ. कविता वाचक्नवी- कम्प्यूटर में हिन्दी अनुप्रयोग

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया… गोष्ठी की तस्वीरें

45 टिप्पणियां

 

निर्धारित कार्यक्रम आशातीत सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। ब्लॉगिम्ग की पढ़ाई की रिपोर्ट तो बाद में दे पाऊंगा। अभी तस्वीरें देखिए:

Image026  बैकड्रॉप

ज्ञान दत्त पाण्डेय

समय के पाबन्द: ज्ञानदत्त जी

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अनूप शुक्ल, कविता वाचक्नवी, ज्ञानदत्त पाण्डेय

अनूप जी,

(बाएँ से)अनूप जी, कविता जी, ज्ञानजी, मुख्य अतिथि अपर पुलिस महानिदेशक एस.पी. श्रीवास्तव, डॉ.अरविन्द मिश्रा

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संयोजक-संचालक:इमरान प्रतापगढ़ी

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यहाँ भी शेरो-शायरी

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फूलों से स्वागत

बुके

बुके२

बुके५

बुके३ 

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कतार फूलों की

दीप

आओ दीप जलाएँ

दीप (3) दीप (4)

दीप (5)

दीप (6)

दीप (2)

दीप (7)

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विषय प्रवर्तन: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

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जिज्ञासु श्रोता

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अनूप ‘फुरसतिया’ जी

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कैसे शुरू हुई ब्लॉगिंग?

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तब दुनिया इतनी चमकीली नहीं थी

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डॉ. अरविन्द मिश्रा

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साइंस ब्लॉगिंग में अलग क्या है?

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स्मृति चिह्न के लिए ‘ब्रेक’ हुआ, मु.अ. को जल्दी जाना था

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हमें भी मिला जी…!

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धन्यभाग जो आप पधारे

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अब तक अंग्रेजी में ब्लॉग था, आज ही हिन्दी में खोल लूंगा: मु.अ.

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ब्लॉग का शीर्षक आकर्षक हो, सर्च के ‘चालू’ शब्द जानें

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कविता जी की बारी

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हिन्दी में कम्प्यूटिंग

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हिन्दी अनुप्रयोग

प

सचिव- हिन्दुस्तानी एकेडेमी डॉ.एस.के.पाण्डे (सबसे दाएँ) 

मेरी इच्छा थी कि इस राष्ट्रीय सेमिनार उर्फ़ ब्लॉगिंग की कक्षा की सफलता के किस्से और वार्ताकारों की खास बातें इनकी जुबानी ही सुनाता चलूँ। लेकिन अभी इतना ही। बाकी सब कुछ भी ठेलूंगा। लेकिन ब्रेक के बाद। नमस्कार…!

(सिद्धार्थ)

मैने यह दृश्य पहली बार देखा… आप भी देखिए!

28 टिप्पणियां

 

मेरे एक सीनियर अधिकारी कानपुर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में किसी काम से आ रहे थे। कानपुर से निकलते समय मुझे फोन किया। सुबह सात बजे मैं ‘मेयोहाल’ जाने के लिए बैडमिन्टन की किट टांगकर निकलने वाला ही था कि उन्होंने फरमाया-

बहुत दिनों बाद इलाहाबाद आ रहा हूँ। मेरे लिए फाफामऊ से दो बोरी खरबूज मंगा लो।

मैने सोचा शायद मजाक कर रहे होंगे। पूछा- दो बोरी कुछ ‘कम’ नहीं है?

बोले- मजाक नहीं कर रहा हूँ। सच में चाहिए।

मैने फिर पूछा- ये तरबूज वही न जो बड़ा सा हरा-हरा होता है? खाने में पानी टपकता है?

आदेश के स्वर में बोले- ज्यादा पूछो मत। तुरन्त निकल लो। देर हो जाएगी तो माल मिलेगा ही नहीं। दो बोरी लाना…।

मैंने मन की दुविधा को परे धकेल दिया। स्कूटर अन्दर किया। कार की चाभी ली, दो बोरे और सुतली रखा, और चल पड़ा। तेलियरगंज होते हुए गंगा जी के पुल को पार करते ही मन्जिल आ गयी। गाड़ी को सड़क किनारे खड़ा कर लिया।

किसी से अभीष्ठ स्थान का पता पूछने की जरुरत नहीं पड़ी। पुल समाप्त होते ही गंगा की रेत में पैदा होने वाले तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी इत्यादि की सड़क पर लगने वाली थोक बाजार बिल्कुल सामने थी। कुछ ट्रैक्टर ट्रॉलियों से माल उतर रहा था। तरबूज के पहाड़ सड़क के किनारे जमाए जा रहे थे। अन्य माल थोड़ा कम मात्रा में था।

मैं मोल-भाव करने और पूरी बाजार में न्यूनतम मूल्य पता करने के उद्देश्य से मुख्य सड़क की पूर्वी पटरी से निकलने वाली छोटी सड़क पर आगे बढ़ गया जो नदी के तट पर जाती है। इस राह पर शवदाह प्रक्रिया से सम्बन्धित सामग्रियों की दुकाने भी हैं लेकिन मुझे उनमें कोई रुचि न थी।

सुबह के वक्त मैने वहाँ जो दृश्य देखा वह मेरे लिए बिल्कुल नया था। सड़क के किनारे पंक्तिबद्ध होकर पीठ पर तरबूजों से भरे विशेष आकृति के विशाल पात्र (छेंवकी) लादे पूरे अनुशासन से बैठे हुए दर्जनों ऊँटों की श्रृंखला देखकर मुझे थोड़ी हैरत हुई। अपने लम्बे पैरों को जिसप्रकार मोड़कर और शरीर को सिकोड़कर ये बैठे हुए थे उन्हें देखकर झटसे मेरा मोबाइल कैमरा चालू हो गया।

पहली तस्वीर तो चित्र-पहेली के लायक है। लेकिन मेरे पास धैर्य की कमी है इसलिए सबकुछ अभी दिखा देता हूँ:

तरबूज (2)

इसको ठीक से समझ पाने के लिए आगे से देखना पड़ेगा:

तरबूज

इन्हें इनके मालिक ने अलग बैठा दिया है। शायद डग्गामारी का इरादा है।

तरबूज (4)

असली पाँत वाले तो यहाँ हैं:

तरबूज (3) 

इस दृश्य को आपतक पहुँचाने का उत्साह मेरे मन में ऐसा अतिक्रमण कर गया कि मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि मुझे क्या-क्या खरीदना था। मैने दो बोरी तरबूज खरीद डाले। दो अलग-अलग दुकानों से ताकि सारे खराब होने की प्रायिकता आधी की जा सके। गंगाजी की रेती में उपजा ताजा नेनुआ और खीरा भी मिल गया। लेकिन गड़बड़ तो हो ही गयी…।

जब हमारे मेहमान सपत्नीक पधारे तो घर के बाहरी बरामदे में ही दोनो बोरियाँ देखकर खुश हो गये। मैने भी चहकते हुए बताया कि इन्हें मैं अपने हाथों खरीदकर और गाड़ी में लाद कर लाया हूँ। उन्होंने बोरी का मुँह खोलकर देखा तो उनका अपना मुँह भी खुला का खुला रह गया…।

मैंने उनके चेहरे पर आते-जाते असमन्जस के भाव को ताड़ लिया। “ सर, क्या हुआ। आपने तरबूज ही कहा था न…?”

“नहीं भाई, मैंने तो खरबूज कहा था। लेकिन कोई बात नहीं। यह भी बढ़िया है।” मैने साफ देखा कि उनके चेहरे पर दिलासा देने का भाव अधिक था, सन्तुष्टि का नहीं…।

…ओफ़्फ़ो, …खरबूज तो पीला-धूसर या सफेद होता है। कुछ हरी-हरी चित्तियाँ होती हैं और साइज इससे काफी छोटी होती है। मुझे वही लाना था लेकिन ऊँटों के नजारे में कुछ सूझा ही नहीं। ढेर तो इसी तरबूज का ही लगा था।

मैने ध्यान से सोचा और कहा; “वो खरबूज तो वहाँ इक्का-दुक्का दुकानों पर ही था और अच्छा नहीं दिख रहा था।”

“हाँ अभी उसकी आवक कम होगी। लेकिन फाफामऊ का खरबूज जितना मीठा होता है उतना कहीं और का नहीं। जब कभी मौका मिले तो जरूर लाना” वे मेरे उत्साह को सम्हालते हुए बोले।

परिणाम: जाते-जाते वे एक बोरी तरबूज तो ले गये लेकिन दूसरी बोरी मेरे गले पड़ी है। तीन दिन से सुबह-दोपहर-शाम उसी का नाश्ता कर रहा हूँ। पर है तो बड़ा मीठा। यही सन्तोष की बात है। 🙂

(सिद्धार्थ)

ब्लॉगिंग के दिग्गज प्रयाग में पढ़ाने आ रहे हैं…

24 टिप्पणियां

 

हिन्दी पट्टी में तीर्थराज प्रयाग की पुण्यभूमि पठन-पाठन और बौद्धिक चर्या के लिए भी अत्यधिक उर्वर और फलदायक रही है। यहाँ ‘पूरब के ऑक्सफोर्ड’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय और अन्य आनुषंगिक संस्थानों से निकलने वाली प्रतिभाएं न सिर्फ भारत अपितु पूरी दुनिया में सफलता के प्रतिमान स्थापित कर चुकी हैं। देश-प्रदेश को अनेक साहित्यकार, राजनेता, योग्य प्रशासक, राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री दे चुके इस पौराणिक शहर की पहचान बौद्धिक क्षेत्र में उत्कृष्ट कोटि की है।

इस शहर की आबो-हवा ही ऐसी है कि इसमें साँस लेते ही मैंने दस साल के ब्रेक के बाद अपनी किताबों की धूल साफ कर ली, कलम में रोशनाई भर ली, और सरकारी नौकरी के कामकाज से अलग कुछ लिखना-पढ़ना शुरू कर दिया। जल्द ही कम्प्यूटर आया, फिर इण्टरनेट लगा और देखते-देखते ब्लॉगिंग शुरू हो गयी। राजकीय कोषागार का लेखा-जोखा रखने वाला एक साधारण मुलाजिम ‘ब्लॉगर’ बन गया। …लेकिन ठहराव इसके बाद भी नहीं है।

अभी और आगे बढ़ना है। यहाँ प्रयाग में कदाचित्‌‌‌ एक अदृश्य शक्ति है जो लगातार रचनाशीलता और बौद्धिक उन्नयन की नयी भूमि तलाशने को प्रेरित करती है। गंगा-यमुना के प्रत्यक्ष संगम के बीच अदृश्य सरस्वती युगों-युगों से शायद इसी शक्ति को परिलक्षित करती रही है।

यह जानी पहचानी भूमिका मैं यहाँ इसलिए दे रहा हूँ कि इलाहाबाद में फिर से एक नया काम होने जा रहा है। वह है ब्लॉगिंग की पढ़ाई। जी हाँ, कुछ होनहार व जिज्ञासु विद्यार्थियों और कलम के सिपाहियों को तराशने और भविष्य के नामी ब्लॉगर बनाने के लिए इस माउसजीवी दुनिया के कुछ बड़े महारथी एक दिन की क्लास लेने आ रहे हैं।

दुनिया में ब्लॉगिंग का जो भी सामान्य या विशिष्ट स्वरूप हो भारत में हिन्दी ब्लॉगिंग निश्चित रूप से कुछ अलग किस्म की है। इस देश में लिखने पढ़ने और बौद्धिक जुगाली करने के अनेक स्तर हैं। गाँव देहात की बैठकबाजी के अड्डे हों, कस्बाई चौराहों की चाय-बैठकी हो, बड़े शहरों का अखबारी क्लब हो, शिक्षण संस्थाओं का सेमिनार हाल हो या महानगरों का कॉफी हाउस हो, मीडिया सेन्टर हो या संसद का गलियारा हो। प्रत्येक जगह बहस चलाने वाले अपनी एक अलग विशिष्ट शैली के साथ मौजूद रहते हैं। लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग एक ऐसा अनूठा माध्यम है जिसमें ऊपर गिनाये गये सभी स्तर तो समाहित होते दिखते ही हैं, यहाँ कुछ अलग किस्म की छवियाँ भी उभरती हैं जो अन्यत्र मिलनीं असम्भव हैं।

इसी अनूठे माध्यम के अलग-अलग आयामों पर चर्चा करने के लिए देश के सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित चिठ्ठाकारों में से चार विभूतियाँ एक साथ एक छत के नीचे जिज्ञासु कलमकारों को ब्लॉगिंग के गुर बताएंगी। कार्यक्रम की रूपरेखा निम्नवत है:

तिथि व समय

शुक्रवार, ०८ मई; सायं: ५:३० बजे से

स्थान

निराला सभागार, दृ्श्यकला विभाग-इलाहाबाद विश्वविद्यालय

आयोजक

ताजा हवाएं-इमरान प्रतापगढ़ी

मुख्य वक्ता

प्रतिनिधि ब्लॉग

वार्ता का विषय

ज्ञानदत्त पाण्डेय

मानसिक हलचल

ब्लॉगिंग का नियमित प्रबन्धन

अनूप शुक्ल

फुरसतिया, चिठ्ठा चर्चा

ब्लॉगिंग की दुनिया में हिन्दी चिठ्ठाकारी की यात्रा

डॉ.अरविन्द मिश्रा

साई ब्लॉग, क्वचिदन्यतोअपि

साइंस ब्लॉगिंग की दुनिया

डॉ.कविता वाचक्नवी

स्त्री विमर्श, हिन्दी-भारत

हिन्दी कम्प्यूटिंग, अन्तर्जाल में हिन्दी अनुप्रयोग

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

सत्यार्थमित्र

विषय प्रवर्तन और प्रश्नोत्तर-काल

कार्यक्रम में आमन्त्रित श्रोताओं की जिज्ञासा को शान्त करने के बाद उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे रचनाशीलता के इस रोचक और अनन्त सम्भावनाओं वाले माध्यम को अपनाकर इलाहाबाद से उठने वाली इस ज्योति को दूर-दूर तक ले जाएं और पूरी दुनिया को हिन्दी चिठ्ठाकारी के प्रकाश से रौशन करें।

विश्वविद्यालय के फोटो पत्रकारिता एवं दृश्य संचार विभाग के होनहार छात्र और वर्तमान में बड़े कवि सम्मेलनों और मुशायरों के लोकप्रिय और चर्चित हस्ताक्षर इमरान प्रतापगढ़ी ने जब अपनी तरह के इस पहले कार्यक्रम का प्रस्ताव मेरे समक्ष रखा तो मुझे इसे सहर्ष स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं हुई। मैने इस उत्साही नौजवान द्वारा आयोजित एक अनूठा कार्यक्रम पहले भी देखा था। मैं आश्वस्त था कि प्रयाग की परम्परा के अनुसार एक उत्कृष्ट आयोजन करने में इमरान जरूर सफल होंगे।

(सिद्धार्थ)

वाह भोजपुरी… वाह!

20 टिप्पणियां

 

हिन्दी और संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान, मनीषी, आचार्य और ग्रन्थकार पं. विद्या निवास मिश्र जी के सारस्वत जीवन पर ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक का विशेषांक निकालने की तैयारी हिन्दुस्तानी एकेडेमी में की जा रही है। इसी सिलसिले में मुझे उनकी कुछ पुस्तकों को देखने का अवसर मिला।

भारतीय दर्शन, संस्कृति और लोकसाहित्य के प्रखर अध्येता और अप्रतिम उपासक श्री मिश्रजी अपने बारे में एक स्थान पर गर्व से स्वयं बताते हैं; “…वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्छिन्न प्रवाह की उपलब्धि होती है, उस भारतीय भावधारा का मैं स्नातक हूँ।”

यूँ तो उन्होंने भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज पर केन्द्रित विपुल मात्रा में शोधपरक लेखन किया है और विविध विषयों पर लिखे उनके ललित निबन्ध सर्वत्र प्रशंसित हुए हैं, लेकिन मैं यहाँ भोजपुरी लोकसंस्कृति का परिचय कराती उनकी पुस्तक वाचिक कविता : भोजपुरी का जिक्र करना चाहूंगा। इस पुस्तक ने मुझे इस प्रकार बाँध लिया कि कई जरूरी काम छोड़कर मैने इसे आद्योपान्त पढ़ डाला। अब इस अद्‌भुत सुख को आपसे बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।वाचिक कविता भोजपुरी

पुस्तक वाचिक कविता: भोजपुरी
संपादक विद्यानिवास मिश्र
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ (लोकोदय ग्रन्थमाला-६४१)
पता १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड
नई दिल्ली- ११००३२

इस पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी माटी में पले-बढ़े श्री मिश्र जी ने लोकसाहित्य के शिल्प विधान पर एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। जिनकी रुचि इसमें है वे पुस्तक खोजकर जरूर पढ़ें। मैं तो इस पुस्तक से आपको सीधे भोजपुरी माटी की सुगन्ध बिखेरती कुछ पारम्परिक रचनाओं का रसपान कराना चाहता हूँ।

कजली

रुनझुन खोलऽ ना हो केवड़िया, हम बिदेसवा ज‍इबो ना

जो मोरे सँइया तुहु ज‍इबऽ बिदेसवा, तू बिदेसवा ज‍इबऽ ना

हमरा बाबा के बोला दऽ, हम न‍इहरवा ज‍इबो ना

जो मोरी धनिया तुहु ज‍इबू न‍इहरवा, तू न‍इहरवा ज‍इबू ना

जतना लागल बा रुप‍इया ततना देके ज‍इहऽ ना

जो मोरे सँइया तुहु लेबऽ रुप‍इया, तू रुपइया लेबऽ ना

ज‍इसन बाबा घरवा रहलीं त‍इसन क‍इके ज‍इहऽ ना

[“रुनझुन (प्रिया, पत्नी)! दरवाजा खोलो, अब मैं विदेश जाऊँगा।” “मेरे प्रियतम! यदि तुम विदेश जाओगे तो मेरे पिताजी को बुला दो। मैं मायके चली जाऊँगी” “मेरी धनिया! यदि तुम्हें मायके जाना है तो (तुमपर) जितना रुपया खर्च हुआ है वह देकर ही जाना” “मेरे पति! यदि तुम रुपया (वापस) लेना चाहते हो तो मुझे वैसा ही वापस बना दो जैसी मैं अपने बाबा के घर पर थी”]

बेटी-विवाह (कन्यादान)

कवन गरहनवा बाबा साँझे जे लागे, कवन गरहनवा भिनुसार

कवन गरहनवा बाबा मड़वनि लागे, कब होइहें उगरह तोमार

चन्दर गरहनवा बेटी साँझे जे लागे, सुरुज गरहनवा भिनुसार

धिया गरहनवा बेटी मड़वनि लागे, कबहूँ न उगरह हमार

र‍उरा जे बाटे बाबा हंसराज घोड़वा सोनवे गढ़ावल चारो गोड़

ऊहे घोड़‍उआ बाबा धिया दान करबऽ, तब होइहें उगरह तोहार

बाभन काँपेला, माँड़ो काँपेला, काँपेला नगर के लोग

गोदी बिटिउआ लेले काँपेलें कवन बाबा, अब होइहें उगरह हमार

कथि बिना बाबा हो हुमियो ना होइहें, कथि बिना ज‍उरी न होइ

कथि बिना बाबा हो जग अन्हियारा कथि बिना धरम न होइ

घिव बिना बेटी हो हुमियो ना हो‍इहें, दूध बिना ज‍उरी न होइ

एक पुतर बिना जग अन्हियारा, धिया बिना धरम न होइ

[“बाबा! कौन ग्रहण साँझ को लगता है, कौन ग्रहण सुबह, कौन ग्रहण (विवाह) मण्डप में लगता है, (जिससे) तुम्हारा उग्रह कब होगा ?” “बेटी!चन्द्र ग्रहण साँझ को, सूर्य ग्रहण सुबह और पुत्री-ग्रहण मण्डप में लगता है, (जिससे) मेरा उग्रह कभी नहीं होगा।” “बाबा! आपके पास हंसराज घोड़ा है जिसके चारो पैर सोने से मढ़े हुए हैं। उसी घोड़े को कन्यादान में दे दीजिए (तो) आपका उग्रह हो जाएगा।” ब्राह्मण काँपता है, मण्डप काँपता है, नगर के लोग काँपते हैं, बेटी को गोद में बिठाए बाबा काँपते हैं (क्या) अब मेरा उग्रह होगा!” “बाबा! किसके बिना होम नहीं हो सकेगा, किसके बिना खीर नहीं बन सकेगी, किसके बिना दुनिया अन्धेरी होती है और किसके बिना धर्मपालन नहीं हो सकता?” “बेटी! घी के बिना होम व दूध के बिना खीर सम्भव नहीं और पुत्र के बिना दुनिया अन्धेरी होती है और पुत्री के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता।”]

इस पुस्तक में भोजपुरी लोकपरम्परा में रचे बसे अनेक विलक्षण गीतों को विविध श्रेणियों में बाँटकर सजोया गया है। इस विद्वान विभूति ने इन गीतों का अत्यन्त रसयुक्त और भावप्रवण हिन्दी अनुवाद भी कर दिया है जिससे भोजपुरी से अन्जान हिन्दी भाषी पाठक भी इसका रसास्वादन कर सकते हैं। श्रेणियों पर ध्यान दीजिए;

१.सुमिरल– मइया गीत, छठी मइया, पताती, संझा, बिरहा, सुमिरन की होली, सुमिरन का चैता, कजली, भजन, निरगुन, कन्हैया जागरण,

२.कहल- सोहर, खेलवना, नेवतन, सिन्दूर दान, सुहाग, जोग, झूमर, बहुरा गीत, हिन्डोला गीत, बेटी विदाई, जँतसार, मार्ग गीत, फगुई, कजली, होरी, बारहमासा, चैती, नेटुआ गीत, कँहार गीत, गोंड़ गीत,

३.बतियावल– जनेऊ, सोहर, कजली, बेटी विवाह, कन्यादान, विदाई, जँतसार, रोपनी गीत, सोहनी गीत, चइता

४.कथावल– सोहर, चैता, मार्गगीत, बारहमासा, कजरी, शिवविवाह, कलशगाँठ, बिरहा, रोपनी गीत,

इन श्रेणियों में जो अतुलित लोकरंग समाया हुआ है उसका रसास्वादन एक विलक्षण अनुभूति दे जाता है। पं.विद्यानिवास मिश्र जी की यह सुकृति अपनी माटी के प्रति अगाध श्रद्धा और सच्ची सेवाभावना और अपनी संकृति के प्रति उनकी निष्ठा की पुष्ट करती है।

सांस्कृतिक आदान प्रदान

vidyaniwas“…विलायती चीजों के आदान से मुझे विरोध नहीं है, बशर्ते कि  उतनी मात्रा में प्रदान करने की अपने में क्षमता भी हो। इस सिलसिले में मुझे काशी के एक व्युत्पन्न पंडित के बारे में सुनी कहानी याद आ रही है। उन पंडित के पास जर्मनी से कुछ विद्वान आये (शायद उन दिनों जो विद्वान संस्कृत सीखने आते थे, उनका घर जर्मनी ही मान लिया जाता था, खैर) और उनके पास टिक गये। स्वागत-सत्कार करते-करते पंडित जी को एक दिन सूझ आयी कि इन लोगों को भारतीय भोजन भारतीय ढंग से कराया जाये। सो वह इन्हें गंगा जी में नौका-विहार के लिए ले गये और गरमा-गरम कचालू बनवाकर भी लेते गये। नाव पर कचालू दोने में परसा गया, पंडित जी ने भर मुँह कचालू झोंक लिया, इसलिए उनकी देखादेखी जर्मन साहबों ने भी काफी कचालू एक साथ मुँह में डाला, और बस मुँह में जाने की देरी थी, लाल मिर्च का उनके संवेदनशील सुकंठ से संस्पर्श होते ही, वे नाच उठे और कोटपैंट डाले ही एकदम गंगा जी में कूद पडे। किसी तरह मल्लाहों ने उन्हें बचाया। पर इसके बाद उनका ‘अदर्शनं लोपः’ हो गया।”

दूसरे लोगों ने पंडित जी को ऐसी अभद्रता के लिए भलाबुरा कहा तो उधर से जवाब मिला, “…इन लोगें ने हमें अंडा-शराब जैसी महँगी और निशिद्ध चीजें खानी सिखलायीं तो ठीक और मैंने शुद्ध चरपरे भारतीय भोजन की दीक्षा एक दिन इन लोगों को देने की कोशिश की तो मैं अभद्र हो गया ?’’

…परन्तु मैं साहित्य में ऐसे आदान-प्रदान का पक्षपाती नहीं हूँ। सूफियों और वेदान्तियों के जैसे आदान-प्रदान का मैं स्वागत करने को तैयार हूँ, नहीं तो अपनी बपौती बची रहे, यही बहुत है।

विद्यानिवास मिश्र- ‘चितवन की छाँह’ में

यदि आपने पसन्द किया तो कुछ और रचनाएं आगे की कड़ियों में प्रस्तुत कर सकता हूँ।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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