ब्लॉगिंग के दिग्गज प्रयाग में पढ़ाने आ रहे हैं…

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हिन्दी पट्टी में तीर्थराज प्रयाग की पुण्यभूमि पठन-पाठन और बौद्धिक चर्या के लिए भी अत्यधिक उर्वर और फलदायक रही है। यहाँ ‘पूरब के ऑक्सफोर्ड’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय और अन्य आनुषंगिक संस्थानों से निकलने वाली प्रतिभाएं न सिर्फ भारत अपितु पूरी दुनिया में सफलता के प्रतिमान स्थापित कर चुकी हैं। देश-प्रदेश को अनेक साहित्यकार, राजनेता, योग्य प्रशासक, राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री दे चुके इस पौराणिक शहर की पहचान बौद्धिक क्षेत्र में उत्कृष्ट कोटि की है।

इस शहर की आबो-हवा ही ऐसी है कि इसमें साँस लेते ही मैंने दस साल के ब्रेक के बाद अपनी किताबों की धूल साफ कर ली, कलम में रोशनाई भर ली, और सरकारी नौकरी के कामकाज से अलग कुछ लिखना-पढ़ना शुरू कर दिया। जल्द ही कम्प्यूटर आया, फिर इण्टरनेट लगा और देखते-देखते ब्लॉगिंग शुरू हो गयी। राजकीय कोषागार का लेखा-जोखा रखने वाला एक साधारण मुलाजिम ‘ब्लॉगर’ बन गया। …लेकिन ठहराव इसके बाद भी नहीं है।

अभी और आगे बढ़ना है। यहाँ प्रयाग में कदाचित्‌‌‌ एक अदृश्य शक्ति है जो लगातार रचनाशीलता और बौद्धिक उन्नयन की नयी भूमि तलाशने को प्रेरित करती है। गंगा-यमुना के प्रत्यक्ष संगम के बीच अदृश्य सरस्वती युगों-युगों से शायद इसी शक्ति को परिलक्षित करती रही है।

यह जानी पहचानी भूमिका मैं यहाँ इसलिए दे रहा हूँ कि इलाहाबाद में फिर से एक नया काम होने जा रहा है। वह है ब्लॉगिंग की पढ़ाई। जी हाँ, कुछ होनहार व जिज्ञासु विद्यार्थियों और कलम के सिपाहियों को तराशने और भविष्य के नामी ब्लॉगर बनाने के लिए इस माउसजीवी दुनिया के कुछ बड़े महारथी एक दिन की क्लास लेने आ रहे हैं।

दुनिया में ब्लॉगिंग का जो भी सामान्य या विशिष्ट स्वरूप हो भारत में हिन्दी ब्लॉगिंग निश्चित रूप से कुछ अलग किस्म की है। इस देश में लिखने पढ़ने और बौद्धिक जुगाली करने के अनेक स्तर हैं। गाँव देहात की बैठकबाजी के अड्डे हों, कस्बाई चौराहों की चाय-बैठकी हो, बड़े शहरों का अखबारी क्लब हो, शिक्षण संस्थाओं का सेमिनार हाल हो या महानगरों का कॉफी हाउस हो, मीडिया सेन्टर हो या संसद का गलियारा हो। प्रत्येक जगह बहस चलाने वाले अपनी एक अलग विशिष्ट शैली के साथ मौजूद रहते हैं। लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग एक ऐसा अनूठा माध्यम है जिसमें ऊपर गिनाये गये सभी स्तर तो समाहित होते दिखते ही हैं, यहाँ कुछ अलग किस्म की छवियाँ भी उभरती हैं जो अन्यत्र मिलनीं असम्भव हैं।

इसी अनूठे माध्यम के अलग-अलग आयामों पर चर्चा करने के लिए देश के सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित चिठ्ठाकारों में से चार विभूतियाँ एक साथ एक छत के नीचे जिज्ञासु कलमकारों को ब्लॉगिंग के गुर बताएंगी। कार्यक्रम की रूपरेखा निम्नवत है:

तिथि व समय

शुक्रवार, ०८ मई; सायं: ५:३० बजे से

स्थान

निराला सभागार, दृ्श्यकला विभाग-इलाहाबाद विश्वविद्यालय

आयोजक

ताजा हवाएं-इमरान प्रतापगढ़ी

मुख्य वक्ता

प्रतिनिधि ब्लॉग

वार्ता का विषय

ज्ञानदत्त पाण्डेय

मानसिक हलचल

ब्लॉगिंग का नियमित प्रबन्धन

अनूप शुक्ल

फुरसतिया, चिठ्ठा चर्चा

ब्लॉगिंग की दुनिया में हिन्दी चिठ्ठाकारी की यात्रा

डॉ.अरविन्द मिश्रा

साई ब्लॉग, क्वचिदन्यतोअपि

साइंस ब्लॉगिंग की दुनिया

डॉ.कविता वाचक्नवी

स्त्री विमर्श, हिन्दी-भारत

हिन्दी कम्प्यूटिंग, अन्तर्जाल में हिन्दी अनुप्रयोग

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

सत्यार्थमित्र

विषय प्रवर्तन और प्रश्नोत्तर-काल

कार्यक्रम में आमन्त्रित श्रोताओं की जिज्ञासा को शान्त करने के बाद उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे रचनाशीलता के इस रोचक और अनन्त सम्भावनाओं वाले माध्यम को अपनाकर इलाहाबाद से उठने वाली इस ज्योति को दूर-दूर तक ले जाएं और पूरी दुनिया को हिन्दी चिठ्ठाकारी के प्रकाश से रौशन करें।

विश्वविद्यालय के फोटो पत्रकारिता एवं दृश्य संचार विभाग के होनहार छात्र और वर्तमान में बड़े कवि सम्मेलनों और मुशायरों के लोकप्रिय और चर्चित हस्ताक्षर इमरान प्रतापगढ़ी ने जब अपनी तरह के इस पहले कार्यक्रम का प्रस्ताव मेरे समक्ष रखा तो मुझे इसे सहर्ष स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं हुई। मैने इस उत्साही नौजवान द्वारा आयोजित एक अनूठा कार्यक्रम पहले भी देखा था। मैं आश्वस्त था कि प्रयाग की परम्परा के अनुसार एक उत्कृष्ट आयोजन करने में इमरान जरूर सफल होंगे।

(सिद्धार्थ)

त्रिवेणी महोत्सव सम्पन्न… अब ब्लॉगरी

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Image065 पिछला पूरा सप्ताह ब्लॉगरी से जुदा होकर त्रिवेणी महोत्सव की धूम में खो जाने वाला रहा। रात में दो-ढाई  से चार बजे तक रंगारग कार्यक्रमों का आनन्द उठाने के बाद घर लौटता, सुबह यथासम्भव जल्दी उठकर बैडमिण्टन कोर्ट जाता, लौटकर नहा-धो तैयार होकर ऑफिस जाता, दिनभर ऊँघते हुए काम निपटाना और शाम होते ही फिर यमुना तट पर सजी महफिल में शामिल हो जाता।

शुरुआत गंगापूजन के बाद जोरदार आतिशबाजी से हुई। फिर जसवीर जस्सी ने पंजाबी पॉप की मस्ती लुटायी। ‘दिल लै गयी कुड़ी गुजरात की’ पर दर्शक झूम उठे।

डोना गांगुली का ओडिसी बैले, राजा हसन और सुमेधा की जोड़ी का फिल्मी गायन और भोर में साढ़े तीन बजे तक चलने वाला मुशायरा दूसरे दिन दर्शकों को बाँधे रखा।

तीसरे दिन भरतनाट्यम शैली में ‘रणचण्डी रानी लक्ष्मी बाई की वीरगाथा’ नृत्यनाटिका देखने के बाद दर्शकों ने सोनू निगम की ‘विजुरिया’  पर दिल खोलकर डान्स किया। दो घण्टे की अद्‌भुत प्रस्तुति में सोनू ने अपनी प्रतिभा से सबको चमत्कृत कर दिया।

चौथे दिन इलाहाबाद के स्कूली बच्चों के नाम रहा। स्थानीय बाल कलाकारों ने अपनी कला से मन को मोह लिया। बॉलीवुड की स्पष्ट छाप इन नन्हें कलाकारों पर देखी जा सकती थी।

अलपवयस्का रीम्पा शिवा ने तबलावादन में जो महारत हासिल कर ली है उसे देख-सुन कर सबने दाँतों तले अंगुली दबा ली। पाचवें दिन ही कॉमेडी सर्कस के चैम्पियन वी.आई.पी. (विजय) ने अपने गले से जो इक्यावन फिल्मी अभिनेताओं और राजनेताओं की आवाज निकाली वह अद्वितीय रही। के.शैलेन्द्र ने किशोर कुमार के गीत हूबहू नकल करके सुनाये और काफी तालियाँ बटोरी।

छठे दिन हर्षदीप कौर ने फिल्मी गीतों पर दर्शकों को खूब नचाया। उसके बाद विराट कवि सम्मेलन सुबह चार बजे तक चला। सुनील जोगी, विष्णु सक्सेना, सरदार मन्जीत सिंह, विनीत चौहान और वेदव्रत वाजपेयी आदि जैसे पन्द्रह कवि खूब सराहे गये।

सातवें और आखिरी दिन सुरमयी शाम की शुरुआत भजन संध्या और शाम-ए-ग़ज़ल को मिलाकर सजायी गयी। सुशील बावेजा, प्रीति प्रेरणा और इनके साथ पं. अशोक पाण्डे के तबले से निकली रामधुन पर दर्शक झूम उठे। इसके बाद के अन्तिम कार्यक्रम ने सर्वाधिक भीड़ बटोरी। विशाल और शेखर की हिट संगीतकार जोड़ी  जब अपने साजिन्दों के साथ स्टेज पर उतरी तो दर्शकों में जोश का जैसे तूफान उमड़ पड़ा। छोटे बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े तक लगातार तालियाँ बजाते और थिरकते रहे। कुर्सियों के ऊपर खड़े होकर नाचते गाते युवा दर्शक कार्यक्रम का हिस्सा बन गये।

इस साल का त्रिवेणी महोत्सव हमारे मानस पटल पर एक अविस्मरणीय छाप छोड़ गया।

इस बीच ब्लॉगजगत में काफी कुछ बह गया। वैलेण्टाइन डे के आसपास गुलाबी चढ्ढियाँ छायी रहीं। सुरेश चिपलूकर जी और शास्त्री जी ने इस अभियान पर प्रश्नचिह्न खड़े किए तो बात बढ़ते-बढ़ते कहाँ की कहाँ पहुँच गयी। बहुत सी पोस्टें आयीं। मैने जहाँ तक देखा किसी भी पोस्ट में प्रमोद मुथालिक द्वारा मंगलौर में किए जाने वाले हिंसक कुकृत्य का समर्थन नहीं किया गया। और न ही किसी ब्लॉगर ने शराब खाने में जाकर जश्न मनाने को महिमा मण्डित किया। दोनो बातें गलत थीं और दोनो का समर्थन नहीं हुआ। इसके बावजूद पोस्टों की विषय-वस्तु पर गुत्थम-गुत्थी होती रही। केवल बात कहने के ढंग पर एतराज दर्ज होते रहे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मर्यादा, वर्जना, नैतिकता, संयम, समानता, आदि कि कसौटी पर ‘स्त्री-विमर्श’ होता रहा।

जो चुप रहे उन्हें भी इस पक्ष या उस पक्ष के साथ जोड़ने का प्रयास हुआ। मुझे लगता है कि इस सहज सुलभ माध्यम की प्रकृति ही ऐसी है कि भीतर से कमोवेश एकमत होते हुए भी हमें अनर्गल विवाद की ओर बढ़ जाने का खतरा बना रहता है। कदाचित टीवी चैनेलों की तरह यहाँ भी टी.आर.पी.मेनिया अपने पाँव पसार रहा है। इसीलिए एक-दूसरे पर शंका पर आधारित आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं। फिर सफाई देने-लेने का व्यापार चलता रहता है।

क्या ऐसा करके हम ‘बन्दर के हाथ में उस्तरा’ थमाने वाली उक्ति चरितार्थ नहीं कर रहे हैं…?

अन्त में..

विष्णु सक्सेना ने कवि सम्मेलन में अपना सबसे प्रसिद्ध गीत भी सुनाया। यूँ तो उनकी आवाज में सुनने का अलग ही मजा है लेकिन इसके बोल भी बहुत प्यारे हैं। देखिए…

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा
एक आयी लहर कुछ बचेगा नहीं…
तुमने पत्थर का दिल हमको कह तो दिया
पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं…

मैं तो पतझड़ था फिर क्यूँ निमन्त्रण दिया
ऋतु वसन्ती को तन पर लपेटे हुए
आस मन में लिए प्यास मन में लिए
कब शरद आयी पल्लू लपेटे हुए
तुमने फेरी निगाहें अन्धेरा हुआ
ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं…

मैं तो होली बना लूँगा सच मान लो
तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो
मैं तुम्हें सौंप दूंगा तुम्हारी धरा
तुम मुझे मेरे पंखों को आकाश दो
उंगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम
यूँ करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं…

आँख खोली तो तुम रुक्मिणी सी दिखी
बन्द की आँख तो राधिका सी लगी
जब भी सोचा तुम्हें शान्त एकान्त में
मीराबाई सी एक साधिका तुम लगी
कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो
मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं…

विष्णु सक्सेना

मौनी अमावस्या से एक दिन पूर्व… संगम पर

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इस बार गणतन्त्र दिवस के दिन ही प्रयाग के माघ मेले का मुख्य स्नान पर्व (मौनी अमावस्या) भी पड़ गया। इसके साथ ही सोमवती अमावस्या तथा सूर्य ग्रहण के संयोग के कारण इस बार श्रद्धालु स्नानार्थियों की ज्यादा भीड़ बढ़ने की सम्भावना भी रही है। करीब एक करोड़ लोगों द्वारा यहाँ डुबकी लगाने का अनुमान किया गया है।

कल २५ जनवरी को इसी की तैयारी के सिलसिले में मुझे भी प्रातःकाल संगम तट पर जाना हुआ। सूर्योदय की प्रथम बेला में गंगा यमुना के तट साफ-सु्थरे होकर अपार जनसमूह की प्रतीक्षा कर रहे थे। यमुना के तट से मैने मोबाइल कैमरे से कुछ तस्वीरें लीं:

 

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यमुना का शान्त किनारा जहाँ २६ को खूब चहल पहल होगी।

 

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प्रतीक्षा में नाविक जो कल कुछ ज्यादा कमा सकेंगे।

 

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काश सूर्यदेव २६ को भी ऐसी ही धूप खिलाते!

 

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चादरें भी बिछ चुकी हैं। अमावस की प्रतीक्षा …

इधर घर के लॉन में गुलाब खिलने लगे हैं, जिन्हें कभी सबसे अधिक खतरा मेरे दो साल के बेटे सत्यार्थ से होता था। लेकिन जब उसे बताया गया कि तोड़ने पर फूल रोते हैं, तबसे उनका सबसे बड़ा रक्षक भी सत्यार्थ ही है। अब हवा से पंखुड़ियों का झड़ना भी उसे गवाँरा नहीं।

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 (सिद्धार्थ)

किताबों की खुसर-फुसर… भाग-२

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पिछली कड़ी से आगे…

‘मातृत्व तथा बच्चों की फिक्र’(१९३१) की भूमिका में लिखा अथर्ववेद का श्लोक समझने का प्रयास कर ही रहा था कि दीवार से लगी बड़ी सी मेज पर फड़फड़ाहट की आवाज तेज हो गयी। उसपर बहुत सी पत्रिकाएं बिखरी पड़ी थीं। वहाँ की नोक-झोंक इतनी तेज थी कि अनायास ही आलमारियों में रखी किताबें भी अपनी बतकही बन्द करके उधर कान लगाकर सुनने लगीं।

“अरे चुपकर बावरी, यह तो बस दिखा रहे हैं, इन्हें मातृत्व से क्या लेना देना… उस किताब ने टोक दिया तो उसका मन रख रहे हैं। ”

“हाँ जी, …इतने ही साहित्य रसिक होते तो इधर न आते…”

“तू बड़ी भोली है, इन्हें तो शायद पता ही न हो कि हिन्दी में कितनी साहित्यिक पत्रिकाएं छपती हैं…” आखिरी बात सुनकर मैं वाकई झेंप गया।

…मुझे तो हंस, कादम्बिनी, आजकल और इण्डिया टुडे की साहित्य वार्षिकी के अतिरिक्त कोई पत्रिका पता ही नहीं थी। …हाल ही में हिन्दुस्तानी त्रैमासिक की जानकारी हुई जब एकेडेमी का लेखा-जोखा सम्हालने के लिए नामित हो गया। …छः-सात साल पहले लखनऊ में किताब की शक्ल वाला एक त्रैमासिक ‘तद्‍भव’ जरुर खरीद कर देखा था। …और हाँ, छात्र जीवन में धर्मयुग पढ़ा था और इसके बन्द हो जाने पर साहित्य जगत की श्रद्धाञ्जलि भी देखी थी।

मैने झटसे मातृत्व को गोपालजी के हवाले किया और उस मेज के पास चला गया। मेज क्या थी; दो लोगों के आराम से पसर कर सोने भर का क्षेत्रफल था उसका। …लेकिन तिल रखने की जगह नहीं थी उसपर। एक दूसरे के ऊपर चढ़ी हुई साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक पत्र-पत्रिकाएं अटी पड़ी थीं। उनके ऊपर धूल तो नहीं जमीं थी, क्योंकि गोपालजी उनकी इतनी सेवा का खयाल जरूर रखते हैं; लेकिन उनके चेहरे पर छायी उदासी यह जरूर बता रही थी कि इनकी उपेक्षा हुई है। …दूर-दूर से चलकर यहाँ एक अदद प्रेमी (पाठक) की तलाश में ये आ तो गयी हैं, लेकिन इन्हें मन के मीत से मुलाकात की प्रतीक्षा जारी है। मुझे कबीर दास जी याद आ गये-

अंखड़िया झाईं पड़ीं, पन्थ निहारिनिहारि।

जीभड़्याँ छाला पड़्या, राम पुकारिपुकार॥

पोर्टब्लेयर (अंडमान) से छपने वाली ‘द्वीपलहरी’ हो या वर्धा की ‘राष्ट्रभाषा’, बीकानेर की ‘वैचारिकी’ हो या देहरादून की ‘लोकगंगा’ , समस्तीपुर से आयी ‘सुरसरि’ हो या आणंद (गुजरात) से पधारी ‘रचनाकर्म’, इन्दौर में प्रस्फुटित ‘वीणा’ का राग हो या रायपुर में अनुष्ठानित ‘अक्षरपर्व’ हो, या फिर पूना की ‘समग्र दृष्टि’ हो, राजसमन्द (राजस्थान) का ‘सम्बोधन’ हो अथवा गोरखपुर का ‘दस्तावेज’ व सुल्तानपुर (उ.प्र.) की ‘रश्मिरथी’; ये सभी भारतवर्ष के कोने-कोने से आकर संगम नगरी में एक ही पटल पर सामुदायिक जीवन जी रहे, या कहें, काट रहे हैं। सबकी साझा तकलीफ देखकर मैं ग्लानि और अपराध बोध से भर गया।

कुछ बड़े केन्द्रों से प्रकाशित पत्रिकाएं भी उतनी ही क्लान्त थीं। जैसे: दिल्ली की ‘आजकल’, ‘आलोचना’, ‘मन्त्र तन्त्र यन्त्र’, ‘कथादेश’, ‘साहित्य अमृत’, ‘समीक्षा’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘हंस’, ‘राजभाषा भारती’, ‘इण्डिया टुडे’ व ‘सदाकांक्षा’; मुम्बई से छपने वाली ‘सृजन सांख्य’, ‘कथाबिम्ब’ व ‘हिन्दुस्तानी जबान’; भोपाल की ‘दिव्यालोक’, ‘आयुष्मान’, ‘चौमासा’ व ‘साक्षात्कार’, लखनऊ की ‘कथाक्रम’ व ‘तद्‍भव’, इलाहाबाद की ‘त्रिवेणिका’, ‘विज्ञान’, ‘नई आजादी उद्‍घोष’, ‘सम्मेलन पत्रिका’, ‘हिन्दी अनुशीलन’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘हुड़दंग’ व ‘साहित्य वैचारिकी’।

मैं इनके नाम-पते नोट करने लगा तो एक फिकरा कान में पड़ा, “ढूँढते रह जाओगे…! इनकी दुनिया यहीं खत्म नहीं होती ” मैने हड़बड़ा कर उधर देखा।

डॉ. नामवर सिंह द्वारा सम्पादित ‘आलोचना’ बोल रही थी, “यहाँ जो देख रहे हो वह तो बस ‘हिन्दुस्तानी’ के विनिमय में आती हैं। खरीदने की औकात तो इस पुस्तकालय की बस रत्तीभर से थोड़ा ज्यादा समझ लो…”

मैं फिर चौका, “…तो क्या, हिन्दी में छपने वाली सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं यहाँ नहीं आतीं?”

जिनकी संख्या को मैं विस्फारित आँखों से देख रहा था वो अभी राष्ट्रीय पटल पर हो रहे हिन्दी अनुष्ठान की बस एक झलक भर देती हैं। उसपर हालत ये कि इनका भी कोई पुरसा हाल नहीं। मन उद्विग्न हो उठा…

मैं कुर्सी खींचकर बैठ गया। छत की ओर निहारता रहा। गोपालजी सूची बनाने लगे। तभी एक पुराने रैक से वीणा का स्वर उभरा। मधुर, कर्णप्रिय किन्तु आर्त…।

मैं उठकर उसके पास गया तो साक्षात् ‘सरस्वती’ दिखायी दीं। मैने धीरे से हाथ बढाया तो मुस्करा उठीं। सौ साल से ज्यादा की उम्र पाकर विलक्षण रूप और अनुभव तो दिख ही रहा था; वर्ष भर के अंकों को एक साथ नत्थी करके मोटा जिल्द चढ़ जाने से स्वास्थ्य भी अक्षुण्ण लग रहा था। इस मुलाकात से मेरा मन प्रसन्न हो गया।

‘हिन्दी’ के बचपन और तरुणाई की सहेली रह चुकी ‘सरस्वती’ अपनी गोद में अमूल्य निधि संजोए किसी पारखी को खोज रही थीं। मुझ अकिंचन ब्लॉगर को देखकर उनका उत्साह जग गया तो अपनी अपात्रता से मेरा दिल जोर से धड़कने लगा। …गला भर आया। अब इनकी उम्मीद का क्या करूँ…।

‘सरस्वती’ अपनी बालसखी ‘नागरी’ की कहानी कहती रही; अरबी, फारसी, अंग्रेजी के बीच संस्कृत की जमीन से अंकुरित हिन्दुस्तानी के बीज से हिन्दी-उर्दू की जुड़वा पैदाइश का वर्णन करती रही; पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्याम सुन्दर दास, और पं.श्रीनारायण चतुर्वेदी के जमाने को याद करके भावुक होकर आँसू बहाती रही; और हम अवश होकर सुनते और भींगते रहे…

लाल तुम्हारे विरह की, अगिनि अनूप अपार।

सरसै बरसै नीर हूँ, झरहूँ मिटै न झार॥

(…जारी)

किताबों की खुसर-फुसर… एक और क्षेपक

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(चित्र wordpress.com से साभार)

ब्लॉगर महोदय पुस्तकालय गये, जाने कैसे किताबों की बात-चीत सुन ली; और झेंप मिटाने के लिए कुछ पुराने पृष्ठों को पलटना शुरू किया। लेकिन यह पन्ने पलटना भी बड़ा काम का साबित हुआ। बल्कि यूँ कहें कि इन्हें खजाना हाथ लग गया।

वहाँ सरस्वती से मुलाकात हो गयी। फिर तो गलबहिंयाँ डाले देर तक चिपके रहे। मोबाइल से फोटू खींची। वहाँ के प्रबन्धक ने बार-बार घड़ी देखने के बाद अन्ततः संकोच छोड़ कर जब बाहर अन्धेरा हो जाने और घर के लिए देर होने की बात कह दी, तब बड़े बे-मन से वहाँ से चले थे।

घर आए तो ‘सत्यार्थमित्र’ के पाठकों से सरस्वती की चर्चा करने का तरीका सोचते रहे। अदने से मोबाइल में जो तस्वीर खींच लाए थे उसे ब्लॉग में पोस्ट करने का जुगाड़ खोजते रहे। तब एक बार फिर बीबी-बच्चे अपनी बारी की प्रतीक्षा में टाइम काटते रह गये।
काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार फोटो ठेलने में सफलता मिली, खुशी से नाच उठे। जल्दी से मजमून टाइप किया और देमारा

सुबह जब कम्प्यूटर पर सत्यार्थमित्र खुला तो अचानक चिल्ला उठे; “अरे सुनती हो जी! …ये देखो, …मेरी पचासवीं पोस्ट।”
“अरे, …इसमें इतना चिल्लाने की क्या बात है?”
“है न… मुझे तो कल ध्यान ही नहीं आया, जब इसे लिख रहा था।”
“अच्छा हुआ जो ध्यान नहीं आया” पत्नी ने उलाहना दे ही डाली; “…कल तो आपने बच्चों पर भी ध्यान नहीं दिया था।”
फिर पूछ बैठीं, “वैसे आप क्या करते जो ध्यान आ जाता।”
“वही जो अर्द्धशतक लगाने पर नये बल्लेबाज करते हैं।”
“क्या हेलमेट उतारकर (कम्प्यूटर छोड़कर) धरती पर लेट जाते?”
“…हेलमेट तो शतक पर उतारा जाता हैं, …लेकिन यहाँ बल्ले को चूमकर साथियों की ओर इशारा तो कर ही सकता था।”
“तो अब कसर पूरी कर लीजिए न…!”
“नहीं …अब तो स्कोर आगे बढ़ गया। …चलो, अब शतक के लिए कमर कसते हैं… सारा जश्न तभी मनाएंगे।”

इधर खुसर-फुसर की दूसरी किश्त तैयार करने में चिन्तित हो लिये हैं। पहली पोस्ट की लम्बाई फुरसतिया इश्टाइल की हो गयी तो बहुतों ने बीच में ही कट लेना उचित समझा। सोच रहे हैं कि उस लाइब्रेरी के भीतर जो करुणामय बातें सुन रखी हैं उन्हें पूरा का पूरा दुनिया को नहीं बताया तो शायद पाप लग जाएगा। इनकी ओर बड़ी उम्मीद भरी निगाहें उठ खड़ी हुई थीं। अब देखिए क्या करते हैं…।
(सत्यार्थमित्र की ओर से)

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