पुराण चर्चा: लिंग पुराण (क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा) भाग-२

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भाग-१: लिंग पुराण का संक्षिप्त परिचय

भाग-२: क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा:

durvasaप्राचीन समय की बात है। राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी।

अंबरीष ने उनका स्वागत किया और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात् दुर्वासा ऋषि की पूजा करके उसने प्रेमपूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे यमुना नदी के तट पर चले गये। वे परब्रह्म का ध्यान कर यमुना के जल में स्नान करने लगे।

इधर द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अम्बरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना – दोनो ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ।”

ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों मे कहा गया है कि पानी भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी है। इसलिये इस समय आप जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल पी लिया और दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे।

जब दुर्वासा ऋषि लौटे तो उन्होंने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष भोजन कर चुके हैं। अत: वे क्रोधित हो उठे और कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तूने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ।”

क्रोधित दुर्वासा ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।

जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल,पृथ्वी,समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी।

ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देवगण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”durvasa1

ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषिवर ! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाएँ। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।”

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दयानिधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”

भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेमपाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु-बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”

नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखकर अंबरीष को अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाय। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।

जबसे दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तबसे राजा अम्बरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अम्बरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा लिये।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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अच्छाई को सजोना पड़ता है जबकि बुराई अपने आप फैलती है…।

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पिछले दिनों विश्वविद्यालय प्रांगण में आयोजित ब्लॉगिंग संगोष्ठी में दिल्ली से श्री जय कुमार झा जी पधारे थे। ‘ऑनेस्टी प्रोजेक्ट डेमोक्रेसी’  के अलावा उनके दूसरे भी ब्लॉग हैं। ब्लॉगरी को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने पर झा जी का बहुत जोर है। इतना कि उनसे चाहे जिस मुद्दे पर बात करिए उनका हर तीसरा वाक्य ‘सामाजिक सरोकार’ की ओर ही मोड़ कर ले जाता है। उनसे हमें जब भी कुछ चर्चा का मौका मिला वे ‘सोशल ऑडिट’ पर जोर देते दिखे। मुझे थोड़ा विस्मय हुआ कि घूम-फिरकर इन्हीं दो बातों के इर्द-गिर्द परिक्रमा करने से ये थकते क्यों नहीं। उनका कहना था कि हमारे समाज की गड़बड़ियों को दूर करने का सबसे कारगर तरीका है सोशल ऑडिट यानि सामाजिक जाँच।

जय कुमार झा जी ने संगोष्ठी समाप्त होने पर बताया कि वे वर्धा प्रांगण में एक दिन और रुकेंगे। यहाँ संपन्न हुई कार्यशाला में ब्लॉगिंग से जुड़ने वाले नये ब्लॉगर विद्यार्थियों व अन्य छात्रों से अलग से मिलकर कुछ संदेश देना चाहेंगे। संभव हो तो कुलपति जी को भी यह प्रस्ताव देंगे कि वे अपने छात्रों की टीम बनाकर सुदूर गाँवों में सोशल ऑडिट के लिए भेजें। राष्ट्रीय स्तर पर जो लोग इस प्रकार के अभियान में लगे हुए हैं उनकी मदद से इन टीमों को प्रशिक्षित कराया जाय आदि-आदि।

दो-दिवसीय संगोष्ठी की समाप्ति पर मैं थकान मिटाने के नाम पर आराम की मुद्रा में जाना चाहता था लेकिन उनकी ऊर्जा और सामाजिक सरोकार के प्रति अदम्य आग्रह को देखकर मुझे जन संचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनिल राय ‘अंकित’ से बात करके झा जी की कक्षा का आयोजन करना पड़ा। विभागाध्यक्ष ने सहर्ष रुचि दिखायी और हम झा जी को लेकर पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे छात्रों के बीच एक क्लास-रूम में पहुँच गये। विभाग में उपस्थित सभी कक्षाओं के छात्र कुछ शिक्षकों के साथ वहाँ इकठ्ठा थे। मैने सबसे पहले वहाँ उपस्थित विद्यार्थियों को संगोष्ठी के आयोजन में सहयोग देने हेतु धन्यवाद दिया और फिर अतिथि वार्ताकार का संक्षिप्त परिचय देकर पोडियम पर झा जी को आमंत्रित कर दिया। झा जी ने अपनी बात सामाजिक सरोकार, सोशल ऑडिट, ग्रास रूट लेवेल, सिटिजेन जर्नलिस्ट इत्यादि के माध्यम से रखी। झा जी ने India Rejuvenation Initiative (iri.org.in) नामक संगठन के बारे में बताया जो प्रायः सेवानिवृत्त हो चुके ऐसे प्रभावशाली और अनुभवी नौकरशाहों, न्यायाधीशों, पुलिस अधिकारियों इत्यादि द्वारा खड़ा किया गया है जो समाज में सच्चाई और ईमानदारी को बढ़ावा देना चाहते हैं।

उनकी वार्ता सुनकर मैंने जो समझा उसका सार यह था कि समाज के जागरूक लोगों द्वारा अपने आस-पास हो रहे प्रत्येक कार्य पर न सिर्फ़ निगरानी रखना चाहिए बल्कि कुछ भी गड़बड़ पाने पर सक्षम प्राधिकारियों तक उसकी शिकायत भी पहुँचानी चाहिए। जबतक हर पढ़ा लिखा आदमी सबसे निचले स्तर (grass-root level) पर सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन पर सतर्क निगाह रखकर धाँधली करने वाले लाभार्थियों, कर्मचारियों और अधिकारियों को गलत करने से रोकने व टोकने के लिए कुछ कष्ट नहीं उठाएगा तबतक हम एक ईमानदार और पारदर्शी समाज की रचना नहीं कर सकेंगे। आज स्थिति बिल्कुल उल्टी और भयावह है। सरेआम लूट और भ्रष्टाचार होते देखकर भी हम चुप रह जाते हैं और अपराधी निर्द्वंद्व होकर अपने कारनामें करता रहता है। ऐसा इसलिए कि हम केवल अपने सुकून और स्वार्थ की पूर्ति की चिंता में ही रमे हुए हैं। किसी ऐसे काम को झंझटी समझ कर किनारा कर लेते हैं जिसमें कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ न सधता हो। सामाजिक सरोकारों पर ध्यान देने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। उन्होंने सबसे अपील की कि हमें अपने कीमती समय में से कुछ समय समाज के गरीब और असहाय तबके की सहायता के लिए निकालना चाहिए।

झा जी की बातें सबने बड़े ध्यान से सुनीं। बीच-बीच में अनेक छात्र-छात्राओं ने उनसे सवाल दागने शुरू कर दिए। उन युवा चेहरों पर व्यवस्था के प्रति अत्यन्त रोष दिखा। उनकी बातों से ऐसा लगा कि ये सब आदर्श की बातें हैं जो केवल गोष्ठियों और सभाओं में अच्छी लगती हैं। व्यावहारिक दुनिया की सच्चाई बहुत कठोर और कड़वी है। जो लोग सत्ता और शक्ति के शिखर पर बैठे हैं उन्हें किसी तरह से डिगा पाना लगभग असम्भव है। जिनके पास अवसर हैं वे इसका प्रयोग अपनी तिजोरियाँ भरने के लिए कर रहे हैं। अपराधी प्रवृत्ति के लोग गिरोहबंद होकर देश और समाज को लूट रहे हैं। ईमानदार और सच्चे लोगों को कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। वे असहाय होकर किनारे खड़े हैं। हम युवाओं को ऐसे उपदेश खूब दिये जाते हैं। लेकिन हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या तो जीविका का सहारा ढूँढना है। नौकरियाँ दुर्लभ होती जा रही हैं। जो थोड़ी बहुत हैं भी वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रही हैं। सरकारी धन की लूट मची हुई है। प्रायः सभी इस प्रयास में लगे हैं कि उस लूट में हिस्सेदारी पाने का कोई जुगाड़ खोज लिया जाय। जिन्हें हिस्सा मिल गया वो यथास्थिति बनाये रखने का इन्तजाम सोचते हैं और जो बाहर हैं वे विरोध, धरना, प्रदर्शन, आंदोलन की राह चुनते हैं या चुप होकर अपनी नियति का दोष मानकर घर बैठ जाते हैं।

मुझे लगा कि यह नयी पीढ़ी यथार्थ के धरातल पर कुछ ज्यादा ही पैर जमाकर चलने को तैयार है। आदर्श की बातें सुनने के लिए भी इनके पास धैर्य नहीं है। झा जी उत्साहपूर्वक अपनी ‘ऑनेस्टी प्रोजेक्ट डेमोक्रेसी’ की बात बढ़ाते रहे और छात्रगण उनसे रोटी का सवाल उछालते रहे। एक छात्र ने विश्वविद्यालय के विरुद्ध नाना प्रकार के अनर्गल कुप्रचार में लगी एक वेबसाइट का उदाहरण देते हुए कहा कि यहाँ बहुत से अच्छे कार्य हो रहे हैं लेकिन बाहर वालों के सामने यहाँ की जो छवि बनी है उसे देखकर हमें इस कैम्पस से बाहर जाने पर शर्म महसूस होती है। इस शरारत के पीछे जिनका हाथ है उन्हे सभी पहचानते भी हैं लेकिन फिर भी हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। उनके विरुद्ध तो हम कुछ कर नहीं रहे हैं, बल्कि कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं तो बाकी दुनिया को सुधारने की बात करने का क्या औचित्य है? मतलब यह कि बुराई अपने पाँव पसारती जाएगी। उसे रोकने वाला कोई नहीं है। किसी के पास इसकी फुर्सत ही नहीं है। इस बहस के बीच मैने ह्वाइट बोर्ड (अब ब्लैक-बोर्ड नहीं रहे) पर इस प्रकार का रेखाचित्र बना दिया-

good&evil

मैने सबका ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि आपलोगों के हिसाब से आज के समाज में अच्छाई और बुराई की तुलनात्मक स्थिति कुछ इस प्रकार की है। बुराई का दानव विकराल रूप लेता जा रहा है और सच्चाई और ईमानदारी जैसी अच्छी बातें अल्पमत में आ गयी हैं। बुराई को कम करने के सभी प्रयास प्रायः विफल होते जा रहे हैं। कोई शरीफ़ आदमी गुंडे-मवाली से उलझना नहीं चाहता। झंझट मोल नहीं लेना चाहता। ‘संघे शक्तिः कलियु्गे’ – अपराधियों का गिरोह बहुत एकजुट होकर काम करता है जबकि सच्चे और ईमानदार लोग अकेले पड़ जाते हैं। ऐसे में शायद आप यह मान चुके हैं कि बायीं ओर के स्तम्भ को छोटा नहीं किया जा सकता। लगभग सभी ने मेरी इस बात पर हामी भरी। मैने कहा कि आप सबकी बात मानकर मैं भी स्वीकार कर लेता हूँ कि बुराई को कम नहीं किया जा सकता। लेकिन आप लोगों को अच्छाई की मात्रा बढ़ाने से किसने रोका है? अधिक से अधिक लोग यदि अपने आप में  सद्‍गुणों का विकास कर लें तो यह अंतर उलट सकता है। कुछ इस प्रकार से-

good&evil2

बुराई को उसके हाल पर छोड़ दें, और अच्छाई का अवगाहन करें तो आप दूसरी स्थिति पैदा कर सकते हैं। इस पर वे शांत होकर कुछ सोचने लगे। मैने आगे कहा – लेकिन यह इतना आसान काम नहीं है। क्योंकि प्रकृति आपके विरुद्ध खड़ी है। यह दुनिया जिस रूप में आज है उसमें बुराई स्वाभाविक रूप से अपने आप फैलती जाएगी लेकिन अच्छाई की मात्रा बढ़ाने के लिए मनुष्य को सकारात्मक कदम उठाने पड़ेंगे। प्राकृतिक रूप से  हमारा वातावरण ऐसा ही है। किसान अपने खेत की जुताई करके यत्न पूर्वक खर-पतवार की जड़ सहित सफाई कर लेने के बाद साफ़-सुथरी मिट्टी में अनाज के बीज डालता है। लेकिन बीज के साथ अवांछित घास-फूस अपने आप उग आती है। यदि खेत की निराई-गुड़ाई समय-समय पर न की जाय तो ये खर-पतवार अनाज के पौधों को अच्छादित कर देंगे और खेत की फसल चौपट हो जाएगी। थोड़ी सी असावधानी हुई नहीं कि बीज की बढ़वार रुक जाएगी और सारी मेहनत चौपट हो जाएगी। इसलिए सद्‌गुणों को अपने भीतर सावधानी से सजो कर रखना पड़ता है जबकि दुर्गुण अपने आप घर बना लेते हैं।

इस बात को सिद्ध करने के लिए कुछ और भी उदाहरण मेरे मन में आये। दाँतों को साफ़ रखने के लिए हमें नित्य उनकी सफाई करनी पड़ती है। लेकिन यदि उनका हम कुछ न करें, बस यूँ ही छोड़ दें तो जल्दी ही गंदगी जमती जाएगी। शरीर को साफ़ रखने के लिए रोज साबुन लगाकर नहाना पड़ता है, लेकिन इसे गंदा रखने के लिए किसी प्रयास की जरूरत नहीं है। हमारे वातावरण से आकर गंदगी अपने आप शरीर पर आसन जमा लेती है। घर को साफ रखने के लिए रोज झाड़ू-पोछा करना पड़ता है लेकिन गंदगी जाने कहाँ से अपने आप पधार जाती है। हमारे वातावरण में नकारात्मकता की विषबेल फैलने के अनुकूल अवसर बहुत हैं लेकिन सकारात्मक सुगंध का फूल खिलाने के लिए अच्छा माली बनकर कठिन परिश्रम करना पड़ेगा।

ऊपर के कई उदाहरण मुझे वहाँ कक्षा में नहीं देने पड़े। शायद नयी पीढ़ी को यह बात आसानी से समझ में आ गयी। कम से कम जोरदार तालियों से प्रकट होता उनका समर्थन तो यही कह रहा था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

साँईं बाबा का प्रसाद और ज्ञानजी की सेहत…

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श्री साँई बाबाआज वृहस्पतिवार है। शिर्डी वाले साँई बाबा के भक्तों का खास दिन। इस दिन व्रत-उपवास रखकर श्रद्धालु जन साँईं मन्दिरों में दर्शन के लिए उमड़ पड़ते हैं। इलाहाबाद का मुख्य मन्दिर भी इस दिन विशेष आकर्षण का केन्द्र हो जाता है। श्रद्धा और सबूरी के बीज मन्त्रों से प्रेरित भक्तजन बड़ी भीड़ के बावजूद पूरी तरह अनुशासित रहकर लम्बी लाइन में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए साँईं मन्त्रों का जप करते हैं और आगे बढ़ते हैं। शाम के वक्त तो इतनी भीड़ हो जाती है कि व्यवस्थापकों को रस्सियाँ तानकर लाइन बनानी पड़ती है जो मन्दिर के भीतर कई चक्रों में घूमने के बाद भी बाहर सड़क तक आ जाती है।

श्रद्धा-सबूरीजब श्रीमती जी के आग्रह पर पहली बार मैं इस मन्दिर में दर्शन करने गया था तो साँईं बाबा के प्रति श्रद्धा से अधिक एक अच्छे पति होने की सदिच्छा के वशीभूत होकर गया था। यहाँ आकर जब मैंने भक्तों की अपार भीड़ देखी और यह अनुमान किया कि भीतर साँईं बाबा की मूर्ति तक पहुँचने में कम से कम दो घण्टे लगेंगे तो मेरे पसीने छूट गये। भीड़ में तिल रखने की जगह नहीं थी इसलिए करीब ढाई साल के बेटे को भी गोद में लेना अपरिहार्य हो गया था। इस दुस्सह परिस्थिति में भी हम लोगों ने धैर्यपूर्वक दर्शन किये थे। वहाँ साँई बाबा के भजनों और उनकी जय-जयकार के बीच इतना अच्छा भक्तिमय माहौल बना हुआ था कि मन में किसी कठिनाई के भाव ने कब्जा नहीं किया।

साँईं प्रसादालयउस प्रथम दर्शन के समय एक ऐसी बात हो गयी थी जो साँईं बाबा के चमत्कारी प्रभाव की पुष्टि करती सी लगी। मेरे लाख सिर हिलाने के बावजूद श्रीमती जी तो इसे चमत्कार ही मानती हैं। हुआ ये कि जब मैं लाइन में लगा था उसी समय मेरा मोबाइल बज उठा। बड़ी मुश्किल से जब मैंने इसे जेब से निकालकर ‘काल रिसीव’ किया तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। यह एक ऐसे व्यक्ति का फोन था जिसे मैं करीब दो साल से ढूँढ रहा था। वह मेरे तीस हजार रुपये लौटाने में लगातार टाल-मटोल करते हुए अबतक मुझे टहलाता रहा था। उसदिन उसने अचानक फोन पर बताया कि रूपयों की व्यवस्था हो गयी है। किसी को भेंज दीजिए, आकर ले जाय। बस क्या था, मेरी पत्नी ने इसे साँईं बाबा का अनुपम प्रसाद मानते हुए उनमें अपना अडिग विश्वास प्रकट किया और आगे ऐसी कुछ अन्य उपलब्धियों को भी साँई बाबा की कृपा मानने सिलसिला शुरू हो गया। ऐसे प्रत्येक अवसर पर हमने साँईं के दर्शन किए। लेकिन मैने समय की अनुपलब्धता के कारण हमेशा वृहस्पतिवार को दर्शन से परहेज किया। मुझे लगता है कि पूजा-अर्चना में शान्तचित्त होकर बैठना और ध्यान करना अधिक महत्वपूर्ण है, न कि भीड़ में गुत्थमगुत्था होकर प्रसाद चढ़ाना।

साँईं इम्पोरियमआज रचना ने वृहस्पति को ही वहाँ जाने की खास वजह बतायी। उन्होंने लगातार नौ गुरुवार साँईं का व्रत रखा था जिसका आज समापन (उद्यापन) करना था। इसके अन्तर्गत गरीबों और लाचारों को भोजन कराना होता है। हलवा और पूड़ी का मीठा भोजन थैलियों में पैक करके हम मन्दिर गये। लेकिन शाम को नहीं, सुबह साढ़े दस बज गये। इस समय भीड़ बहुत कम थी।  मन्दिर और इसके आस-पास का वातावरण दर्शन, पूजन, और दान-पुण्य करने के लिए आवश्यक सभी अवयवों से युक्त है। मन्दिर प्रांगण में ही पूजन और प्रसाद की सामग्री के लिए साँई प्रसादालय है तो वहीं साँईं इम्पोरियम में बाबा से जुड़ी अनेक पुस्तकें, मूर्तियाँ, तस्वीरें, चुनरी, चादरें, ऑडियो कैसेट्स, सीडी, और अन्य प्रयोग की वस्तुएं उपलब्ध हैं। जूते-चप्पल रखने के लिए एक ओर बने स्टैण्ड में दो तीन कर्मचारी मुस्तैद हैं जो अलग-अलग खानों में इसे सुरक्षित रखकर टोकन दे देते हैं। हाथ धुलने के लिए और पीने के लिए स्वच्छ और शीतल पेयजल की व्यवस्था है।

मन्दिर के बाहर वाहन स्टैण्ड भी है और बड़ी संख्या में भिखारी भी। उनमें से अनेक विकलांग, अपंग और लाचार हैं तो कई बिल्कुल ठीकठाक सुविधाभोगी और अकर्मण्य भी। साधुवेश धारी कुछ व्यक्ति कमण्डल लटकाये या रामनामी बिछाए हुए भी मिले जो कदाचित्‌ गुरुवार को ही यहाँ दान बटोरने आते हैं। अनेक महिलाएं अपने झुण्ड के झुण्ड बच्चों के साथ भीख इकट्ठा करने के लिए जमा थीं। सड़क पर भी फूल-माला और प्रसाद की अनेक दुकानें सजी हुई थीं। हर स्तर के भक्तों के लिए अलग-अलग सामग्री यहाँ मौजूद है।

जब हम गाड़ी से उतरकर भोजन की थैलियाँ बाँटने शारीरिक रूप से अक्षम कुछ गरीबों के पास गये तो वहाँ एक व्यक्ति रसीद-बुक लिए खड़ा था। उसने उसे आगे बढ़ाते हुए कहा कि साहब यह रसीद कटा लीजिए। इसका पैसा विकलांगों की सेवा में खर्च होता है। मैंने पूछा- इसकी क्या गारण्टी? वह बोला- साहब आप विश्वास कीजिए। उसकी वेश-भूषा और शैली देखकर मुझे कत्तई विश्वास नहीं हुआ। हमने साक्षात्‌ दरिद्रनारायण की यथासामर्थ्य सेवा की और वहाँ से दर्शन-पूजन करने के बाद प्रसाद लेकर आदरणीय ज्ञानदत्त जी‌ का कुशल क्षेम जानने रेल-अस्पताल की ओर चल पड़े। (मन्दिर के भीतर फोटो खींचने की मनाही है इसलिए हमारा कैमरा ज्यादा कुछ नहीं कर सका।)

    रेलवे अस्पताल के वी.आई.पी. केबिन में आसन जमाए ज्ञानजी किसी भी तरह से मरीज जैसे नहीं लगे। विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों और परिवारीजन के साथ बातचीत में मशगूल थे। वागीशा और सत्यार्थ (मेरे बेटी-बेटे) ने उनका पैर छुआ तो प्रमुदित होकर दोनो हाथों से आशीर्वाद दिया। वहाँ ‘बाबूजी’ सबसे सक्रिय और मुस्तैद दिखे। सुबह से शाम तक लगातार अपने बेटे के आस-पास रहते हुए उन्होंने अपना सुख और आराम मुल्तवी कर रखा है। वैसे तो शुभेच्छुओं और तीमारदारों की कोई कमी नहीं है, लेकिन बाबूजी की उपस्थिति पिता-पुत्र के बीच विलक्षण आत्मीय सम्बन्ध को रेखांकित करती हुई भावुक बना देती है।

     एम.आर. आई. रिपोर्ट आ चुकी है। सबकुछ प्रायः सामान्य है। मस्तिष्क के दाहिने हिस्से में हल्की सी सूजन पायी गयी है जो दवा से ठीक हो जाएगी। तीन-चार दिन अस्पताल में ही रहना होगा। आज दूसरा दिन बीत गया है। अगले पन्द्रह दिनों तक दवा चलेगी। उसके बाद सबकुछ वापस पटरी पर आ जाएगा। ज्ञान जी किसी को मोबाइल पर बता रहे हैं – कुछ लोग इसे ब्लॉगिंग से जोड़ रहे हैं लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। ब्लॉगिंग तो मेरे लिए केवल टाइम-फिलर है। यह मेन जॉब तो नहीं ही है।

ए.सी. कमरे में एक्स्ट्रा बेड और सोफे पड़े हुए  हैं, और टीवी भी लगी है। लैप-टॉप भी आ गया है जो अभी खोला नहीं गया है, लेकिन मोबाइल पर लगातार हाथ चल रहा है।

    सबकुछ चंगा है जी…

 एक एसएमएस कर लूँ...     DSC02790

मेरी पिछली पोस्ट पर अबतक की सर्वाधिक प्रतिक्रियाएं दर्ज हुईं। ज्ञान जी के लिए आप सबका प्रेम और आदर देखकर अभिभूत हूँ। दद्दा तूसी ग्रेट हो जी…

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

परदुःखकातर… :(

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वैशाख की दुपहरी में सूर्य देवता आग बरसा रहे हैं… ऑफ़िस की बिजली बार-बार आ-जा रही है। जनरेटर से कूलर/ए.सी. नहीं चलता…। अपनी बूढ़ी उम्र पाकर खटर-खटर करता पंखा शोर अधिक करता है और हवा कम देता है। मन और शरीर में बेचैनी होती है…। कलेक्ट्रेट परिसर में ही दो ‘मीटिंग्स’ में शामिल होना है। कार्यालय से निकलकर पैदल ही चल पड़ता हूँ। गलियारे में कुछ लोग छाया तलाशते जमा हो गये हैं। बरामदे की सीलिंग में लगे पंखे  से लू जैसी गर्म हवा निकल रही है। लेकिन बाहर की तेज धूप से बचकर यहाँ खड़े लोग अपना पसीना सुखाकर ही सुकून पा रहे हैं। …काले बुरके में ढकी-छुपी एक बूढ़ी औरत फर्श पर ही पसर कर बैठी है। शायद अकेली आयी है। ….बाहर गेट पर लगी चाय की दुकान से पॉलीथिन में चाय लेकर एक महिला चपरासी कलेक्ट्रेट की ओर जा रही है। पसीने से भींगी उसकी पीठ पर पड़ती तीखी धूप से भाप उड़ती जान पड़ रही है…। बाबू लोगों की चाय लाना ही इस विधवा की ड्यूटी है। पति की अकाल मृत्यु के बाद उसे अनुकम्पा की नौकरी मिली है…। उसे देखकर मुझे अपने कमरे का माहौल बेहतर लगने लगता है…।

चुनाव आयोग ने ईवीएम (Electronic Voting Machine) के उचित रखरखाव के लिए कुछ सख़्त आदेश जारी किए हैं। उसी के अनुपालन के लिए डी.एम. साहब ने कमेटी बनाकर बैठक बुलायी है। डबल लॉक स्ट्रोंग रूम सिस्टम (द्वितालक दृढ़कक्ष) में इन मशीनों को रखकर उनकी लॉगबुक बनानी है। एक-एक मशीन का सत्यापन होना है। चार-पाँच बड़े अधिकारी जमा हो गये हैं। आयोग के निर्देश के अनुसार कमेटी के गठन का जो आदेश ए.डी.एम. के हस्ताक्षर से जारी हुआ है वह त्रुटिपूर्ण हो गया है। उस ओर ध्यान दिलाने पर ए.डी.एम. साहब बाबू को बुलाकर जोर से बिगड़ते हैं। “क्या गलत-सलत दस्तख़त करा लेते हो? कुछ भी अक़्ल नहीं है क्या?” …बाबू पलटकर सफाई देता है “साहब आदेश टाइप करके आपके सामने ही तो रखा था। आपने पढ़कर ही साइन किया था…”

“दरअसल कल शाम को बिजली चली गयी थी, उसी समय अन्धेरे में इसने उल्टा-सीधा साइन करा लिया” साहब की कैफ़ियत पर सभी मुस्कराते हैं, भीषण गर्मी और उससे उत्पन्न बिजली संकट की चर्चा होती है, लस्सी मंगायी जाती है, एक बेहतरीन स्वाद का चरपरा नमकीन खाया जाता है और नया आदेश बनाने की सलाह के साथ बैठक समाप्त होती है… सभी सदस्यों को किसी न किसी अगली बैठक में जाने की जल्दी है। मैं भी जिला सैनिक बन्धु की मासिक बैठक में शामिल होने चल देता हूँ।

परिसर में गुजरते हुए उधर देखता हूँ जहाँ एक तरफ़ पेशी पर लाये गये बन्दियों को दिन में ठहराने का लॉक-अप है। जेल की गाड़ी उन्हें यहाँ सुबह ले आती है और सुनवायी के बाद शाम को गिनती करके ले जाती है। गाड़ी से उतरकर लॉक-अप में घुसते, अपनी बारी आने पर लॉक-अप से निकलकर कोर्ट तक जाते फिर लौटते और दुबारा जेल वापसी के लिए गाड़ी में जानवरों की तरह भरे जाते समय उन कैदियों की एक झलक पाने के लिए और उनसे दो शब्द बात कर लेने के लिए सुबह से शाम तक टकटकी लगाये धूप में खड़ी उनकी बूढ़ी माँ, पत्नी, बेटे-बेटियाँ या बुजुर्ग बाप दिनभर अवसर की तलाश करते रहते हैं। बड़ी संख्या में पुलिस वाले उन्हें पास फटकने नहीं देते। हट्ट-हट्ट की दुत्कार के बीच वे जैसे-तैसे अपनी बातों के साथ कुछ खाने पीने के सामान की गठरी अपने स्वजन को थमा ही देते हैं। अधिकांश कैदी गरीब, कमजोर और फटेहाल से हैं। उनके मुलाकाती भी दीन-हीन, लज्जित और म्लानमुख…। यह सब टीवी पर दिखाये जाने वाले हाई-प्रोफाइल कैदियों से बिल्कुल अलग सा है। image

चित्रांकन- सिद्धार्थ ‘सत्यार्थमित्र’

जिस दिन कोई अमीर और मजबूत कैदी आता है उस दिन सुरक्षा और बढ़ा दी जाती है। वे इस ‘कैटिल क्लास’ की गाड़ी में ठूस कर नहीं लाये जाते। …घण्टों से धूप में खड़ी मासूम औरतों और बच्चों को देखकर मुझे गर्मी का एहसास कम होने लगता है। फौजियों की बैठक में समय की पाबन्दी जरूरी है…। मैं तेज कदमों से मीटिंग हॉल में प्रवेश करता हूँ।

एक सेवा निवृत्त कर्नल साहब ने जब से जिला सैनिक कल्याण और पुनर्वास अधिकारी का पद सम्हाला है तबसे यह बैठक माह के प्रत्येक तीसरे शनिवार को नियमित रूप से होने लगी है। जिलाधिकारी द्वारा आहूत इस बैठक में पूरे जिले से सेवानिवृत्त फौजी स्वयं अथवा अपने ब्लॉक प्रतिनिधि के माध्यम से अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए यहाँ इकठ्ठा होते हैं। औपचारिक परिचय और उपस्थिति पंजिका पर हस्ताक्षर का काम जल्दी से निपटाकर कार्यवाही शुरू होती है। देश की सेना में जवान, सिपाही, सूबेदार हवलदार आदि पदों पर सेवा कर चुके ये लोग अब ‘सिविलियन’ हो गये हैं और अपनी जिन्दगी को नये सिरे से बसाने की कोशिश में लगे हैं। सरकार ने इन्हें सहारा देने के लिए तमाम इन्तजाम किये हैं, लेकिन इस बैठक को देखने के बाद लगता है कि सेवा निवृत्ति के बाद इन फौजियों के ऊपर मुसीबत का अन्तहीन सिलसिला शुरू हो गया है…।

इनकी जमीन पर अवैध कब्जा, माफ़िया और गुण्डों द्वारा धमकी, शस्त्र लाइसेन्स मिलने या उसके नवीनीकरण में लालफीताशाही, सरकारी दफ़्तरों में धक्के खाने और न पहचाने जाने का संकट इन फौजियों के मुंह से ज्वार की तरह फूट पड़ा। पुलिस और प्रशासन के अधिकारी उन्हें समझाने-बुझाने और जाँच का आश्वासन देकर चुप कराने की कोशिश कर रहे थे।

एक फौजी की बेटी को शरेआम उठा लिया गया था। उसने अपनी बात कहनी शुरू की। वह वास्तव में हकला रहा था कि उसकी पीड़ा उसकी जुबान को लड़खड़ाने पर मजबूर कर रही थी यह मैं अन्त तक नहीं समझ पाया। साहब… मैं सबको जानता हूँ। उन लोगों ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा… पुलिस भी उनको जानती है… दरोगा जी उन लोगों से कहाँ मिलते हैं यह भी जानता हूँ… महीने भर से परेशान हूँ लेकिन मेरी लड़की को मेरे सामने नहीं ला रहे हैं… जब जाता हूँ तो मुझे ही उल्टा समझाने लगते हैं… कहते हैं कि लड़की अठ्ठारह साल की है… अपनी मर्जी से गयी है… मैं कहता हूँ कि एक बार मेरी लड़की को मेरे सामने लाकर दिखा दो तो मैं मान जाऊँगा। लेकिन वे कुछ नहीं कर रहे हैं। डिप्टी एस.पी. साहब मोबाइल पर थानेदार से बात करके दरियाफ़्त करते हैं और बताते हैं कि लड़की ने उस मुस्लिम लड़के के साथ कोर्ट मैरिज कर लिया है… फौजी के चेहरे पर दर्द और घना हो जाता है। साहब, मैं तो बस चाहता हूँ कि एक बार मेरी बच्ची को मेरे सामने ला दो… मैं उसे देख लूंगा तो संतोष कर लूंगा… वह ऐसी नहीं है…. हमारी बच्ची को जबरिया उठाया गया है… मुझे सब मालूम है… वह ऐसा कर ही नहीं सकती… कोई मुझे समझ नहीं रहा है…

पुलिस अधिकारी समझाने की कोशिश करते हैं… देखिए जब आपकी लड़की बालिग हो चुकी है तो वह अपनी मर्जी से जहाँ चाहे वहाँ रह सकती है। हम इसमें कुछ नहीं कर सकते…. नहीं साहब, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि वह ऐसा कैसे कर सकती है… मैं यह नहीं मान सकता… फौजी की आवाज काँप रही है। …असल में आपने अपनी बेटी को तालीम ठीक नहीं दी है। उसने आपको छोड़कर उस लड़के के साथ रहने का निर्णय ले लिया है… इसमें हम क्या कर सकते हैं… ठीक है, तो आपभी मुझे वही समझा रहे हैं जो दरोगा जी समझा रहे थे। हार कर अब मैं अपनी जान दे दूंगा… लेकिन उसके पहले उन दुश्मनों से बदला लेकर रहूंगा… अब मैं खुद ही कुछ करूंगा… मेरी कोई सुनने वाला नहीं है… मेरी बेटी को उन लोगों ने अगवा कर लिया है…। बार-बार यह सब दुहराता है। उसे अपनी सीट पर बैठ जाने का हुक्म होता है। अगला केस बताया जाय…

दूसरा फौजी खड़ा होता है। मेरी बेटी तो सिर्फ़ पन्द्रह साल की है। मैं दो महीने से भटक रहा हूँ। दरोगा जी केवल दौड़ा रहे हैं। मैने नामजद रिपोर्ट लिखवायी है। उन लोगों ने ‘अरेस्ट स्टे’ ले रखा था। मैने हाईकोर्ट से उसे खारिज करवा दिया है… फिर भी पुलिस उन्हें गिरफ़्तार नहीं कर रही है। वे बहुत बड़े माफ़िया हैं। मुझे डर है कि मेरी बेटी को उन लोगों ने कहीं बाहर भेंज दिया है या उसके साथ कोई गलत काम हो रहा है…। वे लोग रोज हाईकोर्ट आ-जा रहे हैं। मैं उन्हें रोज देखता हूँ लेकिन पुलिस को दिखायी नहीं पड़ते। दरोगा जी कह रहे थे कि आई.जी. साहब ने गिरफ़्तार करने से मना किया है…। डिप्टी एस.पी. तुरन्त प्रतिवाद करते हैं। यह सब गलत बात है। आप कप्तान साहब (डी.आई.जी.) से मिलकर अपनी बात कहिए। गिरफ़्तारी तो अब हो जानी चाहिए। लेकिन उनकी बात में विश्वास कम और सान्त्वना अधिक देखकर फौजी विफ़र पड़ते हैं। साहब, थानेदार को तलब कर लिया जाय… मोबाइल पर बात होती है। थानेदार किसी कोर्ट में चल रही बहस में व्यस्त हैं। अभी नहीं आ सकते…। उनसे बात करके बाद में आपको सूचना दे दी जाएगी…। आश्वासन मिलता है।

आगे समोसा, मिठाई, नमकीन की प्लेटें लगायी जा चुकी हैं। फ्रिज का ठण्डा पानी गिलासों में भरकर रखा जा चुका है, जिनकी बाहरी सतह पर छोटी-छोटी बूँदें उभर आयी हैं। सबके सामने कपों में चाय रखी जा रही है। …किसी और की कोई समस्या हो तो बताये। कोषागार से या वित्त सम्बन्धी कोई परेशानी हो तो इन्हें नोट करा दें। यह बात नाश्ता प्रारम्भ होने की भुनभुनाहट में दब जाती है। कोई शिकायत नहीं आती है। कर्नल साहब सबको धन्यवाद देते हैं। बैठक ‘सकुशल’ समाप्त होती है…

मेरा मन ए.सी. की ठण्डी हवा में भी उद्विग्न होकर गर्मी महसूस करने लगता है। सीने पर कुछ बोझ सा महसूस होता है। एक लोक कल्याणकारी राज्य का यह सारा शासन प्रशासन किसकी सेवा में लगा हुआ है…?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

क्षमा प्रार्थना…

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DSC02527 हे मूषक राज,

बहुत भारी मन से आपको विदा कर रहा हूँ। आपको कष्ट देने का मेरा कोई इरादा नहीं था। लेकिन क्या करूँ, आपने हमारे परिवार को ऐसा मानसिक कष्ट दिया कि आपको अपने घर से दूर कर देने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। आपसे विनती करने का कोई माध्यम होता तो मैं आपसे हाथ जोड़कर कहता कि आप इस घर के निरीह प्राणियों पर दया करिए। लेकिन आपको सलाखों के पीछे कैद करने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा हल नहीं था। आपको जो कष्ट हुआ उसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।

अपने विचित्र शौक को पूरा करते हुए आपने हमारे घर के किचेन से लेकर ड्राइंग रूम तक और आंगन से लेकर बेड रूम तक क्या-क्या नहीं काट खाया। कितने कपड़े, जूते-चप्पल, और घरेलू सामान आपकी निरन्तर वृद्धिमान दन्तपंक्ति की भेंट चढ़ गये। लेकिन हम यह सब कुछ सहते रहे। एक तो आपकी चंचल गति और दूसरे हमारी धर्म भीरु मति- दोनो आपकी सुरक्षा में सहायक रहे। आप हमारे आराध्य देव प्रथम वंदनीय, प्रातः स्मरणीय, गणपति, गणनायक, विघ्नविनाशक, लम्बोदर, उमासुत श्री गणेश जी के वाहन हैं। आपको किसी प्रकार की क्षति पहुँचाना हमारे लिए पाप की बात है। ऐसे कई अवसर आये जब आप हमारी आँखों के सामने ही हमें चिढ़ाते हुए चलते बने। घर के मन्दिर में चढ़ाया हुआ प्रसाद उठाने से जो हम चूक गये तो उसका भोग आप ही लगाते रहे। कदाचित्‌ मेरी गृहिणी मन ही मन खुश होती रही कि शायद आपकी पीठ पर बैठकर भगवान स्वयं भोग लगाने आते हों।

खुराफ़ात का अन्त आप छत से रोशनदान की ओर आने वाले डिश-टीवी के केबल पर चढ़कर घर के भीतर आते-जाते रहे। भारी देह होने के कारण एकाध बार अचानक ताली की आवाज से विचलित होकर आप फर्श पर आ गिरे तो भी आपका बाल बांका नहीं हुआ। बल्कि हम ही पाप के भागी होने के डर से सहम गये थे।

बचपन में अपने गाँव पर गेंहूँ की कटाई के बाद खाली हुए खेतों में आपका शिकार करने वालों को मैं देखता था। आपके बिल की खुदाई करने पर जमीन के भीतर आपकी बनायी हुई जो सुरंग मिलती थी उसे देखकर हम चौक जाते थे। आपने कितनी सफाई से भीतर ही भीतर गेंहूं की बालियों को इकठ्ठा रखने के लिए बड़े-बडे गोदाम बना रखे होते थे। अपने नवजात बच्चों के लिए सुरंग की सबसे भीतरी छोर पर नर्म मुलायम घास के बिस्तर सजा रखे होते थे। जब ये मुसहर जाति के शिकारी कुदाल से आपका आशियाना खोद रहे होते और आपके पूरे खानदान का सफाया कर रहे होते तो मेरा कलेजा कांप उठता था। आप द्वारा जमा किया हुआ अनाज उनका भोजन बन जाता। लेकिन जिस किसान के खेत पर आपकी कृपा हो जाती वह सिर पकड़ कर बैठ जाता।

मैने देखा था कि आपको पानी से बहुत भय हुआ करता था। आपको बिल से बाहर निकालने के लिए उसमें पानी भर दिया जाता था। आप जब घर में आयी बाढ़ से बचने के लिए बदहवास होकर भाग रहे होते तो आपके पीछे डण्डा लेकर दौड़ते गाँव के लड़के और उनके साथ आपका पीछा करने वाले कुत्ते अपनी पूरी शारीरिक शक्ति झोंक दिया करते थे।  बहुधा आप उन्हें चकमा देने में सफल हो जाते। लेकिन वे जब आपका शिकार कर लेते थे तो आपको आग में भूनकर नमक मिर्च के साथ चटखारे लेकर खाते हुए  वे लोग मेरे मन को घृणा से भर देते थे।

कुत्ते और बिल्लियों के लिए आपका उत्सर्ग तो अब किंवदन्ती बन चुका है। टीवी पर टॉम और जेरी का कार्टून देखते हुए मेरे बच्चे हमेशा आपके चरित्र से सहानुभूति रखते हैं। बिल्ले को हमेशा छकाते हुए आप सदैव तालियाँ बटोरते रहते हैं, लेकिन असली दुनिया आपके लिए इतनी उत्साहजनक नहीं है। शहरी जीवन शैली में आपको बर्दाश्त करने का धैर्य कम ही लोगों में है। आपको मारने के लिए तमाम जहरीले उत्पाद बाजार में लाये गये हैं। अब तो एक ऐसा पदार्थ बिक रहा है जिसे खाकर आप घर से बाहर निकल जाते हैं और खुले स्थान पर काल-कवलित हो लेते हैं।

एक बार गाँव में जब आपकी प्रजाति ने घर में कुहराम मचा रखा था तो एक दवा आँटे में मिलाकर जगह जगह रख दी गयी थी। उसके बाद जो हुआ उसे याद करके हम काँप जाते हैं। पूरे घर में बिखरी हुई लाशें कई दिनों तक इकठ्ठा की जाती रहीं। दो-चार दिन बाद जब दुर्गन्ध के कारण घर में रहना मुश्किल हो गया तो नाक पर पट्टी बाँधकर चींटियों की पंक्ति का सहारा लेते हुए अनेक दुर्गम स्थानों पर अवशेष मृत शरीरों को खोजा गया।   पूरे घर को शुद्ध करने के लिए हवन-अनुष्ठान कराना पड़ा। इसके बाद घर में यदि कोई बीमार हो जाता तो इसे उस हत्या के पाप का प्रतिफल माना जाता रहा। तबसे हम आपका समादर करने के अतिरिक्त कुछ सोच ही नहीं सकते।

हमने आपको कैद करने के बारे में कदापि नहीं सोचा होता यदि आपने शौचालय की सीट में लगे साइफ़न में इकठ्ठा पानी को अपना स्विमिंग पूल न बनाया होता। जाने आपको इस गन्दे पानी में स्नान करने का शौक कहाँ से चढ़ गया? इधर हमने देखा कि आपके पैरों के निशान कमोड से प्रारम्भ होकर वाश बेसिन पर और साबुनदानी को उलटने –पुलटने के बाद बरामदे में रखे सभी सामानों पर अपनी छाप छोड़ते हुए डाइनिंग टेबुल तक पहुँचने लगे थे। आपने हमारे सरकारी मकान के बाथरूम में लगे जीर्ण हो चुके दरवाजे के निचले कोनों पर छेद बना रखा था।

DSC02541 हमने पहली कोशिश तो यही की थी कि आपको ट्वायलेट में जाने से रोका जाय। रात में सोने से पहले हमने उन छेदों को एक बोरे से बन्द करके उसपर ईंट रख दिया था। सुबह हमने देखा कि आपने गुस्से में बोरे को कुतर दिया है और उसकी लुग्दी पूरे बाथरूम में बिखरा दी है। कदाचित इस गुस्से के कारण ही आपने उस रात रोज से ज्यादा लेड़ियाँ भी  भेंट कर दी थीं। हमने अगले दिन उन छिद्रों को टिन की प्लेट से ढँक दिया। लेकिन आप हार मानने वाले हैं ही नहीं। आपने अगली रात को उस टिन के ठीक बगल में दूसरा छेद बना लिया और अपना नरक-स्नान बदस्तूर जारी रखा।  छेद के पास ही दरवाजे के बाहर हमने जो एक चूहेदानी लगा रखी थी उसे भी आपने नहीं छुआ। आपको तो भीतर घुसने की जल्दी रही होगी।एक रास्ता बन्द हुआ तो दूसरा खोल लिया

हमें विश्वास हो गया कि आपको ट्वायलेट के भीतर जाने से नहीं रोका जा सकता है। आप स्नान करने से पहले कुछ और नहीं करते। चूहेदानी में रखे आलू के टुकड़े को आप तभी छुएंगे जब स्नान ध्यान पूरा हो जाएगा। मैने इस बार चूहेदानी को अन्दर ही लगा दिया ताकि जब आप अपने बाथटब से बाहर निकलें तभी भोजन की तलाश में उधर आकर्षित हों। इस बार युक्ति काम कर गयी। रात के करीब एक बजे जब खटाक की आवाज हुई तो मुझे चैन मिला। उठकर मैने तत्क्षण देखा। आप मेरे कैदी हो चुके थे। सद्दाम हुसेन को पकड़ने के बाद राष्ट्रपति बुश के चेहरे पर जो विजयी मुस्कान थी उसे भी मात देती हुई खुशी के साथ मैंने रात बितायी। आपको आपके पसन्दीदा स्थान पर ही कैदबन्द छोड़ दिया था मैने।

DSC02553 जब सुबह उठकर देखा तो आप अपने पिंजड़े के साथ कमोड की सीट में लुढ़के हुए थे। गजब का प्रेम था आपका उस नरक के रस्ते से। मैने एक प्लास से आपको पिजड़े सहित उठाया, आंगन में ले जाकर नल के पानी से विधिवत स्नान कराया और सुबह की ताजी धूप में सुखाने के बाद आपकी यादों को कैमरे में कैद करने के लिए उसी डाइनिंग टेबुल पर रख दिया जिसपर आप प्रायः विचरण करते रहते थे। आपको सलाखों के पीछे बहुत देर तक रखने की मेरी कोई मंशा नहीं थी। लेकिन मेरी श्रीमती जी सोमवती अमावस्या के अवसर पर पीपल देवता की पूजा करने, उनकी १०८ बार परिक्रमा करने गयी हुई थीं और मेरे बच्चे सो रहे थे। उन सबको आपका दर्शन कराये बगैर मैं आपको भला कैसे जाने देता?

अब जबकि मैने आपको अपने घर से एक किलोमीटर दूर इस मन्दिर के प्रांगण में लाकर छोड़ने का निश्चय किया है तो मन में मिश्रित भाव पैदा हो रहे हैं। दुःख और सन्तोष दोनो कुलांचे भर रहे हैं। उम्मीद है कि मन्दिर से सटा हुआ यह हरा-भरा पार्क आपको निश्चित ही अच्छा लगेगा। इस मन्दिर में दक्षिणमुखी हनुमान जी है, भगवान शंकर जी हैं, दुर्गा माँ की छत्रछाया भी है और आपके स्वामी गणेश जी भी पदासीन हैं। देखिए न, यहाँ कितनी धर्मपरायण सुहागिन औरतें पीपल के चबूतरे पर पूजा-परिक्रमा कर रही हैं। बड़ी मात्रा में प्रसाद चढ़ाया जा रहा है। आप इनका आनन्द उठाइए। हाँ, अपना नरक-स्नान का शौक त्याग दीजिएगा तो भला होगा।

आशा है कि मैने आपको जो नया बसेरा दिया है उसको मद्देनज़र रखते हुए आप मुझे माफ़ कर देंगे। मैने आपको पिजड़े में बन्द करके और नल के साफ पानी से स्नान कराके जो कष्ट दिया है और आपकी कैदी हालत में बेचैनी से किए गये क्रिया-कलाप दुनिया को दिखाने के लिए रिकॉर्ड किया है उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

सादर!

आपका एक अनिच्छुक भक्त

(सिद्धार्थ)

विदा से पूर्व मूषक राज के करतब

कैद में खुराफ़ाती
सलाखों के पीछे

ढाबा संस्कृति और बर्बाद होते बच्चे…

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“साहब मुझे यहाँ से छुड़ा दीजिए… ये लोग मुझे बहुत मार रहे हैं…” अचानक कान में ये शब्द पड़े तो मैं अपने मोबाइल के मेसेज पढ़ना छोड़कर उसकी ओर देखने लगा। एक लड़का बिल्कुल मेरे नजदीक आकर मुझसे ही कुछ कहने की कोशिश कर रहा था।

करीब तेरह चौदह साल की उम्र का वह दुबला सा लड़का निश्चित ही किसी गरीब परिवार का लग रहा था…। पहले तो उसका आर्त स्वर मुझे कुछ बनावटी लगा शायद भीख मांगने वाले लड़कों की तरह अभिनय करता हुआ सा…  उसकी सिसकियों के बीच से छन कर आ रही स्पष्ट आवाज और शुद्ध हिन्दी के प्रयोग से लग रहा था कि उसे स्कूल की शिक्षा जरूर मिली होगी। लेकिन इसने मुझसे रुपया-पैसा तो कुछ मांगा ही नहीं… फिर यह यहाँ ढाबे पर क्या कर रहा है…?

थोड़ी देर के लिए मैं उसकी सच्चाई को लेकर थोड़ा असमन्जस में पड़ गया था, लेकिन जब उसे मुझसे बात करता देखकर ‘ढाबे का मालिक’ नुमा एक लड़का तेजी से मेरे पास आकर उसे बोलने से रोकने की कोशिश करने लगा और सफाई की मुद्रा में मुझे कुछ समझाने लगा तो मेरे कान खड़े हो गये। मैने उस लड़के को शान्त कराकर उससे पूरी बात बताने को कहा। इसपर मालिक के लड़के की बेचैनी कुछ बढ़ती सी लगी।

11032010535हुआ ये था कि मैं कोषागार स्ट्रॉंग-रूम से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण कार्य के लिए इलाहाबाद से कानपुर सड़क मार्ग से जा रहा था। मेरे साथ में मेरा स्टाफ़ और दो सशस्त्र वर्दीधारी गार्ड भी थे। करीब दस बजे दिन में उन सबको खाना खिलाने के लिए मैने गाड़ी चौड़गरा के ‘परिहार ढाबा’ पर रुकवा दी थी। मेरे चीफ़ कैशियर ने स्टाफ़ के लिए दाल फ्राई, चना मसाला और तन्दूरी रोटी का ऑर्डर दे दिया था। मुझे स्वयं खाना खाने की इच्छा नहीं थी लेकिन ढाबे पर यदि खीर मिल जाय तो मैं उसका लोभ संवरण नहीं कर पाता। सो यहाँ भी मैने एक प्लेट खीर खाने के बाद ही एक कप चाय पीने की इच्छा जतायी थी।

इस साधारण से ढाबे पर टिपिकल शैली में लकड़ी के लाल, हरे, नीले तख्त लाइन से बिछे हुए थे। उनके किनारे प्लास्टिक की कुर्सियाँ डालकर डाइनिंग हाल का रूप दिया गया था। हाई-वे पर चलने वाली ट्रकों के ड्राइवर और क्लीनर इन्ही तख़्तों पर बैठकर भोजन करते हैं और जरुरत के मुताबिक इसी पर पसरकर आराम भी करते हैं। बाकी प्राइवेट गाड़ियों की सवारियाँ भी यदा-कदा यहाँ रुककर भोजन या नाश्ता करती हैं।

फ्रिज में रखी हुई ठण्डी और स्वादिष्ट खीर मुझे तत्काल मिल गयी। उसे चटपट समाप्त करके मैं चाय की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि उस लड़के ने मुझे कोई सरकारी अफ़सर समझकर कदाचित्‌ अपने को संकट से निकालने की उम्मीद में अपनी समस्या बतानी शुरू कर दी। वहीं एक टीवी पर फुल वॉल्यूम में कोई मसाला फिल्म चल रही थी जिसके शोर में बाकी लोगों तक यह बातचीत नहीं जा रही थी। लेकिन ढाबे पर काम करने वाले दूसरे रसोइये और नौकर इस लड़के पर सतर्क निगाह रखे हुए थे इसलिए दो मिनट के भीतर ढाबे के मालिक का लड़का लपका हुआ चला आया…।

लड़का बता रहा था, “मुझे स्टेशन से एक आदमी यहाँ लाकर छोड़ गया है। ये लोग मुझसे जबरदस्ती काम करा रहे हैं और बहुत मार रहे हैं।” उसकी सिंसकियाँ बढ़ती जा रही थीं जो अचानक मालिक के लड़के के आते ही रुक गयीं।

मैने मालिक के लड़के से ही पूछ लिया- “यह क्यों रो रहा है जी…?”11032010533

“कुछ नहीं साहब, यह अभी दो-तीन दिन पहले ही आया है। इससे हम लोग कोई काम नहीं कराते हैं। कहते हैं कि- बस जो खाना हो खाओ, और यहीं पड़े रहो … लेकिन यह बार-बार यहाँ से जाने को कहता है…”

“तो इसके साथ जबरदस्ती क्यों करते हो? जाने क्यों नहीं देते?” मैने तल्ख़ होकर पूछा।

“इसको हम अकेले किसी ट्रक पर बैठकर जानें दें तो पता नहीं कहाँ गायब हो जाएगा। फिर जिस ठेकेदार ने इसे यहाँ दिया है उसको हम क्या जवाब देंगे? …हम इससे कह रहे हैं कि ठेकेदार को आ जाने दो तो छोड़ देंगे, लेकिन मान ही नहीं रहा है…”

मैने लड़के से उस ठेकेदार के बारे में पूछा तो उसे कुछ भी मालूम नहीं था। फिर उसका नाम पूछा तो बोला, “मेरा नाम अजय है- स्कूल का नाम मुकेश और घर का नाम अजय”

उसने बिल्कुल शिशुमन्दिर के लड़कों की तरह जवाब देना शुरू किया। लखनऊ के पास चिनहट में किसी शिक्षा निकेतन नामक स्कूल से दर्जा पाँच का भागा हुआ विद्यार्थी था। बता रहा था कि वह अपने साथ के एक लड़के के साथ घूमने के लिए ट्रेन में बेटिकट बैठ गया। पकड़े जाने पर आगे के किसी स्टेशन पर टीटी द्वारा उतार दिया गया तो वहीं प्लैटफ़ॉर्म पर एक आदमी मिला। उसने इसकी मदद करने के नाम पर इस ढाबे पर लाकर छोड़ दिया।

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इतनी कहानी जानने के बाद मैं चिन्ताग्रस्त हो गया। मैं जिस जरूरी सरकारी काम से निकला था उसके लिए मुझे जल्दी से जल्दी कानपुर पहुँचना जरूरी था। लड़के को उसके हाल पर छोड़ कर जाने में खतरा यह था कि ढाबे का मालिक उसे निश्चित ही और दंडित करता क्योंकि उसने मुझसे उसकी शिकायत कर दी थी। …इससे बढ़कर यह चिन्ता थी कि मेरे ऊपर लड़के ने जो भरोसा किया था और संकट से उबारे जाने की जो गुहार लगायी थी उसका क्या होगा। मैं सोचने लगा- एक जिम्मेदार लोकसेवक होने के नाते मुझे क्या करना चाहिए? वह लड़का मेरे जाते ही घोर संकट में फँस सकता था।

तभी उस ढाबे का मालिक भी आ गया जिसको उसके लड़के ने फोन करके बुला लिया था। सफेद कुर्ता-पाजामा पहने हुए शिवमंगल सिंह परिहार ने अपना परिचय देते हुए बताया कि ऐसे लड़के इधर-उधर से आ जाते हैं साहब, लेकिन हम लोग इनका बड़ा खयाल रखते हैं। गलत हाथों में पड़कर ये खराब हो सकते हैं…। मैने टोककर कहा- “यह लड़का तो बता रहा है कि इसने कल से खाना ही नहीं खाया है, क्या खयाल रखते हैं आप?‘”

इसपर वह झेंपते हुए अपने रसोइये को डाँटने लगा…। मालिक के लड़के ने बीच में आकर कहा “नहीं साहब, इससे पूछिए, रात में खाना दिया गया था कि नहीं…!” लेकिन मेरे पूछने से पहले ही वह बोल उठा  कि मुझे कुछ नहीं मिला है, मुझे बहुत भूख लगी थी” इस बीच मेरे स्टाफ़ के साथ अजय उर्फ़ मुकेश भी खाना खा चुका था।

अजीब स्थिति बन गयी। अब मैं इसे इस हाल में छोड़कर कत्तई नहीं जा सकता था। फतेहपुर के एक विभागीय अधिकारी का नम्बर मेरे पास था। मैने उन्हें फोन मिलाकर पूरी बात बतायी। वहाँ वरिष्ठ कोषाधिकारी के पद पर तैनात श्री विनोद कुमार जी ने इसको गम्भीरता से लिया। जिले के पुलिस विभाग को इत्तला दी गयी। उनके आश्वासन के बाद मैने ढाबे पर मौजूद सभी पक्षों को लक्ष्य करते हुए दनादन कुछ तस्वीरें खींच डाली, ताकि बाद में कोई इस बात से इन्कार न करे। 11032010537

मुझे यह आशंका हो रही थी कि मेरे रवाना होते ही यदि लड़के को मार-पीट कर भगा दिया गया तो जिले की पुलिस या बालश्रम उन्मूलन विभाग वाले आकर ही क्या कर लेंगे। इसकी सम्भावना से बचने के लिए मैने ढाबा मालिक के साथ बच्चे को और अपने चीफ़ कैशियर को खड़ा कराकर फोटो खींच लिया। मैने शिवमंगल सिंह को प्यार से समझा दिया कि जबतक कोई जिम्मेदार सरकारी व्यक्ति यहाँ आकर इस बच्चे को न ले जाया तबतक आप इसे कहीं नहीं जाने देंगे। यदि इस बीच इस लड़के के साथ कोई दुर्व्यवहार हुआ तो आपकी जिम्मेदारी तय मानी जाएगी। सबूत के तौर पर ये तस्वीरें मैं अपने कैमरे में कैद कर लिए जा रहा हूँ।

मैने लड़के को भी समझा दिया कि जबतक कोई सरकारी अधिकारी या थाने से कोई आकर तुम्हें यहाँ से न ले जाय तबतक यहीं रहना। शाम तक वापसी में आकर मैं फिर से समाचार लूंगा। अब निश्चिन्त होकर मैं कानपुर चला गया, लेकिन अगले प्रत्येक आधे घण्टे पर फतेहपुर के वरिष्ठ कोषाधिकारी से उसका हाल-चाल मिलता रहा। कानपुर से वापसी करते हुए मैं ऐसी सामग्री के साथ था कि कहीं रुके बगैर मुझे सीधे इलाहाबाद कोषागार में पहुँचना निर्दिष्ट था। इसलिए मुझे मोबाइल के माध्यम से मिली सूचना पर निर्भर रहना पड़ा।

***

शाम को लौटते हुए रास्ते में जो अन्तिम सूचना मिली उसके अनुसार स्थानीय थाने के थानेदार ने वहाँ जाकर लड़के को अपने साथ थाने में लाकर ठहरा दिया था। शिवमंगल सिंह ने उसे मजदूरी के बचे हुए डेढ़ सौ रूपये देकर प्यार से विदा किया था और पुलिस के अनुसार लड़के को ढाबे वालों से कोई शिकायत नहीं रह गयी थी। लड़के ने जो अपना पता बताया था उस क्षेत्र के सम्बन्धित थाने से सम्पर्क कर इसके गायब होने का सत्यापन कराया जा रहा था। बाल श्रम कानून के प्रयोग की आवश्यकता नहीं महसूस की गयी थी। लड़के ने भी अपने साथ वी.आई.पी. वर्ताव पाकर अपने आँसू पोछ लिए थे और किसी पुलिस हमराही के साथ अपनी घर वापसी की प्रतीक्षा कर रहा था।

मैं वापसी में रास्ते भर सड़क किनारे चल रहे असंख्य ढाबों, रेस्तराओं, होटलों और चाय की दुकानों की ओर देखता हुआ यही सोचता रहा कि इनमें जाने कितने अजय, मुकेश, छोटू, बहादुर, पिन्टू, रामू, बच्चा, आदि किसी न किसी ठेकेदार के हाथों चढ़कर अपना जीवन खराब कर चुके होंगे…।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 

राम रसोई हुई मुखर…|

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बुरा हो इस ब्लॉगजगत का जो चैन से आलस्य भी नहीं करने देता। एक स्वघोषित आलसी महाराज तुरत-फुरत कविता रचने और ठेलने की फैक्ट्री लगा रखे हैं। इधर-उधर झाँकते हुए टिपियाते रह्ते हैं। रहस्यमय प्रश्न उछालते हैं और वहीं से कोई सूत्र निकालकर कविता का एक नया प्रयोग ठेल देते हैं। उधर बेचैन आत्मा ने एक बसन्त का गीत लिखा- महज दो घण्टे में। उसपर आलसी महाराज ने दो मिनट में एक टिप्पणी लिखी होगी। उसके बाद क्या देखता हूँ कि उनके कविता ब्लॉग पर एक नयी सजधज के साथ कुछ नमूदार हुआ है। पता नहीं कविता ही है या कुछ और।

इस अबूझ आइटम की दो लाइनें ही मेरी समझ में आ सकीं। उन लाइनों पर सवार होकर मैं अपने गाँव चला गया। मिट्टी के चूल्हे में जलती लकड़ी के आँच पर बड़ी बटुली में भात और छोटी बटुली में दाल बनाती माँ दिख गयी। लकड़ी की आँच की लालच में वहीं सटकर बैठ गया हूँ। मैं पहँसुल पर तेजी से चलते उसके हाथों को देखता हूँ जो तरकारी काट रहे हैं। बड़ी दीदी सिलबट्टे पर चटनी पीस रही है। कान में कई मधुर आवाजों का संगीत बज रहा है जिसमें गजब का ‘स्वाद’ है। यह सब मुश्किल से पाँच मिनट में रच गया क्यों कि संगीत की गति अनोखी है:

 

अदहन खदकत भदर-भदर
ढक्कन खड़कत खड़र-खड़र
करछुल टनकत टनर-टनर
लौना लहकत लपर-लपर

बटुली महकत महर-महर
पहँसुल कतरत खचर-खचर
सिलबट रगड़त चटर-पटर
लहसुन गमकत उदर-अधर

राम रसोई हुई मुखर
कविता बोली देख इधर

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

घुस पैठी थकान…

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इतवार का बिहान

सिर तक रजाई लिए तान

घर में की खटपट से बन्द किए कान

आंगन में धूप रही नाच

छोटू ककहरा किताब रहा बाँच

फिर भी न आलस पर आने दी आँच

कुंजीपट खूँटी पर टांग

धत्‌ कुर्सी कर्मठता का स्वांग

दफ़्तर में अनसुनी है छुट्टी की मांग

कूड़े का ढेर

फाइल में फैला अंधेर

चिट्ठों में आँख मीच रहे उटकेर

आफ़त में जान

भला है बन बैठो अन्जान

देह नहीं मन में घुस पैठी थकान

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

पुण्यदायी व्यवसाय- तीर्थयात्रा कम्पनी…!

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भारत की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने हेतु आदि शंकराचार्य नें भारत की चार दिशाओं में चार धामों की स्थापना की। उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम , पूरब में जगन्नाथपुरी एवं पश्चिम में द्वारका, हिन्दुओं के चार धाम हैं। आस्थावान हिन्दू इन धामों की यात्रा करना अपना पवित्र कर्तव्य मानते थे। शंकराचार्य से पूर्व पौराणिक काल से बद्रीनाथ, केदारनाथ, जमुनोत्री और गंगोत्री को चार धामों की प्रतिष्ठा प्राप्त है।  कालान्तर में हिन्दुओं के नये तीर्थ आते गये हैं। बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी के चार धामों के अतिरिक्त केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, ऋषिकेष, हरिद्वार, वैष्णो देवी, वाराणसी, प्रयाग, अयोध्या बैजनाथधाम, तिरुपति, शिरडी, गंगासागर, पशुपतिनाथ (काठमाण्डू) आदि तीर्थस्थल आस्थावान हिन्दुओं द्वारा विशेष श्रद्धा के साथ भ्रमण किये जाते हैं। शक्ति की देवी दुर्गाजी के अनेक रूपों के मन्दिर प्रायः पहाड़ों की चोटियों व दुर्गम स्थानों पर स्थापित है। लेकिन भक्तगण दुर्गम रास्तों की परवाह किए बिना माँ का आशीर्वाद प्राप्त करने निकल पड़ते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रतिष्ठित भगवान शंकर से संबन्धित द्वादश ज्योतिर्लिंग भी हिन्दू आस्था और भक्ति के अनन्य केन्द्र हैं:

सौराष्ट्रे सोमनाथम्‌ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्‌

उज्जयिन्याम्‌ महाकालम्‌ ओंकाराममलेश्वरम्‌

केदारम्‌ हिमवत्पृष्ठे डाकिन्याम्‌ भीमशंकरम्‌

वाराणास्यान्तु विश्वेशम् त्र्यम्बकम् गौतमीतटे

बैद्यनाथम्‌ चिताभूमौ नागेशम्‌ दारुकावने

सेतुबन्धेतु रामेश्वरम्‌ द्युश्मेशं च शिवालये

द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्‌

सर्वयाय विनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिः फलंलभेत्‌

इन पवित्र तीर्थस्थलों का दर्शन करने और पवित्र नदियों में स्नान करने से समस्त पापों का नाश होने और पुण्य के अर्जन का विश्वास प्रायः सभी हिन्दुओं को तीर्थयात्रा के लिए प्रेरित करता है। मार्ग की तमाम कठिनाइयों का सामना करते हुए प्राचीन काल में चारों धाम की यात्रा हिन्दुओं द्वारा देश की सांस्कृतिक एकता का दर्शन करने के लिये नहीं वरन्‌ अपना परलोक सुधारने के लिये ही की जाती होगी। इसी प्रकार गंगा का दर्शन करने लोग इस भाव से नहीं जाते कि वे सांस्कृतिक दृष्टि से भावविभोर हो जायें वरन्‌ इस भाव से जाते होंगे कि गंगा स्वयं शिव की जटा से निकली हैं और इसमें स्नान करने से उनके पापों का मोचन होगा।

पुराने जमाने में ये तीर्थयात्राएं बहुत कष्टकारी होती थीं। घर से बाहर निकलते ही कष्ट सहयात्री बन जाता था। कच्चे और दुर्गम मार्ग, दुर्लभ और धीमी सवारियाँ, प्रायः पैदल यात्रा की मजबूरी, खान-पान में कठिनाई और ठहरने के स्थानों का अभाव साधारण हैसियत वालों को यात्रा से रोकते थे। बहुत कम हिन्दू चारोधाम की यात्रा कर पाते थे। सुना जाता है कि भविष्य अनिश्चित्‌ जान बहुत से लोग यात्रा पर निकलने से पहले ही मृत्यु के बाद कराये जाने वाले कर्मकाण्ड और अनुष्ठान सम्पन्न कराकर जाते थे। जो भाग्यशाली होते थे और सकुशल यात्रा समाप्त कर लौट आते थे उनके दर्शन को भी पुण्यदायी माना जाता था। उनके पाँव पखारने और सेवा करने वालों की लाइन लग जाती थी।

पाप-पुण्य का विचार हमारे जनमानस में बहुत गहराई तक पैठा हुआ है। अच्छी और संस्कारित शिक्षा से हमारे मन को अच्छे और बुरे का भेद करना आता है। कम से कम हमारी आत्मा तो जानती ही है कि क्या गलत है और क्या सही। लेकिन लाख पढ़े-लिखे होकर भी ऐसे कम ही लोग हैं जो अपने सदाचरण पर टिके रहने को ही सबसे बड़ा पुण्य मानें। बहुतायत तो उन्हीं की है  जो इसके बजाय पहले काम, क्रोध, मद और लोभ के वशीभूत होकर निरन्तर अनैतिक कार्य करते जाते हैं और उसके बाद विश्वास रखते हैं कि पुरोहित द्वारा बताये गये कर्मकाण्डों के आयोजन और पवित्र तीर्थों के दर्शन द्वारा अपने एकाउण्ट से पाप की liability घटा लेंगे और पुण्य का asset बढ़ा लेंगे। इसी बैलेन्स शीट को कृत्रिम रूप से प्रभावशाली बनाने के प्रयास में  नये जमाने के लोग भी अपने पाप धोने के लिए संगम सहित तमाम नदियों व सरोवरों में खास मूहूर्त पर स्नान करने के लिए उमड़े जाते हैं और मन्दिरों में दर्शनार्थियों की भीड़ साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।

इस पाप-पुण्य के व्यापार में बहुत से असली व्यापारियों ने व्यावसायिक पूँजी निवेश किया है। अब यात्रा की अनेकानेक सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं। अब तो घर से ज्यादा बाहर की यात्रा खुशगवार होती जा रही है। पैकेज टूर ऑपरेटर्स, ट्रैवेल एजेन्सियाँ और सरकारी संस्थान, जैसे- रेलवे और पर्यटन विभाग द्वारा भी यात्रियों की जरूरत के अनुसार सुविधाए उपलब्ध करायी जा रही हैं। अब पुण्य कमाने निकले यात्रियों को सेवा देकर आर्थिक लाभ अर्जित करने वाली एजेन्सियों की भरमार होती जा रही है। मुझे यह सब चर्चा करने का मन इसलिए हुआ है कि हाल ही में मुझे एक ऐसी सुविधा से साक्षात्कार हुआ जो अत्यन्त सस्ते दर पर भारत के अधिकांश महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों की सैर लगातार पैंतीस दिनों तक कराती है। वह भी ऐसे कि यात्री को न तो अपने ठहरने का स्थान बदलना पड़ता और न ही सोने का बिस्तर। अपने सामान की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी नहीं, उसे यहाँ से वहाँ ढोने की फिक्र भी नहीं और खाने-पीने के लिए गर्म व ताजे घरेलू भोजन को मिस करने की मजबूरी भी नहीं है। मुझे तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगा।

रेलगाड़ी की चार बोगियों को विशेष रूप से तैयार कराकर  इस बड़ी यात्रा के लिए तीर्थयात्रा कम्पनी को उपलब्ध करा दिया जाता है। तीर्थयात्री को उसकी जो आरक्षित बर्थ यात्रा के प्रारम्भ में मिलती है वही अगले पैंतीस दिनों तक उसका बिस्तर होता है और वही कम्पार्टमेण्ट उसका घर बन जाता है। कम्पार्टमेण्ट की अन्य बर्थों के यात्री उसके परिवार के सदस्य बन जाते हैं और बगल का कम्पार्टमेण्ट उसका पड़ोसी घर हो जाता है। पूरी बोगी एक मुहल्ला और चार-पाँच बोगियाँ मिलकर एक शहर बना देती हैं। एक ऐसा शहर जिसमें देश के अलग-अलग राज्यों से आकर लोग बसे हुए हैं। सच में ‘भारत-दर्शन’ को निकले ये लोग स्वयं भारत का दर्शन कराते हैं। ये चारो डिब्बे अलग-अलग मार्गों पर अलग-अलग ट्रेनों से जुड़ते और टूटते हुए एक साथ देश के अलग-अलग हिस्सों तक पहुँचते रहते हैं।

मुझे यह सब देखने और जानने का सुअवसर तब मिला जब एक ऐसी ही यात्रा मण्डली बसन्त पञ्चमी के दिन इलाहाबाद पहुँची। इस यात्रा दल में मेरे गाँव के आठ लोगों की टोली में मेरे माता-पिता भी शामिल थे। उत्सुकतावश मैं सुबह सोकर उठने के बाद जल्दी-जल्दी तैयार होकर आठ बजे स्टेशन पहुँच गया। इलाहाबाद जंक्शन पर मजार वाली प्लैटफ़ॉर्म के दोनो ओर यात्री दल के दो-दो डिब्बे खड़े थे लेकिन उनमें ताला बन्द था। कम्पनी के स्टिकर से पहचान हुई जिसके कर्मचारियों ने बताया कि यात्रा बनारस से रात में ही यहाँ आ गयी थी। प्रातःकाल सभी यात्री लक्जरी कोच बसों से संगम क्षेत्र की ओर चले गये हैं। गंगा स्नान करके बड़े हनुमान जी, अक्षयबट आदि का दर्शन करके आनन्द भवन जाएंगे। वहाँ से भारद्वाज आश्रम देखने के बाद  बसें उन्हें करीब बारह बजे स्टेशन छोड़ जाएगी। प्लैटफ़ॉर्म पर यात्रियों का भोजन कम्पनी के रसोइए तैयार कर रहे थे।

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मैं फौरन लौटकर घर आया। कार्यालय में बॉस से मिलकर छुट्टी लिया और बच्चों को तैयार कराकर श्रीमती जी के साथ स्टेशन पर पहुँच गया। अपने सास-ससुर की पसन्द का भोजन तैयार करने में श्रीमती जी सुबह से ही व्यस्त रही थीं। चम्पा की मदद से हरे मटर की पूड़ियाँ, गोभी, लौकी, आलू और टमाटर की पकौड़ियाँ और पिताजी की पसन्दीदा खीर अपने हाथों तैयार कर डिब्बे में भर लिया था और झोले में अन्य जरूरी सामान डालकर हम स्टेशन पहुँच गये। ठोड़ी देर बाद यात्रियों का समूह प्लेटफ़ॉर्म पर आने लगा। प्रायः सबकी उम्र पचास के ऊपर थी। सबके चेहरे पर सन्तुष्टि का भाव तैर रहा था। लम्बी यात्रा की थकान जैसा कुछ भी नहीं दिखा। सबके गले में लटका परिचय पत्र जरूर ध्यान आकर्षित कर रहा था।

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एक चादर बिछाकर मैने अपने गाँव की यात्रा मण्डली को बिठाया। श्रीमती जी ने डिब्बा खोलकर अपने घर का पकवान परोसना शुरू किया और मैने इस यात्रा के प्रबन्धक को खोजना। वे निकट ही मिल गये। इतनी बड़ी यात्रा को सुव्यवस्थित ढंग से संचालित करने वाला व्यक्ति निश्चित ही बहुत जानकार और गुणी होगा यह अनुमान पहले से कर चुका था।

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लाला लक्ष्मीनारायण अग्रवाल को देखकर कोई सहज ही अन्दाज लगा सकता है कि उन्होंने किसी मैनेजमेण्ट स्कूल से इवेन्ट मैनेजमेण्ट का कोई कोर्स नही किया है। न ही उन्होंने उन्होंने कोई प्रोफ़ेशनल डिग्री ही हासिल की होगी। लोहे की एक फोल्डिंग चेयर पर बैठे हुए वे अपने स्टाफ़ को जरूरी हिदायतें दे रहे थे। बीच-बीच में देश के अन्य हिस्सों में चल रही उनकी कम्पनी की अन्य तीर्थयात्रा बोगियों से आने वाले फोन काल्स भी सुनते जा रहे थे। अगली यात्रा की बुकिंग भी करते जा रहे थे, और टूर-पैकेज के बारे में भी बताते जा रहे थे। मल्टी-टास्किंग का बेजोड़ नमूना थे लालाजी।

“लालाजी, कबसे हैं आप इस धन्धे में…?” मैने उनका मोबाइल बन्द होते ही पूछ लिया।

“सरसठ से चल रहा है जी… बयालीस साल हो गये है” उन्होंने सहजता से उत्तर दिया।

मुझे अपनी अल्पज्ञता पर लज्जा आयी। जो काम १९६७ से वर्षानुवर्ष हो रहा है मुझे उसका पता अब जाकर चल पाया है। मैने झेंप छिपाते हुए आश्चर्य से पूछा, “लगातार बयालिस साल से आप यह वार्षिक यात्रा आयोजित कराते है…?”

“नहीं जी, …यह तो साल भर चलता रहता है। …अगला टूर एक हफ्ते बाद रवाना होगा। वह सत्रह दिन का है। साल में चार-पाँच हो जाते हैं”

“कैसे करते हैं आप यह सब?” मैने अपना कौतूहल छिपाते हुए पूछा।

“स्टाफ़ लगा रखा है जी। बाकी तो ऊपर वाला सब कराता है…सारा सामान हम साथ लेकर चलते हैं। लोकल केवल सब्जियाँ खरीदते हैं। हमारा स्टाफ़ अब ट्रेण्ड है। …सब प्रभु का आशीर्वाद है”

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मैने जब यात्रा के रूट और प्रमुख दर्शनीय स्थलों का व्यौरा जानना चाहा तो उन्होंने एक गुलाबी पर्चा थमा दिया। इस पर्चे में यात्रियों की जानकारी के लिए बहुत स्पष्ट और सूक्ष्म तरीके से सभी जरूरी बातें बतायी गयी थीं। नीचे सारणी में यात्रापथ का विवरण दूंगा। (अभी देर रात हो गयी है इसलिए इसे टालता हूँ)

वहीं पर गर्मागरम रोटियाँ सेंकी जा रही थीं। चार लोग मिलकर जिस कुशलता से लकड़ी की आग पर फुलके बना रहे थे उन्हें देखकर मैं लोभसंवरण न कर सका। आप यह वीडियो देखिए:

 

खाने में लहसुन-प्याज का प्रयोग नहीं होता। तेल, मिर्च और मसाला का प्रयोग भी बुजुर्गों की सहूलियत के हिसाब से कम किया जाता है। यात्री की उम्र, पसन्द और डाक्टरी सलाह का ध्यान रखते हुए सुबह की चाय, नाश्ता और दोपहर व शाम के भोजन को तैयार किया जाता था। हमारे गाँव के लोगों ने कहा कि ‘बहूजी’ ने इतना खिला दिया है कि अब कम्पनी का खाना हम नहीं खा सकते। हमें दावत दी गयी। हमने सहर्ष दावत कबूल की और सपरिवार डिब्बे में बैठ गये। डिब्बा क्या था बम्बई की किसी चाल का कमरा लग रहा था। ऊपर बाँधी गयी रस्सियों पर कपड़े झूल रहे थे। ऑलआउट मशीन और मोबाइल चार्जर की व्यवस्था सभी कूपों में थी। दवाइयाँ, चश्मे, और मोबाइल सबके सिरहाने रखे हुए। किसी चोर उचक्के या उठाई गीर के खतरे निश्चिन्त सबकुछ खुला हुआ जैसे घर में रखा हुआ हो। यात्रियों की आपसी बातचीत में घरेलू परिचय का पुट। इलाहाबाद में हम उनलोगों से मिलने वाले हैं यह पूरी बोगी के लोग जानते थे। वे सभी पिछले महीने भर से साथ जो थे।DSC02250

भोजन परोसने के लिए दक्ष कर्मचारी थे। सभी यात्रियों को उनकी बर्थ पर थालियाँ थमा दी गयीं। सादी सब्जी, तीखी-मसालेदार सब्जी, सादा चावल, मीठा चावल, मटर-पनीर स्पेशल (दाल के बदले) आदि बाल्टियों में भर-भरकर एक ओर से आते और जरूरत के हिसाब से थालियों में डालते हुए दूसरी ओर निकलते जाते। दस-पन्द्रह मिनट में ही स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन का काम पूरा हो गया।

वहाँ से लौटकर आया तो यही सोचता रहा कि स कम्पनी के बारे में आप सबको बताऊंगा। घर आकर गुलाबी पर्चा खोला तो उसमें सबसे पहले यही बताया गया था कि-

‘हमारी संस्था की सफलता को देखते हुए अन्य बहुत से अनुभवहीन व्यक्तियों ने नाम के आरम्भिक ‘श्री’ के स्थान पर अन्य नाम डिजाइन जोड़कर अपना नाम रख लिया है।और वे मिलते-जुलते नामों से VIP ए.सी. कोच से यात्रा करने के प्रलोभन द्वारा यात्रियों को भ्रमित कर रहे हैं। कृपया उनसे दस वर्ष पुराने यात्रियों की सूची रिकार्ड मांगे व उनके पुराने यात्रियों से सम्पर्क करके सुविधा, व्यवस्था की जानकारी करें तभी आपको वास्तविकता ज्ञात होगी। चूँकि हम यात्रियों को पूरी-पूरी सुविधा प्रधान करते हैं इसलिए हमारा खर्चा अन्य संस्थाओं से ज्यादा है। कृअपया आप हमारे पुराने यात्रियों से सुविधा व्यवस्था की जानकारी प्राप्त कर्रें व सन्तुष्ट होने के बाद हि सीट बुक कराएं।’ 

मुझे महसूस हुआ कि इस क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा का दखल हो गया है। ग्राहकों (यात्रियों) को इससे लाभ मिलना ही है। धार्मिक आस्था के वशीभूत हिन्दुओं को चारोधाम व द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से अधिकांश की यात्रा एक मुश्त कराने वाली यह योजना इन कम्पनियों को आर्थिक लाभ चाहे जो दे रही हो लेकिन प्रतिवर्ष हजारों लोगों को पुण्य अर्जन में सहयोग और सेवा प्रदान करने वाली कम्पनी के कर्मचारी और प्रबन्धक पुण्य का लाभ जरूर कमा रहे हैं। आप क्या सोचते हैं?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

वीडिओ पता:  http://www.youtube.com/watch?v=4vIE27ViX4o

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