रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है…

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हमें स्कूल में भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ विषय पर निबन्ध रटाया गया था। इसमें एक विशेषता थी- सहिष्णुता। इस विशेषता को लेकर मेरे मन में कौतूहल होता रहा है। भूख, भय, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदा या किसी दुर्घटना  से उत्पन्न दुख व विपत्ति को सहन कर लेने की क्षमता यदि हमारे भीतर प्रचुर मात्रा में है तो अच्छा ही है। हमें उस विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने में मदद मिलती है। लेकिन यदि इस फेर में हमें कुछ भी सह लेने की आदत पड़ जाय तो वही होता है जो भारत के साथ हुआ है। इतिहास बताता है कि किस तरह हमने विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं को भी आराम से सहन कर लिया। घर बुलाकर मेहमान बनाया और फिर मालिक बनाकर देश की राजगद्दी सौंप दी। एक के बाद एक भ्रष्टाचारी कीर्तिमान हमारी आँखों के सामने बनते जाते हैं और हम मूक दर्शक बनकर या “अन्ना हजारे जिन्दाबाद” का नारा लगाकर घर बैठ जाते हैं। हमारे भीतर अन्याय, अत्याचार, शोषण, और भ्रष्टाचार के प्रति गजब की सहनशक्ति विकसित हो चुकी है। इस उपलब्धि के पीछे हमारी भारतीय रेल का भी थोड़ा हाथ है इसका विचार मेरे मन में पिछली यात्रा के दौरान प्रकट हुआ।

मेरा अनुभव कुछ नया नहीं है। आप सबको इस स्थिति का सामना आये दिन होता होगा। एक आम भारतीय के लिए रेलगाड़ी से यात्रा करना अपनेआप में एक मजबूरी है। एक मात्र सस्ता और टिकाऊ विकल्प यही है, सुन्दर भले ही न हो। a-crowded-passenger-trainलम्बी दूरी की गाड़ियो के जनरल डिब्बे किस प्रकार जीवित मानव देह की लदान करते हैं; और जायज टिकट वालों को भी किसप्रकार थप्पड़ खानी पड़ती है और अंटी ढीली करनी पड़ती है, यह वर्णनातीत है। मैं उस चरम स्थिति की चर्चा नहीं कर रहा हूँ। मैं तो अपेक्षाकृत अधिक सुविधा सम्पन्न श्रेणियों में यात्रा करने वालों में से एक होकर उससे प्राप्त अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की रक्षा में अनुपम योगदान दे रही है।Open-mouthed smile

हाल ही में मुझे अपनी माता जी के खराब स्वास्थ्य की चिन्ता से गोरखपुर जाना हुआ। वहाँ से लखनऊ वापसी की यात्रा रविवार 25 जुलाई, 2011 को अवध एक्सप्रेस से करनी थी जिसका निर्धारित समय दोपहर 1:15 का था। गाड़ी पकड़ने से पहले मुझे अम्मा को हड्डी के डॉक्टर से दिखाना था। अलस्सुबह उठकर मैंने डॉक्टर के यहाँ नम्बर लगाया, क्‍लिनिक खुलने पर लाइन लगाया, डॉक्टर ने प्रारम्भिक जाँच के बाद डिजिटल एक्स-रे के लिए अन्यत्र भेजा। वहाँ एक घंटे लगे। वापस आकर उन्होंने रिपोर्ट देखी और दवाएँ लिखने के बाद दो अन्य विशेषज्ञ चिकित्सकों (न्यूरोलॉजिस्ट और गैस्ट्रोइंटेरोलॉजिस्ट) को रेफ़र कर दिया। दोनो जगह जाने पर पता चला कि रविवार होने से इनके क्‍लिनिक बन्द थे। मेरे बड़े भैया ने कहा कि वे अम्मा को अगले दिन दिखा देंगे। यानि मुझे अब लखनऊ की गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन जाना चाहिए। मैं यह सब दौड़-धूप करता हुआ लगातार मोबाइल से गाड़ी के प्रस्थान समय की सूचना ले रहा था।

गाड़ी 50 मिनट लेट होने की कम्प्यूटरीकृत सूचना मोबाइल पर एक बार शुरू हुई तो अन्ततक रिकार्ड बदला नहीं गया। मैं उसी के अनुसार स्टेशन पहुँचा तो पू्छताछ केन्द्र पर लगा बोर्ड गाड़ी के 30 मिनट देरी से  7-नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर आने की सूचना दे रहा था। मेरे हाथ पाँव फूल गये। दौड़ता-भागता हुआ मैं ओवरब्रिज पर चढ़कर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-7 पर उतरा। एक दिक्कत यह भी हुई कि ओवरब्रिज से प्‍ले‍टफॉर्मों पर उतरने वाली सीढ़ियों के पास प्‍ले‍टफॉर्म संख्या दर्शाने वाले बोर्ड नदारद थे। मुझे एक मिनट रुककर पहले नम्बर से गिनती करते हुए सातवें नम्बर का अनुमान लगाना पड़ा।

प्‍ले‍टफॉर्म पर अधिकांश यात्री अपना सामान हाथ में संभाले गाड़ी आने की दिशा की ओर देख रहे थे। मुझे आश्वस्ति हुई कि अभी गाड़ी आयी नहीं है, बल्कि कुछ ही देर में आने वाली है। दस-पन्द्रह मिनट बीते और गाड़ी नहीं आयी तो सबने अपने हाथ में टँगा सामान नीचे रखना शुरू किया और अपनी जगह पर वापस आने लगे। कुछ देर खड़ा रहने के बाद मैं भी थकान के कारण बैठने की जगह खोजने लगा। सारी बेन्चें क्षमता से अधिक भार से लदी हुई थीं। रेलगाड़ी चलाने वाले गार्ड्स के उपयोग हेतु बने लकड़ी या लोहे के बक्से बड़ी मात्रा में वहीं बिखरे पड़े थे। उनपर भी यात्रियों ने कब्जा जमा रखा था। एक जगह बक्से एक के ऊपर एक रखे हुए थे जो ऊँचे हो जाने के कारण खाली थे। मैं उचककर ऐसे ही एक बक्से पर बैठ गया। निचले बक्से के कोने की टिन फटी हुई थी जिसमें मेरे पैंट की मोहरी उलझ गयी लेकिन संयोग से कोई चीरा नहीं लगा।

मोबाइल पर कम्प्यूटरीकृत सूचना अभी भी वास्तविक आगमन समय 13:55 और वास्तविक प्रस्थान समय 14:00 बजे का बता रही थी जबकि सवा दो बज चुके थे और गाड़ी का कुछ पता नहीं था। कुछ देर बाद सात नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर ही दूसरी दिशा से (लखनऊ की ओर से) एक गाड़ी आकर रुकी। इस पर भी अवध एक्सप्रेस लिखा था। कुछ लोग इसपर चढ़ने का उपक्रम करने लगे। ये वो थे जिन्हें अपने गन्तव्य की सही दिशा का ज्ञान नहीं था। गनीमत थी कि यह इस गाड़ी का आखिरी स्टेशन था और यात्रियों के उतरने के बाद रेलकर्मी इसकी खिड़कियाँ और दरवाजे बन्द करने लगे। मुझे अब यह चिन्ता हुई कि इस गाड़ी के प्‍ले‍टफॉर्म खाली करने में कम से कम आधे घंटे तो लगेंगे ही, इसलिए मेरी गाड़ी अभी आधे घंटे और नहीं आ सकेगी। तभी घोषणा हुई कि अवध एक्सप्रेस थोड़ी ही देर में दूसरी ओर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-6 पर आ रही है। सभी यात्री अपना सामान उठाकर उसी प्‍ले‍टफॉर्म पर एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ हो लिए।

three_tier_air_conditioned_करीब सवा तीन बजे गाड़ी नमूदार हुई। हम थके-हारे अपना ए.सी. थर्ड कोच नम्बर-B2 ढूँढकर उसके बर्थ संख्या-11 पर पहुँचे। यह सबसे ऊपर की बर्थ मैंने जानबूझकर ली थी ताकि दिन में भी आराम से लेटकर यात्रा की जा सके। थकान इतनी थी कि तुरन्त सो जाने का मन हुआ। मैंने अटेन्डेन्ट को खोजकर तत्काल बेडरोल ले लेने का सोचा लेकिन वह अपने स्थान पर नहीं मिला। मैं अपनी बर्थ पर लौट आया और यूँ ही लेट गया। सामने की बर्थ से पहले से प्रयोग की जा चुकी एक तकिया लेकर अपने सिर को आराम दे दिया। गाड़ी चल चुकी थी। पन्द्रह-बीस मिनट बाद जब टीटीई साहब आये तो मुझे नींद लग चुकी थी। उनके जगाने पर मैंने आँखें मूँदे हुए ही जेब से टिकट और फोटो आईडी (PAN Card) निकाला और उनकी ओर बढ़ाते हुए अनुरोध किया कि बेडरोल वाले को चादर के साथ भेज दें। उनके आश्वासन से सन्तुष्ट होकर मैं करवट बदलकर सो गया।

करीब एक घंटे बाद एक स्टेशन पर कुछ और यात्री चढ़े। उनका टिकट देखने टीटीई साहब दुबारा आये तो मैंने उठकर बेडरोल की बात याद दिलायी। वे चकित होकर बोले- मैंने तो उससे तभी कह दिया था, क्या अभी तक नहीं दिया उसने? यह कहते हुए वे तत्परता से किनारे की ओर गये और थोड़ी देर में एक लड़के के साथ वापस आये। यह कोच अटेन्डेन्ट था। टीटीई ने उससे कहा कि इन्हें बताओ कि मैंने तुमसे बेडरोल के लिए कहा था कि नहीं। वह बोला- अच्छा, दे देंगे। उसकी लापरवाह शैली से मुझे झुँझलाहट हुई। मैंने अधीर होकर पूछा- कबतक दे दोगे। लखनऊ पहुँच जाने के बाद? इस पर वह तैश में आ गया और बोला- जाओ, नहीं दूँगा (मानो कह रहा था- क्या कल्लोगे!) मैं हतप्रभ सा हो गया। टीटीई साहब को भी यह बहुत बुरा लगा। वे उसे डाँटने जैसा कुछ कहने लगे। उसमें यह बात भी शामिल थी  कि उस लड़के के साथ ही अक्सर ऐसा लफड़ा हो जाता है। मैंने उनसे पूछा- क्या आपके पास इसकी शिकायत दर्ज करने का कोई अधिकार नहीं है? आप मेरी ओर से लिखित शिकायत दर्ज कर लीजिए और उच्चाधिकारियों के संज्ञान में लाइए।

मेरी इस बात पर टीटीई साहब थोड़े संजीदा हो गये। सकुचाते हुए बोले- अरे साहब, यह बात किसको नहीं पता है! जबसे यह काम प्राइवेट ठेकेदारों के हाथ में दे दिया गया है तबसे कोई कंट्रोल नहीं रह गया है। ये किसी की नहीं सुनते। इन्हें कोई डर ही नहीं है। मैं अगर शिकायत करना चाहूँ तो मुझे तमाम कागज बनाने पड़ेंगे, कई बार ऑफिस के चक्कर लगाने पड़ेंगे और परिणाम फिर भी कुछ नहीं मिलेगा। मैंने पूछा- अगर मैं शिकायत करना चाहूँ तो किसे लिखना होगा? वे बोले- वेबसाइट पर देखिएगा। यह गाड़ी (19040/AVADH EXP) पश्चिम रेलवे की है। ठेकेदार भी उन्ही का है। यहाँ से उनके खिलाफ़ कुछ नहीं हो पाता है। आप वहीं शिकायत कीजिए। मैंने तय किया कि घर पहुँचकर रेलवे में उस लापरवाह केयरटेकर की शिकायत ऑनलाइन दर्ज कराऊंगा।

इस कहासुनी के दस-पन्द्रह मिनट बाद उसने मुझे दो चादरें व एक तकिया लाकर दे दिया। कम्बल सामने की बर्थ पर मौजूद था जिसकी जरूरत नहीं थी, और छोटा तौलिया वह किसी को दे ही नहीं रहा था।

मैं अपनी बर्थ पर लेटे हुए इस परिदृश्य पर विचार करता रहा। काश रेलवे का कोई सक्षम अधिकारी बिना किसी पूर्व सूचना के ऐसे यात्री डिब्बों में चुपचाप यात्रा करता और बाद में दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करता! wishful thinking!!! मैंने देखा तो यह है कि जब किसी ट्रेन में कोई बड़ा रेल अधिकारी अपने सैलून में चल रहा होता है तो वह ट्रेन भी समय से चलती है और दूसरी यात्री सुविधाएँ भी जैसे- भोजन व जलपान आदि  बेहतर हो जाती हैं। बाकी समय में रेल हमारी सहिष्णुता भरी छाती पर मूँग दलते ही चलती है।

मैं उस डिब्बे में चल रहे अन्य यात्रियों के दृष्टिकोण को परखने की कोशिश करने लगा। मैंने महसूस किया कि रेलवे द्वारा टिकट के पैसों में इस सुविधा के लिए अलग से शुल्क वसूलकर भी इसको वास्तव में उपलब्ध कराने में की जा रही लापरवाही के प्रति लोगों में प्रायः उदासीनता है। जो चिन्तित करने वाली बात है। मैंने देखा कि जिन्हें बेडरोल की तुरन्त जरूरत थी वे कोच के एक सिरे तक जाते और वहाँ उस लड़के से अनुरोध करके अपने लिए चादर वगैरह खुद ले आते। मैंने देखा कि वह लड़का जाने कहाँ से आये अपने साथियों के साथ ताश खेलने में व्यस्त रहा। उसने न तो कोई यूनीफॉर्म पहन रखा था और न ही नाम का कोई बिल्ला लगा रखा था कि उसे पहचाना जा सके। यात्री आपस में भुनभुनाते हुए उसके प्रति असंतोष तो व्यक्त कर रहे थे लेकिन उससे उलझने या उसको टोकने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। शायद वे रात में सोने का समय होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। शायद तबतक उन्हें बेडरोल अपनेआप ही मिल जाता। लेकिन रात दस बजे लखनऊ पहुँचने तक लगभग सात घंटे की यात्रा में मैंने एक भी बर्थ पर उसे अपनेआप बेडरोल पहुँचाते नहीं देखा।

घर वापस आकर मैं अपनी गृहस्थी और नौकरी में व्यस्त हो गया हूँ। शिकायत दर्ज करने की इच्छा धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। तीन दिन बीत जाने के बाद यह हाल आपको बता पाने का मौका पा सका हूँ। यात्रा की तिथि, स्थान, समय व अन्य विवरण वास्तविक रूप से इसलिए उद्धरित कर दिया है कि शायद रेल महकमें का कोई जिम्मेदार अधिकारी इसे पढ़कर कोई स्वतः स्फूर्त कार्यवाही कर डाले। हमें तो परिस्थितिजन्य सहिष्णुता ने घेर लिया है। Confused smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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हे संविधान जी नमस्कार…

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हे संविधान जी नमस्कार,

इकसठ वर्षों के अनुभव से क्या हो पाये कुछ होशियार?
ऐ संविधान जी नमस्कार…

संप्रभु-समाजवादी-सेकुलर यह लोकतंत्र-जनगण अपना,
क्या पूरा कर पाये अब तक देखा जो गाँधी ने सपना?
बलिदानी अमर शहीदों ने क्या चाहा था बतलाते तुम;  
सबको समान दे आजादी, हो गयी कहाँ वह धारा गुम?
सिद्धांत बघारे बहुत मगर परिपालन में हो बेकरार,
हे संविधान जी नमस्कार…

बाबा साहब ने जुटा दिया दुनियाभर की अच्छी बातें,
दलितों पिछड़ों के लिए दिया धाराओं में भर सौगातें।
मौलिक अधिकारों की झोली लटकाकर चलते आप रहे;
स्तम्भ तीन जो खड़े किए वे अपना कद ही नाप रहे।
स्तर से गिरते जाने की ज्यों होड़ लगी है धुँआधार,
हे संविधान जी नमस्कार…

अब कार्यपालिका चेरी है मंत्री जी की बस सुनती है,
नौकरशाही करबद्ध खड़ी जो हुक्म हुआ वह गुनती है।
माफ़िया निरंकुश ठेका ले अब सारा राज चलाता है;
जिस अफसर ने सिस्टम तोड़ा उसको बेख़ौफ जलाता है।
मिल-जुलकर काम करे, ले-दे, वह अफसर ही है समझदार,
हे संविधान जी नमस्कार…

कानून बनाने वाले अब कानून तोड़ते दिखते हैं,
संसद सदस्य या एम.एल.ए. अपना भविष्य ही लिखते हैं।
जन-गण की बात हवाई है, दकियानूसी, बेमानी है;
यह पाँच वर्ष की कुर्सी तो बस भाग्य भरोसे आनी है।
सरकारी धन है, अवसर है, दोनो हाथों से करें पार,
हे संविधान जी नमस्कार…

क्या न्याय पालिका अडिग खड़ी कर्तव्य वहन कर पाती है?
जज-अंकल घुस आये तो क्या यह इसमें तनिक लजाती है?
क्या जिला कचहरी, तहसीलों में न्याय सुलभ हो पाया है?
क्या मजिस्ट्रेट से, मुंसिफ़ से यह भ्रष्ट तंत्र घबराया है?
अफ़सोस तुम्हारी देहरी पर यह जन-गण-मन है गया हार
हे संविधान जी नमस्कार…

आप सबको गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ…!!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

क्या अखबार का पाठक चिरकुट है…?

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राष्ट्रीय संगोष्ठी में बहस का मुद्दा बना एक प्रबंध संपादक का बयान

देश की प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रतिनिधि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में जुटे थे। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले प्रोफ़ेसर, बड़े अखबारों के संपादक और न्यूज चैनेल्स के एंकर सिर जोड़कर वर्धा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के छात्रों और अकादमिकों को मीडिया की असली दुनिया से परिचित करा रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता पर बहस चल रही थी। मीडिया द्वारा मिशन छोड़कर व्यावसायिकता की ओर मुड़ जाने पर चिंता व्यक्त की जा रही थी। मीडिया और राडिया के अंतर्सम्बन्ध खंगाले जा रहे थे। तभी एक प्रतिष्ठित अखबार के प्रबंध संपादक ने यह मंतव्य रखा कि जब एक साबुन की टिकिया के लिए लोग अपना अखबार बदल देते हैं तो उनसे प्रतिबद्धता की उम्मीद क्या की जाय। दो-ढाई रूपये देकर क्या उन्होंने अखबार के मालिक को खरीद लिया है जो उससे मिशन और नैतिकता की अपेक्षा करते हैं?

पाठकों को उक्त प्रकार से चिरकुट बताने से पहले उन्होंने पत्रकारों को भी उनकी औकात बताने की कोशिश की। बोले- आप इस भ्रम में मत रहिएगा कि यह राज-काज आपके भरोसे चल रहा है। आपकी स्थिति उस छिपकली जैसी है जो छत से चिपककर यह भ्रम पाल बैठी है कि इसे उसी ने रोक रखा है; या हाथी की पीठ पर बैठी उस मक्खी की तरह है जो उसे छोड़कर अकेले जंगल में इसलिए नहीं जाने देती कि उसके बिना इसकी (हाथी की) रक्षा नहीं हो सकेगी।

उनके पहले के वक्ताओं ने “मिशनरी पत्रकारिता- संदर्भ और प्रासंगिकता” नामक विषय पर बोलते हुए देश में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार, माफ़ियागीरी, घोटालों, इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका पर अनेक सुंदर व्याख्यान दिए थे और भविष्य के मीडियाकर्मियों को उनकी बढ़ती जिम्मेदारियों का बोध कराने का प्रयास किया था। चहुँओर निराशा के घने बादलों के बीच आशा का एक मात्र सूरज समाज के चौथे स्तंभ को बताया गया था। तब प्रबंध सम्पादक जी ने अपनी बात की शुरुआत एक रोचक कहानी से की थी-

बताने लगे- एक वृद्ध मौलवी लैंप पोस्ट के नीचे सड़क पर बहुत देर से कुछ ढूँढ रहा था।  एक नौजवान को उसकी परेशानी देखी नहीं गयी। सहायता करने की गर्ज़ से पूछा- बाबा क्या खोज रहे हो?

“बेटा, मैं अपनी टोपी सी रहा था, अचानक सुई हाथ से गिर गयी। वही ढूँढ रहा हूँ लेकिन मिल नहीं रही है” मौलवी ने तफ़सील से बताया।

“अच्छा बताइए टोपी कहाँ सिल रहे थे और सूई ठीक कहाँ गिरी? मैं खोजता हूँ।” युवक ने सहानुभूति दिखायी।

“बेटा सुई तो मस्ज़िद में गिरी थी लेकिन वहाँ बहुत अंधेरा है इसलिए यहाँ रोशनी में ढूँढ रहा हूँ।”

हाल में ठहाका लगना तय था ही। तालियाँ थमीं तो उक्त वक्ता ने बताया कि आज यहाँ की चर्चा भी कुछ इसी प्रकार की हो रही है। समस्या की असली जड़ जहाँ है उसे कोई नहीं देखना चाहता। सबका समाधान मीडिया से कराना चाहता है। देश की सरकारें भ्रष्ट है, संसद अपना काम नहीं कर पा रही। न्यायालय भी संदेह से परे नहीं रह गये हैं। उद्योगपति तेजी से अपना पैसा बढ़ा रहे हैं। गुप्त गठबंधन हो रहे हैं। हर आदमी लाभ कमाने के उद्यम में लगा है, लेकिन मीडिया को नैतिकता और मिशन का पाठ पढ़ाया जाता है। जब हम मीडिया में प्रोफ़ेशनलिज़्म की बात करते हैं तो इसे गाली समझा जाता है। आजादी से पहले अखबारों ने एक मिशन के साथ काम किया था- देश को गुलामी से मुक्त कराने का मिशन। लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है। आज यह अन्य प्रोफेशन्स की तरह एक पेशा के रूप में क्यों नहीं पहचाना जाना चाहिए? अख़बार या टीवी चैनेल का जो मालिक करोड़ो रुपये का पूँजी निवेश करता है उसे लाभ कमाने के बारे में क्यों नहीं सोचना चाहिए? मात्र दो रूपये में चालीस पृष्ठ का अखबार आपके दरवाजे पर पहुँचाने का प्रबंध करने वाला अखबार मालिक आपके बारे में कितना सोचे जब आप दो रुपये की साबुन की टिकिया पाने के लिए अपना वर्षों पुराना अखबार बदल देते हैं। आपकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है तो अखबार चलाने वालों से आप क्या अपेक्षा रखते हैं?

उन्होंने अखबार पहुँचाने वाले हॉकर के प्रति पाठकों के रूखे व्यवहार का वर्णन भी किया कि कैसे वह विपरीत मौसम में भी सुबह छः बजे घर पर अखबार पहुँचाता है और कभी देर हो जाने पर सुबह की चाय का स्वाद खराब कर देने का दोषी बन जाता है। बिना नागा किए तीस दिन अखबार देने के बाद जब वह पैसा लेने पहुँचता है तो महानुभावों को  ‘आज नहीं कल’ का जवाब देते देर नहीं लगती। “ऐसे लोग जब बिना जाने समझे अखबार के मालिक, अखबार के सम्पादक और अखबार के रिपोर्टर पर आरोप लगाते हैं तो मुझे आपत्ति होती है।”

कोई भी व्यवसाय जब प्रारम्भ किया जाता है तो उसकी प्रगति का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। लाभ कमाना एक सर्वमान्य लक्ष्य है। उसके लिए जरूरी उपाय तलाशे जाते हैं और उन्हें अपनाया जाता है। स्वतंत्रता मिलने के बाद पत्रकारिता भी किसी अन्य  व्यवसाय की तरह कुछ लक्ष्यों की पूर्ति के उद्देश्य से आगे बढ़ी। समय के साथ तालमेल बिठा कर चलने वाले सफल हुए। यह कार्य आज भी एक मिशन बना हुआ है, लेकिन इसका स्वरूप बदल गया है। आज पत्रकारिता ‘स्वांतः सुखाय’ नहीं है।

धारा प्रवाह बोलते हुए उन्होंने एक-दो और चुटकुले और आख्यान सुनाये और बोले- यह अजीब स्थिति है कि प्रायः सभी पत्रकार अपने प्रबंधन को कोसते रहते हैं। उनके अनैतिक कार्यों और शोषक प्रवृत्तियों का रोना रोते हैं। लेकिन वे ही जब स्वयं प्रबंधक अर्थात्‌ मालिक बन जाते हैं तो वे सारी मिशनरी बातें हवा हो जाती हैं और वे सभी बुराइयाँ अपना लेते हैं जिन्हें कोसते इनका समय बीता है। फिर उन्होंने जोड़ा कि इन सारी बातों के बावजूद आज भी जब देशहित का मुद्दा उठता है तो देश की पूरी मीडिया एकजुट होकर आवाज उठाती है। उन्होंने इसके कई उदाहरण भी गिना डाले।

अपने को एक अदना सा पत्रकार बताते हुए उन्होंने ‘छोटे-छोटे प्रयासों का महत्व’ रेखांकित करने के लिए उस गिलहरी की कथा सुनायी जिसने समुद्र पर रामसेतु के निर्माण की प्रक्रिया में योगदान कर्ताओं की सूची में अपना नाम लिखाने के लिए बार-बार तट पर लोटपोट कर शरीर में रेत बटोरने और पुल पर जाकर शरीर झाड़ देने का उद्यम किया था। ताकि भविष्य में इतिहास लिखने वाले यह न लिखें कि जब सारा  बानर समाज पुल बना रहा था तो वहाँ मौजूद एक गिलहरी कुछ नहीं कर रही थी। अस्तु कुछ न कुछ यथा सामर्थ्य करते रहना चाहिए। इसके बाद उन्होंने एक जोरदार वीररस की कविता सुनायी। मैं एक ही पंक्ति नोट कर पाया क्योंकि उन्होंने दुहराया नहीं था। हाल को गुँजाने वाली तालियाँ बजीं और अगले वक्ता बुलाये गये।

यहाँ तक तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन जब प्रश्न-उत्तर का दौर चला तो प्रबंध-संपादक महोदय को उठकर सफाई देनी पड़ी। छात्र श्रोताओं के तीखे प्रहार वाकई बेचैन करने वाले थे। अंततः कुलपति जी को अध्यक्षीय भाषण में इस मसले पर अंतिम बात कहनी पड़ी। वह बहुत ही मार्मिक और सजग करने वाली बात थी। लेकिन उसकी चर्चा अगली कड़ी में। अभी तो आप उस वीररस की कविता का आनंद लेते हुए इस ‘चिरकुटई के आरोप’ का जवाब दीजिए।

गूगल महराज ने उस एक लाइन का ‘जामन’ लेकर पल भर में अपने क्षीर सागर के भंडार से पूरी कविता की दही परोस कर रख दी।

वह लाइन थी-

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में

इस लंबी कविता के मूल कवि हैं डॉ. हरिओम पवार। इसके आगे पीछे की कुछ और लाइनें यहाँ आपके लिए। पूरी कविता यहाँ है।

इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का
एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है
अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो
चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो
हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो
गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में
हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं

जब तक भोली जनता के अधरों पर डर के ताले हैं
तब तक बनकर पांचजन्य हम हर दिन अलख जगायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

अगवानी हर परिवर्तन की भेंट चढ़ी बदनामी की
हमने बूढ़े जे.पी. के आँसू की भी नीलामी की
परिवर्तन की पतवारों से केवल एक निवेदन था
भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था

अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर
शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर

निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में जाकर
बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुलाकर
यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं
माँ , बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है

जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक हम हर सिंहासन को अपराधी बतलायेंगे
बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य प्रायः प्रासंगिक नहीं है

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प्रोफेसर गंगा प्रसाद विमल ने ‘शुक्रवारी’ में रखी बेबाक राय…

शुक्रवारी चर्चा आजकल जबर्दस्त फॉर्म में है। माहिर लोग जुटते जा रहे हैं और हम यहाँ बैठे लपक लेते हैं उनके विचार और उद्‌गार। इस विश्वविद्यालय की किसी कक्षा में मैं नहीं गया ; क्योंकि न यहाँ का विद्यार्थी हूँ और न ही शिक्षक हूँ। लेकिन एक से एक आला अध्यापकों को सुनने का मौका मिल रहा है जो देश और विदेश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों और दूसरे शिक्षा केंद्रों में लंबे समय तक पढ़ाते रहे हैं। विषय भी देश की नब्ज टटोलने वाले। पिछले दिन अशोक चक्रधर जी आये तो कंप्यूटर और इंटरनेट पर हिंदी की दशा और दिशा पर अपने तीस-चालीस साल के अनुभव बताकर गये। पूरी तरह अपडेटेड लग रहे थे। रिपोर्ट यहाँ है। उसके पहले विनायक सेन को हुई सजा के बहाने नक्सलवादी आंदोलन के हिंसक स्वरूप और मानवाधिकार संबंधी मूल्यों की चर्चा गांधी हिल के मुक्तांगन में हुई। राजकिशोर जी ने अपनी कविता के साथ विनायक सेन का भरपूर समर्थन व्यक्त किया तो कुलपति विभूतिनारायण राय ने स्पष्ट किया कि उनके साथ सहानुभूति रखते हुए भी हम इतना जरूर याद दिलाना चाहेंगे कि आज के जमाने में राजसत्ता को हिंसा के भय से दबाया नहीं जा सकता। किसी हिंसक आंदोलन को समर्थन देना उचित नहीं है। हाँ, मनुष्यता की रक्षा के लिए जरूरी है कि विनायक सेन जैसे लोग जेल से बाहर रहें और स्वतंत्र होकर समाज के दबे-कुचले लोगों के लिए कार्य कर सकें।

इस बार शुक्रवारी के संयोजक राजकिशोर जी ने चर्चा का विषय रखा था- वर्तमान समय में साहित्य की प्रासंगिकता; और बिशिष्ट वक्ता के रूप में बुलाया था प्रो. गंगा प्रसाद विमल को।

प्रो.गंगा प्रसाद विमल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इसके पहले वे केंद्रीय हिंदी निदेशालय में निदेशक पद पर भी कार्यरत थे। आप एक सुपरिचित कवि और उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। विमल जी के एक उपन्यास ‘मृगांतर’ पर हॉलीवुड में एक फिल्म भी बन चुकी है और इसका जर्मन भाषा में अनुवाद भी छप चुका है। चाय की चुस्कियों के बीच आपने हल्के मूड में जो बातें कहीं वो बहुत गम्भीर किस्म की थीं।

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बाएँ से:राजकिशोर,ए.अरविंदाक्षन,विमल

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बोले- साहित्य की प्रासंगिकता सदा से रही है। आज भी बनी हुई है। इसका सबूत यह है कि आज भी साहित्य का डर मौजूद है। समाज का प्रभु वर्ग आज भी साहित्य के प्रभाव के प्रति सतर्क रहता है। एक अमेरिकी लेखक ने उपन्यास लिखा- ‘पैलेस ऑफ़ मिरर्स’। इसमें उन्होंने चार बड़े अमेरिकी व्यावसायिक घरानों की पोल पट्टी खोल कर रख दी थी।  इसपर उनके प्राण संकट में पड़ गये। उन्हें मार डालने के लिए माफ़िया ने सुपारी दे दी। किताब का प्रकाशक बहादुर और जिम्मेदार निकला। लेखक को पाताल में छिपा दिया। उनकी रॉयल्टी पाबंदी से भेज देता है और सुरक्षा जरूरतों को पूरा करता है। लेखक गुमनाम और भूमिगत है, लेकिन उसका रचा साहित्य खलबली मचा रहा है।

सलमान रुश्दी की किताब का नाम भी उन्होंने लिया। बोले- इसके चालीस पृष्ठ पढ़कर मैने छोड़ दिया था। कलात्मक दृष्टि से मुझे यह उपन्यास बहुत घटिया लगा। इसके रूपक भद्दे और बेकार लगे। फिर जब इसकी चर्चा बहुत हो ली तो मैने ‘मनुष्य जाति को इस्लाम का योगदान’ विषयक एम.एन.रॉय की पुस्तक पढ़ने के बाद इसे दुबारा पढ़ा। तब मुझे यह किताब कुछ समझ में आनी शुरू हुई। उन्होंने इस पुस्तक में बहुत बारीकी से मनुष्यता विरोधी विचारण को निरूपित किया है। यह विचारण किसी धर्म की रचना नहीं कर सकता। जिन लोगों ने उसे अपने धर्म का दुश्मन मान लिया वे मूर्ख हैं। वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से डरते हैं। सलमान रुश्दी मनुष्यता का दुश्मन नहीं है बल्कि मूर्खों को उससे दुश्मनी है।

ये उदाहरण बताते हैं कि साहित्य कितना बड़ा प्रभाव छोड़ सकता है। लेकिन हिंदी के साहित्य जगत पर दृष्टिपात करें तो निराशा ही हाथ लगती है। यहाँ ऐसी प्रासंगिक रचनाये प्रायः नहीं लिखी जा रही हैं। मनुष्यता के जो सही सवाल हैं उन्हें ठीक से नहीं उठाया जा रहा है। यह साहित्य पढ़कर मन में बेचैनी नहीं उठती। कोई एक्सटेसी महसूस नहीं होती। यहाँ प्रायोजित लेखन अधिक हो रहा है। एक खास समूह और वर्ग में रहकर उसके अनुकूल साहित्य रचा जा रहा है। पुरस्कारों के लिए लिखा जा रहा है। आपकी साहित्यिक प्रतिभा का मूल्यांकन इस या उस गुट की सदस्यता के आधार पर किया जा रहा है।

यहाँ भी शोषक और शोषित का समाजशास्त्र विकसित हो चुका है। जो लोग सबसे अधिक दबे-कुचले वर्ग की बात करते हैं वे ही मौका मिलने पर शोषक वर्ग में शामिल हो जाते हैं। केरल और पश्चिम बंगाल में सबसे पहले वामपंथी सरकारें बनी। बंगाल में तो एक अरसा हो गया। लेकिन विडम्बना देखिए कि आज भी कलकत्ते में हाथगाड़ी पर ‘आदमी को खींचता आदमी’ मिल जाएगा। मार्क्स का नाम जपने वाले वामपंथी सत्ता प्राप्त करने के बाद कांग्रेस की तरह व्यवहार करने लगे और पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने वाली नीतियाँ बनाने लगे। यह दो-मुँहापन यहीं देखने को मिलता है। साहित्य जगत में भी ऐसी ही प्रवृत्तियाँ व्याप्त हैं।

ऐसी निराशाजनक स्थिति हिंदी साहित्य के क्षेत्र में खूब मिलती है। विरोधी खेमे को घेरकर चारो ओर से हमला किया जाता है। लेकिन यूरोप में स्थिति दूसरी है। फ्रांस में द’ गाल के शासनकाल में सार्त्र द्वारा उनका विरोध बड़े आंदोलन का रूप ले रहा था। सार्त्र को जेल में डाल देने की सलाह पर द’ गाल ने कहा कि मैं फ्रांस को गिरफ़्तार नहीं कर सकता। विरोधी विचार का सम्मान करना हिंदी पट्टी ने नहीं सीखा है। यहाँ पार्टी लाइन पर चलकर जो विरोध होता है वह भोथरे किस्म का होता हैं। तलवार की धार कुंद हो चुकी है। गदा जैसा प्रहार हो रहा है। प्राणहीन सा। हिंदी में जो कृतियाँ आ रही हैं वे निष्प्राण सी हैं। मन को उद्वेलित करने वाला कुछ नहीं आ रहा है।

वे पूछते हैं कि क्या स्वतंत्रता के बाद के साठ साल में ऐसी कोई घटना नहीं हुई जिसपर उत्कृष्ट साहित्य रचा जा सके। इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपात काल हो या पाकिस्तान के साथ लड़े गये युद्ध हों; या चीन के साथ हुआ संघर्ष। इन घटनाओं ने हिंदी साहित्यकारों को उद्वेलित नहीं किया। इनपर कोई बड़ी कृति सामने नहीं आयी। सुनामी जैसी प्राकृतिक विपदा भी मनुष्यता के पक्ष में साहित्यकारों को खड़ा नहीं कर सकी। क्या कारण है कि बड़ी से बड़ी घटनाएँ हमें विचलित नहीं करती। कड़वे यथार्थ से तालमेल बिठाने में हिंदी साहित्य असफल सा रहा है।

इतनी निराशा भरी बातें कहने के बाद उन्होंने पहलू बदला और बोले कि ऐसा नहीं है कि अच्छी प्रतिभाएँ हमारे बीच नहीं है। मुश्किल बस ये है कि उनका लिखा सामने नहीं आ पाता। आलोचना के जो बड़े मठ हैं वे इसे आने नहीं देते। उनकी देहरी पर माथा टेकने वाला ही पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाता है। समीक्षा उसी की हो पाती है जो उस परिवार का अंग बनने को तैयार होता है। राजकिशोर जी ने गुटबंदी की बात का समर्थन करते हुए विनोदपूर्वक कहा कि ‘यदि आप हमारे किरायेदार हैं तो आप सच्चे साहित्यकार हैं; यदि आप दूसरे के घर में हैं या अपना स्वतंत्र घर जमाने की कोशिश में हैं तो आपका साहित्य दो कौड़ी का भी नहीं है। एक खास विचारधारा का पोषण यदि आप नहीं करते तो आप अप्रासंगिक हैं।

मीडिया ने भी साहित्य जगत का और हिंदी भाषा का बड़ा नुकसान किया है। शब्द बदल गये हैं, शैली दूषित हो गयी है, वाक्य रचना अंग्रेजी की कार्बन कॉपी जैसी हो गयी है। कृतियों पर अंग्रेजी प्रभाव होता जा रहा है। नकल के आरोप भी खुलकर आ रहे हैं। मौलिकता समाप्त सी होती जा रही है।

आज हम सबका दायित्व है कि हम हिंदी में लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य को सामने लायें। मनुष्यता के मुद्दे उठाने वाली रचनाओं को तलाशें। संकुचित सोच के दायरे से बाहर आकर विराट धरातल पर विचार करें। मैं हद दर्जे का आशावादी भी हूँ। कुछ लोग बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। लेकिन उनकी संख्या अत्यल्प है। इसे कैसे बढ़ाया जाय इसपर विचार किया जाना चाहिए।

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विमल जी की बात समाप्त होने के बाद प्रश्न उत्तर का दौर चला। कई लोगों ने कई कारण गिनाए। मैंने पिछले दिनों श्रीप्रकाश जी की शुक्रवारी वार्ता के हवाले से बताया कि अच्छी रचना तब निकल कर आती है जब कोई बड़ा आंदोलन चल रहा हो। क्रांति का समय हो। शांतिकाल में तो साधारण बैद्धिक जुगाली ही होती रहती है। मुद्दों को तलाशना पड़ता है। इसपर जर्मनी से आये एक हिंदी अध्यापक ने अनेक ताजा मुद्दे गिनाये। दलित और स्त्री संबंधी विमर्श की चर्चा की। प्रायः सबने इसका समर्थन किया। लेकिन इन मुद्दों पर भी अच्छी रचनाओं की दरकार से प्रायः सभी सहमत थे। विदेशी मेहमान ने यह भी बताया कि यूरोप में हिंदी रचनाओं को ‘पश्चिम की नकल’ पर आधारित ही माना जाता है।

विमल जी ने हिंदी साहित्य के पाठकों की भी कमी के प्रति चिंता जाहिर की। बोले कि अब अच्छी रचनाओं के लिए भी पाठक नहीं मिलते। जेब से पैसा खर्च करके हिंदी की किताबें खरीदने और पढ़ने वालों की संख्या बहुत कम है। इसके लिए वे ‘अध्यापक समाज’ को दोषी ठहराते हैं। कह रहे थे कि आजकल के अध्यापक न तो अपना पैसा खर्च करके किताबें खरीदते हैं, न पढ़ते हैं और न ही अपने छात्रों व दूसरे लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने बताया कि यदि उन्हें कोई अच्छी किताब मिल जाती है तो कम से कम सौ लोगों को उसे पढ़ने के लिए बताते हैं।

अन्य के साथ राजकिशोर जी ने अच्छी रचनाओं की कमी होने की बात का प्रतिवाद किया। बोले- मैं आपको हिंदी की कुछ मौलिक कृतियों का नाम बताता हूँ। आप इनके मुकाबले खड़ा हो सकने लायक एक भी अंग्रेजी पुस्तक का नाम बता पाइए तो बोलिएगा…। उन्होंने नाम बताने शुरू किए जिसमें दूसरे लोगों ने भी जोड़ा- श्रीलाल शुक्ल की `राग दरबारी’, रेणु का `मैला आँचल’, रांगेय राघव का `कब तक पुकारूँ’, यशपाल की `दिव्या’, अज्ञेय का `नदी के द्वीप’, अमृतलाल नागर का `बूँद और समुद्र’, भगवतीचरण वर्मा की `चित्रलेखा’, हजारी प्रसाद द्विवेदी की `बाणभट्ट की आत्मकथा’, आदि-आदि। किसी ने चुनौती देते हुए जोड़ा कि निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ यदि नकल पर आधारित है तो इसका असल अंग्रेजी रूप ही दिखा दीजिए। इसकी पहली पंद्रह पंक्तियों का अनुवाद ही करके कोई दिखा दे। इसके बाद और भी अनेक रचनाओं का नाम लिया जाने लगा।

अंततः मुझे विमल जी से उनके प्रारम्भिक वक्तव्य की पुष्टि करानी पड़ी। उन्होंने माना कि अपनी इस बात को स्वीकार करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है कि साहित्य की प्रासंगिकता बनी हुई है लेकिन हिंदी में जो लिखा जा रहा है उसमें अधिकांश प्रासंगिक नहीं है। उन्होंने पहले यह भी बताया था कि वे एक नियमित स्तंभ लिखते रहे हैं जिसका नाम है ‘अप्रासंगिक’।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

पढ़ना, पढ़वाना और लिखना साथ-साथ…

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wife-scoldआजकल मुझे डाँटने वालों की फ़ेहरिश्त लम्बी होती जा रही है। प्रदेश सरकार की नौकरी से छुट्टी लेकर घर से हजार किलोमीटर दूर आ गया और केंद्रीय विश्वविद्यालय में काम शुरू किया तो माता-पिता ही नाराज हो गये। भाई-बंधु, दोस्त-मित्र और रिश्तेदार भी फोन पर ताने मारने लगे कि क्या मिलेगा यहाँ जो वहाँ नहीं था। ऊल-जलूल मुद्दों को लेकर सुर्खियों में छाये रहने वाले एक विश्वविद्यालय से जुड़कर ऐसा क्या ‘व्यक्तित्व विकास’ कर लोगे?

बच्चे और पत्नी तो जैसे एक बियाबान जंगल में फँस जाने का कष्ट महसूस करने लगे हैं। …ना कोई पड़ोस, ना कोई रिश्तेदार और ना कोई घूमने –फिरने लायक सहज सुलभ स्थान। …कहीं जाना हो तो दूरी इतनी अधिक की कार से नहीं जा सकते। रेलगाड़ी में टिकट डेढ़-दो महीना पहले बुक कराने पर भी कन्फ़र्म नहीं मिलता। शादी-ब्याह के निमंत्रण धरे रह जाते हैं और सफाई देने को शब्द नहीं मिलते। किसने कहा था आपसे यह वनवास मोल लेने को..?

लेकिन मैं खुद को समझाता रहता हूँ। प्रदेश सरकार की नौकरी में ही क्या क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ थी। दिनभर बैल की तरह जुते रहो। चोरी, बेईमानी, मक्कारी, धुर्तता धूर्तता, शोषण, अनाचार, अक्षमता, लापरवाही, संत्राष संत्रास, दुख, विपत्ति, कलुष, अत्याचार, बेचारगी, असहायता इत्यादि के असंख्य उदाहरण  आँखों के सामने गुजरते रहते और हम असहाय से उन्हें देखते रहते। सिस्टम का अंग होकर भी बहुत कुछ न कर पाने का मलाल सालता रहता और मन उद्विग्न हो उठता। बहुत हुआ तो सत्यार्थमित्र  के इन पृष्ठों पर अपने मन की बात पोस्ट कर दी। लेकिन उसमें भी यह सावधानी बरतनी होती कि सिस्टम के आकाओं को कुछ बुरा न लग जाय; नहीं तो लेने के देने पड़ जाँय। कम से कम यहाँ वह सब आँखों से ओझल तो हो गया है। यहाँ आकर शांति से अपने मन का काम करने का अवसर तो है।

हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में जो कुछ भी अच्छा लिखा गया है; अर्थात्  क्लासिक साहित्य के स्थापित रचनाकारों की लेखनी से निसृत शब्दों का अनमोल खजाना, उसे हिंदीसमय[डॉट]कॉम पर अपलोड करने का जो सुख मुझे यहाँ मिल रहा है वह पहले कहाँ सुलभ था। प्रिंट में उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री को यूनीकोड में बदलकर इंटरनेट पर पठनीय रूप रंग में परोसने की प्रक्रिया में उन्हें पढ़कर जो नैसर्गिक सुख अपने मन-मस्तिष्क को मिलता है वह  पहले कहाँ था?

कबीर ग्रंथावली के समस्त दोहे और पद अपलोड हुए तो इनके भक्तिरस और दर्शन में डूबने के साथ-साथ इसके संपादक डॉ. श्याम सुंदर दास की लिखी प्रस्तावना से भक्तिकाल के संबंध में बहुत कुछ जानने को मिला-

“…कबीर के जन्म के समय हिंदू जाति की यही दशा हो रही थी। वह समय और परिस्थिति अनीश्वरवाद के लिए बहुत ही अनुकूल थी, यदि उसकी लहर चल पड़ती तो उसे रोकना बहुत ही कठिन हो जाता। परंतु कबीर ने बड़े ही कौशल से इस अवसर से लाभ उठाकर जनता को भक्तिमार्ग की ओर प्रवृत्त किया और भक्तिभाव का प्रचार किया। प्रत्येक प्रकार की भक्ति के लिए जनता इस समय तैयार नहीं थी।

मूर्तियों की अशक्तता वि.सं. 1081 में बड़ी स्पष्टता से प्रगट हो चुकी थी जब कि मुहम्मद गजनवी ने आत्मरक्षा से विरत, हाथ पर हाथ रखकर बैठे हुए श्रद्धालुओं को देखते-देखते सोमनाथ का मंदिर नष्ट करके उनमें से हजारों को तलवार के घाट उतारा था। गजेंद्र की एक ही टेर सुनकर दौड़ आने वाले और ग्राह से उसकी रक्षा करने वाले सगुण भगवान जनता के घोर संकटकाल में भी उसकी रक्षा के लिए आते हुए न दिखाई दिए। अतएव उनकी ओर जनता को सहसा प्रवृत्त कर सकना असंभव था। पंढरपुर के भक्तशिरोमणि नामदेव की सगुण भक्ति जनता को आकृष्ट न कर सकी, लोगों ने उनका वैसा अनुकरण न किया जैसा आगे चलकर कबीर का किया; और अंत में उन्हें भी ज्ञानाश्रित निर्गुण भक्ति की ओर झुकना पड़ा।…”

मोहन राकेश का लिखा पहले बहुत कम पढ़ पाया था लेकिन जब उनकी रचनाओं का संचयन (कहानी, डायरी, यात्रा-वृत्त, उपन्यास, निबंध आदि) अपलोड करना हुआ तो बीच-बीच में काम रोककर उनकी शब्दों की सहज जादूगरी में डूबता चला जाता था। एक बानगी देखिए-

“पत्रिका के कार्यालय में हम चार सहायक सम्पादक थे। एक ही बड़े से कमरे में पार्टीशन के एक तरफ़ प्रधान सम्पादक बाल भास्कर बैठता था और दूसरी तरफ़ हम चार सहायक सम्पादक बैठते थे। हम चारों में भी एक प्रधान था जिसे वहाँ काम करते चार साल हो चुके थे। एक ही लम्बी डेस्क के साथ चार कुरसियों पर हम लोग बैठते थे। छोटे प्रधान की कुरसी डेस्क के सिरे पर खिडक़ी के पास थी और हम तीनों की कुरसियाँ उसके बाद वेतन के क्रम से लगी थीं। छोटे प्रधान उर्फ बड़े सहायक सुरेश का वेतन दो सौ रुपये था। उसके बाद लक्ष्मीनारायण था जिसे पौने दो सौ मिलते थे। तीसरे नम्बर पर मेरी एक सौ साठ वाली कुरसी थी और चौथे नम्बर पर डेढ़ सौ वाली कुरसी पर मनोहर बत्रा बैठता था। छोटा प्रधान सबसे ज़्यादा काम करता था, क्योंकि प्रूफ़ देखने के अलावा उसे हम सब पर नज़र भी रखनी होती थी और जब सम्पादक के कमरे में घंटी बजती, तो उठकर आदेश लेने के लिए भी उसी को जाना होता था। वह दुबला-पतला हड्डियों के ढाँचे जैसा आदमी था, जिसे देखकर यह अन्देशा होता था कि बार-बार उठने-बैठने में उसकी टाँगें न चटक जाएँ। सम्पादक को हममें से किसी से भी बात करनी होती, तो पहले उसी की बुलाहट होती थी और वह वापस आकर कारखाने के फ़ोरमैन की तरह हमें आदेश देता था, “नम्बर तीन, उधर जाओ। साहब याद कर रहे हैं।” एक बार बत्रा ने उससे कह दिया कि वह साहब के लिए चपरासी का काम क्यों करता है, तो वह सप्ताह-भर बत्रा से अपने प्रूफ़ दिखाता रहा था।”

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हुए देश के विभाजन के ऊपर लगभग सभी भारतीय भाषाओं में बहुत सी मार्मिक कहानियाँ लिखी गयी हैं। इनका हिंदी में अनूदित संचयन भी हिंदी-समय पर उपलब्ध है। इन कहानियों को पढ़कर हम सहसा उस दौर में पहुँच जाते हैं जिसने आज की अनेक राष्ट्रीय समस्याओं को जन्म दिया है। किसी भी साहित्य प्रेमी या समाज के अध्येता के लिए इन ८६ कहानियों से दो-चार होना उपयोगी ही नहीं अपितु अनिवार्य हैं।

अज्ञेय जी का एक लेख ‘सन्नाटा’ नाम से इंटर के कोर्स में पढ़ रखा था। ‘शेखर एक जीवनी’ और ‘नदी के द्वीप’ जैसे उपन्यास यूनिवर्सिटी के समय में पढ़ रखे थे लेकिन अभी जब उनके विशाल रचना संसार से परिचित हुआ और विविध विधाओं में उनके लेखन को अपलोड करते हुए दुरूह विषयों पर उनकी गहरी समझ और सटीक भाषा से प्रभावित हुआ तो लगा कि सब काम छोड़कर उन्हें ही समग्रता से पढ़ लिया जाय तो जीवन सफल हो जाय। मेरी बात मानने के लिए उनका संक्षिप्त जीवन वृत्त ही पढ़ लेना पर्याप्त होगा। दो-चार दिनों के भीतर सम्पूर्ण सामग्री हिंदी-समय पर होगी।

और हाँ,  अमीर खुसरों की मुकरियाँ पढ़कर और सुनाकर जो मुस्कान फैलती है उसका लोभसंवरण किया ही नहीं जा सकता। अब कहाँ तक गिनाऊँ। बहुत बड़ा भंडार है जी…।

इन सब सामग्रियों के बीच डूबकर मुझे इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि सत्यार्थमित्र पर अंतिम पोस्ट डाले हुए तीन सप्ताह निकल चुके हैं और हिंदी ब्लॉग जगत में विचरण का मेरा प्रिय कार्य प्रायः बंद हो चला है। मेरी तंद्रा आज तब टूटी जब घर में ही डाँट-सी सुननी पड़ी।

“आप को क्या हो गया है जी…? देख रही हूँ कि आपने आजकल पोस्ट लिखना बंद ही कर दिया है। जिस ब्लॉगरी के कारण आप सबकुछ छोड़कर यहाँ आये वही भूल गये हैं। यह दिनभर दूसरों के पुराने लिखे में आँख फोड़ने से कोई मेडल नहीं मिलने वाला है। आपकी पहचान हिंदी ब्लॉगजगत से है। उसे छोड़कर आप ‘फ्रंटपेज’ खोले बैठे हैं। कौन जानता है कि आप यह सब कर रहे हैं? कोई क्रेडिट नहीं मिलने वाली।… यही चलता रहा तो …न घर के रहेंगे न घाट के”

मैंने यह समझाने की कोशिश की मैं इस घिसे-पिटे मुहावरे का ‘पात्र’ नहीं हूँ। अब तो कोई धोबी भी इसे नहीं पालता। बल्कि विद्यार्थी जीवन में पहले जो कुछ नहीं पढ़ पाया था उसे पढ़ रहा हूँ और दूसरों को पढ़वाने का उपक्रम भी कर रहा हूँ। इसी काम के लिए मुझे तनख्वाह मिलती है। वैसे भी नेट पर अपना लिखा कूड़ा पढ़वाने से बेहतर है कि दूसरे उत्कृष्ट जनों का लिखा श्रेष्ठ साहित्य नेट पर उपलब्ध कराऊँ।

“तो आपको यह नौकरी करने से कौन मना कर रहा है। इस ‘पुनीत कार्य’ को अपने ऑफिस तक ही रखिए। छुट्टी के दिन घर पर भी वही जोतते रहेंगे तो कुछ दिन में पागल हो जाएंगे। …और आपके दिमाग में जो कूड़ा ही भरा है तो उसे बाहर निकाल देना ही श्रेयस्कर है। उसी ने आपको यहाँ ला पटका है। आप अपनी पहचान खो देने के रास्ते पर क्यों बढ़ रहे हैं।”

मैने सोचा पूछ लूँ कि अपने ब्लॉग पर क्यों कई महीने बाद कल एक पोस्ट डाल पायी हो लेकिन चुप लगा गया। कारण यह था कि उनकी बातें कहीं न कहीं मुझे अंदर से सही लग रही थीं। अपनी आशंका दूर करने के लिए मैंने कुछ ब्लॉगर मित्रों से बात की तो सबने यही कहा कि कुछ न कुछ लिखते रहना तो अनिवार्य ही है। इसी से मन को शांति मिल सकती है।

अब मेरी दुविधा कुछ मिट चली है। अब काम का बँटवारा करूंगा। घर पर ब्लॉगरी और ऑफिस में हिंदी-समय पर अपलोडिंग। काम के घंटे निर्धारित करने होंगे। हिंदी साहित्य का क्षेत्र इतना विस्तृत तो है ही कि इसे कुछ दिनों के ताबड़तोड़ प्रयास से पार नहीं किया जा सकता। स्थिर गति से लम्बे समय तक लगना होगा इसलिए इस काम में रोचकता बनाये रखना जरूरी है। सिर पर लगातार लादे रखने से कहीं यह बोझ न बन जाय। अब होगा पढ़ना-पढ़वाना और लिखना साथ-साथ।

लीजिए इस राम कहानी में एक पोस्ट निकल आयी। अब ठेल ही देता हूँ…!!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

अयोध्या को विराम दे कुछ और सोचा जाय…?

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बुधवार की शाम को जब सारा देश साँस रोके वृहस्पतिवार को आने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा कर रहा था और चारो ओर आशंका और संशय का वातावरण किसी संभावित विस्फोट  के लिए अपने आपको तैयार कर रहा था उसी समय महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में एक नयी सांस्कृतिक सुगबुगाहट अपना पहला कदम रख रही थी। यहाँ के फिल्म एवं नाट्यकला विभाग द्वारा अब अपने पाठ्यक्रम के अंग के रूप में वास्तविक रगमंचीय प्रस्तुतियों की शृंखला प्रारंभ करने की योजना बनायी गयी है। इसी को कार्यरूप देते हुए यहाँ के एम.ए.(प्रथम छमाही) के विद्यार्थियों ने कामतानाथ की कहानी ‘हल होना एक समस्या का’ के नाट्य रूपांतर ‘दाख़िला’ का मंचन किया। इस नाटक को देखते हुए हम आनंद रस में डूबे रहे और देश की सबसे ज्वलंत समस्या(?) से अपने को कई घंटे तक दूर रख सके।

आज यदि आप कोर्ट के अयोध्या फैसले की खबरों और इसके मीडिया पोस्टमॉर्टेम से उकताकर कोई नया ठौर तलाश रहे हों तो मैं आपको एक हल्की-फुल्की कहानी के शानदार  मंचन की बात बताना और दिखाना चाहता हूँ।

फिल्म व नाट्यकला विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर और रंगकर्मी अखिलेश दीक्षित द्वारा किए गये इस कहानी के नाट्य रूपांतर एवं निर्देशन में यहाँ के एम.ए. नाट्यकला के नवागत छात्रों ने सीमित संसाधनों के बीच जिस लगन और परिश्रम से यह शानदार प्रस्तुति उपस्थित छात्रों, शिक्षक समुदाय व अन्य आमंत्रित दर्शकों के समक्ष दी वह तारीफ़ के का़बिल थी। खचाखच भरे हाल में जब और लोगों के घुसने की जगह नहीं बची तो विभागाध्यक्ष प्रो. रवि चतुर्वेदी को उसी शाम दूसरा शो कराने की घोषणा करनी पड़ी। नाटक के फर्स्ट शो के तत्काल बाद रिपीट शो भी करना पड़ा। आइए पहले आपको संक्षेप में कहानी बता देते हैं-

डब्बू के पिता एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया हैं जिसमें उनकी पत्नी और उनका बेटा है। वो अपने तीन वर्ष के बेटे डब्बू का एड्मिशन शहर के सबसे बड़े व प्रतिष्ठित कॉन्वेंट स्कूल में कराना चाहते हैं। एड्मिशन फॉर्म हासिल करने से लेकर इंटरव्यू तक तमाम गंभीर प्रयास करने के बावजूद उनके बेटे का प्रवेश उस स्कूल तो क्या किसी दूसरे कम प्रतिष्ठित तथाकथित अंग्रेजी स्कूल में भी नहीं होता। दोस्तों की सलाह पर वे अपने एक दूर के रिश्तेदार जो डी.एम. के स्टेनो हैं, के माध्यम से डी.एम. का सिफ़ारिशी पत्र लेकर स्कूल के फ़ादर/प्रिंसिपल से मिलते हैं जो उन्हें उल्टे पाँव लौटा देता है। कई मुलाकातों के बाद और इसके चक्कर में फ़ादर के कुत्ते से गर्दन पर कटवा लेने के बाद डब्बू के पिता से प्रिंसिपल द्वारा डोनेशन की मांग की जाती है। डोनेशन के लिए अपनी सारी जमा पूँजी और बीबी के जेवर से पैसे जुटाकर सौंप देने के बाद भी फादर की डिमांड पूरी नहीं हो पाती और वह निराश होकर बजरंग बली को कोसता हुआ घर लौट रहा होता है।

रास्ते में उसे अपना लंगोटिया यार फुन्नन मिल जाता है जो जरायम पेशा अपनाने के बाद माफ़ियागिरी करते हुए फुन्ननगुरू बन चुका है। शरीफ़ दोस्त की समस्या सुनकर वह मदद करता है और अपने रसूख के दम पर मिनटों में बिना फीस भरे डब्बू का एड्‍मिशन उसी स्कूल में करा देता है। 

कामतानाथ की यह कहानी दिखाती है कि अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने की अंधी दौड़ ने एक तरफ़ डोनेशन, कैपिटेशन फीस और ऐसे ही कई भ्रष्ट तरीकों का पोषण तो किया ही है वहीं एक ताकतवर शिक्षा माफ़िया का रास्ता भी बनाया है। निम्न मध्यमवर्ग के प्रायः सभी घरों की यह कमो-बेश वास्तविक कहानी है इसलिए यह दर्शकों से सहज तादात्म्य स्थापित कर लेती है। निर्देशक अखिलेश दीक्षित कहते हैं कि गली-गली में उग आये तथाकथित इंगलिश मीडियम (कॉन्वेंट) स्कूल आम भारतीयों की अंग्रेजी के प्रति गुलामी और अपनी भाषा के प्रति हीन भावना को कैश करते हैं। यह नाटक इसी विडम्बना को चित्रित करता है।

 

यह किसी सिनेमाघर की टिकट-खिड़की पर लगी लाइन नहीं है, बल्कि शहर के सबसे बड़े इंगलिश मीडियम स्कूल में एड्‍मिशन का फ़ॉर्म खरीदने वालों की लाइन है। सबसे पीछे खड़े हैं डब्बू के पापा जिन्हें फ़ॉर्म ब्लैक खरीदना पड़ा। 

डब्बू के पापा

डब्बू का एड्‌मिशन हो गया तो जिंदगी बदल जाएगी। हम भी ‘इंगलिश मीडियम स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे के माँ-बाप’ कहलाएंगे। सोसायटी में इज्जत बढ़ जाएगी।

हाय मेरी किस्मत

अंग्रेजी सीखो नहीं तो मुझे कोई और व्यवस्था करनी पड़ेगी। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली किराये की माँए भी मिलने लगी हैं।

रैपीडेक्स का रट्टा

रैपीडेक्स इंगलिश स्पीकिंग कोर्स का रट्टा चालू आहे। आई गो इंगलिस रीडिंग। यू स्लीप विदाउट ईटिंग…

सीट न मिली तो जमीन पर ही आसन

कुछ रीडर और प्रोफ़ेसर राकेश जी (ओ.एस.डी. संस्कृति) के साथ जमीन पर ही जगह पा सके। कवि आलोकधन्वा (छड़ी के साथ) ने भी नाटक देखा।

फादर के कुत्ते ने काट खाया

फ़ॉदर के कुत्ते का धन्यवाद जिसके काट काने से फ़ादर की सहानुभूति जागी। अपने हाथ से फ़र्स्ट-एड देने लगे तो बात चलाने का मौका मिला।

मंत्र मुग्ध दर्शक

फ़िल्म और नाट्यकला विभाग के अध्यक्ष प्रो रवि चतुर्वेदी को इतनी भीड़ की उम्मीद नहीं थी। हाल छोटा पड़ गया। जो लोग जगह नहीं पा सके उनके लिए दूसरा शो तत्काल बाद कराना पड़ा।

डोनेशन दोगे...

डोनेशन की चार सीटों में तीन भर गयी हैं। चौथी तुम्हें मिल सकती है लेकिन इसके लिए कुछ व्यवस्था…

इस नाटक में सूत्रधार की भूमिका निभाने वाले नीरज उपाध्याय ने अलग-अलग दृश्यों को जोड़ने और कहानी के सूत्र को बीच-बीच में जोड़ने के साथ-साथ कुत्ता, हनुमान, और पानवाला बनकर दर्शकों को हँसी से लोट-पोट कर दिया। डब्बू के पिता की भूमिका में रोहित कुमार ने जोरदार अभिनय क्षमता का परिचय दिया। खासकर संवाद अदायगी में  प्रत्येक पंचलाइन पर उन्होंने तालियाँ बटोरी। डब्बू के सामने हिंदी न बोलने कि मजबूरी में पूजा के समय इशारे से आरती का सामान न मांग पाने की मजबूरी का चित्रण गुदगुदाने वाला था। डब्बू की माँ बनी सुनीता थापा ने भी अपने सयाने अभिनय से एक निम्न मध्यमवर्गीय गृहिणी के चरित्र को सजीव कर दिया। शेष पात्रों में स्कूल के चपरासी की भूमिका में मनीष कुमार और ताऊ की भूमिका में रत्नेश मिश्रा भी सराहे गये।

मैंने यू-ट्यूब पर इस नाटक की कुछ झलकियाँ लगायी हैं जिन्हें आप निम्न लिंक्स चटकाकर देख सकते हैं।

१-पास में डब्बू था इसलिए हिंदी नहीं बोल पा रहा था

२-बीबी के जेवर दाखिले के लिए

३-फुन्नन गुरू का परिचय

४-गाँव से आए लालची ताऊ

प्रसंगवश:

वर्धा विश्वविद्यालय के इस शांत प्रांगण में रहकर देश के बड़े हिस्से में चल रही मंदिर-मस्जिद चर्चा और उससे दुष्प्रभावित दिनचर्या से अक्षुण्ण रहते हुए यहाँ दूसरे जरूरी मुद्दों पर सोचने का अवसर मन को सुकून देता है। अगले २-३ अक्टूबर को चार महान कवियों की जन्म शताब्दी का उत्सव कार्यक्रम यहाँ आयोजित है जिसमें देश के शीर्ष साहित्यकार जु्टकर सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन ‘अज्ञेय’, केदार नाथ अग्रवाल, शमशेर, बाबा नागार्जुन और फैज़ अहमद फैज़ की काव्य यात्रा पर गहन चर्चा करेंगे। उद्घाटन भाषण नामवर सिंह का होगा। बाद में वर्ष पर्यंत देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे कार्यक्रम कराये जाएंगे।

ब्लॉगरी की आचार संहिता विषयक विचारगोष्ठी व कार्यशाला भी बस अगले सप्ताहांत (९-१० अक्टूबर को) होगी। आमंत्रण पत्र भेजे जा चुके हैं। बड़ी संख्या में वरिष्ठ ब्लॉगर्स ने रेल आरक्षण कराकर सूचना भेज दी है। कुछेक अभी सो रहे हैं। आशा है जल्दी ही जागकर अपना प्रोग्राम बताएंगे। आप सबका स्नेह पाकर मेरा मन बहुत उत्साहित है। बस अब तैयारी पूरी करनी है।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

गृहस्थी जमती रहेगी, अब काम की बात…

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पिछले पन्द्रह दिनों से मैं अपने घर को स्थान्तरित करने की जद्दोजहद में लगा रहा। इस दौरान पोस्ट करने लायक अनेक सामग्री हाथ लगी, बहुत अच्छे आप सबसे बाँटने लायक अनुभव हुए, नये-नये लोगों से मुलाकात हुई और बिल्कुल नये वातावरण में स्थापित होने के अनेक खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए। इन सब बातों को मौका देखकर आपसे बताऊंगा। लेकिन अभी तो एक गम्भीर कार्यक्रम आ पड़ा है। इसलिए सबसे पहले यह काम की बात बता दूँ।

वर्धा में पाँव रखते ही कुलपति जी ने मुझे उस राष्ट्रीय ब्लॉगर गोष्ठी की याद दिलायी जो पिछले वर्ष इलाहाबाद में जबरदस्त सफलता के साथ सम्पन्न की गयी थी। (जो नये साथी हैं उन्हें यहाँ और यहाँ भी उस गोष्ठी की रिपोर्ट मिल जाएगी। फुरसतिया रिपोर्ट की गुदगुदी यहाँ है।) जैसा कि आप जानते हैं, वर्धा वि.वि. द्वारा इसे एक नियमित वार्षिक आयोजन बनाने का फैसला लिया गया था। इसी क्रम में कल कुलपति जी ने विशेष कर्तव्य अधिकारी राकेश जी को इस वर्ष के आयोजन की हरी झण्डी दिखा दी। फौरन राकेश जी ने एक विज्ञप्ति जारी कर मुझे इसकी कमान सौंप दी है। आप इसे देखिए-

ब्लॉगर गोष्ठी २०१०
ब्लॉगर गोष्ठी २०१० 001 

मुझे पूरा विश्वास है कि इस गोष्ठी को सफल बनाने के लिए आप सबका भरपूर सहयोग मुझे मिलेगा। आप की राय की प्रतीक्षा रहेगी। आप अपने सुझाव और प्रस्ताव अपनी टिप्पणियों से या सीधे मुझे ई-मेल से भेंज सकते हैं।

नोट: वर्धा आने के बाद मुझे आगाह किया गया कि बरसात की शुरुआत होने पर शुष्क पहाड़ों के ‘पंचटीला’ पर बसे इस विश्वविद्यालय के परिसर में प्रायः साँप और बिच्छू निकलते रहते हैं, जो जहरीले भी होते हैं। इसलिए सावधानी बरतना बहुत जरूरी है। मुझे वे जीवधारी तो अबतक दिखायी नहीं पड़े हैं, लेकिन मेरी पिछली पोस्ट पर आयी एक अनामी टिप्पणी ने यह भान करा दिया कि वह चेतावनी सिर्फ़ उन भौतिक जीवों के बारे में नहीं थी। परिणाम स्वरूप मुझे यहाँ भी सुरक्षा बरतते हुए टिप्पणियों पर मॉडरेशन का विकल्प चुनना पड़ा है। आशा है आप थोड़ा कष्ट उठाकर भी अपनी राय से हमें अवगत कराते रहेंगे। सादर!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

ये प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं?

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आजकल इण्टरमीडिएट परीक्षा और इन्जीनियरिंग कालेजों की प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित हो रहे हैं। इण्टर में अच्छे अंको से उत्तीर्ण या इन्जीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में अच्छी रैंक से सफलता हासिल करने वाले प्रतिभाशाली लड़कों के फोटो और साक्षात्कार अखबारों में छापे जा रहे हैं। कोचिंग सस्थानों और माध्यमिक विद्यालयों द्वारा अपने खर्चीले विज्ञापनों में इस सफलता का श्रेय बटोरा जा रहा है। एक ही छात्र को अनेक संस्थाओं द्वारा ‘अपना’ बताया जा रहा है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा चरम पर है। इस माहौल में मेरा मन बार-बार एक बात को लेकर परेशान हो रहा है जो आपके समक्ष रखना चाहता हूँ।

मैंने इन सफल छात्रों के साक्षात्कारों में इनकी भविष्य की योजना के बारे में पढ़ा। कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी का कहना है कि वे आई.आई.टी. या यू.पी.टी.यू. से बी.टेक. करने के बाद सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में शामिल होंगे। कुछ ने बी.टेक. के बाद एम.बी.ए. करने के बारे में सोच रखा है। यानि कड़ी मेहनत के बाद इन्होंने इन्जीनियरिंग के पाठ्यक्रम में दाखिला लेने में जो सफलता पायी है उसका प्रयोग वे केवल इन्जीनियरिंग की स्नातक डिग्री पाने के लिए करेंगे। सरकार का करोड़ो खर्च कराकर वे इन्जीनियरिंग सम्बन्धी जो ज्ञान अर्जित करेंगे उस ज्ञान का प्रयोग वैज्ञानिक परियोजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए नहीं करेंगे। ये अपनी प्रतिभा का प्रयोग उत्कृष्ट शोध द्वारा आधुनिक मशीनों के अविष्कार, निर्माण और संचालन की दक्ष तकनीक विकसित करने में नहीं करेंगे। बल्कि इनकी निगाह या तो उस सरकारी प्रशासनिक कुर्सी पर है जिसपर पहुँचने की शैक्षिक योग्यता किसी भी विषय में स्नातक मात्र है,  या आगे मैनेजमेण्ट की पढ़ाई करके निजी क्षेत्र के औद्योगिक/व्यावसायिक घरानों मे मैनेजर बनकर मोटी तनख्वाह कमाने की ओर है जिसकी अर्हता कोई सामान्य कला वर्ग का विद्यार्थी भी रखता है।

साल दर साल हम देखते आये हैं कि आई.आई.टी. जैसे उत्कृष्ट संस्थानों से निकलकर देश की बेहतरीन प्रतिभाएं अपने कैरियर को दूसरी दिशा में मोड़ देती हैं। जिन उद्देश्यों से ये प्रतिष्ठित  संस्थान स्थापित किए गये थे उन उद्देश्यों में पलीता लगाकर देश के ये श्रेष्ठ मस्तिष्क `नौकरशाह’ या `मैनेजर’ बनने चल पड़ते हैं। यह एक नये प्रकार का प्रतिभा पलायन (brain drain) नहीं तो और क्या है?

क्या यह एक कारण नहीं है कि हमारे देश में एक भी मौलिक खोज या अविष्कार नहीं हो पाते जिनसे मानव जीवन को बेहतर बनाया जा सके और पूरी दुनिया उसकी मुरीद हो जाय? यहाँ का कोई वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार के लायक क्यों नहीं बन पाता? हमें राष्ट्र की रक्षा या वैज्ञानिक विकास कार्यों हेतु आवश्यक अत्याधुनिक तकनीकों के लिए परमुखापेक्षी क्यों बने रहना पड़ता हैं? साधारण मशीनरी के लिए भी विदेशों से महंगे सौदे क्यों करने पड़ते हैं? आखिर क्यों हमारे देश की प्रतिभाएं अपने वैज्ञानिक कौशल का प्रयोग यहाँ करने के बजाय अन्य साधारण कार्यों की ओर आकर्षित हो जाती है? क्या यह किसी राष्ट्रीय क्षति से कम है?

इस साल जो सज्जन आई.ए.एस. के टॉपर हैं उन्हें डॉक्टर बनाने के लिए सरकार ने कुछ लाख रुपये जरूर खर्च किए होंगे। लेकिन अब वे रोग ठीक करने का ज्ञान भूल जाएंगे और मसूरी जाकर ‘राज करने’ का काम सीखेंगे। क्या ऐसा नहीं लगता कि चिकित्सा क्षेत्र ने अपने बीच से एक बेहतरीन प्रतिभा को खो दिया?

इसके लिए यदि नौकरशाही को मिले अतिशय अधिकार और उनकी विशिष्ट सामाजिक प्रतिष्ठा को जिम्मेदार माना जा रहा है तो राष्ट्रीय नेतृत्व को यह स्थिति बदलने से किसने रोका है? इस धाँधली(farce) में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में क्या हम सभी शामिल नहीं हैं?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

वर्धा में अम्बेडकर को याद करने का तरीका अनूठा था…

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मेरी वर्धा यात्रा की प्रथम, द्वितीय, और तृतीय रिपोर्ट आप यहाँ पढ़ चुके हैं। अब आगे…

विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस से जब हम सेवाग्राम आश्रम के लिए निकले तो धूप चढ़ चुकी थी। यद्यपि यह आश्रम घूमने का सबसे अच्छा समय नहीं था, लेकिन हमारे पास कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध भी नहीं था। हम वर्धा शहर के बीच से होकर ही गुजरे लेकिन रास्ते में कोई भीड़ भरी ट्रैफ़िक नहीं मिली। निश्चित ही गर्मी का असर सड़कों पर उतर आया था। हमें किसी मोड़, तिराहे या चौराहे पर रुककर सेवाग्राम का रास्ता पूछने के लिए गाड़ी से उतरकर किसी दुकानदार तक जाना पड़ता क्यों कि सड़क पर राहगीर नहीं मिल रहे थे। लेकिन हमें दो स्थानों पर इस कड़ी धूप को धता बताते लोग मिले जो पूरी सज-धज के साथ समूह में इकठ्ठा होकर किसी जश्न की तैयारी में जाते दिखायी दिए।

अम्बेडकर जयन्ती की धूम मैने नजदीक पहुँचकर देखा तो पता चला कि ये लोग बाबा साहब के जन्मदिन की शोभायात्रा निकाल रहे हैं। नीले अबीर का तिलक लगाकर एक दूसरे का अभिवादन करते लोगों में बड़े-बुजुर्ग, मर्द-औरतें, लड़के व लड़कियाँ, सभी मौजूद थे। एक अदम्य उत्साह और उमंग से लबरेज़ ये श्रद्धालु अपने नेता के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए जिस स्वतः स्फूर्त भाव से इस आयोजन में शामिल हो रहे थे उसे देखकर सहज ही अनुमान किया जा सकता था कि डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने किस प्रकार एक बहुत बड़े समाज को अपनी अस्मिता पर गौरव महसूस करने और सिर ऊँचा उठाकर जीने की प्रेरणा दे दी है।

एक पेट्रोल पंप के अहाते में जमा हो रहे समूह को पीछे छोड़कर जब हम सेवाग्राम में बापू के आश्रम के मुख्यद्वार पर पहुँचे तो वहाँ भी एक ऐसा ही जुलूस जश्न के उल्लास में डूबा हुआ मिला। एक खुली हुई गाड़ी पर बाबा साहब अम्बेडकर के आदमकद चित्र को सजाकर झाँकी तैयार की गयी थी जिसके सामने बड़ी संख्या में लड़के और वयस्क पुरुष नाच रहे थे। ढोल-नगाड़े और बैण्ड-बाजे की तेज ध्वनि पर उनके पाँव खुशी-खुशी तारकोल की गर्म सड़क पर भी सहजता से थिरक रहे थे। मैने गेट के किनारे गाड़ी खड़ी की और अपना कैमरा निकाल कर इस शोभा यात्रा की कुछ तस्वीरें लेनी चाही। लेकिन पहले स्नैप के बाद ही कैमरा स्वचालित तरीके से बन्द हो गया। स्क्रीन पर यह संदेश आया कि सीमा से अधिक गर्म हो जाने के कारण कैमरा बन्द हो रहा है। ए.सी. कार के डैश बोर्ड पर शीशे से छन कर आ रही धूप इस सोनी डिजिटल कैमरे की नाजुक कार्यप्रणाली को बन्द करने में सक्षम थी लेकिन अपने नेता के जन्मदिन को यादगार बनाने में जुटे उन लोगों के ऊपर कड़ी धूप का जरा भी असर नहीं दिखा। माथे पर नीली पट्टी बाँधे हुए दर्जनों नौजवान लड़के मोटरसाइकिलों पर फर्राटा भरते किसी बाराती का सा उत्साह लिए समूह में आ जा रहे थे।

जब वह शोभा यात्रा थोड़ी दूर चली गयी तो हम एक और महापुरुष की कर्मस्थली के प्रांगण में चले गये। यह था बापू का सेवाग्राम आश्रम। 

सन्‌ १९३४ मेंबापू यहाँ बैठकर काम करते गांधीजी को उनके प्रिय मित्र और प्रसिद्ध उद्योगपति जमनाबापू का दफ़्तरलाल बजाज ने वर्धा में निवास हेतु आमन्त्रित किया था। वर्धा के करीब शेगाँव (Shegaon) नामक ग्रामीण क्षेत्र में जंगली वनस्पतियों से हरे-भरे इलाके में बापू के रहने के लिए स्थानीय सामग्री के उपयोग से खपरैल की छत वाला जो मकान बना उसे अभी भी ज्यों का त्यों सजोकर रखा गया है।  सबसे पहले हम उसी ‘आदि निवास’ के बरामदे में पहुँचे।  हमने वहाँ उल्लिखित निर्देश के सम्मान में अपने पैर के जूते निकाल दिए। पूरे प्रांगण में पत्थर की छोटी गिट्टियों की परत बिछायी गयी थी जो धूप से गर्म तो हो ही चुकी थी, उनपर नंगे पाँव चलने से इनकी तीखी नोक से चुभन भी खूब हो रही थी। वहाँ कार्यरत एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि इस स्थान पर साँप और बिच्छू बहुत निकलते हैं। इन गिट्टियों के बीच उनका चलना कठिन होता है इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से यह गिट्टी डाली गयी है। एक्यूप्रेशर चिकित्सा में विश्वास करने वाले इन गिट्टियों पर नंगे पाँव चलना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद मानते हैं। एक कक्ष में साँप पकड़ने का पिजरा भी रखा हुआ था जिसमें साँपों को पकड़कर दूर जंगल में छोड़ दिया जाता था।

बताते हैं कि बापू के कार्यकाल में निर्मित भवनों जैसे- आदि निवास, बा-कुटी, बापू- कुटी, आखिरी निवास, परचुरे कुटी, महादेव कुटी, किशोर निवास, रुस्तम भवन इत्यादि में से किशोर निवास को छोड़कर किसी भी भवन में पक्की ईंटों व सीमेण्ट का प्रयोग नहीं किया गया था। इस प्रांगण में गांधी जी द्वारा व्यक्तिगत रूप से उपयोग की गयी वस्तुओं को करीने से सजाकर आगन्तुकों के दर्शनार्थ रखा गया है। आश्रम में आकर मेरा कैमरा अबतक ठण्डा हो चुका था इसलिए हमने कुछ यादगार तस्वीरें उतार लीं।

 दवात बापू द्वारा उपयोग की गयी संग्रहित वस्तुएं तीन बन्दर और लकड़ी का करण्डक
बापू का टेलीफोन गांधी जी का सामान

  बापू का चश्मा 

 

बापू कुटी का परिचय देता यह बोर्ड हमारा ध्यान बरबस खींचता है। इसमें सात सामाजिक पातक (social sins) उल्लिखित हैं जो यंग इण्डिया से उद्धरित हैं। समाज को पतन की ओर ले जाने वाले जिन तत्वों की पहचान गांधी जी ने तब की थी वे आज हमारे सामने प्रत्यक्ष उपस्थित हैं और उनका वैसा ही प्रभाव होता भी दिखायी दे रहा है। बापू कुटी का परिचय और सात सामाजिक पातक सिद्धान्तहीन राजनीति, विवेकभ्रष्ट भोग-विलास, बिना श्रम के अर्जित सम्पत्ति, मानवीय मूल्यों से विहीन वैज्ञानिक विकास, अनैतिक बाणिज्य-व्यापार, त्याग और बलिदान से रहित पूजा-पाठ, और चरित्र निर्माण से रहित शिक्षा  जैसे घटक हमारे समाज को आज भी अन्धेरे की ओर ले जा रहे हैं। यदि हमारे देश के नीति नियन्ता राष्ट्रीय स्तर पर इन्हीं विन्दुओं को दृष्टिगत रखकर नीति निर्माण करें और उनके अनुपालन की कार्ययोजना तैयार करें तो बहुत कुछ सुधारा जा सकता है।

प्रांगण में अनेक छायादार और फलदार वृक्ष दिखे जिनका रोपण देश की महान विभूतियों ने किया था और उनकी नाम पट्टिकाएं वृक्षों पर लगी हुई थीं। भारतीय स्वतंत्रता संगाम के अन्तिम दशक में देश का ऐसा कोई भी महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं रहा होगा जो वर्धा के सेवाग्राम आश्रम तक न आया हो। गांधी जी ने अपने जीवन के अन्तिम भाग में अधिकांश समय यहीं बिताया। विभाजन के बाद उपजे साम्प्रदायिक दंगो से लड़ने के लिए बंगाल के नोआखाली के लिए प्रस्थान करने के बाद गांधी जी यहाँ नहीं लौट सके।

इस प्रांगण से बाहर आकर हमने खादी की दुकान से कुछ खरीदारी की। भूख और प्यास ने जब हमें नोटिस थमायी तो हमें बगल के प्राकृतिक आहार केन्द्र की ओर जाना पड़ा। इस रेस्तराँ को देखकर हम झूम उठे। डाइनिंग टेबल के स्थान पर यहाँ चौकोर चौकियाँ रखी हुई थीं जिनके बीच में तिपाये पर ठण्डे पानी से भरे मिट्टी के घड़े रखे हुए थे।प्राकृतिक आहार केन्द्र, सेवाग्राम हमने वहाँ किसी फूल के अर्क से तैयार किया हुआ ठंडा स्वादिष्ट शरबत लिया, कुछ तस्वीरें ली और अपनी गाड़ी की ओर बढ़ चले। गेस्ट हाउस की कैण्टीन में बना भोजन हमारा इन्तजार कर रहा था।

शाम को गेस्ट हाउस के चबूतरे पर आयोजित एक अद्भुत कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला। अम्बेडकर जयन्ती के अवसर पर विश्वविद्यालय के संस्कृति विभाग ने इस विशेष कार्यक्रम का  आयोजन किया था। विभाग के विशेष कार्याधिकारी (OSD) राकेश जी ने कार्यक्रम के प्रथम चरण में डॉ. अम्बेडकर की राजनैतिक आर्थिक दृष्टि और आज का समय विषय पर बोलने के लिए नागपुर से आमन्त्रित प्रोफ़ेसर श्रीनिवास खान्देवाले का परिचय दिया। अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वान प्रोफ़ेसर खान्देवाले ने करीब एक घण्टे के अपने भाषण में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जिस व्यक्तित्व से परिचित कराया उसे इतनी गहराई से हम पहले नहीं जान पाये थे। भारतीय संविधान के निर्माता और दलित समुदाय के मसीहा के रूप में अम्बेडकर की जो छवि हमारे मन में थी उसके दो रूप थे। एक रूप वह था जिसमें वे राजनैतिक रूप से जागरूक हो रहे एक खास सामाजिक जाति वर्ग के प्रेरणापुंज और उपास्य देवता थे जिनकी अन्धभक्ति में डूबे हुए लोग अपने समर्थक समूह से इतर प्रत्येक व्यक्ति को मनुवादी कहकर गाली देने का काम करते रहे हैं।

उनकी छवि का दूसरा रूप वह था जो अरुण शौरी जैसे लेखकों द्वारा ‘फर्जी भगवान’ के रूप में गढ़ा गया था- जिसके प्रति विद्वेष से भरे हुए लोगों द्वारा चौराहे पर लगी उनकी मूर्तियों को तोड़ने, अपमानित करने और एक जाति विशेष के लोगों के लिए अपशब्द प्रयोग करने और उत्पीड़ित करने का जघन्य कार्य किया जाता रहा है।  कदाचित्‌ डॉ. अम्बेडकर को एक खास राजनैतिक उद्देश्य से इस्तेमाल करने की होड़ में लगी पार्टियों ने इस प्रकार की परस्पर विरोधी छवियों का निर्माण कर रखा है। प्रो. खान्देवाले ने अपने वक्तव्य में अम्बेडकर की एक मध्यमार्गी छवि पेश की। उनका कहना था कि अम्बेडकर की दृष्टि सच्चे समाजवाद से ओतप्रोत थी। वे शान्तिपूर्ण ढंग से सामाजिक परिवर्तन लाने के हिमायती थे। उनकी राजनैतिक दृष्टि तो उनके द्वारा तैयार किये गये हमारे संविधान में परिलक्षित होती ही है, साथ में उनकी आर्थिक दृष्टि को भी संविधान के सूक्ष्म अध्ययन से समझा जा सकता है।रजिस्ट्रार, प्रतिकुलपति और कुलपति के साथ प्रो. श्रीनिवास खान्देवाले (सबसे दाएं)

समाज में फैली घोर आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए सम्पत्ति का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होना आवश्यक है लेकिन हो रहा है इसका उल्टा। गरीब मजदूर और किसान अपनी विकट परिस्थिति से हारकर आत्महत्या कर रहे हैं और पूँजीपति वर्ग लगातार अपनी सम्पत्ति बढ़ाता जा रहा है। आई.पी.एल. के अर्थशास्त्र का उदाहरण देकर उन्होंने बताया कि जबतक समाज के पिछ्ड़े तबके को आर्थिक उन्नति के उचित और न्यायपूर्ण अवसर नहीं प्राप्त होंगे तबतक सामाजिक समरसता नहीं पायी जा सकेगी। यही उचित अवसर दिलाने की लड़ाई शान्तिपूर्ण तरीके से लड़ने की राह डॉ.अम्बेडकर ने दिखायी। पारस्परिक विद्वेष को भुलाकर इस लड़ाई में समाज के सभी तबकों से बराबर का सहयोग करने का आह्वान भी प्रो. खान्देवाले ने वहाँ उपस्थित छात्रों, अध्यापकों और वि.वि. के पदाधिकारियों से किया।

कार्यक्रम के अगले चरण में लखनऊ से आयी संगीत मण्डली रवि नागर एण्ड ग्रुप ने कुछ बेहतरीन कविताओं का मोहक संगीतमय पाठ किया। इसमें सबसे पहले डॉ.दिनेश कुमार शुक्ल के कुछ दोहे गाकर सुनाये गये-

भाषा के सोपान से, शब्द लुढकते देख।

पढ़ा लिखा सब पोंछकर, लिखो नया आलेख॥

जीवन को अर्था रहा, गूंगा बहरा मौन।

किसने देखा राम को, रमता जोगी कौन॥

सीली-सीली है हवा, ठण्डी-ठण्डी छाँव।

सन्निपात का ज्वर बढ़ा, झुलस रहा है गाँव॥

यहाँ न सूर्योदय हुआ, यहाँ न फैली धूप।

कालरात्रि फैली रही, जैसे अन्धा कूप॥

काले भूरे खुरदुरे, ले अकाल के रंग।

गगन पटल पर लिख रहा, औघड़ एक अभंग॥

जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के जीवन पर आधारित निर्मला पुतुल की कविता ‘तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारो, पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते पेट तुम्हारा’  के भावुक प्रस्तुतिकरण ने वातावरण बहुत मार्मिक बना दिया। इसके बाद अदम गोंडवी की प्रसिद्ध रचना चमारों की गली का गायन हुआ। आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को। मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको॥

इस एक घंटे की संगीतमय प्रस्तुति ने दलित शोषित समाज की जिस कष्टप्रद और शोचनीय परिस्थिति की जिन्दा तस्वीर पेश की उसको और गहनता से महसूस कराया कार्यक्रम के अगले चरण में प्रस्तुत नुक्कड़ नाटक ‘सात हजार छः सौ छियासी’ ने।

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प्रोबीर गुहा निर्देशित नुक्कड़ नाटक७६८६

विश्वविद्यालय के फिल्म व थिएटर विभाग के विद्यार्थी कलाकारों द्वारा इसे कोलकाता के नाट्य समूह ‘अल्टरनेटिव लिविंग थिएटर’ के प्रोबीर गुहा के नाट्य निर्देशन में प्रस्तुत किया गया। श्री गुहा वि.वि. के गेस्ट फैकल्टी हैं जो कुछ दिनों के लिए यहाँ आये हुए थे। महाराष्ट्र में कपास किसानों द्वारा बड़ी संख्या में की जा रही आत्महत्या के पीछे जो सामाजिक-आर्थिक कारण हैं उन्हें समझाने का यह बहुत ही प्रभावशाली प्रयास था।  भयंकर गरीबी के बीच नैसर्गिक जिजीविषा से प्रेरित किसान अपनी जमीन पर कपास उगाने में खाद, बीज और कीटनाशक के लिए आने वाली तमाम कठिनाइयों से लड़ता हुआ, पूँजीपतियों, ऋणदाता बैंको, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, भ्रष्ट नौकरशाहों, विपरीत मौसम और पर्यावरण की तमाम समस्यायों से जूझता हुआ जब अपना तैयार माल बाजार में बेंचने ले जाता है तो वहाँ लालची दलालों के हाथों पड़कर अपना सर्वस्व लुटा देता है। ऐसे में जब यह रिपोर्ट आती है कि विदर्भ क्षेत्र में ७६८६ किसानों ने आत्महत्या कर ली तो मात्र कुछ दिनों के लिए हाहाकार मचता है। उसके बाद स्थिति जस की तस हो जाती है।

चौदह अप्रैल की वह शाम मेरे लिए अभूतपूर्व अनुभवों वाली साबित हुई। एक के बाद एक उम्दा कार्यक्रमों को देखने-सुनने का मौका पाकर मुझे वहाँ कुछ और दिन रुकने का मन हो चला लेकिन ये मुई सरकारी नौकरी इतने भर की छुट्टी भी बड़ी मुश्किल से देती है। हम अगले दिन विश्वविद्यालय के नवनिर्मित प्रशासनिक भवन, पुस्तकालय व विभिन्न विद्यापीठ देखने टीले के ऊपर गये। DSC02667 वित्त अधिकारी मो.शीस खान से मिलने के बाद हम अन्त में कुलपति जी के कार्यालय में गये। आधुनिक सुविधाओं और संचार साधनों  से लैस कार्यालय में कुर्ता पाजाम पहनकर श्री विभूति नारायण राय एक साथ दक्षता, सादगी और कर्मठता का परिचय दे रहे थे। इस शुष्क टीले को हरा-भरा करके उसपर स्थापित अनेक उत्कृष्ट विद्यापीठों में पठन-पाठन व शोध सम्बन्धी गतिविधियों को गति प्रदान करने का जो कार्य आपने शुरू किया है वह किसी भगीरथ प्रयत्न से कम नहीं है।

हमने उनकी मेज पर रखे कम्प्यूटर से अपने रेल टिकट का पी.एन.आर. स्टेटस जाँचा और टिकट कन्फ़र्म होने की खुशी का भाव लिए  उनसे विदा लेकर विनोद जी के साथ सेवाग्राम स्टेशन के लिए चल पड़े।

(समाप्त)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 

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