पिछले दिनों मैने एक पोस्ट लिखी थी- “कुछ कचोटते प्रश्न…” यह आलेख एक ऐसे परिवार के ऊपर आधारित था जहाँ पति-पत्नी दोनो नौकरीशुदा थे; और उनकी ८-९ माह की बच्ची की देखभाल एक वेतनभोगी नौकरानी के हाथों में थी। उस ‘धाय माँ’ के हाथों प्रताड़ित होती मासूम को देखने के बाद मेरे मन में इस नयी पारिवारिक संरचना के प्रति अस्वीकृति का भाव पैदा हो गया…

उसी मनोदशा में कुछ प्रश्न उभर आये थे जिनका उत्तर ढूढने के लिए मैने आप सबके विचार आमन्त्रित किए थे। जिन लोगों ने अपनी राय रखी उनसे मेरी अपनी अवधारणा ही पुष्ट हुई। इस क्रम में सर्व श्री ज्ञानदत्त पांडेय जी, महेन्द्र मिश्र जी, अभिषेक ओझा जी, कात्यायन जी, डॉ.अनुराग जी, सतीश सक्सेना जी, रेनू जी, रोहित त्रिपाठी जी और ‘सब कुछ हैनी-हैनी’ जी ने बदलते पारिवारिक मूल्यों पर चिन्ता व्यक्त की। मुझे कुछ खास महिला ब्लॉगरों की मुखर टिप्पणी की भी उम्मीद थी लेकिन उनका अर्थपूर्ण सन्नाटा (studied silence) ही हाथ लगा जो फिरभी बहुत कुछ कह गया।

चित्रकृति:istockphoto.com से साभार

नये जमाने का एक ऐसा परिवार जो अपने अस्तित्व की ही अन्तिम साँसे गिनता जान पड़ रहा हो, जहाँ बच्चों की माँ और बाप ‘एक ही काम’ कर रहे हों, जी हाँ- नौकरी; यानि धन का अर्जन, उस परिवार की दुरवस्था के बारे में सोचिए। …‘धन’ …जो भौतिक जीवन की गाड़ी चलाने के लिए जरूरी ईंधन का काम करता है; वह इतना प्रभावशाली और मूल्यवान हो गया है कि ऐसा लगता है कि आधुनिक समाज के कतिपय हिस्सों में पैसा कमाने को ही स्वतंत्रता, आत्मसम्मान, लैंगिक समानता, व सामाजिक प्रत्तिष्ठा का एकमात्र साधन मान लिया गया है।

‘जीवन का सुख’ मानो व्यक्ति की ‘क्रयशक्ति’ के समानुपाती हो गया है। …उपभोक्ता वस्तुओं के बढ़ते बाजार में मालदार होने की घनघोर चेष्टा व व्याकुलता चारो ओर व्याप्त हो गयी है। …जहाँ यह व्याकुलता संयम और मर्यादा की सीमाएं तोड़ देती है वहाँ सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो जाता है। वहाँ धन एक साधन होने के बजाय साध्य बन जाता है। ऐसी स्थिति में घर, परिवार, बच्चे, रिश्ते, नाते, प्यार, मोहब्बत, भाईचारा, सामाजिकता आदि सब पीछे छूट जाते हैं।

…लेकिन बात यहीं तक रहती तो भी गनीमत थी। इस भागमभाग का अन्त प्रायः दुःखदायी ही होता है। तनाव, अनिद्रा, असन्तोष, यहाँ तक कि विक्षिप्तता और मानसिक अवसाद…। इलाज हेतु मनोचिकित्सक या किसी बाबा, स्वामी, गुरुजी, पीर फकीर कि शरण…। दुर्भाग्य से वहाँ की दवा या तो नकली होती है अथवा असली दवा मिलने का जो पता बताया जाता है उसकी राह वापस अपने घर-परिवार की ओर ले जाती है।

जी हाँ, असली दवा तो अपने परिवार के बीच ही है, जहाँ अनेक प्रकार के विशिष्ट रिश्ते हैं, छोटे-बड़े की मर्यादा है, भावुकता से बँधे बन्धन हैं, गृहस्थी के अलग-अलग कामों का अनुभवसिद्ध, पारम्परिक किन्तु लचीला बँटवारा है; जिसे आवश्यकतानुसार परिमार्जित करने की गुन्जाइश है, यहाँ त्याग है, और सबसे बढ़कर ‘सन्तोष’ की अमूल्य निधि है। यहाँ एक ऐसी शीतल छाँव है जो बाहरी दुनियादारी की तपिश से झुलसकर आने वाले को पुरसुकून आसरा देती है।

प्रगतिशीलता के उद्‍घोष के बीच नारी सशक्तिकरण के ध्वजारोहण व ‘पुरानी मान्यताओं के विरोधी’ नारों के शोर में इनकी अनेक अच्छी बातें भी दम तोड़ती दिखती हैं। …मै समझता हूँ कि उचित सामंजस्य और न्यायपूर्ण तालमेल के रास्ते निकालने के बजाय पूरी व्यवस्था को सिरे से खारिज़ कर देने में ही सारी ऊर्जा खपा देने से काम नहीं चल सकता।

यदि हममें इससे बेहतर कोई नया मॉडल खड़ा करने के बारे में सोचने की फुरसत नहीं है या सामर्थ्य नहीं है, तो इसी पारम्परिक व्यवस्था में आवश्यक संशोधन व परिमार्जन करने के बारे में सोचना होगा। क्योंकि भारतवर्ष में तो मुझे ऐसी कोई नयी व्यवस्था नहीं दिखी जिसे पारम्परिक परिवारों से बेहतर कह सकूँ। पिछले दशक में DINKS (Double Income No Kids दोहरी आय, बच्चे नदारद) की चर्चा चली थी। आज-कल live-in relations “बिन-ब्याहे हम-बिस्तर सम्बन्ध” आजमाए जा रहे हैं। किन्तु पश्चिम की भद्दी नकल करते इन प्रतिमानों में कोई स्थाई समाधान मिलने की उम्मीद नहीं है।

एक पैतृक मकान जो हमें विरासत में मिला हो, यदि उसकी छत टपकने लगे, दीवारों में दरार आ जाए, फर्श टूट जाए तो हम क्या करते हैं? …एक नया मकान बनाने को सोचते हैं, या किराये का दूसरा मकान ढूढते हैं, या सर्वाधिक संभावना इस बात की है कि किसी विशेषज्ञ की सहायता से उस मकान की बढ़िया मरम्मत कराने का विकल्प चुनते हैं। मेरी समझ से कोई भी इन विकल्पों को दरकिनार करके सबसे पहले उस मकान को ढहा देने का काम तो नहीं ही करता होगा। ढहाकर नया मकान बनाने के लिए भी एक अस्थायी मकान पहले खोजना पड़ेगा।

…अलबत्ता जो अक्षम और अपाहिज हैं वे उसी टूटते मकान में रहते हुए करुण क्रन्दन और विलाप करते रहते हैं, अपने भाग्य को कोसते हैं और अपने पितरों को गाली देते हैं, यह भूलकर कि जब यह मकान बना होगा तो नया और सुविधाजनक ही बना होगा। इसकी दुर्गति तो बाद की पीढ़ियों ने अपनी अयोग्यता और निकम्मेपन से कर दिया है। कुछ तो ऐसे लोग भी हैं जिन्हें अपने पुश्तैनी मकान से वही भावुक लगाव होता है, जो विन्टेज कार के शौकीनों को अपनी साठ-सत्तर साल पुरानी गाड़ियों से होता है। काफी महंगी लागत लगाकर भी वे उसे संजोकर रखना चाहते हैं।

मैं यह मानता हूँ कि वर्तमान में एक संक्रमण का दौर चल रहा है। …हमारे बीच एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसमें औरत की दशा शोचनीय है। उसके ऊपर समाज ने अनेक अन्यायपूर्ण बन्धन लगा रखे हैं। दोयम दर्जा दे रखा है। सुख के साधनों का उपयोग करने के मामले में कदाचित् पुरुषों ने प्राथमिकता ग्रहण कर ली है। …लेकिन इस स्थिति को बदलने के लिए हथियार उठाने की जरूरत नहीं है; क्यों कि यह लड़ाई किसी विदेशी आक्रांता के विरुद्ध नहीं है। सभी अपने हैं, जहाँ प्रबुद्ध जनों की पंचायत बुलाकर निपटारा हो सकता है। आपस में मिल-बैठकर एक-दूसरे की तकलीफ़ दूर की जा सकती है।

यहाँ स्त्री और पुरुष के बीच कोई अपारगम्य दीवार खींचने की अवश्यकता भी नहीं है क्यों कि दोनो एक-दूसरे के बिना काम नहीं चला सकते। दोनो अधूरे रह जाएंगे। इनके बीच कोई प्रतिस्पर्धा तो हो ही नहीं सकती। प्रकृति ने दोनो को अलग-अलग प्रकार की क्षमताएं दी हैं, जो एक-दूसरे के सहयोग के लिए हैं न कि विरोध के लिए। इनके मिलने से जो संयुक्त ऊर्जा (synergy) उत्पन्न होती है उसके आगे बड़ी से बड़ी चुनौतियाँ भी पलक झपकते मिट सकती हैं। यदि इनके बीच आपसी संघर्ष होने लगा तो विधाता की ये दो अनमोल कृतियाँ अपने अभीष्ट से विमुख हो जाएंगी।

…आप क्या सोचते है?

(सिद्धार्थ)