लखनऊ में प्रेमचंद और ‘लमही’

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premchandआज प्रेमचंद की जन्मतिथि है। लखनऊ में उनकी याद में अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए। कल भी उनकी कहानियों का मंचन, विचारगोष्ठी, परिचर्चा इत्यादि आकार्यक्रम योजित किये गए। आज के अखबारों में उनकी प्रचुर चर्चा रही। आज उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में रवीन्द्र कालिया जी बोलने आये थे। लगभग उसी समय उनकी धर्मपत्नी ममता कालिया जी सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के सभागार में ‘लमही सम्मान’ ग्रहण कर रही थीं। वर्धा विश्‍वविद्यालय के कुलपति जी ‘लमही सम्मान’ कार्यक्रम में ही आने वाले थे इसलिए मैं भी वहीं चला गया। वहाँ जनसंदेश टाइम्स के संपादक डॉ. सुभाष राय जी मिले। उनके अखबार में प्रेमचंद जी पर सुविचारित संपादकीय आलेख के साथ अन्य संबंधित सामग्रियाँ भी प्रमुखता से छपी थीं जिसे सभागार में निःशुल्क वितरित किया गया। उसे पढ़ते हुए कार्यक्रम में विलम्ब की बात किसी को नहीं खटकी।

इस अखबार के मुखपृ्ष्ठ पर विभूतिनारायण राय का बेबाक आलेख छपा है : नेपथ्य से अब मंच पर आ गया है अपराधी। वरिष्ठ आई.पी.एस. श्री राय लिखते हैं कि –

“पुराने वाले, समाज से वहिष्कृत, पुलिस के डर से जंगलों में भागने वाले अपराधी की जगह अब एक ऐसे अपराधी ने ले ली है जो लक्ज़री गाड़ियों में घूमता है, मोबाइल फोन से अपने शिकार से संपर्क करता है, शहर के बीचोबीच कॉलोनी में रहता है और गाहे-बगाहे आप उसे खुली जीप में फूल मालाओं से लदे जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए समर्थकों के साथ बीच शहर से गुजरते हुए देख सकते हैं। इस अपराधी के पास अकूत धन है, आधुनिकतम हथियार हैं और सबसे बड़ी बात है कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। अब लोग उससे नफरत नहीं करते बल्कि चाहते हैं कि उनके बच्चों में से कोई उस जैसा बने”

पूरा आलेख पठनीय है। इसे ऑनलाइन खोजकर पढ़ा जा सकता है।

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हम यह अखबार पढ़ ही रहे थे कि कार्यक्रम प्रारंभ हो गया। ममता जी (2009) के अलावा वर्ष 2010 का ‘लमही सम्मान’ मशहूर अफ़साना निग़ार साजिद रशीद (अब दिवंगत) साहब को दिया गया। डॉ. श्रुति द्वारा औपचारिक प्रशस्ति वाचन के बाद ममता जी की कहानियों पर चर्चा हुई। प्रतिष्ठित कथाकार और साहित्य संपादक अखिलेश जी (तद्‍भव वाले) ने ममता जी की कहानियों  और उपन्यासों की चर्चा करते हुए उन्हें आधुनिक परिवेश की पूर्वदर्शी लेखिका बताया और उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ा। इनके अपने समय की ‘बोल्ड’ लेखिका होने की बात लगभग सभी वक्ताओं ने दुहरायी। अध्यक्षीय भाषण करते हुए कामतानाथ जी ने तो इनकी एक बहुचर्चित कविता की चार लाइनें सुना डाली जिसमें ‘प्यार’ नामक शब्द के घिसकर चपटा हो जाने की बात की गयी है और इससे आगे बढ़ने की इच्छा खुलेआम व्यक्त की गयी है। कवि नरेश सक्सेना ने भी इनकी प्रशंसा में कविता पढ़ी।

प्रेमचंद के पैतृक गाँव के नाम पर अपनी पत्रिका शुरू करने वाले ‘लमही’ त्रैमासिक के प्रधान संपादक विजय राय ने इस प्रकाशन और सम्मान कार्यक्रम के निहित उद्देश्यों, लक्ष्यों व अबतक की उपलब्धियों पर लिखित आलेख पढ़कर प्रकाश डाला। मंच संचालक डॉ. सुशील सिद्धार्थ ने अन्य औपचारिकताएँ पूरी करायीं।

लगातार प्रशंसा सुनसुनकर उकता चुकी ममता जी जब बोलने आयीं तो अपने भाव छिपा न सकीं। बोलीं- यह बहुत विचित्र स्थिति है जब आपको मंच पर बिठा दिया जाय और एक के बाद एक आपकी तारीफ़ के पुल बाँधे जाय। यह सुनना आसान काम नहीं है। मैं बहुत संकोच का अनुभव कर रही हूँ। फिर उन्होंने जोड़ा कि लेखक की खुराक होती है – उपेक्षा और तिरस्कार। सारा जीवन इसी का अनुभव करते बीतता है। ऐसे में जब कहीं सम्मान मिलने लगता है तो मन में एक अजीब सा संकोच बैठ जाता है।

आगे उन्होंने साहित्य जगत के बड़े पुरस्कारों में होने वाली धाँधली की चर्चा की। कह रही थीं कि वह दिन दूर नहीं जब रात के बारह बजे कोई सरकारी अधिकारी आपका दरवाजा खटखटाएगा और चुपके से दो-तीन लाख का साहित्यिक पुरस्कार गले लगाकर चला जाएगा। दुनिया जान भी नहीं पाएगी कि किसे क्या मिला और क्यों मिला।

आह, ऐसा दिन (या रात?) मेरे घर कब आएगा…?Sad smile

आज मेरी इच्छा तो थी प्रेमचंद की एक विलक्षण कहानी पढ़वाने की, क्योंकि उन्हें याद करने का बेहतरीन तरीका तो उनकी रचनाओं में डूब जाना ही है; लेकिन यही आख्यान लम्बा हो गया है। राम कहानी तो और भी है। लेकिन अब पब्लिश बटन दबाना ही होगा नहीं तो यह जुलाई खाली चली जाएगी। शेष बातों के लिए अब अगली पोस्ट की प्रतीक्षा कीजिए। इसबार बहुत जल्द लौटूंगा !Smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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स्वस्थ और ईमानदार मीडिया मात्र खुशफ़हमी : विभूति नारायण राय

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साबुन की फैक्ट्री चलाने वाली मानसिकता छोड़नी होगी अखबार के मालिकों को…

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि कैसे एक प्रतिष्ठित अखबार के प्रबंध संपादक ने अखबार की दुनिया की कथित ‘सच्चाई’ बताते हुए अखबार पढ़ने वालों की प्रतिबद्धता और पत्रकार बिरादरी की शक्तियों पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिये थे। उनके बाद हिंदी साहित्य की दुनिया के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर प्रो. गंगा प्रसाद विमल बोलने आये। उन्होंने बिना लाग-लपेट के अखबार मालिकों और संपादकों पर हमला बोल दिया। बोले- आज हमारे बीच अखबारों की संख्या और प्रसार में बहुत वृद्धि हो गयी है लेकिन अखबारों ने आम पाठक की चिंता करना छोड़ दिया है। उन्होंने अपने वक्तव्य में मीडिया जगत पर तीन गम्भीर आरोप लगाये-

  1. अत्यल्प को छोड़कर अधिकांश संपादक बिचौलिए की भूमिका निभा रहे हैं।
  2. अंग्रेजी अखबारों ने भारतीय भाषा के अखबारों के साथ घोर दुष्कृत्य किया है।
  3. एक आम पत्रकार के लिए ‘प्रोफ़ेशनलिज़्म’ का सीधा अर्थ है अपने मालिक के लिए पैसा खींचना।

अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि आजकल मनुष्यता का सवाल कहीं नहीं उठाया जा रहा है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ क्या व्यवहार होना चाहिए इसपर कुछ उच्‍च आदर्शात्मक (lofty) किस्म की बातें प्राथमिक स्तर की स्कूली किताबों में भले ही मिल जाय लेकिन अखबारों और दूसरी मीडिया से यह गायब हो गयी हैं। आजकल ऊँची तनख्वाह पर काम करने वाले बड़े पत्रकार अपने मालिक के ‘टटके गुलाम’ हो गये हैं। व्यावसायिक हित सर्वोपरि हो गया है। भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझना, इसे मिटाने के वैश्विक षड़यंत्र को पहचानना और उसे निष्फल करने के लिए देश को तैयार करने की जिम्मेदारी मीडिया में बैठे बुद्धिजीवियों की है; लेकिन इनके बीच ऐसे लोग घुसे हुए हैं जिनका एजेंडा ही अलग है। आज मीडिया को बाहर से कम चुनौतियाँ दरपेश हैं। भीतर के लोगों से ही खतरा है जिनसे लड़ना जरूरी हो गया है।

इनके बाद बोलने की बारी सत्र की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय की थी। उनके बोलने से पहले श्रोताओं को पूर्व वक्ताओं से प्रश्न करने का अवसर दिया गया। अनेक छात्र तो जैसे इसी पल का इंतजार कर रहे थे। प्रश्नों की झड़ी लग गयी। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ  की ऐसी रूपरेखा की कल्पना कदाचित्‌ आदर्श पत्रकारिता का स्वप्न पाल रहे विद्यार्थियों ने नहीं की होगी। मुनाफ़ा कमाने के हिमायती प्रबंध संपादक को अपनी स्थिति स्पष्ट करने दुबारा आना पड़ा। भारतीय समाज में व्याप्त अन्याय और शोषण के विरुद्ध आम जनता को न्याय दिलाने और उसके लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने के माध्यम के रूप में इन समाचार माध्यमों की जवाबदेही के प्रश्नों का उनके पास फिर भी कोई जवाब नहीं था। प्रश्नों का शोर जब थमने का नाम नहीं ले रहा था तब कुलपति जी ने माइक सँभाला।VNRai-last-words

बोले- पूर्व के एक वक्ता की यह धारणा कि चालीस पेज़ के अखबार के लिए दो रूपये देने वाले पाठक कोई हक नहीं रखता सर्वथा ग़लत  है। अखबार मालिक ने अपनी पूँजी जरूर लगा रखी है लेकिन पाठक के stakes अखबार वालों से ज्यादा हैं। उसका पूरा जीवन ही दाँव पर लगा है। वह ज्यादा बड़ा जोखिम उठा रहा है। मार्क ट्वेन को उद्धरित करते हुए उन्होंने कहा- “If you don’t read newspapers, you are uninformed; but if you read newspapers you are misinformed’’

आज जिस ठसक के साथ अखबार के पूँजीपति मालिक के मुनाफ़े के हक में दलील दी जा रही है वह कभी शर्म की बात मानी जाती थी। कोई संपादक या दूसरे बुद्धिजीवी ऐसी बात कहते झेंपते थे। लेकिन अब समय बदल गया है। यह बिडम्बना ही है कि आम जनता में ही दोष निकाले जा रहे हैं। यह वैसा ही है जैसा ब्रेख्त ने कहा था कि राजा अब बदला नहीं जा सकता इसलिए अब प्रजा को ही बदल देना होगा। यह स्थिति कतई ठीक नहीं है। जनता के प्रति अखबार की जिम्मेदारी उस प्रकार की नहीं है जैसी किसी फैक्ट्री मालिक की अपने उत्पाद के ग्राहकों के प्रति।

उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करने के लिए प्रसिद्ध संपादक स्व.राजेंद्र माथुर जी के साथ अपनी एक बहस का हवाला दिया। वृंदावन में आयोजित एक गोष्ठी में राजेन्द्र माथुर जी ने कुछ ऐसे ही विचार रखते हुए कहा था कि एक स्टील कारखाना लगाने वाला उद्योगपति अथवा साबुन की फैक्ट्री चलाने वाला मालिक अपने निवेश पर लाभ कमाने के लिए स्वतंत्र है; लेकिन अखबार निकालने के लिए करोड़ो खर्च करने वाला हमारा मालिक यदि कुछ मुनाफ़ा कमाना चाहता है तो आपको यह बुरा क्यों लगता है? उस समय (1980 के दशक) की परिस्थितियों को देखते हुए यह बड़ा ही साहसिक वक्तव्य था। उनकी इस बात का विरोध उस समय भी हुआ था और आज भी इस तरह की सोच को नकारा जाना चाहिए।

कुलपति जी ने बताया कि स्टील या साबुन का कारखाना चलाने की तुलना में अखबार निकालना एकदम अलग किस्म का कार्य है। यदि किसी कारणवश स्टील या साबुन की फैक्ट्री बंद होने की नौबत आ जाय तो उससे आम जनता आंदोलन नहीं करती। लेकिन अखबार पर यदि किसी तरह की पाबंदी लगती है तो जनता सड़कों पर उतर आती है। राजीव गांधी के जमाने में सेंसरशिप कानून लगाने की कोशिश हुई तो पूरे देश में उबाल आ गया था। मीडिया को जो शक्तियाँ मिली हुई हैं वह इसी पाठक ने दी हैं। दो रूपये में अखबार देकर आप न तो एहसान कर रहे हैं और न ही घाटे में है। आप करोड़ों के विज्ञापन इसी जनता के कारण पाते हैं।

बाद के सत्रों में साधना चैनल प्रमुख व ब्रॉडकास्टिंग एडीटर्स एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी एन.के.सिंह, आईबीएन के वरिष्‍ठ संवाददाता अनन्‍त विजय, दैनिक भास्‍कर के समूह संपादक प्रकाश दूबे, लोकमत समाचार- नागपुर के संपादक गिरीश मिश्र, सुपसिद्ध न्यूज एंकर और स्‍तंभकार पुण्‍य प्रसून वाजपेयी, हिंदुस्तान टाइम्स के प्रदीप सौरभ इत्यादि ने विस्तार से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की वस्तुनिष्ठता, सामाजिक सरोकार और जिम्मेदारियों को समझने के बारे में सुंदर वक्तव्य दिये।

प्रो.गंगा प्रसाद विमल और विभूतिनारायण राय द्वारा लगाये गये आरोपों (बिचौलियापन व भ्रष्ट आचरण) पर अनंत विजय ने गम्भीर आपत्ति दर्ज़ करते हुए कहा कि हमारे बारे में इस प्रकार का सामूहिक आरोप लगाने के पहले  आपको सबूत जुटाना चाहिए। आप एक जिम्मेदार पद पर रहते हुए जब भी कुछ कहते हैं तो पूरा देश उसपर ध्यान देता है और अपनी राय बनाता है।

उक्त आपत्ति का जवाब देते हुए कुलपति जी ने अपनी पूरी बात दुहराते हुए अंत में कहा कि इस समय जब हमारे समाज के सभी अंग भ्रष्टाचार की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, मैं अपनी उस मूर्खता को कोस रहा हूँ जो एक स्वस्थ और ईमानदार मीडिया की इच्छा रखती है। लेकिन यदि हमने आशावाद नहीं बनाये रखा तो जल्दी ही हम cynical state में चले जाएंगे।

 

इस कार्यक्रम से संबंधित कुछ और रिपोर्टें यहाँ और यहाँ हैं।

Infotainment के दौर में भी नैतिक मूल्यों को बचाये रखना और जीवन से इनके जुड़ाव को रेखांकित करना एक सजग संपादक की जिम्मेदारी है।

प्रो.राम मोहन पाठक, वाराणसी

लोकतंत्र के सारे स्तंभ धराशायी हो रहे हैं, मीडिया भी। पत्रकारों को अपना कैनवास बड़ा करना होगा और विश्वसनीयता (credibility) बनाये रखनी होगी।

पुण्य प्रसून वाजपेयी- ZEE News

द्रौपदी के चीर हरण के समय भीष्म की भाँति यदि आज की मीडिया खामोश रह गयी तो लोकतंत्र की वेदी पर दुबारा महाभारत होगा।

गिरीश मिश्र, संपादक-लोकमत समाचार

ज्यादातर संपादक आजकल मालिक के लिए बिचौलिये की भूमिका निभा रहे हैं। पत्रकार का प्रोफ़ेशनलिज़्म मालिक के लिए पैसा खींचना हो गया है।

प्रो.गंगा प्रसाद विमल, जे.एन.यू. (से.नि.)

सबको समान रूप से आरोपित करना ग़लत है। मीडिया में अच्छे लोग भी काम कर रहे हैं। टीआरपी के आँकड़े दोषपूर्ण हैं। लाइसेंसिंग प्रक्रिया में सुधार जरूरी।

अनंत विजय- आई.बी.एन.

अब क्षेत्रीय अखबार की परिभाषा बदल रही है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भाषाई अखबारों का बड़ा नुकसान किया है। मत्स्य न्याय का वातावरण बन गया है।

प्रदीप सौरभ- मीडिया समीक्षक, स्वतंत्र पत्रकार नयी दिल्ली

मीडिया का स्वरूप तकनीक ने बदल दिया है। अब इसकी पहुँच और रफ़्तार दोनो बढ़ चुकी है। हमें इसके साथ तालमेल बिठाना होगा।

प्रो.प्रदीप माथुर, IIMC, N.Delhi

मिशनरी पत्रकारिता का स्थान कमीशनरी पत्रकारिता ने ले लिया है। क्षेत्रीय पत्रकारों से लोग वैसे ही डरते हैं जैसे पुलिस से।

राजकिशोर, स्तम्भकार व राइटर इन रेजीडेंस, वर्धा वि.वि.

संपादक नामक संस्था का क्षरण हो रहा है। अब व्यावसायिक मालिक की महत्ता बढ़ गयी है। पत्रकारों को पैसा अधिक मिल रहा है लेकिन आजादी छिन गयी है।

शीतला सिंह- जनमोर्चा, फैज़ाबाद 

(compulsive corruption) भ्रष्टाचार अब मजबूरी भी हो गयी है। न केवल सरकारी क्षेत्र में बल्कि मिडिया जगत में भी।

सोमनाथ पाटील- सकाळ, पुणे

स्थानीय जरूरतों के हिसाब से मीडिया को अपना स्वरूप बदलना होगा। भविष्य का मीडिया ‘कम्यूनिटी रेडियो’ होगा। इसमें मालिकाना नियंत्रण स्थानीय समूह का ही होगा।

डॉ.गिरिजा शंकर शर्मा, आगरा

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

क्या अखबार का पाठक चिरकुट है…?

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राष्ट्रीय संगोष्ठी में बहस का मुद्दा बना एक प्रबंध संपादक का बयान

देश की प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रतिनिधि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में जुटे थे। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले प्रोफ़ेसर, बड़े अखबारों के संपादक और न्यूज चैनेल्स के एंकर सिर जोड़कर वर्धा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के छात्रों और अकादमिकों को मीडिया की असली दुनिया से परिचित करा रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता पर बहस चल रही थी। मीडिया द्वारा मिशन छोड़कर व्यावसायिकता की ओर मुड़ जाने पर चिंता व्यक्त की जा रही थी। मीडिया और राडिया के अंतर्सम्बन्ध खंगाले जा रहे थे। तभी एक प्रतिष्ठित अखबार के प्रबंध संपादक ने यह मंतव्य रखा कि जब एक साबुन की टिकिया के लिए लोग अपना अखबार बदल देते हैं तो उनसे प्रतिबद्धता की उम्मीद क्या की जाय। दो-ढाई रूपये देकर क्या उन्होंने अखबार के मालिक को खरीद लिया है जो उससे मिशन और नैतिकता की अपेक्षा करते हैं?

पाठकों को उक्त प्रकार से चिरकुट बताने से पहले उन्होंने पत्रकारों को भी उनकी औकात बताने की कोशिश की। बोले- आप इस भ्रम में मत रहिएगा कि यह राज-काज आपके भरोसे चल रहा है। आपकी स्थिति उस छिपकली जैसी है जो छत से चिपककर यह भ्रम पाल बैठी है कि इसे उसी ने रोक रखा है; या हाथी की पीठ पर बैठी उस मक्खी की तरह है जो उसे छोड़कर अकेले जंगल में इसलिए नहीं जाने देती कि उसके बिना इसकी (हाथी की) रक्षा नहीं हो सकेगी।

उनके पहले के वक्ताओं ने “मिशनरी पत्रकारिता- संदर्भ और प्रासंगिकता” नामक विषय पर बोलते हुए देश में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार, माफ़ियागीरी, घोटालों, इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका पर अनेक सुंदर व्याख्यान दिए थे और भविष्य के मीडियाकर्मियों को उनकी बढ़ती जिम्मेदारियों का बोध कराने का प्रयास किया था। चहुँओर निराशा के घने बादलों के बीच आशा का एक मात्र सूरज समाज के चौथे स्तंभ को बताया गया था। तब प्रबंध सम्पादक जी ने अपनी बात की शुरुआत एक रोचक कहानी से की थी-

बताने लगे- एक वृद्ध मौलवी लैंप पोस्ट के नीचे सड़क पर बहुत देर से कुछ ढूँढ रहा था।  एक नौजवान को उसकी परेशानी देखी नहीं गयी। सहायता करने की गर्ज़ से पूछा- बाबा क्या खोज रहे हो?

“बेटा, मैं अपनी टोपी सी रहा था, अचानक सुई हाथ से गिर गयी। वही ढूँढ रहा हूँ लेकिन मिल नहीं रही है” मौलवी ने तफ़सील से बताया।

“अच्छा बताइए टोपी कहाँ सिल रहे थे और सूई ठीक कहाँ गिरी? मैं खोजता हूँ।” युवक ने सहानुभूति दिखायी।

“बेटा सुई तो मस्ज़िद में गिरी थी लेकिन वहाँ बहुत अंधेरा है इसलिए यहाँ रोशनी में ढूँढ रहा हूँ।”

हाल में ठहाका लगना तय था ही। तालियाँ थमीं तो उक्त वक्ता ने बताया कि आज यहाँ की चर्चा भी कुछ इसी प्रकार की हो रही है। समस्या की असली जड़ जहाँ है उसे कोई नहीं देखना चाहता। सबका समाधान मीडिया से कराना चाहता है। देश की सरकारें भ्रष्ट है, संसद अपना काम नहीं कर पा रही। न्यायालय भी संदेह से परे नहीं रह गये हैं। उद्योगपति तेजी से अपना पैसा बढ़ा रहे हैं। गुप्त गठबंधन हो रहे हैं। हर आदमी लाभ कमाने के उद्यम में लगा है, लेकिन मीडिया को नैतिकता और मिशन का पाठ पढ़ाया जाता है। जब हम मीडिया में प्रोफ़ेशनलिज़्म की बात करते हैं तो इसे गाली समझा जाता है। आजादी से पहले अखबारों ने एक मिशन के साथ काम किया था- देश को गुलामी से मुक्त कराने का मिशन। लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है। आज यह अन्य प्रोफेशन्स की तरह एक पेशा के रूप में क्यों नहीं पहचाना जाना चाहिए? अख़बार या टीवी चैनेल का जो मालिक करोड़ो रुपये का पूँजी निवेश करता है उसे लाभ कमाने के बारे में क्यों नहीं सोचना चाहिए? मात्र दो रूपये में चालीस पृष्ठ का अखबार आपके दरवाजे पर पहुँचाने का प्रबंध करने वाला अखबार मालिक आपके बारे में कितना सोचे जब आप दो रुपये की साबुन की टिकिया पाने के लिए अपना वर्षों पुराना अखबार बदल देते हैं। आपकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है तो अखबार चलाने वालों से आप क्या अपेक्षा रखते हैं?

उन्होंने अखबार पहुँचाने वाले हॉकर के प्रति पाठकों के रूखे व्यवहार का वर्णन भी किया कि कैसे वह विपरीत मौसम में भी सुबह छः बजे घर पर अखबार पहुँचाता है और कभी देर हो जाने पर सुबह की चाय का स्वाद खराब कर देने का दोषी बन जाता है। बिना नागा किए तीस दिन अखबार देने के बाद जब वह पैसा लेने पहुँचता है तो महानुभावों को  ‘आज नहीं कल’ का जवाब देते देर नहीं लगती। “ऐसे लोग जब बिना जाने समझे अखबार के मालिक, अखबार के सम्पादक और अखबार के रिपोर्टर पर आरोप लगाते हैं तो मुझे आपत्ति होती है।”

कोई भी व्यवसाय जब प्रारम्भ किया जाता है तो उसकी प्रगति का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। लाभ कमाना एक सर्वमान्य लक्ष्य है। उसके लिए जरूरी उपाय तलाशे जाते हैं और उन्हें अपनाया जाता है। स्वतंत्रता मिलने के बाद पत्रकारिता भी किसी अन्य  व्यवसाय की तरह कुछ लक्ष्यों की पूर्ति के उद्देश्य से आगे बढ़ी। समय के साथ तालमेल बिठा कर चलने वाले सफल हुए। यह कार्य आज भी एक मिशन बना हुआ है, लेकिन इसका स्वरूप बदल गया है। आज पत्रकारिता ‘स्वांतः सुखाय’ नहीं है।

धारा प्रवाह बोलते हुए उन्होंने एक-दो और चुटकुले और आख्यान सुनाये और बोले- यह अजीब स्थिति है कि प्रायः सभी पत्रकार अपने प्रबंधन को कोसते रहते हैं। उनके अनैतिक कार्यों और शोषक प्रवृत्तियों का रोना रोते हैं। लेकिन वे ही जब स्वयं प्रबंधक अर्थात्‌ मालिक बन जाते हैं तो वे सारी मिशनरी बातें हवा हो जाती हैं और वे सभी बुराइयाँ अपना लेते हैं जिन्हें कोसते इनका समय बीता है। फिर उन्होंने जोड़ा कि इन सारी बातों के बावजूद आज भी जब देशहित का मुद्दा उठता है तो देश की पूरी मीडिया एकजुट होकर आवाज उठाती है। उन्होंने इसके कई उदाहरण भी गिना डाले।

अपने को एक अदना सा पत्रकार बताते हुए उन्होंने ‘छोटे-छोटे प्रयासों का महत्व’ रेखांकित करने के लिए उस गिलहरी की कथा सुनायी जिसने समुद्र पर रामसेतु के निर्माण की प्रक्रिया में योगदान कर्ताओं की सूची में अपना नाम लिखाने के लिए बार-बार तट पर लोटपोट कर शरीर में रेत बटोरने और पुल पर जाकर शरीर झाड़ देने का उद्यम किया था। ताकि भविष्य में इतिहास लिखने वाले यह न लिखें कि जब सारा  बानर समाज पुल बना रहा था तो वहाँ मौजूद एक गिलहरी कुछ नहीं कर रही थी। अस्तु कुछ न कुछ यथा सामर्थ्य करते रहना चाहिए। इसके बाद उन्होंने एक जोरदार वीररस की कविता सुनायी। मैं एक ही पंक्ति नोट कर पाया क्योंकि उन्होंने दुहराया नहीं था। हाल को गुँजाने वाली तालियाँ बजीं और अगले वक्ता बुलाये गये।

यहाँ तक तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन जब प्रश्न-उत्तर का दौर चला तो प्रबंध-संपादक महोदय को उठकर सफाई देनी पड़ी। छात्र श्रोताओं के तीखे प्रहार वाकई बेचैन करने वाले थे। अंततः कुलपति जी को अध्यक्षीय भाषण में इस मसले पर अंतिम बात कहनी पड़ी। वह बहुत ही मार्मिक और सजग करने वाली बात थी। लेकिन उसकी चर्चा अगली कड़ी में। अभी तो आप उस वीररस की कविता का आनंद लेते हुए इस ‘चिरकुटई के आरोप’ का जवाब दीजिए।

गूगल महराज ने उस एक लाइन का ‘जामन’ लेकर पल भर में अपने क्षीर सागर के भंडार से पूरी कविता की दही परोस कर रख दी।

वह लाइन थी-

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में

इस लंबी कविता के मूल कवि हैं डॉ. हरिओम पवार। इसके आगे पीछे की कुछ और लाइनें यहाँ आपके लिए। पूरी कविता यहाँ है।

इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का
एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है
अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो
चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो
हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो
गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में
हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं

जब तक भोली जनता के अधरों पर डर के ताले हैं
तब तक बनकर पांचजन्य हम हर दिन अलख जगायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

अगवानी हर परिवर्तन की भेंट चढ़ी बदनामी की
हमने बूढ़े जे.पी. के आँसू की भी नीलामी की
परिवर्तन की पतवारों से केवल एक निवेदन था
भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था

अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर
शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर

निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में जाकर
बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुलाकर
यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं
माँ , बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है

जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक हम हर सिंहासन को अपराधी बतलायेंगे
बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य प्रायः प्रासंगिक नहीं है

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प्रोफेसर गंगा प्रसाद विमल ने ‘शुक्रवारी’ में रखी बेबाक राय…

शुक्रवारी चर्चा आजकल जबर्दस्त फॉर्म में है। माहिर लोग जुटते जा रहे हैं और हम यहाँ बैठे लपक लेते हैं उनके विचार और उद्‌गार। इस विश्वविद्यालय की किसी कक्षा में मैं नहीं गया ; क्योंकि न यहाँ का विद्यार्थी हूँ और न ही शिक्षक हूँ। लेकिन एक से एक आला अध्यापकों को सुनने का मौका मिल रहा है जो देश और विदेश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों और दूसरे शिक्षा केंद्रों में लंबे समय तक पढ़ाते रहे हैं। विषय भी देश की नब्ज टटोलने वाले। पिछले दिन अशोक चक्रधर जी आये तो कंप्यूटर और इंटरनेट पर हिंदी की दशा और दिशा पर अपने तीस-चालीस साल के अनुभव बताकर गये। पूरी तरह अपडेटेड लग रहे थे। रिपोर्ट यहाँ है। उसके पहले विनायक सेन को हुई सजा के बहाने नक्सलवादी आंदोलन के हिंसक स्वरूप और मानवाधिकार संबंधी मूल्यों की चर्चा गांधी हिल के मुक्तांगन में हुई। राजकिशोर जी ने अपनी कविता के साथ विनायक सेन का भरपूर समर्थन व्यक्त किया तो कुलपति विभूतिनारायण राय ने स्पष्ट किया कि उनके साथ सहानुभूति रखते हुए भी हम इतना जरूर याद दिलाना चाहेंगे कि आज के जमाने में राजसत्ता को हिंसा के भय से दबाया नहीं जा सकता। किसी हिंसक आंदोलन को समर्थन देना उचित नहीं है। हाँ, मनुष्यता की रक्षा के लिए जरूरी है कि विनायक सेन जैसे लोग जेल से बाहर रहें और स्वतंत्र होकर समाज के दबे-कुचले लोगों के लिए कार्य कर सकें।

इस बार शुक्रवारी के संयोजक राजकिशोर जी ने चर्चा का विषय रखा था- वर्तमान समय में साहित्य की प्रासंगिकता; और बिशिष्ट वक्ता के रूप में बुलाया था प्रो. गंगा प्रसाद विमल को।

प्रो.गंगा प्रसाद विमल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इसके पहले वे केंद्रीय हिंदी निदेशालय में निदेशक पद पर भी कार्यरत थे। आप एक सुपरिचित कवि और उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। विमल जी के एक उपन्यास ‘मृगांतर’ पर हॉलीवुड में एक फिल्म भी बन चुकी है और इसका जर्मन भाषा में अनुवाद भी छप चुका है। चाय की चुस्कियों के बीच आपने हल्के मूड में जो बातें कहीं वो बहुत गम्भीर किस्म की थीं।

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बाएँ से:राजकिशोर,ए.अरविंदाक्षन,विमल

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बोले- साहित्य की प्रासंगिकता सदा से रही है। आज भी बनी हुई है। इसका सबूत यह है कि आज भी साहित्य का डर मौजूद है। समाज का प्रभु वर्ग आज भी साहित्य के प्रभाव के प्रति सतर्क रहता है। एक अमेरिकी लेखक ने उपन्यास लिखा- ‘पैलेस ऑफ़ मिरर्स’। इसमें उन्होंने चार बड़े अमेरिकी व्यावसायिक घरानों की पोल पट्टी खोल कर रख दी थी।  इसपर उनके प्राण संकट में पड़ गये। उन्हें मार डालने के लिए माफ़िया ने सुपारी दे दी। किताब का प्रकाशक बहादुर और जिम्मेदार निकला। लेखक को पाताल में छिपा दिया। उनकी रॉयल्टी पाबंदी से भेज देता है और सुरक्षा जरूरतों को पूरा करता है। लेखक गुमनाम और भूमिगत है, लेकिन उसका रचा साहित्य खलबली मचा रहा है।

सलमान रुश्दी की किताब का नाम भी उन्होंने लिया। बोले- इसके चालीस पृष्ठ पढ़कर मैने छोड़ दिया था। कलात्मक दृष्टि से मुझे यह उपन्यास बहुत घटिया लगा। इसके रूपक भद्दे और बेकार लगे। फिर जब इसकी चर्चा बहुत हो ली तो मैने ‘मनुष्य जाति को इस्लाम का योगदान’ विषयक एम.एन.रॉय की पुस्तक पढ़ने के बाद इसे दुबारा पढ़ा। तब मुझे यह किताब कुछ समझ में आनी शुरू हुई। उन्होंने इस पुस्तक में बहुत बारीकी से मनुष्यता विरोधी विचारण को निरूपित किया है। यह विचारण किसी धर्म की रचना नहीं कर सकता। जिन लोगों ने उसे अपने धर्म का दुश्मन मान लिया वे मूर्ख हैं। वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से डरते हैं। सलमान रुश्दी मनुष्यता का दुश्मन नहीं है बल्कि मूर्खों को उससे दुश्मनी है।

ये उदाहरण बताते हैं कि साहित्य कितना बड़ा प्रभाव छोड़ सकता है। लेकिन हिंदी के साहित्य जगत पर दृष्टिपात करें तो निराशा ही हाथ लगती है। यहाँ ऐसी प्रासंगिक रचनाये प्रायः नहीं लिखी जा रही हैं। मनुष्यता के जो सही सवाल हैं उन्हें ठीक से नहीं उठाया जा रहा है। यह साहित्य पढ़कर मन में बेचैनी नहीं उठती। कोई एक्सटेसी महसूस नहीं होती। यहाँ प्रायोजित लेखन अधिक हो रहा है। एक खास समूह और वर्ग में रहकर उसके अनुकूल साहित्य रचा जा रहा है। पुरस्कारों के लिए लिखा जा रहा है। आपकी साहित्यिक प्रतिभा का मूल्यांकन इस या उस गुट की सदस्यता के आधार पर किया जा रहा है।

यहाँ भी शोषक और शोषित का समाजशास्त्र विकसित हो चुका है। जो लोग सबसे अधिक दबे-कुचले वर्ग की बात करते हैं वे ही मौका मिलने पर शोषक वर्ग में शामिल हो जाते हैं। केरल और पश्चिम बंगाल में सबसे पहले वामपंथी सरकारें बनी। बंगाल में तो एक अरसा हो गया। लेकिन विडम्बना देखिए कि आज भी कलकत्ते में हाथगाड़ी पर ‘आदमी को खींचता आदमी’ मिल जाएगा। मार्क्स का नाम जपने वाले वामपंथी सत्ता प्राप्त करने के बाद कांग्रेस की तरह व्यवहार करने लगे और पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने वाली नीतियाँ बनाने लगे। यह दो-मुँहापन यहीं देखने को मिलता है। साहित्य जगत में भी ऐसी ही प्रवृत्तियाँ व्याप्त हैं।

ऐसी निराशाजनक स्थिति हिंदी साहित्य के क्षेत्र में खूब मिलती है। विरोधी खेमे को घेरकर चारो ओर से हमला किया जाता है। लेकिन यूरोप में स्थिति दूसरी है। फ्रांस में द’ गाल के शासनकाल में सार्त्र द्वारा उनका विरोध बड़े आंदोलन का रूप ले रहा था। सार्त्र को जेल में डाल देने की सलाह पर द’ गाल ने कहा कि मैं फ्रांस को गिरफ़्तार नहीं कर सकता। विरोधी विचार का सम्मान करना हिंदी पट्टी ने नहीं सीखा है। यहाँ पार्टी लाइन पर चलकर जो विरोध होता है वह भोथरे किस्म का होता हैं। तलवार की धार कुंद हो चुकी है। गदा जैसा प्रहार हो रहा है। प्राणहीन सा। हिंदी में जो कृतियाँ आ रही हैं वे निष्प्राण सी हैं। मन को उद्वेलित करने वाला कुछ नहीं आ रहा है।

वे पूछते हैं कि क्या स्वतंत्रता के बाद के साठ साल में ऐसी कोई घटना नहीं हुई जिसपर उत्कृष्ट साहित्य रचा जा सके। इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपात काल हो या पाकिस्तान के साथ लड़े गये युद्ध हों; या चीन के साथ हुआ संघर्ष। इन घटनाओं ने हिंदी साहित्यकारों को उद्वेलित नहीं किया। इनपर कोई बड़ी कृति सामने नहीं आयी। सुनामी जैसी प्राकृतिक विपदा भी मनुष्यता के पक्ष में साहित्यकारों को खड़ा नहीं कर सकी। क्या कारण है कि बड़ी से बड़ी घटनाएँ हमें विचलित नहीं करती। कड़वे यथार्थ से तालमेल बिठाने में हिंदी साहित्य असफल सा रहा है।

इतनी निराशा भरी बातें कहने के बाद उन्होंने पहलू बदला और बोले कि ऐसा नहीं है कि अच्छी प्रतिभाएँ हमारे बीच नहीं है। मुश्किल बस ये है कि उनका लिखा सामने नहीं आ पाता। आलोचना के जो बड़े मठ हैं वे इसे आने नहीं देते। उनकी देहरी पर माथा टेकने वाला ही पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाता है। समीक्षा उसी की हो पाती है जो उस परिवार का अंग बनने को तैयार होता है। राजकिशोर जी ने गुटबंदी की बात का समर्थन करते हुए विनोदपूर्वक कहा कि ‘यदि आप हमारे किरायेदार हैं तो आप सच्चे साहित्यकार हैं; यदि आप दूसरे के घर में हैं या अपना स्वतंत्र घर जमाने की कोशिश में हैं तो आपका साहित्य दो कौड़ी का भी नहीं है। एक खास विचारधारा का पोषण यदि आप नहीं करते तो आप अप्रासंगिक हैं।

मीडिया ने भी साहित्य जगत का और हिंदी भाषा का बड़ा नुकसान किया है। शब्द बदल गये हैं, शैली दूषित हो गयी है, वाक्य रचना अंग्रेजी की कार्बन कॉपी जैसी हो गयी है। कृतियों पर अंग्रेजी प्रभाव होता जा रहा है। नकल के आरोप भी खुलकर आ रहे हैं। मौलिकता समाप्त सी होती जा रही है।

आज हम सबका दायित्व है कि हम हिंदी में लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य को सामने लायें। मनुष्यता के मुद्दे उठाने वाली रचनाओं को तलाशें। संकुचित सोच के दायरे से बाहर आकर विराट धरातल पर विचार करें। मैं हद दर्जे का आशावादी भी हूँ। कुछ लोग बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। लेकिन उनकी संख्या अत्यल्प है। इसे कैसे बढ़ाया जाय इसपर विचार किया जाना चाहिए।

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विमल जी की बात समाप्त होने के बाद प्रश्न उत्तर का दौर चला। कई लोगों ने कई कारण गिनाए। मैंने पिछले दिनों श्रीप्रकाश जी की शुक्रवारी वार्ता के हवाले से बताया कि अच्छी रचना तब निकल कर आती है जब कोई बड़ा आंदोलन चल रहा हो। क्रांति का समय हो। शांतिकाल में तो साधारण बैद्धिक जुगाली ही होती रहती है। मुद्दों को तलाशना पड़ता है। इसपर जर्मनी से आये एक हिंदी अध्यापक ने अनेक ताजा मुद्दे गिनाये। दलित और स्त्री संबंधी विमर्श की चर्चा की। प्रायः सबने इसका समर्थन किया। लेकिन इन मुद्दों पर भी अच्छी रचनाओं की दरकार से प्रायः सभी सहमत थे। विदेशी मेहमान ने यह भी बताया कि यूरोप में हिंदी रचनाओं को ‘पश्चिम की नकल’ पर आधारित ही माना जाता है।

विमल जी ने हिंदी साहित्य के पाठकों की भी कमी के प्रति चिंता जाहिर की। बोले कि अब अच्छी रचनाओं के लिए भी पाठक नहीं मिलते। जेब से पैसा खर्च करके हिंदी की किताबें खरीदने और पढ़ने वालों की संख्या बहुत कम है। इसके लिए वे ‘अध्यापक समाज’ को दोषी ठहराते हैं। कह रहे थे कि आजकल के अध्यापक न तो अपना पैसा खर्च करके किताबें खरीदते हैं, न पढ़ते हैं और न ही अपने छात्रों व दूसरे लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने बताया कि यदि उन्हें कोई अच्छी किताब मिल जाती है तो कम से कम सौ लोगों को उसे पढ़ने के लिए बताते हैं।

अन्य के साथ राजकिशोर जी ने अच्छी रचनाओं की कमी होने की बात का प्रतिवाद किया। बोले- मैं आपको हिंदी की कुछ मौलिक कृतियों का नाम बताता हूँ। आप इनके मुकाबले खड़ा हो सकने लायक एक भी अंग्रेजी पुस्तक का नाम बता पाइए तो बोलिएगा…। उन्होंने नाम बताने शुरू किए जिसमें दूसरे लोगों ने भी जोड़ा- श्रीलाल शुक्ल की `राग दरबारी’, रेणु का `मैला आँचल’, रांगेय राघव का `कब तक पुकारूँ’, यशपाल की `दिव्या’, अज्ञेय का `नदी के द्वीप’, अमृतलाल नागर का `बूँद और समुद्र’, भगवतीचरण वर्मा की `चित्रलेखा’, हजारी प्रसाद द्विवेदी की `बाणभट्ट की आत्मकथा’, आदि-आदि। किसी ने चुनौती देते हुए जोड़ा कि निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ यदि नकल पर आधारित है तो इसका असल अंग्रेजी रूप ही दिखा दीजिए। इसकी पहली पंद्रह पंक्तियों का अनुवाद ही करके कोई दिखा दे। इसके बाद और भी अनेक रचनाओं का नाम लिया जाने लगा।

अंततः मुझे विमल जी से उनके प्रारम्भिक वक्तव्य की पुष्टि करानी पड़ी। उन्होंने माना कि अपनी इस बात को स्वीकार करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है कि साहित्य की प्रासंगिकता बनी हुई है लेकिन हिंदी में जो लिखा जा रहा है उसमें अधिकांश प्रासंगिक नहीं है। उन्होंने पहले यह भी बताया था कि वे एक नियमित स्तंभ लिखते रहे हैं जिसका नाम है ‘अप्रासंगिक’।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

वर्धा परिसर के क्लब में झूमने का मजा…

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वर्धा विश्वविद्यालय शहर से दूर एक वीरान स्थल पर बसाया गया था। पाँच निर्जन शुष्क पहाड़ी टीले इस संस्था को घर बनाने के लिए नसीब हुए। बड़े-बड़े पत्थर और कंटीली झाड़ियाँ चारो ओर पसरी हुई थीं। लेकिन मनुष्य की अदम्य ऊर्जा और निर्माण करने की अनन्य शक्ति के आगे प्रकृति को भी रास्ता देना पड़ता है। शुरू-शुरू में एक कागज पर अवतरित हुआ विश्वविद्यालय आज इस पंचटीला पर धड़कता हुआ एक सुंदर रूपाकार ले रहा है। पहाड़ी ढलान से तादात्म्य बनाती इमारतों की डिजाइन ऐसी बनी है कि प्राकृतिक सौंदर्य अक्षुण्ण बना रहे। यहाँ वृक्षारोपण और जल-संग्रहण के विशेष प्रयास किए गये हैं।

परिसर में अध्यापकों, अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों के परिवार भी आकर बसने लगे हैं। शहर से दूरी के कारण मौलिक जरूरतों की वस्तुओं को जुटाना कठिन है। अब धीरे धीरे दुकानें इस ओर सरकती आ रही है। आस-पास की जमीनें महँगी होने लगी हैं। यहाँ अब खेल और मनोरंजन की जरूरत पूरी करने का उपाय भी खोजा गया है। फैकल्टी एंड ऑफिसर्स क्लब का गठन हो गया है। वर्ष २०११ का आगमन हुआ तो उसी समय क्लब का विधिवत उद्‌घाटन किया गया। कुलपति जी की पत्नी पद्‍मा जी ने लाल फीता काटा। प्रतिकुलपति जी की पत्नी ने केक काटकर सबको बाँटा। बच्चों ने गुब्बारे फोड़ने की प्रतियोगिता खेली। बड़ों ने भी हाउज़ी का लुत्फ़ उठाया। खूब धूमधाम से नये साल का जश्न मना।

इसके पहले विश्वविद्यालय के १३वें स्थापना दिवस (२९ दिसंबर) को भी सबके परिवारों और विद्यार्थियों ने मिलजुलकर शाम को रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किया। क्रिकेट, वॉलीबाल और बैडमिंटन की प्रतियोगिताएँ हुईं। पाककला का प्रदर्शन भी हुआ। मेरे बच्चों की उम्र छोटी है, लेकिन बड़ों के साथ उन्हें फैशन परेड और नृत्य करते देखकर मेरा मन झूम उठा। यहाँ कुछ तस्वीरें लगा रहा हूँ।

 

 

 

 

स्थापना दिवस समारोह के रंगारंग कार्यक्रम को परिसर में रहने वाले परिवारों की महिलाओं व बच्चों ने छात्रावासी छात्र-छात्राओं के साथ मिलकर तैयार किया था। दीपाजी के निर्देशन में एक बांग्ला गीत पर नृत्य प्रस्तुत किया चार बेटियों ने जिसमें एक मेरी वागीशा भी थी।

स्थापना दिवस समारोह में बांग्ला नृत्य प्रस्तुत करती वागीशा की टीम

भीषण गर्मी और नीरस दिनचर्या की बातें नेपथ्य में चली गयी हैं। आजकल यहाँ एक से एक कार्यक्रमों की झड़ी लगी है। रिपोर्ट लगाना मुश्किल हो गया है। यहाँ के मौसम के क्या कहने…! सारा देश कड़ाके की ठंड से परेशान है और हमें दोपहर की धूप से बचने के लिए छाया तलाशनी पड़ती है। घर के भीतर हाफ स्वेटर से काम चल जाता है। इलाहाबाद से बाँध कर लायी हुई रजाइयाँ खुली ही नहीं। पतला कम्बल पर्याप्त है। मेरे जैकेट और सूट भी ड्राई क्लीनर के टैग के साथ बक्से में सो रहे हैं।

क्या कहा, …जलन हो रही है? अजी यहाँ कुछ कठिनाइयाँ भी हैं। लेकिन इस मजे के वक्त हम अपनी तकलीफ़ें क्यों बताएँ…!!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सांप्रदायिकता और तुष्टिकरण के बीच पिसता आम मुसलमान

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वर्धा विश्वविद्यालय में हुई धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के १३वें स्थापना दिवस के अवसर पर देश के तीन बड़े बुद्धिजीवियों को आमंत्रित कर जो चर्चा करायी गयी उसका विषय था भारतीय लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता क भविष्य । पिछली पोस्ट में मैने रमशरण जोशी जी द्वारा रखे गये विचार प्रस्तुत किये थे। अब प्रस्तुत है डॉ.रज़ी अहमद और कुलदीप नैयर द्वारा कही गयी बातें :

डॉ.रज़ी अहमद के स्वर में फूट पड़ा सदी का दर्द

गांधी संग्रहालय पटना के सचिव डॉ. रज़ी अहमद स्वयं को इतिहास का विद्यार्थी बताते हैं। इनकी अबतक चौदह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्हें देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में वार्ता देने के लिए बुलाया जाता रहा है। जब इन्होंने बताया कि वर्धा विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर अनेक लोगों ने इनको यहाँ आने से मना किया; मगर ये फिर भी आये तो सभागार में एक अर्थपूर्ण खिलखिलाहट दौड़ गयी। उन्होंने हवाई यात्रा की सुविधा पर भी चुटकी ली। इस बारे में उन्होंने बताया कि एक बार लोहिया जी गांधी जी से मिलने सेवाग्राम के लिए दिल्ली से नागपुर तक हवाई जहाज से आ गये। गांधीजी को पता चला तो उन्होंने टोका- “प्लेन से क्यों आये? दो दिन बाद ही पहुँच जाते तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ता”

लेकिन उसके बाद जब इन्होंने गांधी को आधार बनाकर अपनी बात रखनी शुरू की तो वातावरण गंभीर हो उठा।

बोले- मैं सेकुलरिज़्म की बात गांधी के हवाले से करूँगा जिनकी आत्मा आज़ादी के बाद से अबतक कराह रही है। वह बार-बार पूछती है कि देश को हमने कहाँ लाकर खड़ा कर दिया। सेक्यूलरिज़्म की क्या हालत कर दी?

यदि हम आज़ाद भारत के इतिहास पर नज़र डालें तो शुरुआत से ही धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन हमारे हुक्मरानों द्वारा किया जाता रहा है। देश के पहले राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के मना करने के बावजूद सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन किया था (इसका सिलान्यास शिलान्यास सरदार बल्लभ भाई पटेल ने किया था।) इतना ही नहीं उन्होंने बनारस जाकर १०५ पंडितों के पैर धुले थे। मुसलमानों से उन्हें इतना परहेज़ था कि राष्ट्रपति भवन के सभी मुस्लिम कर्मचारियों को उन्होंने बाहर का रास्ता दिखा दिया। बाद में नेहरू जी ने उन कर्मचारियों को विदेश मंत्रालय व अन्य विभागों में समायोजित कराया।

सत्ता में बैठे लोगों ने हमेशा सेक्युलरिज़्म को रुसवा किया है। वोट की खातिर सांप्रदायिक जहर फैलाया जाता रहा है। मुसलमानों को फुसलाया जाता रहा है। उनके विकास की बात कोई नहीं करता। भावनात्मक शोषण ओता रहा है। यहाँ का आम मुसलमान सांप्रदायिकता(communalism) और तुष्टिकरण(appeasement) के बीच पिसता रहा है। नेहरू के समय में जो इतिहास लिखा गया उसमें हिंदू और मुसलमान को अलग-अलग करके रखा गया। हिंदू पुनर्जागरण अभियानों में भी मुसलमान को अलग रखा गया था। ये हमेशा नदी के दो किनारों की तरह आमने-सामने रहे लेकिन इनमें मेल कभी नहीं हुआ। दयानंद सरस्वती ने भी मुसलमानों को अपने आंदोलन से अलग रखा।

सन्‌ 1857 ई. की क्रांति पर सबसे बेहतरीन किताब वी.डी.सावरकर ने लिखी थी। इसमें हिंदू-मुसलमान के संबंधों को सबसे अच्छे तरीके से निरूपित किया गया था। लेकिन राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उस इतिहास की गलत व्याख्या कर दी गयी। इतिहास को तोड़-मरोड़कर अपने निहित स्वार्थों के लिए प्रयोग करने की प्रवृत्ति सत्ता में बैठे लोगों में सदा से रही है। देश के बँटवारे का इल्ज़ाम मुसलमानों पर थोपा गया।

राजाराम मोहन राय ने जो सबसे पहला स्कूल रामपुर में खोला उसका नाम ‘हिंदू स्कूल’ रखा था लेकिन उन्हें भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा गया; वहीं सर सैयद अहमद ने जब मुस्लिम स्कूल की नींव रखी तो इसे ‘दो देशों के सिद्धांत’ का नाम दे दिया गया। सन्‌ 1916 ई. में बनारस हिंदू वि.वि. की स्थापना करने वाले मालवीय जी को ‘महामना’ की उपाधि दी गयी और शिक्षा का सबसे बड़ा प्रचारक कहा गया, लेकिन 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी स्थापित करने वाले सर सैयद को वह सम्मान नहीं दिया गया; बल्कि उन्हें भारत की एकता का दुश्मन मान लिया गया।

‘मुसलमान पर आज भी अविश्वास की नजर रखी जा रही है। आज़ादी के बाद की तीसरी मुस्लिम पीढ़ी से भी पल-पल देशभक्ति का सबूत मांगा जाता है। आजका मुस्लिम युवक विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहा है।’ यह बात कहते हुए रज़ी साहब मानो रो पड़े। आवाज़ में एक कराह निकल रही थी।

महात्मा गांधी ने हिंदुओं और मुसलमानों को अपनी दो आँखें बताया था। उन्होंने कभी इनमें भेद नहीं किया। उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति अपने भीतर तमाम दूसरे धर्मों और पंथों के तत्व समाहित करने और उनका स्वागत करने को तैयार है। लेकिन आज़ादी के बाद ऐसी स्थिति देखने में नहीं आयी है। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की दूरदर्शी आँखों ने यह देख लिया था। प्रथम गणतंत्र दिवस (26 जनवरी, 1950) की पूर्व संध्या पर उन्होंने कहा था कि कल से हम विरोधाभासों के युग में प्रवेश करने जा रहे हैं। एक तरफ़ हमारा संविधान लागू होगा जो स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा, न्याय और सामाजिक समरसता के सिद्धांतो पर बना हुआ है और दूसरी तरफ़ तमाम वर्गों में बँटा और जाति, धर्म, संप्रदाय, परंपरा आदि से पैदा हुई कुरीतियों से अँटा पड़ा समाज होगा जो इन सिद्धांतों को अपनाने में मुश्किल पैदा करेगा।

आज यदि गांधी जी हमारे गाँवो को देख रहे होंगे तो भ्रमित हो जाते होंगे कि यह सब क्या उनके नाम पर राज करने वालों का किया धरा ही है। विकास के जितने भी मॉडल चलाये जा रहे हैं वे सभी बड़े शहरों और महानगरीय जीवन को लाभ पहुँचा रहे हैं। गाँव की सुध लेने वाला कोई नहीं है। भारतीय संस्कृति, हिंदुस्तानी ज़बान और स्वदेशी पद्धति पर आधारित शिक्षा के प्रति गांधी जी की प्रतिबद्धता की मिसाल किसी और नेता में नहीं मिलती।

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के उद्घाटन के मौके पर तमाम अंग्रेज हुक्काम बुलाये गये थे। गांधी जी वहाँ हिंदी में बोलना चाहते थे लेकिन मालवीय जी ने उनसे अंग्रेजी में भाषण देने को कहा। गांधी जी ने बस इतना कहा- “मैं गंगा के किनारे खड़ा हूँ और मुझे टेम्स का पानी पीने को कहा जा रहा है” इसपर कार्यक्रम का संचालन कर रही एनी बेसेंट ने गांधी जी के हाथ से माइक ले लिया और उन्हें आगे नहीं बोलने दिया गया।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में सन्‌ 1967 ई. में जब पहली बार ग़ैर कांग्रेसी सरकारें  बनी थी उसे रज़ी साहब टर्निंग प्वॉइण्ट मानते हैं। क्षेत्रीयता की भावनाओं को उड़ान भरने का पहली बार मौका मिला। इसके बाद मम्दल मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने के बाद गरीबों के हित की सभी नीतियाँ बर्बाद हो गयीं। जातियों और उप-जातियों की आपसी लड़ाई ने इस देश का सर्वाधिक अहित किया है। यह देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आज हमारे देश में नेता तो बहुतेरे हैं लेकिन द्रष्टा (visionary) कोई नहीं है।

आज यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी के गुजरात को मोदी के गुजरात के नाम से जाना जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि प्रगतिशील शक्तियों (वामपंथियों) ने गांधी को नहीं समझा। उन्हें पूँजीवाद का प्रतिनिधि(दलाल) “agent of Capitalism’ कहा गया। गांधी के मूल्यों को अपनाये बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। आज देश की युवा पीढ़ी को यह बात समझनी होगी।

रज़ी अहमद जब अपनी बात पूरी करके बैठने को हुए तो तालियों के बीच भी एक अजीब किस्म का सन्नाटा हमारे मन-मस्तिष्क पर हथौड़े बरसा रहा था। कुलदीप नैयर ने उनकी पीठ ठोंककर शाबासी दी और तत्काल संचालक द्वारा बुलाये जाने पर माइक संभाल लिया।

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कुलदीप नैयर का विश्वास चमत्कृत करता है :

सन्‌ 1923 ई. में 14 अगस्त को सियालकोट (पाकिस्तान) में जन्मे कुलदीप नैयर अपने वामपंथी रुझान के साथ पाकिस्तानी हित की बात करने वाले तथा भारत की पाकिस्तान विरोधी नीतियों की प्रखर आलोचना करने वाले ऐसे प्रतिष्ठित पत्रकार हैं जिन्होंने देश को आज़ाद होते देखा था और विभाजन की विभीषिका को भोगा था। कानून में स्नातक, पत्रकारिता में एम.एस-सी. और दर्शन शास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ धारण करने वाले कुलदीप नैयर के सिंडिकेट कॉलम दुनिया भर के पचास से अधिक अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं। पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाने के लिए एक बड़ा भियान छेड़ने वाले कुलदीप नैयर ने जब बोलना शुरू किया तो हाल खचाखच भरा हुआ था लेकिन ‘सुई-टपक’ सन्नाटा भी स्थापित था।

बोले- मुझसे पूछोगे कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य क्या है तो मैं पूरे विश्वास से कहूँगा कि भविष्य बहुत सुंदर है। सेक्यूलरिज़्म आगे बड़ा मजबूत होगा। इस देश का आम आदमी कम्युनल नहीं है। मैं बताना चाहता हूँ कि मज़हब ‘कौम’ नहीं बनाता। यह देश भी किसी एक धर्म से नहीं बना है। हिंदू और मुसलमान दोनो इसी देश के वासी हैं।

मौलाना अबुल क़लाम आजाद ने कहा था कि ‘मुझे हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर नाज़ है।’ मैं जब 13 सितंबर 1947 को सियालकोट से चला सबकुछ बदल चुका था। दोनो तरफ़ हजारो लोग मारे जा रहे थे। लेकिन जिन्ना बदल चुका था। उसने पाकिस्तान में रहने वाले सभी लोगों को बराबर का पाकिस्तानी माना था। लेकिन उसकी बात नहीं चली। पहले जिन्ना कहा करते थे कि ‘तुम्हारा खाना-पीना-सोना अलग है इसलिए हम दो देश हैं।’ इस बात का असर ज्यादा रहा। अल्लामा इकबाल कहा करते थे कि हमारी तहज़ीब में सबका योगदान है। खु़दा के सामने सभी उसी तरह झुकते हैं। (लेकिन देश फिर भी बँट गया।)

देश के बँटवारे पर हुए सांप्रदायिक दंगे में दस करोड़ हिंदु-मुसलमान मारे गये और बीस करोड़ लोग बेघर हुए। उन बेघरों में एक मैं भी था। मैं 15 सितंबर को दिल्ली पहुँचा और सबसे पहले बिड़ला हाउस गया- गांधी को देखने। गांधी इसलिए सबसे अलग हैं कि उन्होंने हमें ‘खुद्दारी’ दी। शाम की प्रार्थना सभा में जमा पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये शरणार्थियों से उन्होंने कहा कि ‘आपका गुस्सा हमें पता है… भारत के हिंदू और मुस्लिम मेरी दो आँखें है।’ लेकिन वह समय पागलपन का था। लेकिन आज हम संभल चुके हैं। सेक्युलर फोर्सेज़ आज अपना काम कर रही हैं। देश की अदालते अपना काम कर रही हैं। हमें अपने पर विश्वास करने की जरूरत है।

बीच–बीच में ये जो घटनाएँ हो जाती है- सांप्रदायिक दंगे, बाबरी मस्ज़िद, गुजरात के दंगे, नरेंद्र मोदी आदि- वे महज एक क्षेपक (aberration) की तरह हैं। इनका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ने वाला। इनसे घबराना नहीं चाहिए; बल्कि इनका मुकाबला करना चाहिए। इस देश ने मोदी को कठघरे में खड़ा कर दिया है। सारे देश की मीडिया उसके पीछे पड़ी है। कानून अपना काम कर रहा है।

इस देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाने का काम किया था- इंदिरा गांधी ने। राजनीति से नैतिकता को खत्म करने का गुनाह किया- इंदिरा गांधी ने। उन्होंने ‘मॉरलिटी’ और ‘इम्मॉरलिटी’ के बीच की लाइन मिटा दी। आज हम जो कुछ देख रहे हैं उसकी शुरुआत तभी हुई थी। जयप्रकाश नारायण ने कुछ कोशिश जरूर की लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण वे सफल न हो सके। (आज उनके उत्तराधिकारियों के करतब देखिए…) लेकिन जेपी ने भी एक बड़ी ग़लती कर दी थी। सरकार बनाने के लिए उन्होंने ऐसे लोगों का हाथ थाम लिया जो सेक्यूलर नहीं थे।

हमें आशावादी होना चाहिए। अच्छी बातों को आगे बढ़ाना चाहिए। आज शिक्षा बढ़ रही है। मुस्लिम समुदाय ने अपनी शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। नेहरू की शिक्षा नीति ठीक नहीं थी। उन्होंने मुस्लिम-शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। नेहरू ने जुमले उछाले- Who lives if India dies; Who dies if India lives. आज भी देश में सेक्युलर लोगों की संख्या अधिक है। लेकिन रजनीति ने इसके स्वरूप को खराब कर दिया है।

जब 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी तो अकेले दिल्ली में सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ही करीब तीन हजार सिख मारे गये। लेकिन आज तक किसी गुनाहग़ार को फाँसी नहीं हुई। यह हमारी राजनीति का चरित्र है। याद रखिए कि देश किसी भी नेता से बड़ा है। देश के प्रति ग़लतियाँ मत करो। देश का नेता जब ग़लती करता है तो देश को उसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। कुछ ऐसा करें कि एक व्यक्ति की ग़लती का ख़ामियाजा देश को न भोगना पड़े। सजग रहें।

आज यह स्थिति क्यों हो गयी है कि किसी मुसलमान को किराये पर मकान नहीं मिलता। क्यों उन्हें एक ही इलाके में समूह बनाकर रहना पड़ता है। परस्पर प्यार और सहभागिता की कमी क्यों हो गयी है? sense of accomodation and tolerance की गूँज फीकी पड़ रही है। इसे बढ़ाइए। गाँवों में स्थिति अभी भी ठीक है। शहरों में महौल मीडिया की वजह से ज्यादा ख़राब हुआ है। ज़्यादातर मीडिया अब पॉलिटिकल लाइन पकड़ कर चल रही है।

भाषा का सवाल भी महत्वपूर्ण है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा ठहरा दिया गया। इसे अब राजनीतिक रंग भी दे दिया गया है। मौलाना आज़ाद ने भी कहा था कि ‘देश के विभाजन के बाद उर्दू का मामला कमजोर पड़ गया (Case of Urdu was weakened after partition)।’ एक सुंदर साहित्यिक भाषा (a beauiful literary language) का अंत इस देश में होता जा रहा है। कुलदीप नैयर ने एक प्रसम्ग बताया जब गोविंद बल्लभ पंत की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा हिंदी को देश की प्रथम (राष्ट्रीय) भाषा बनाने और अंग्रेजी को सहयोगी भाषा बनाने का प्रस्ताव तैयार किया गया। जब पंत जी प्रस्ताव का प्रारूप लेकर नेहरू के पास गये तो उन्होंने अंग्रेजी के लिए प्रस्तावित कमतर दर्ज़े को देखकर उन्हें दुत्कार दिया और प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया।

उन्होंने आपसी वैमनस्य की समस्या के समाधान की जिम्मेदारी बहुसंख्यक हिंदुओं के कंधे पर डालते हुए कहा कि यह भारत के हिंदुओं का यह दायित्व है कि वे मुसलमानों के लिए अपने दरवाज़े खोलें। गांधी के इस देश में उनके संदेश को भुलाया नहीं जाना चाहिए। कुलदीप नैयर ने बताया कि एक बार वे काबुल में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ ‘सीमांत गांधी’ से मिलने गये। यहाँ के साम्प्रदायिक दंगो की खबरें सुनकर वे हैरत से भरे हुए थे। उन्होंने आश्चर्य से पूछा – गांधी के देश में  (साम्प्रदायिक) दंगा कैसे हो गया? ये वही गफ़्फ़ार खाँ थे जिनके ‘लाल-कुर्ती’ आंदोलन (red-shirts) ने पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (NWFP) में 1946 का चुनाव जीता था।

नैयर ने जोर देकर कहा कि हम उन लोगों से गद्दारी कर रहे हैं जिन लोगों ने हमें आज़ादी दिलायी। सत्ता की कुर्सी पाने के लिए और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए हम गलत रास्तों पर चल रहे हैं। हम गांधी जी के उस सिद्धाम्त की बलि चढ़ा रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि हमारा साधन अपवित्र है तो साध्य भी निश्चित रूप से अपवित्र हो जाएगा (If your means are vitiated, your ends are bound to be vitiated.)। आज देखता हूँ कि हर व्यक्ति अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में एक छोटे तानाशाह की तरह काम कर रहा है। हमें याद रकना चाहिए कि यहाँ के मुसलमान और सिख भी यहाँ बहुत दिनों से रह रहे हैं जो मिलजुलकर हिंदुस्तानी तहज़ीब का निर्माण करते हैं।

उन्होंने अपने दिल में छिपे उस सपने की चर्चा की जिसमें दक्षिण एशिया के सभी देश मिलकर यूरोपीय यूनियन की भाँति एक संयुक्त इकाई का निर्माण करेंगे और उन्हें अफ़गानिस्तान से लेकर वर्मा तक बिना वीज़ा के आने-जाने की छूट होगी।

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अतिथियों का स्वागत कुलपति व रजिस्ट्रार द्वारा

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कुलदीप नैयर को सुनने भारी भीड़ उमड़ पड़ी

भारत-पाकिस्तान की वाघा सीमा पर प्रत्येक वर्ष अपने और पाकिस्तान के जन्मदिवस (१४ अगस्त) पर शांति की प्रतीक मोमबत्तियाँ जलाने वाले कुलदीप नैयर जब हजारों लोगों के साथ हिंदुस्तान-पाकिस्तान-ज़िंदाबाद के नारे लगवाते हैं तो उनका आशावाद चरम पर होता है। कदाचित्‌ कड़वे यथार्थ से दूर भी।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

पुछल्ला : आजकल वर्धा विश्वविद्यालय में एक के बाद एक शानदार कार्यक्रम हो रहे हैं। सबमें उपस्थित रहना ही मुश्किल हो गया है। उसपर रिपोर्ट ठेलने की फुरसत तो नहीं ही मिल पा रही है। विदेशों में हिंदी पढ़ाने वाले अनेक शिक्षक आजकल यहाँ अभिविन्यास कार्यक्रम में प्रतिभाग कर रहे हैं। एक उपयोगी रिपोर्ट यहाँ है।

शुक्रवारी की परंपरा से…

15 टिप्पणियां

“सृजन और नयी मनुष्यता की समस्याएँ” विषयक वार्ता और विमर्श: श्री प्रकाश मिश्र

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रांगण में यूँ तो नियमित अध्ययन-अध्यापन से इतर विशिष्ट विषयपरक गोष्ठियों, सेमिनारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को निरंतर आयोजित किये जाने की  प्रेरणा वर्तमान कुलपति द्वारा सदैव दी जाती रही है, लेकिन इन सबमें ‘शुक्रवारी’ का आयोजन एक अनूठा प्रयास साबित हो रहा है।

परिसर में बौद्धिक विचार-विमर्श को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए ‘शुक्रवारी’ नाम से एक  समिति का गठन किया गया है। इस समिति के संयोजक हैं ख्यातिनाम स्तंभकार व विश्वविद्यालय के  ‘राइटर इन रेजीडेंस’ राजकिशोर। यहाँ के कुछ शिक्षकों को इसमें सह-संयोजक की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी है। विश्वविद्यालय परिवार के सभी सदस्य इस साप्ताहिक चर्चा शृंखला में भागीदारी के लिए सादर आमंत्रित होते हैं। शुक्रवारी की बैठक हर शुक्रवार को विश्वविद्यालय के परिसर में किसी उपयुक्त जगह पर होती है जो विशिष्ट वक्ता और वार्ता के विषय के चयन के साथ ही निर्धारित कर ली जाती है। इस अनौपचारिक विमर्श के मंच पर परिसर से बाहर के अनेक अतिथियों ने भी बहुत अच्छी वार्ताएँ दी हैं। वार्ता समाप्त होने के बाद खुले सत्र में उपस्थित विद्यार्थियों और अन्य सदस्यों द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर भी वार्ताकार द्वारा उत्तर दिया जाता है और बहुत सजीव बहस उभर कर आती है।

गत दिवस मुझे भी ‘शुक्रवारी’ में भाग लेने का अवसर मिला। इस गोष्ठी में कुलपति जी स्वयं उपस्थित थे। इस बार के वार्ताकार थे प्रतिष्ठित कवि, उपन्यासकार, आलोचक व साहित्यिक पत्रिका ‘उन्नयन’ के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र। उनकी वार्ता का विषय था “सृजन और नयी मनुष्यता की समस्याएँ”। उनकी वार्ता सुनने से पहले तो मुझे इस विषय को समझने में ही कठिनाई महसूस हो रही थी लेकिन जब मैं गोष्ठी समाप्त होने के बाद बाहर निकला तो बहुत सी नयी बातों से परिचित हो चुका था; साथ ही श्री मिश्र के विशद अध्ययन, विद्वता व वक्तृता से अभिभूत भी। श्रीप्रकाश मिश्र वर्धा के स्टाफ के साथ

(बायें से दायें) मो.शीस खान (वित्ताधिकारी), शंभु गुप्त (आलोचक), प्रोफ़ेसर के.के.सिंह और श्री प्रकाश मिश्र

अबतक दो कविता संग्रह, दो उपन्यास और तीन आलोचना ग्रंथ प्रकाशित करा चुके श्री मिश्र का तीसरा काव्य संग्रह और दो उपन्यास शीघ्र ही छपकर आने वाले हैं। आप बीस से अधिक वर्षो से साहित्यिक पत्रिका ‘उन्नयन’ का सम्पादन कर रहे हैं जो साहित्यालोचना के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित स्थान पा चुकी है। आलोचना के लिए प्रतिवर्ष ‘रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ इसी प्रकाशन द्वारा प्रायोजित किया जाता है। यह सारा सृजन श्रीप्रकाश जी द्वारा केंद्रीय पुलिस संगठन में उच्चपदों पर कार्यरत रहते हुए किया गया है।

अपने उद्‌बोधन में उन्होंने सृजन की अवधारणा को समझाते हुए कहा कि सृजन एक प्रक्रिया है- बनाने की प्रक्रिया- जिसे मनुष्य अपनाता है। उस बनाने की कुछ सामग्री होती है, कुछ उपकरण होते हैं और उसका एक उद्देश्य होता है। उद्देश्य के आधार पर वह कला की श्रेणी में आता है तो सामग्री और उपकरण के आधार पर संगीत, चित्र, मूर्ति, वास्तु, साहित्य -और साहित्य में भी काव्य, नाटक, कथा आदि – कहा जाता है। इसमें संगीत सबसे सूक्ष्म होता है और वास्तु सबसे स्थूल। सृजन मूल्यों की स्थापना करता है जो सौंदर्य के माध्यम से होती है। इसका उद्देश्य वृहत्तर मानवता का कल्याण होता है। साहित्य के माध्यम से यह कार्य अधिक होता है।

सृजन को चिंतन से भिन्न बताते हुए उन्होंने कहा कि चिंतन विवेक की देन होता है जबकि सृजन का आधार अनुभूति होती है। इस अनुभूति के आधार पर संवेदना के माध्यम से वहाँ एक चाहत की दुनिया रची जाती है जिसका संबंध मस्तिष्क से अधिक हृदय से होता है। लेकिन सृजन में अनुभूति के साथ-साथ विवेक और कल्पना की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती है।

मूल्यों की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि इनका महत्व इसलिए नहीं होता कि वे जीवन में पूरे के पूरे उतार लिये जाते हैं; बल्कि इसलिए होता है कि एक पूरा समुदाय उन्हें महत्वपूर्ण मानता है, उन्हें जीवन का उद्देश्य मानता है- व्यक्ति के भी और समुदाय के भी- उससे भी बढ़कर इसे वह आचरण का मानदंड मानता है। मूल्य मनुष्य की गरिमा की प्रतिष्ठा करते हैं। सृजनकर्ता का दायित्व उस गरिमा में संवेदनाजन्य आत्मा की प्रतिष्ठा करना होता है जिसका निर्वाह बहुत वेदनापूर्ण होता है। सृजन के हर क्षण उसे इसका निर्वाह करना होता है।

मनुष्यता को अक्सर संकट में घिरा हुआ बताते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान में मनुष्यता पर जो संकट आया हुआ है वह दुनिया के एक-ध्रुवीय हो जाने से उत्पन्न हुआ है। उन्होंने रसेल होवान के उपन्यास ‘रिडले वाकर’, डेविड प्रिन के ‘पोस्टमैन’, कामार्क मेकॉर्थी के ‘द रोड’ का उल्लेख करते हुए बताया कि ज्ञानोदय द्वारा रचित मनुष्य की प्रगति और विकास की सभी योजनाएँ आज इतनी संकट में हैं कि उनका अंत ही आ गया है। सच पूछिए तो मनुष्य की मूलभूत अवधारणा ही संकट में है; और यह संकट वास्तविक है। जिस प्रौद्यौगिकी पर मनुष्य ने भरोसा करना सीखा है वह उसके विरुद्ध हो गयी है।

हमारी दुनिया वास्तविक न रहकर आभासित बन गयी है और आदमी मनुष्य न रहकर ‘साइबोर्ग’ बन गया है। साईबोर्ग यानि- “A human being prosthetically inhanced, or hybridized with electronic or mechanical components which interact with its own biological system.”

जलवायु वैज्ञानिक जेम्स लवलॉक का कहना है कि धरती को खोदकर, जल को सुखाकर, और वातावरण को प्रदू्षित कर हम कुछ इस तरह से जीने लगे हैं कि मनुष्य का जीवन बहुत तेजी से विनाश की ओर बढ़ने लगा है। धरती के किसी अन्य ग्रह से टकराने से पहले ही ओज़ोन की फटती हुई पर्त, समुद्र का बढ़ता हुआ पानी, धरती के पेट से निकलती हुई गैस और फटते हुए ज्वालामुखी मनुष्य जाति को विनष्ट कर देंगे।

जॉन ग्रे कहते हैं कि मनुष्य तमाम प्राणियों में एक प्राणी ही है; और उसे अलग से बचाकर रखने के लिए पृथ्वी के पास कोई कारण नहीं है। यदि मनुष्य के कारन कारण पृथ्वी को खतरा उत्पन्न होगा तो वह मनुष्य का ही अंत कर सकती है। वह नहीं रहेगा तो पृथ्वी बच जाएगी। दूसरे प्राणियों का जीवन चलता रहेगा। इस प्रकार राष्ट्रों की आंतरिक नीतियों के कारण मनुष्य का जीवन खतरे में है।

इस खतरे के प्रति कौन आगाह करेगा, उससे कौन बचाएगा? सृजन ही न…!!!

श्री मिश्र ने विश्व की शक्तियों के ध्रुवीकरण और इस्लामिक और गैर-इस्लामिक खेमों के उभरने तथा विश्व की एकमात्र महाशक्ति द्वारा किसी न किसी बहाने अपने विरोधियों का क्रूर दमन करने की नीति का उल्लेख करते हुए  भयंकर युद्ध की सम्भावना की ओर ध्यान दिलाया। आतंकवाद ही नहीं आणविक युद्ध की भयावहता धरती से आकाश तक घनीभूत होती जा रही है। पश्चिमी प्रचार तंत्र द्वारा यह दिखाया जा रहा है कि सभ्य दुनिया बर्बर दुनिया से लड़ने निकल पड़ी है।

अपने विस्तृत उद्‌बोधन में उन्होंने वर्तमान वैश्विक परिदृश्य के तमाम लक्षणों और दुनिया भर में रचे जा रहे साहित्य में उसकी छाया का उल्लेख करते हुए मनुष्यता की अनेक समस्याओं कि ओर ध्यान दिलाया और उनके समाधान की राह तलाशने की जिम्मेदारी सृजनशील बुद्धिजीवियों के ऊपर डालते हुए मिशेल फूको का उद्धरण दिया जिनके अनुसार पश्चिम का समकालीन सृजन मनुष्यता संबंधी इन तमाम चुनौतियों को स्वीकार करने में सक्षम नहीं दिख रहा है। लेकिन, उन्होंने बताया कि अमेरिकन विचारक ब्राउन ली के मत से सहमत होते हुए कहा कि इतना निराश होने की जरूरत नहीं है। अभी भी एशिया, अफ़्रीका और लातिनी अमेरिका का सृजन संबंधी चिंतन मनुष्य को बचाये रखने में और मनुष्यता संबंधी मूल्यों की प्रगति में कुछ योग दे सकता है।

इस लम्बी वार्ता की सभी बातें इस ब्लॉग पोस्ट में समाहित नहीं की जा सकती। उनका पूर्ण आलेख शीघ्र ही विश्वविद्यालय की साहित्यिक वेब साइट (हिंदीसमय[डॉट]कॉम और त्रैमासिक बहुवचन में प्रकाशित किया जाएगा।

निश्चित रूप से शुक्रवारी की जो परंपरा शुरू की गयी है उससे अनेक मुद्दों पर विचार मंथन की प्रक्रिया तेज होने वाली है। वार्ता के बाद वहाँ उपस्थित विद्यार्थियों ने जिस प्रकार के गम्भीर प्रश्न पूछे और विद्वान वक्ता द्वारा जिस कुशलता से उनका समाधान किया गया वह चमत्कृत करने वाला था। हमारी कोशिश होगी कि शुक्रवारी में होने वाली चर्चा आपसे समय-समय पर विश्वविद्यालय के ब्लॉग के माध्यम से बाँटी जाय।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

प्रयाग का पाठ वर्धा में काम आया… शुक्रिया।

42 टिप्पणियां

 

वर्धा में जो कुछ हुआ वह आप ब्लॉगजगत की रिपोर्टों से जान चुके हैं। मैं भी अपने ब्लॉगर अतिथियों को विदा करने के बाद लगातार उनकी पोस्टें ही पढ़ रहा हूँ। उनकी स्नेहिल भाव-धारा में डूब-उतरा रहा हूँ। कृतज्ञता ज्ञापन के लिए शब्दों की मेरी झोली रिक्त हो चुकी है। मेरे लिए जैसी सद्‍भावनापूर्ण टिप्पणियाँ और उत्साहवर्द्धक बातें लिखीं गयी हैं उसके बाद तो मन में नयी ऊर्जा का संचार हो गया है। लगता है कि मौका मिले तो बार-बार उन अविस्मरणीय क्षणों को जीवन में उतारना चाहूँगा।

बीच-बीच में एक-दो महानुभावों की टिप्पणियाँ देखकर मन विचलित होता है तो पिछले साल के इलाहाबाद महासम्मेलन की याद ताजा कर अपना आत्मविश्वास मजबूत कर लेता हूँ।

पहला सम्मेलन विश्वविद्यालय के वर्धा मुख्यालय से दूर इलाहाबाद में था, यहाँ जैसा संसाधन व ‘लॉजिस्टिक सपोर्ट’ वहाँ उपलब्ध न था, अनुभव की कमी थी और ब्लॉग जगत का स्वभाव प्रायः अपरिचित था। लेकिन वहाँ भी जमावड़ा अच्छा हुआ था। खूब सार्थक बहस हुई। गरमा-गरमी भी हुई। एक जीवंत गोष्ठी का सफलता पूर्वक समापन कराकर जब हम घर लौटे तो अंतर्जाल पर हमारे प्रयत्नों को तार-तार करती कुछ पोस्टें हमारा स्वागत (काले झंडे से) करती मिलीं। हमने धैर्य से सबकुछ पढ़ा। …इसे बुलाया, उसे छोड़ दिया, इन्हें ये मिला, उन्हें वो नहीं मिला, यहाँ ये कमी वहाँ वो कमी। पब्लिक का पैसा बहा दिया गया,  …पारदर्शिता नहीं बरती गयी, आदि-आदि।

इन सब के बीच मेरा सौभाग्य यह रहा कि उस समय भी नकारात्मक आलोचनाओं से अधिक मात्रा में सम्मेलन की सकारात्मक बातों ने अन्तर्जाल पर स्थान बनाया। दुनिया को सही तस्वीर का पता चल गया। अंततः मेरा विश्वास पक्का हो गया कि हिंदी ब्लॉगिंग को प्रत्येक पढ़े-लिखे व्यक्ति से जोड़ने और इस अनूठे माध्यम की स्वतंत्रता और सहजता से सबको परिचित कराने के लिए इस आभासी दुनिया के स्थापित हस्ताक्षरों को सेमिनारों, गोष्ठियों व सम्मेलनों के माध्यम से एक दूसरे से व अन्य विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों से मिलने-मिलाने का सिलसिला चलते रहना चाहिए।

मैंने वर्धा में संपन्न इस कार्यक्रम की तैयारी के समय आदरणीय अरविंद जी द्वारा वर्ष पर्यन्त दी गयी सलाह के आधार पर कुछ मोटी-मोटी बातें नोट करके रख ली थीं लेकिन ऐन वक्त पर वह नोट ही गायब हो गया। अब जैसा कि सभी लोग कार्यक्रम को सफल बता रहे हैं तो स्मृति के आधार पर उन बातों को लिखने की कोशिश करता हूँ –

  1. आमंत्रितों की सूची अपने निजी संपर्क के आधार पर नहीं बल्कि ऐसी रीति से तैयार की जाय जिसमें इस माध्यम से गंभीरता पूर्वक जुड़ने वाले प्रत्येक ब्लॉगर को अपनी पहल पर यहाँ आने का मौका मिल सके।
  2. बजट की सीमा के अनुसार अतिथियों की जो भी सीमा तय हो उसको पूरा करने के लिए ‘प्रथम आगत-प्रथम स्वागत’ का नियम अपनाया जाय।
  3. आमंत्रित अतिथियों के लिए समान शिष्टाचार व उपलब्धता के आलोक में यथासम्भव समान संसाधन व सुविधाएँ उपलब्ध कराये जाय।
  4. सभाकक्ष में समय-प्रबंधन के उद्देश्य से बोलने वालों की संख्या नियंत्रित करने के लिए समूह-चर्चा की विधि अपनायी जाय जिसमें अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा करने के लिए छोटे-छोटे समूह बनाकर गहनता से अलग-अलग चर्चा करा ली जाय और समूह के निष्कर्षों को उनके द्वारा नामित प्रतिनिधि द्वारा सभाकक्ष में प्रस्तुत किया जाय।
  5. अतिथियों के आवागमन, सुबह की चाय, नाश्ता, भोजन व शयन को निर्बाध बनाने के लिए अलग-अलग कर्मचारियों की लिखित ड्यूटी लगाकर उनका अनुश्रवण किया जाय।
  6. सभाकक्ष में परिचय-पत्र, कलम-कागज, कम्प्यूटर, इंटरनेट, माइक, ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग, फोटोग्राफी, प्रेस-रिपोर्ट इत्यादि की जिम्मेदारी दूसरे कुशल विशेषज्ञों के हाथ में दे दिया जाय।
  7. प्रत्येक सत्र में संपन्न कराये जाने वाले कार्यक्रम की रूपरेखा पहले ही तय कर ली जाय और उसका समयबद्ध अनुपालन प्रत्येक दशा में किया जाय।
  8. किसी भी ब्लॉगर को अपने मन से बक-बक करने की इजाजत न दी जाय। विषय से इतर न कुछ कहने दिया जाय और न ही कुछ करने दिया जाय। इधर-उधर घूमने और टंकी इत्यादि खोजने का मौका तो कतई नहीं।:)

इस प्रकार सारे काम दूसरों के सुपुर्द कर मैने अपना कैमरा उठाया और एक विचित्र संयोजक बनकर अनूप जी को एक बार फिर शिकायत का मौका देता हुआ गेस्ट हाउस पहुँच गया। शिकायत यह कि मैं एक संयोजक की तरह परेशान हाल, सिर खुजाता हुआ और बेचैनी से टहलता हुआ क्यों नहीं दिखायी दे रहा था।

जब पंचों की यही राय है कि संगोष्ठी सफल रही तो मैं यह क्यों बताऊँ कि ऊपर गिनाये गये किसी भी बिन्दु का अनुपालन ठीक-ठीक नहीं हो पाया? साथ ही कुछ दूसरी कमियाँ भी अपना मुँह लटकाये इधर-उधर ताकती रहीं तो उन्हें चर्चा का विषय मैं क्यों बनाऊँ? …लेकिन एक भारी समस्या है। यह बात लिखकर मैं आफ़त मोल ले रहा हूँ। शुचिता और पारदर्शिता के रखवाले मुझे जीने नहीं देंगे। यदि कमियाँ थीं तो उन्हें सामने आना चाहिए। अनूप जी ने यह कई बार कहा कि सिद्धार्थ अपना नमक खिला-खिलाकर लोगों को सेट कर रहा है। तो क्या मानूँ कि नमक अपना असर कर रहा है? छी-छी मैं भी कैसा अहमक  हूँ… अनूप जी की बात पर जा रहा हूँ जो खुले आम यह कहते हुए पाये गये कि आओ एक दूसरे की झूठी तारीफ़ें करें…।

तो मित्रों, मैं पूरे होशो-हवाश में पारदर्शिता के तकाजे से यह बताना चाहता हूँ कि ऊपर तय की गयी पॉलिसी शुरुआत से ही फेल होती रही, और मैं अपने को जबरिया पास करता रहा। उद्‍घाटन सत्र में ही अनूप जी ने स्पष्ट भी कर दिया कि सिद्धार्थ के ‘साहस’ की दाद देनी पड़ेगी कि इलाहाबाद सम्मेलन पर इतनी गालियाँ खाने के बाद भी साल भर के भीतर ही फिर से सबको दुबारा बुला लिया। इस कथन को भी मैने सकारात्मक मान लिया है जबकि आप इसका अर्थ समझ ही रहे होंगे। बहरहाल ऊपर गिनाये गये नियमों पर बिंदुवार आख्या निम्नवत है:

  1. मैने अपने ब्लॉग सत्यार्थमित्र व विश्वविद्यालय की दोनो साइट्स पर यह सूचना पोस्ट कर दी कि अमुक तिथियों को संगोष्ठी होगी। उसमें जो भी सज्जन शामिल होना चाहें वे ‘ब्लॉगिंग इथिक्स’ की थीम पर एक आलेख लिखकर उसे अपनी प्रविष्टि के रूप में हमें भेजें। चयनित होने पर उन्हें प्रतिभाग हेतु आमंत्रण पत्र भेजा जाएगा। कार्यशाला में प्रशिक्षण प्राप्त करने के इच्छुक अभ्यर्थियों से  निर्धारित प्रारूप पर आवेदन/पंजीकरण प्रपत्र भरने का अनुरोध किया गया था। सुरेश चिपलूनकर जी के एक टिप्पणी रूपी प्रश्न के जवाब में ‘प्रतिभागी’ और ‘अभ्यर्थी’ का अंतर भी बताया गया। इस सूचना के आधार पर जिस किसी ने अपनी प्रविष्टि भेजी उसको आमंत्रण पत्र भेज दिए गये। कोई आलेख अस्वीकृत नहीं हुआ। लेकिन हमारी उम्मीद के उलट यह संख्या बहुत कम थी। इस खुले आमंत्रण से संख्या पूरी न होते देखकर हमें सामूहिक चर्चा से कुछ नाम तय करने पड़े। करीब पचास बड़े और अनुभवी ब्लॉगर्स से संपर्क किया गया। इनमें से अनेक अपनी निजी व्यस्तता के कारण असमर्थता व्यक्त करते गये। अंततः करीब पैतीस लोगों ने आने की सहमति जतायी। अंतिम क्षण तक आकस्मिक कारणों से लोगों की यात्राएँ रद्द होती रहीं। प्रमुख कारणों में स्वयं अथवा किसी परिजन की तबियत खराब होना, अथवा नौकरी से छुट्टी न मिल पाना रहा। इस प्रकार हमने अवसर सबको दिया लेकिन उसे लपक लेने का ख्याल कम ही लोगों के मन में आया। जो आ गये उन्हें ही पाकर हम धन्य हो गये। जिन्होंने न बुलाने का स्पष्टीकरण मांगा उन्होंने अपनी भाषा और शैली से जतला भी दिया कि उन्हें न बुलाकार इस कार्यक्रम का कोई नुकसान नहीं हुआ।
  2. अंतिम समय तक लोगों के नाम कटते रहे इसलिए दूसरे नियम के पालन की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जिसने भी चाहा उसे आने दिया गया। हम सभी आने वालों से उनके आलेख अंतिम समय तक माँगते रहे। जिन्हें नहीं देना था उन्होंने नहीं ही दिया। कुछ लोगों का ‘न आना’ तय था लेकिन उन्होंने आलेख पाबंदी से भेज दिया। इसमें इस बात की पुष्टि हुई कि ब्लॉगर अपने मन का राजा है। जब मूड होगा तभी लिखेगा। किसी के कहने से नहीं।
  3. संसाधनों-सुविधाओं की समानता के बजाय उनकी उपलब्धता ने तीसरे नियम को ज्यादा प्रभावित किया। ए.सी.-नॉन-ए.सी., उत्तर-दक्षिण, ऊपर-नीचे, सिंगल-डबल इत्यादि मानकों के कमरों की उपलब्धता सीमित थी इसलिए जिसे जैसा बन पड़ा उसे वैसा टिका दिया गया। लेकिन सौभाग्य से इस बार कोई ब्लॉगर ऐसा नहीं निकला जो इन बातों की तुलना करके अपना दिन खराब करे। सबने हमारी वाह-वाह की और हम सच्ची में खुश होते रहे।
  4. समूहों का गठन भी हुआ, चर्चा भी हुई और प्रतिनिधियों का प्रस्तुतिकरण भी हुआ। लेकिन इस चक्कर में कई अच्छे वक्ता बोलने से रह गये। तकनीकी रूप से उनके विचार उनके समूह प्रतिनिधि ने व्यक्त कर दिए, लेकिन कलकत्ता से आये प्रियंकर जी, मुम्बई से आयी अनीता जी, रायपुर से आये संजीत जी अपने समूह के बाहर बोलने का मौका ही नहीं पा सके। इनको सुनना निश्चित रूप से बहुत लाभकारी होता, लेकिन समय-प्रबंधन की नयी तकनीक के आगे यह नुकसान हो गया।
  5. पाँचवें नियम के आलोक में ड्य़ूटी तो लगा दी गयी लेकिन कर्मचारियों ने यदि कोई ढिलाई बरती होगी तो उसका पता नहीं चल पाया। हमारे अतिथि इतने अच्छे थे कि उन्होंने मुझे खुश देखने के लिए किसी कमी की ओर इशारा ही नहीं किया। खुद आगे बढ़कर चाय माँगकर पीते रहे और लाइव रिपोर्ट में हमारा नाम रौशन करते रहे। एक बाथरूम में पानी ही नहीं आ रहा था। अविनाश जी गमछा कन्धे पर डालकर दूसरे ब्लॉगर के बाथरूम में हो लिए। किसी कर्मचारी ने एक दिन पहले टंकी का ओवरफ़्लो रोकने के उद्देश्य से गेटवाल की चकरी बंद करने के बाद उसे दुबारा खोलना जरूरी नहीं समझा था। पहले दिन रात के दस बजे ‘आल-आउट’ का जुगाड़ हो सका लेकिन सुनते हैं कि मच्छरों ने पहले ही अपना प्लान पोस्टपोन कर दिया था।
  6. सभाकक्ष में लॉजिस्टिक सपोर्ट निश्चित ही अच्छा रहा होगा लेकिन इसका प्रमुख कारण यह है कि उसमें मेरा कोई हाथ नहीं था। विश्वविद्यालय के कर्मचारियों, पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों व तकनीकी विशेषज्ञों ने कोई कसर नहीं रखी। जिससे काम बिगड़ने का डर था वह अपने निजी कैमरे से ब्लॉगर्स की फोटो खींचने में व्यस्त था। बाद में पता चला कि कैमरे की सेटिंग ऐसी हो रखी थी कि सभी तस्वीरें सबसे कम (AVG) क्वालिटी की ही आ सकीं। केवल नेट पर चढ़ाने लायक।:(
  7. कार्यक्रम की रूपरेखा ऐसी तय हुई कि पहले सत्र को छोड़कर बाकी सत्रों में मंच पर कुर्सियाँ खाली ही रह गयीं। प्रत्येक सत्र के लिए औपचारिक अध्यक्ष और वार्ताकार तय कर मंच पर नहीं बैठाये गये। ब्लॉगर्स मंच के सामने लगी दर्शक-दीर्घा की कुर्सियों पर ही आसीन रहे और पवन दुग्गल को छोड़कर शेष वक्ता नीचे से सीधे पोडियम पर आते रहे। बाद में श्रीमती रचना त्रिपाठी ने बताया कि मंच खाली-खाली लग रहा था। लेकिन कार्यक्रम के दौरान किसी ने इस ओर इशारा नहीं किया। वहाँ उपस्थित कुलपति जी ने भी नहीं। बाद में उन्होंने बताया कि आप संचालक कम और हेडमास्टर ज्यादा लग रहे थे। ईल्ल्यौ… 😦
  8. यदि यशवंत जी की भड़ास का अपवाद जबरिया निकाल दें तो विषय से हटकर बिना इजाजत बोलने वालों को मौका न देने का नतीजा यह हुआ कि चर्चा घूम-फिरकर इसी मुद्दे पर केंद्रित रही कि ब्लॉग लिखने वाले किसी आचार-संहिता के बारे में न सोचें तो ही ठीक है। किसी ने सामान्य सामाजिक नियमों को पर्याप्त बताया तो किसी ने स्व- नियंत्रण की बात की, कोई संहिता को गोली मारने के लिए ललकार रहा था तो कोई साइबर कानून की सीमाएँ बता रहा था। कुलपति जी ने भी अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचने की ही सलाह दी। कुछ लोगों ने ब्लॉगर के उचित आचरण गिनाये तो किसी ने इसे उद्यमिता के परिप्रेक्ष्य में जोड़ते हुए यह कहा कि जो जिम्मेदार नहीं बनेगा वह यहाँ ज्यादा दिन नहीं टिकेगा। लफ़्फ़ाजी और घटिया प्रपंच की मार्केटिंग बहुत दिनों तक नहीं चलने वाली है। ब्लॉगरों को थोड़ा घूमने का मौका क्या दिया वे बस लेकर गांधी जी के आश्रम के बाद विनोबा जी के द्वार तक चले गये। वहाँ पवनार नदी की उजली धारा देखकर उसमें कुछ लोग कूदने को उतारू थे। लेकिन जिस विधाता ने गोष्ठी की सफलता  का वरदान दे रखा था उसी ने उन लोगों को कूदने से रोक लिया और सभी सकुशल ठीक समय से सभाकक्ष तक लौट आये। 

कहीं यह निष्कर्ष निकाला गया है कि “और जो कुछ भी हुआ हो मगर प्रवर्तित विषय ही भलीभांति विवेचित नहीं हो सका सारी रिपोर्टें यही बताती हैं ……बस छिछला सा निर्वाह …..बस जुमले दागे गए …..” हजार किलोमीटर दूर पंचायत चुनाव कराते हुए भी इतना गहरा अध्ययन करके तुरत-फुरत निष्कर्ष प्रस्तुत करने की क्षमता वाला कोई दूसरा ब्लॉगर यहाँ था ही नहीं जो गहराई तक निर्वाह कर सके और जुमलों से बाहर निकल सके। पवन दुग्गल भी वह गहराई नहीं पा सके। हैरत है कि फिर भी चारो ओर जय-जयकार मची है इस संगोष्ठी की। मन चकरा रहा है।

मुझे तो लग रहा था कि निम्न चार विषयों पर उनके समूहों द्वारा जो चर्चा की गयी वह गहन भी थी और सार्थक भी लेकिन कदाचित्‌ इसका संदेश सभाकक्ष के बाहर अंतर्जाल पर पूरा नहीं गया।

१- ब्लॉगिंग में नैतिकता व सभ्याचरण (etiquettes)

श्री सुरेश चिपलूनकर, श्री विवेक सिंह, श्री संजीत त्रिपाठी, डॉ.महेश सिन्हा, डॉ. (श्रीमती) अजित गुप्ता,

२- हिंदी ब्लॉग और उद्यमिता (व्यावसायिकता)

श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी, श्री शैलेश भारतवासी, श्री संजय वेंगाणी, श्री अविनाश वाचस्पति, श्री अशोक कुमार मिश्र, श्रीमती रचना त्रिपाठी, श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, श्री विनोद शुक्ल

३-आचार संहिता क्यों व किसके लिए?

श्री रवीन्द्र प्रभात, श्रीमती अनिता कुमार, श्री प्रवीण पांडेय, प्रो. ऋषभदेव शर्मा, डॉ कविता वाचक्नवी, डॉ. प्रियंकर पालीवाल

४- हिंदी ब्लॉग और सामाजिक सरोकार

-श्री जय कुमार झा, श्री यशवंत सिंह, श्री अनूप शुक्ल, श्री जाकिर अली रजनीश, सुश्री गायत्री शर्मा

अब समूह के प्रतिनिधि अपनी लाज रखने के लिए पूरी बात अपने ब्लॉग पर लिखकर सबको लिंक भेजें तब शायद बात बने। 

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि मेरी लाख न्यूनताओं के बावजूद ईश्वर ने मुझसे एक जानदार, शानदार और अविस्मरणीय कार्यक्रम करा दिया तो यह निश्चित रूप से मेरे पूर्व जन्म के सद‌कर्मों का पल रहा होगा जिससे मुझे इस बार अत्यंत सुलझे हुए और सकारात्मक दृ्ष्टि के सम्मानित ब्लॉगर्स के साथ संगोष्ठी के आयोजन का सुअवसर मिला। कुलपति श्री विभूति नारायण राय जी ने बड़ी सहजता से पूरे कार्यक्रम के दौरान मेरी गलतियों को नजर अंदाज कर मेरा हौसला बढ़ाये रखा, पूरा विश्वविद्यालय परिवार मुझे हर प्रकार से सहयोग करता रहा, और ब्लॉगजगत में मेरे शुभेच्छुओं की दुआओं ने ऐसा रंग दिखाया कि कुछ खल शक्तियाँ अपने आप किनारे हो गयीं वर्ना बुलावा तो सबके लिए था। इसे भाग्य न मानूँ तो क्या?

एक बात जरूर कहूँगा कि प्रयाग के सम्मेलन से जो सीखा था वह वर्धा में काम आया। यहाँ भी अपनी गलतियों से कुछ सीखने को मिला है। निश्चित ही वे आगे मार्गदर्शन करेंगी।

शेष बातें जानने के लिए इन लिंक्स पर जाना उपयोगी होगा-

  1. कई अनुत्तरित प्रश्नों को छोड़ गयी वर्धा में आयोजित संगोष्ठी (रवीन्द्र प्रभात)
  2. कैमरे में कैद वर्धा में आयोजित संगोष्ठी की सच्चाई (रवीन्द्र प्रभात)
  3. अविस्मरणीय रहा वर्धा में आयोजित संगोष्ठी का दूसरा दिन (रवीन्द्र प्रभात)
  4. वर्धा में केवल विचार मंथन ही नहीं मस्ती की पाठशाला भी (रवीन्द्र प्रभात)
  5. हिन्दी ब्लॉगिंग पर आधारित दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला और संगोष्ठी पूरी भव्यता के साथ संपन्न (रवीन्द्र प्रभात)
  6. वर्धा सम्मेलन: कुछ खट्टा कुछ मीठा (जाकिर अली रजनीश)
  7. वर्धा यात्रा ने बना दिया गाय, वर्ना आदमी तो हम भी थे काम के.(अनीता कुमार)
  8. बर्धा ब्लॉगर सम्मेलन की रिपोर्ट “जरा हटके” (सुरेश चिपलूनकर)
  9. स्वतंत्र वार्ता हैदराबाद: ब्लॉगरों को अपनी लक्ष्मण रेखा खुद बनानी पड़ेगी- विभूति नारायण राय
  10. वी.एन.राय, ब्लॉगिंग और मेरी वर्धा यात्रा (भड़ास पर यशवंत)
  11. वर्धा की शानदार तस्वीरें (पिकासा पर सुरेश चिपलूनकर)
  12. वर्धा में दो दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला एवं संगोष्‍ठी संपन्न (डॉ.कविता वाचक्नवी)
  13. वर्धा ब्लॉगर मिलन से वापसी, बाल बाल बचे (डॉ. महेश सिन्हा)
  14. ब्लोगिंग के जरिये गणतंत्र को आगे बढाने का एक अभूतपूर्व आयोजन का सार्थक प्रयास..(जय कुमार झा)
  15. ब्लोगर संगोष्ठी वर्धा चित्रों क़ी नजर से ..(जय कुमार झा)
  16. वर्धा संगोष्ठी और कुछ अभूतपूर्व अनुभव व मुलाकातें ….(जय कुमार झा)
  17. ब्लोगिंग का उपयोग सामाजिक सरोकार तथा मानवीय मूल्यों को सार्थकता क़ी ओर ले जाने केलिए किये जाने क़ी संभावनाएं बढ़ गयी है …..(जय कुमार झा)
  18. वर्धा में मिले ब्लॉगर (विवेक सिंह)
  19. वर्धा के गलियारों से (कुछ झूठ कुछ सच ) (विवेक सिंह)
  20. "ब्‍लोगिंग की कार्यशाला – अभी छाछ को बिलौना बाकी है – डॉ. (श्रीमती)अजित गुप्‍ता
  21. वर्धा सम्‍मेलन की तीन अविस्‍मरणीय बातें (संजय बेंगाणी)
  22. साला न कहें भाई साहब कहें चर्चाकारः अनूप शुक्ल
  23. ब्लॉगिंग सबसे कम पाखंड वाली विधा है चर्चाकारः अनूप शुक्ल
  24. ब्लॉगिंग की आचार संहिता की बात खामख्याली है चर्चाकारः अनूप शुक्ल
  25. वर्धा में भाषण जारी चर्चाकारः अनूप शुक्ल
  26. वर्धा में ब्लागर सम्मेलन चर्चाकारः अनूप शुक्ल
  27. नदी उदास नहीं थी  (डॉ. कविता वाचक्नवी)
  28. गांधी जी सफलतम ब्लॉगर हुए होते : वर्धा आयोजन का भरत वाक्य  (डॉ.ऋषभदेव शर्मा)
  29. "वर्धति सर्वम् स वर्धा – 1 (प्रवीण पांडेय)
  30. वर्धा ब्लोगर संगोष्ठी के पर्दे के पीछे के असल हीरो … (जय कुमार झा)
  31. वर्धा संगोष्ठी में उपस्थित थे गांधी, निराला, शमशेर और अज्ञेय भी … (रवीन्द्र प्रभात)
  32. हिंदी ब्लॉगिंग-आचार संहिता-देश के ब्लॉगर और कुछ बातें, एक रपट जैसा कुछ (संजीत त्रिपाठी)
  33. महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय,वर्धा से लौटकर …. हिन्‍दी ब्‍लॉगरों की एक महारैली का आयोजन देश की राजधानी दिल्‍ली के इंडिया गेट पर करें (अविनाश वाचस्पति)
  34. ब्‍लागिंग में आना और कार्यशाला में पहचाना एक-दूसरे को डॉ.(श्रीमती) अजित गुप्ता
  35. तनिक रुको भाई, आ रहे हैं बताते हैं बताते हैं (अनीता कुमार)
  36. महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में… (गायत्री शर्मा)
  37. वर्धा और बिरयानी घर (राम त्यागी)
  38. वर्धा से आप लोग क्यों चले गये… ? (मास्टर सत्यार्थ)
  39. …अथ वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन कथा (अनूप शुक्ल)
  40. वर्धा – कंचन मृग जैसा वाई-फ़ाई (अनूप शुक्ल)

अभी इतना ही। कुछ लिंक्स छूट गये हों तो टिप्पणियों के माध्यम से या मेल से बताएँ। (हम कोशिश करेंगे कि इस सूची को समय-समय पर आगे बढ़ाते रहें)

    (सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) 

हाय, मैं फुटबॉल का दीवाना न हुआ… पर हिंदी का हूँ !!

24 टिप्पणियां

 

इलाहाबाद से वर्धा आकर नये घर में गृहस्थी जमाने के दौरान फुटबॉल विश्वकप के मैच न देख पाने का अफ़सोस तो मुझे था लेकिन जब मैने इसका प्रसारण समय जाना तो मन को थोड़ी राहत मिल गयी। यदि मेरा टीवी चालू रहता और केबल वाला कनेक्शन भी जोड़ चुका होता तबभी देर रात जागकर मैच देखना मेरे वश की बात नहीं होती। इस खेल के लिए मेरे मन में वैसा जुनून कभी नहीं रहा कि अपनी दिनचर्या को बुरी तरह बिगाड़ लूँ। जैसे-जैसे टुर्नामेण्ट आगे बढ़ता गया इसकी चर्चा का दायरा भी फैलता गया। ऑफ़िस से लेकर कैंटीन तक और गेस्ट हाउस से लेकर घर के नुक्कड़ तक जहाँ देखिए वहीं चर्चा फुटबॉल की। मैं इसमें सक्रिय रूप से शामिल नहीं हो पाता क्योंकि मैं कोई मैच देख ही नहीं पा रहा था।कांस्य पदक के साथ जर्मन खिलाड़ी

हमारे कुलपति जी रात में मैच भी देखते और सुबह हम लोगों के साथ साढ़े पाँच बजे टहलने के लिए भी निकल पड़ते। आदरणीय दिनेश जी ने तो रतजगा करने के बाद मैच की रिपोर्ट ठेलना भी शुरू कर दिया। मैने अखबारों से लेकर न्यूज चैनेलों तक जब इस खेल का बुखार चढ़ा हुआ देखा तो मुझे अपने भीतर कुछ कमी नजर आने लगी। कैसा मूढ़ हूँ कि दुनिया के सबसे बड़े उत्सव के प्रति उदासीन हूँ। मैंने तुरन्त टीवी सेट तैयार किया और केबल वाले को आनन-फानन में ढूँढकर कनेक्शन ले लिया। यह सब होने तक क्वार्टर फाइनल मैच पूरे हो चुके थे। नेट पर देखकर पता चला कि सेमी फाइनल मैच सात और आठ जुलाई को खेले जाने हैं। मैंने रतजगे की तैयारी कर ली।

शाम को ऑफिस से आया तो पता चला कि दोपहर की बारिश के बाद टीवी बन्द पड़ा है। ऑन ही नहीं हो रहा है। मैने देखा तो टीवी का पावर इन्डीकेटर जल ही नहीं रहा है। मैने बिजली का तार चेक किया। इसमें एक छोटी सी खरोंच पर सन्देह करते हुए नया तार लगा दिया। फिर भी लाइट नहीं जली। मैने टीवी का पिछला ढक्कन खोलकर चेक किया तो इनपुट प्वाइण्ट पर बिजली थी लेकिन उसके अन्दरूनी हिस्से में कहीं कोई गड़बड़ थी। यह सब करने में पसीना भी बहा। सुबह तो अच्छा भला चलता छोड़कर गया था… फिर यह अचानक खराब कैसे हो गयी?

श्रीमती जी बताया कि दोपहर में बारिश के समय जोर की गर्जना हुई थी। कहीं आसपास ही बिजली गिरी होगी शायद। मुझे सन्देह हुआ कि केबल के रास्ते बिद्युत तड़ित की उर्जा टीवी में जा समायी होगी और किसी पुर्जे का सत्यानाश हो गया होगा। मैंने फौरन इसे गाड़ी में लादा और दुकान पर ले गया। वहाँ बिजली से आहत कुछ और टीवी सेट रखे हुए थे। दुकानदार ने बताया कि नागपुर से मिस्त्री आएगा तब चेक करके बताएगा कि क्या खराबी है? मैने पूछा कि कितना समय और पैसा लगेगा तो उसने मेरा मोबाइल नम्बर मांग लिया। बोला कि मिस्त्री के चेक करने के बाद ही बता पाऊंगा। यदि जला हुआ स्पेयर पार्ट यहाँ मिल गया तब तो तत्काल ठीक करा लूंगा नहीं तो उसे नागपुर से मंगाने में दो-तीन दिन लग जाएंगे।

मुझे न चाहते हुए भी इलाहाबाद छोड़ने का पछतावा होने लगा। श्रीमती जी कि फब्तियाँ सुनना तो तय जान पड़ा- अच्छा भला शहर और काम छोड़कर इस वीराने में यही पाने के लिए आये थे- बच्चों का स्कूल सात किलोमीटर, सब्जी बाजार आठ किलोमीटर, किराना स्टोर पाँच किलोमीटर, दूध की डेयरी छः किलोमीटर… हद है, नजदीक के नाम पर है तो बस ईंट पत्थर और सूखा- ठिगना पहाड़… ले देकर एक पार्क है तो वह भी पहाड़ी पर चढ़ाई करने के बाद मिलता है। वहाँ भी रोज नहीं जा सकते…

मैं अपने को यह सब पुनः सुनने के लिए तैयार करता हुआ घर लौट आया। यह भी पक्का हो गया कि अब दोनो सेमी फाइनल भी नहीं देख पाऊंगा। मन मसोस कर रह गया। आखिरकार अगले दिन मिस्त्री ने खबर दी कि सामान नागपुर से आएगा औए साढ़े नौ सौ रूपए लगेंगे। मरता क्या न करता। मैने फौरन हामी भरी। टीवी बनकर आ गयी। मैने पता किया कि तीसरे-चौथे स्थान का मैच १०-११ की रात में होगा। मैने शनिवार की छुट्टी को दिन में सोकर बिताया ताकि रात में जागकर मैच देख सकूँ। दस बजे रात को परिवार के अन्य सदस्य सोने चले गये और मैं बारह बजने का इन्तजार करता रहा। इस दौरान टीवी पर कुछ फालतू कार्यक्रम भी देखने पड़े। स्टार प्लस पर ‘जरा नच के दिखा’ का ग्रैण्ड फ़िनाले चल रहा था जिसमें नाच से ज्यादा नखरा और उससे भी ज्यादा विज्ञापन देखना पड़ा।

नींद के डर से प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा रहा लेकिन जब पहलू में कष्ट हुआ तो भारी भरकम सोफ़ा उठाकर टीवी के सामने ले आया। गावतकिया लगाकर आराम से देखने का इन्तजाम हो गया। मैच शुरू हुआ। जर्मनी ने पहला गोल दागा और जब बोर्ड पर यह स्कोर लिख कर आया तब मैंने पक्के तौर पर जाना कि काली जर्सी वाले खिलाड़ी जर्मन टीम के हैं। इसके बाद युरुग्वे ने गोल उतारा फिर बढ़त ले ली। अब मुझे ऑक्टोपस पॉल की जान सांसत में नजर आने लगी। तभी जर्मनी ने बराबरी कर ली। मैच में जोश आया हुआ था लेकिन सोफ़े पर आराम से पसरा हुआ मैं जाने कब सो गया। जब नींद खुली तो खिलाड़ियो को मैदान से बाहर जाते देखा और चट से विज्ञापन शुरू हो गया। अन्तिम परिणाम देखने के लिए न्यूज चैनेल पर जाना पड़ा। वहाँ की हेडलाइन थी- ऑक्टोपस पॉल की भविष्यवाणी एक बार फिर सही साबित हुई। जर्मनी तीसरे स्थान पर। युरुग्वे को ३-२ से हराया।

***

अफ़सोस है कि मैं दूसरों की तरह फुटबॉल का दीवाना नहीं बन पाया। कुछ लोग मुझे जरूर कोसेंगे कि कैसा अहमक है। चलिए कोई बात नहीं…। मेरी दीवानगी कहीं और तो है। आज स्वप्नलोक पर विवेक जी ने एक कविता ठेल दी लेकिन कविता अंग्रेजी में देखकर मुझे ताव आ गया। मैने आनन-फानन में उसका हिन्दी तर्जुमा करके टिप्पणी में पेश कर दिया है। मेरी दीवानगी का आलम यहीं देख लीजिए। स्वप्नलोक तक बाद में जाइएगा 🙂

“Though I have done no mistake,
Excuse me for God’s sake.
I am poor, you are great.
You are master of my fate.

गलती मेरी नहीं है काफी

प्रभुजी दे दो फिर भी माफी

मैं गरीब तू बड़ा महान

भाग्यविधाता लूँ मैं मान

But remember always that,
human, lion, dog or cat,
all creatures are same for God.
No sound is, in his rod.

पर इतना तुम रखना ध्यान

नर नाहर बिल्ली और श्वान

सबको समझे एक समान

मौन प्रहार करे भगवान

He, who will afflict others,
will be facing horrid curse.
Killing weak is not correct.
This is universal fact.”

जिसने परपीड़ा पहुँचाई

वह अभिशप्त रहेगा भाई

निर्बल को मारन है पाप

दुनिया कहती सुन लो आप

Listening this the hunter said,
“Don’t teach me good and bad.”
Gun fire ! but no scream ?
Thank God it was a dream !

सुन उपदेश शिकारी भड़का

ले बन्दूक जोर से कड़का

धाँय-धाँय… पर नहीं तड़पना

शुक्र खुदा का यह था सपना

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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