अंततः हम आए, लेकिन…

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पिछले दिनों क्वचिदन्यतोऽपि की अचानक गुमशुदगी की सूचना चारो ओर फैल गयी। हिंदी ब्लॉग जगत के सबसे सक्रिय ब्लॉग्स में से एक अचानक गायब हो गया। इंटरनेट के सागर में इतने बड़े ब्लॉग का टाइटेनिक डूब जाय तो हड़कंप मचनी ही थी। बड़े-बड़े गोताखोर लगाये गये। महाजालसागर को छाना गया। कुछ चमत्कार कहें कि डॉ. अरविंद मिश्रा की लम्बी साधना का पुण्य प्रताप जो बेड़ा गर्क होने से बच गया। सच मानिए उनकी पोस्ट पढ़कर मेरे पूरे शरीर में सुरसुरी दौड़ गयी थी। यह सोचकर कि ऐसी दुर्घटना यदि मेरे साथ हो गयी तो मैं इससे हुए नुकसान का सदमा कैसे बर्दाश्त करूंगा? गनीमत रही कि जल्दी ही निराशा के बादल छँट गये और ब्लॉग वापस आ गया।

इस घटना का प्रभाव हिंदी ब्लॉगजगत में कितना पड़ा यह तो मैं नहीं जान पाया लेकिन इतना जरूर देखने को मिला कि गिरिजेश जी जैसे सुजान ब्लॉगर ने आलसी चिठ्ठे का ठिकाना झटपट बदल कर नया प्लेटफॉर्म चुन लिया। कबीरदास की साखी याद आ गयी।

बूड़े थे परि ऊबरे, गुरु की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा,  ऊतरि पड़े फरंकि॥

मुझे ऐसा करने में थोड़ा समय लगा क्योंकि तकनीक के मामले में अपनी काबिलियत के प्रति थोड़ा शंकालु रहता हूँ। लेकिन मुख्य वजह रही मेरी ब्लॉगरी के प्रति कम होती सक्रियता। इस बात से दुखी हूँ कि इस प्रिय शौक को मैं पूरी शिद्दत से अंजाम नहीं दे पा रहा हूँ। आज मैंने थोड़ा समय निकालकर इस सुस्त पड़ी गाड़ी को आगे सरकाने की कोशिश की। वर्डप्रेस पर आसन जमाने का उपक्रम किया और यह पोस्ट लिखने बैठा।

इस पोस्ट को लिखने के बीच में जब मैने आलसी का चिठ्ठा खोलकर उस स्थानान्तरण वाली पोस्ट का लिंक देना चाहा तो फिर से चकरा गया। महोदय वापस लौट आये हैं। पुराना पता फिर से आबाद हो गया है। वर्डप्रेस के पते पर एक लाइन का संदेश भर मिला है। पूरी कहानी उन्हीं की जुबानी सुनने के लिए अब फोन उठाना होगा।

फिलहाल जब इतनी मेहनत करके यह नया टेम्प्लेट बना ही लिया है तो इस राम कहानी को ठेल ही देता हूँ। इस नये पते को कम ही लोग जानते होंगे। जो लोग यहाँ तक आ गये हैं उन्हें बता दूँ कि मेरा मूल ब्लॉग सत्यार्थमित्र ब्लॉगस्पॉट के मंच पर पिछले पौने-चार साल से बदलती परिस्थितियों के अनुसार मद्धम, द्रुत या सुस्त चाल से चल रहा है। अब लगता है कि फिलहाल वहीं चलता रहेगा।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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क्या है भारत में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य?

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वर्धा वि.वि. के स्थापना-दिवस पर बड़े बुद्धिजीवियों ने दिया जवाब…

कुलदीप नैयर का कहना है कि हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य बहुत सुंदर है। यहाँ सेक्युलरिज्म बहुत मजबूत होता जा रहा है। इस देश का आम आदमी सांप्रदायिक नहीं है। जिन (साम्प्रदायिक) पार्टियों द्वारा हिंदू-हिंदू की रट लगायी जाती है उनको देश के बहुसंख्यक हिंदुओं ने ही सत्ता से बाहर बैठा रखा है।

यह चर्चा हो रही थी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर प्रेक्षागृह में और अवसर था विश्वविद्यालय की स्थापना को तेरह साल पूरा होने पर आयोजित समारोह का। यहाँ देश के तीन बड़े बुद्धिजीवी और विचारक आमंत्रित किये गये थे – इस प्रश्न पर विचार मंथन करने के लिए कि देश के वर्तमान परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य कितना महत्वपूर्ण है और इसका भविष्य कितना सुरक्षित है। पाकिस्तान के साथ भाईचारा बढ़ाने के लिए वाघा सीमा पर मोमबत्तियाँ जलाकर अभियान चलाने वाले वरिष्ठ स्तम्भकार कुलदीप नैयर, गांधी संग्रहालय पटना के सचिव व प्रतिष्ठित इतिहासकार डॉ.रज़ी अहमद और देश विदेश की मीडिया में अनेक प्रकार से सक्रिय रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने इस परिचर्चा में अपने विचार रखे।

इस विषय पर चर्चा क्यों : विभूति नारायण राय

विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय ने अपने अतिथियों का स्वागत करने के बाद विषय प्रवर्तन करते हुए यह स्पष्ट किया कि इस समय धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर चर्चा की आवश्यकता क्यों पड़ी। उन्होंने कहा कि हाल की दो घटनाओं ने इस मुद्दे पर दुबारा विचार के लिए प्रेरित किया। एक तो अयोध्या के विवादित मुद्दे पर हाईकोर्ट के अनपेक्षित फैसले ने और दूसरा विनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा ने।

कुलपति ने कहा कि अयोध्या पर उच्च न्यायालय ने जो निर्णय लिया उसमें आस्था को आधार बनाया। यह एक खतरनाक बात है। अगर देश का कायदा-कानून आस्था के आधार पर चलने लगा तो अनेक मध्यकालीन कुरीतियाँ दुबारा सिर उठा सकती है। संभव है कि सती-प्रथा दुबारा जन्म ले ले; क्योंकि आज भी देश में एक बड़ी संख्या सती को पूजनीय मानती है। अस्पृश्यता की प्रथा भी दुबारा सिर उठा सकती है क्योंकि बहुत लोग आज भी उसमें आस्था रखते हैं। विनायक सेन की सजा हमें ‘ककड़ी के चोर को कटार से काट डालने’ की कहावत याद दिलाती है। जनता के हक के लिए लड़ने वाले को एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी सजा होना दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या हमारी न्याय व्यवस्था अब जन आंदोलनों को दबाने का काम भी करेगी?

धर्मनिरपेक्षता को लोकतंत्र, आधुनिकतावाद व राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में देखें- रामशरण जोशी

पत्रकारिता के क्षेत्र में विशद अनुभव रखने वाले और अबतक तेईस पुस्तकों के प्रणेता डॉ. रामशरण जोशी ने इतिहास का संक्षिप्त संदर्भ देते हुए कहा कि भारत में अलग-अलग चरणों में हिंदू और मुस्लिम शासक व शासित वर्ग के रूप में बँटे रहे हैं। अंग्रेजी गुलामी के समय दोनो शासित वर्ग में आ गये। सम्मिलित संघर्ष के बाद आजादी मिली लेकिन देश का बँटवारा हो गया। भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना हुई। पाकिस्तान में भी जिन्ना समर्थकों ने ‘पॉलिटिकल सेक्यूलरिज़्म’ की बात उठायी थी। लेकिन वहाँ स्थिति बदल गयी। भारत में स्वतंत्रता मिलने के तिरसठ वर्ष बाद  धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप क्या होना चाहिए यह मुद्दा विचारणीय बना हुआ है।

उन्होंने बताया कि सोवियत संघ के विघटन के बाद बची विश्व की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र संघ में कहा था कि शीतयुद्ध के बाद सबसे अधिक ‘धार्मिक आतंकवाद (religious terrorism)’ बढ़ा है।

डॉ.जोशी ने यह सवाल उठाया कि क्या हमारे देश के राष्ट्रीय चरित्र में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य व्यावहारिक स्वरूप ले पाया है। क्या हम वास्तविक अर्थों में एक बहुलवादी राष्ट्र बन पाये हैं। हमारे संविधान में जिन मूल्यों को समाहित किया गया है क्या उन मूल्यों की पैठ हमारे जनमानस में हो पायी है? अयोध्या के उस विवादित ढाँचे का गिराया जाना उतना चिंताजनक नहीं है जितना उस कृत्य से हमारे संविधान में रचे-बसे भारतीय राष्ट्र के चरित्र का नष्ट हो जाना है। संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ढहा देने वाले आज भी सुरक्षित हैं और फल-फूल रहे हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है।

धर्मनिरपेक्षता को आज के हालात में समझने के लिए हमें आधुनिकतावाद (modernism) को समझना होगा, लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की विवेचना करनी होगी। इसके अतिरिक्त राष्ट्र-राज्य के चरित्र पर वैश्वीकरण और तकनीकी विकास के प्रभावों की पड़ताल भी करनी होगी। हमारे राजनेताओं ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे का प्रयोग अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने में की हैं। वे `सेलेक्टिव सेकुलरिस्ट’ नीतियों पर चले हैं। (अर्थात्‌ अपनी सुविधा और वोट खींचने की संभावना के अनुसार सेक्यूलरिज़्म की व्याख्या और प्रचार-प्रसार करते रहे हैं)

राजनीतिक प्रतिस्पर्धा  में पक्षपातपूर्ण नीतियों का अनुगमन होने लगता है। अपने देश में यही हुआ है। धर्मनिरपेक्षता आज भी भारतीय नागरिक के जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में विकसित नहीं हो सकी है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद केवल दिल्ली में दिनदहाड़े हजारो सिक्खों का कत्ल कर दिया गया लेकिन आजतक किसी को इस जुर्म में फाँसी नहीं हुई। (बल्कि हत्यारों को उकसाने वाले और संरक्षण देने वाले राजनेता सत्तासीन होते रहे हैं)

आज यह देखने में आ रहा है कि वैश्वीकरण और तकनीकी विकास से उपजी नयी अर्थव्यवस्था में उभरने वाला नव-मध्यम वर्ग अधिक धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग कर रहा है। नये धनिकों द्वारा सबसे अधिक मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारे बनवाये जा रहे हैं। इस परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथनिरपेक्षता की बात की जा रही है। देश के राष्ट्रीय चरित्र में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य बचा होने पर ही शंकाएँ उठने लगी हैं। इन शंकाओं का उठना ही सेक्यूलरिज़्म की हार है। इसलिए यह मुद्दा बहुत गम्भीर चिंतन के योग्य है। वैश्विक पूँजीवाद, तकनीक और अंतरराष्ट्रीयतावाद के परिप्रेक्ष्य में इस मूल्य को व्याख्यायित करना होगा।

इतना बताता चलूँ कि विद्वान वक्ताओं द्वारा कही गयी इन बातों को यहाँ प्रस्तुत करते समय मुझे अपने निजी विचारों को रोक कर रखना पड़ा है। टिप्पणियों की शृंखला में आवश्यकतानुसार चर्चा की जा सकती है। अगली कड़ी में मैं डाँ रज़ी अहमद की चमत्कृत कर देने वाली बातों की चर्चा करूंगा और कुलदीप नैयर के अति आशावादी जुमलों को प्रस्तुत करूंगा। इन विचारों पर आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है। अभी इतना ही… (जारी)

!!! आप सबको नये वर्ष की कोटिशः बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ !!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

स्कूटर बोले तो घुर्र.. घुर्र.. घुर्र.. टींऽऽऽ

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hamara-bajajयूँ तो मेरे मालिक आजकल बहुत परेशान हैं लेकिन मुझे पता है कि कुछ ही दिनों में समस्या का समाधान हो ही जाएगा। चूँकि चालू परेशानी का कारण मैं बना हुआ हूँ इसलिए मुझे थोड़ी सफाई देने की – या कहें कि बतकही करने की – तलब महसूस हो रही है। दरअसल पहली बार मुझे अपने भाग्य पर बहुत कोफ़्त हो रही है। मेरी तबीयत थोड़ी सी ही नासाज़ है लेकिन आजकल मैं ऐसे विचित्र स्थान पर ला दिया गया हूँ कि यहाँ साधारण सी गड़बड़ी की दवा करने वाले भी नहीं मिल पा रहे हैं। यहाँ कुछ ऐसे नीम-हकीमों से मेरा पाला पड़ा है कि उन्होंने मेरी बीमारी ठीक करने को कौन कहे मेरा हुलिया ही बिगाड़ दिया। अपनी विचित्र स्थिति पर चिंतन करता हूँ तो मन बहुत दूर तक सोचने लगता है।

क्या आपने कभी सुना है कि देवाधिदेव महादेव को नंदी ‘भाई’ से कोई परेशानी हुई हो? क्या छोटे उस्ताद मूषक राज ने कभी भारी-भरकम गणेश जी को पैदल चलने पर मजबूर किया? कार्तिकेय जी से रेस हुई तो कैसे उसने बुद्धि के बल से जीत दर्ज कर ली। घर-घर में धन-संपत्ति का डिस्ट्रीब्यूशन करने में घँणी बिजी रहने वाली लक्ष्मी माता को भी क्या उल्लू राजा ने कभी धोखा दिया? लक्ष्मी जी को चंचला की उपाधि दिलाने में निश्चित रूप से उसकी मेहनत, लगन व परिश्रम का हाथ रहा होगा। विद्या की देवी सरस्वती जी को भी हंस की सवारी में कभी रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा होगा। कम से कम मैंने तो नहीं सुना है। सभी देवताओं में बड़े विष्णु भगवान को देखिए। पक्षीराज गरुण की सेवाओं के प्रताप से ही उनके यत्र-तत्र सर्वत्र पाये जाने की बात प्रचलित है। यह सब कहने का मतलब यह है है कि यदि काम लायक सवारी न हो तो बड़े से बड़ा आदमी भी घोर संकट में पड़ जाता है।

रामचंद्र जी को वनवास में सबसे अधिक तकलीफ़ सवारी के अभाव के कारण ही उठानी पड़ी थी। बेचारे पैदल होने के कारण ही मारीच के पीछे भागते रहे और उधर रावण उड़नखटोले पर सीता मैया को ले उड़ा। उनके पास भी अच्छी सवारी रहती तो यह दुर्घटना नहीं हो पाती। इस कलयुग में तो एक से एक अच्छी सवारियों की ईजाद मनुष्यों ने कर ली है। जितना बड़ा आदमी उतनी बड़ी सवारी। जानवरों की सवारी छोड़कर अब मनुष्य साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक की कल-पुर्जे वाली सवारियाँ  अपना चुका है। इस परिवर्तन का एक प्रभाव यह है कि अब सवारियाँ अपने मालिक की इच्छानुसार सेवाएँ तो दे रही हैं लेकिन मनुष्य अब बिना सवारी के एक कदम भी चलने लायक नहीं रह गया है। सभी कोई न कोई सवारी गाँठने के चक्कर में ही पड़े रहते हैं।

मैंने भी अपने मालिक की सेवा में यथा सामर्थ्य कभी कोई कसर नहीं रखी। मैं हूँ तो दो पहिए का एक अदना सा स्कूटर लेकिन मुझमें कुछ तो ऐसा खास है कि नयी चमचमाती कार आने के बाद भी मेरा महत्व कम नहीं हुआ। किसी ने एक बार मेरे स्वामी को सलाह दी कि अब ‘फोर व्हीलर’ अफ़ोर्ड कर सकते हैं तो इस फटफटिया को निकाल दीजिए। इसपर उन्हे रहीम का दोहा सुनना पड़ा – “रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि”। यह सुनकर मेरा मन बल्लियों उछल पड़ा था। वैसे भी जब बैंक से लोन लेकर मुझे खरीदा गया था उस समय इनके पास एक मारुती कार थी; लेकिन घर से बाहर बाजार तक जाने, परचून की दुकान से लेकर सब्जी आदि खरीदने और स्टेडियम जाकर खेल-कूद में पसीना बहाने तक के काम में मेरा विकल्प वह खर्चीली कार नहीं बन सकती थी। जितना समय उसे गैरेज़ से निकालने व रखने में लगता उतने समय में मैं बाजार जाकर लौट भी आता।

मुझे कभी लम्बी दूरी की यात्रा अपने पहियों से नहीं करनी पड़ी। जब भी इनका कहीं तबादला हुआ मुझे ट्रक पर लादकर नयी जगह पर लाया गया। इस उठा-पटक में मुझे कई बार खरोंचे भी आयीं। मुझे याद है अबसे नौ साल पहले अपने नये नवेले रूप पर आत्ममुग्ध हो जब मैं शान से चलता था तो सबकी निगाहें एक बार मेरी ओर बरबस खिंची चली आती थीं। लोग मेरे सीने पर ‘बजाज’ का लोगो देखते तो हैरत से मेरा नाम पढ़ते। ‘लीजेंड’…? यह मॉडेल तो एक बार फेल हो गया था। फिर फोर-स्ट्रोक में दुबारा लांच कर दिया गया? एवरेज क्या है इसकी? ये सकुचाते हुए बताते कि चालीस-पैंतालीस तक जाता है; इन्हें पता होता कि भीड़-भाड़ भरी बाजार में ही चलने के कारण मैं ज्यादा माइलेज कभी नहीं दे पाऊँगा।

शान की सवारी…फिर ये मेरी उपयोगिता के सौ-सौ उदाहरण गिनाते। बाजार से चाहे जितना भी सामान खरीद लिया गया हो, उसे ढोने के लिए मैं हमेशा तैयार रहता हूँ। धोने-पोंछने और मेंटिनेन्स में भी कोई खास मेहनत नहीं है। ट्रबुल-फ्री गाड़ी है। केयर-फ्री ड्रायविंग है। आगे की डीक्की और डिक्की व सीट के बीच की खुली जगह में ढेर सारा सामान आसानी से रखकर चला आता है। सीट के आगे खड़े होकर इनके दोनो बच्चों ने बारी-बारी से मेरी सवारी खूब इन्ज्वॉय किया है। कभी-कभार तो मालकिन भी पीछे बैठकर इनका कंधा पकड़े पीठ से सटकर चलना ज्यादा पसंद करती हैं। मैंने इन लोगों को आपस में बात करते सुना है कि कार की ‘स्प्लिट सीट’ में वह आनंद कहाँ…। इश्किया सुना तो और भी बहुत कुछ है लेकिन वो मैं नहीं बताने वाला…!

फिर भी जब लोग इनसे पूछते हैं कि इस महंगाई के जमाने में तेल की कीमत इतनी बढ़ गयी है तब भी आप एक लीटर में सौ-सौ किमी. तक चलने वाली बाइक्‍स के बजाय इस बजाज के थकेले स्कूटर को क्यों ढो रहें है; तो मेरा कलेजा धक्क से रह जाता है। डरता हूँ कि जाने कब ये इस मतलबी दुनिया की बातों में आ जाँय; इनका मन मुझसे फिर जाय और मेरी छुट्टी हो ले। वर्धा में आकर यह संकट और गहरा होता जा रहा है, मेरा भय घनीभूत होकर मेरी साँसे चोक करने लगा है। ‘चोक’ से मुझे याद आया कि मेरी इस दुरवस्था का तात्कालिक कारण यह चोक ही बना है।

हुआ यह कि नौ-दस साल की अहर्निश सेवा के बाद मेरा चोक खींचने वाले तार की घुंडी एक दिन टूट गयी। इन्होंने आदतन अपने चपरासी को मार्केट भेजा कि दूसरा नया ‘चोक-वायर’ डलवा लाये। काफी चक्कर लगाकर हम और चपरासी दोनो लौट आये। पूरे शहर में कोई मिस्त्री ऐसा नहीं मिला जो मुझे छूने के लिए भी तैयार हो। यह सुनकर इन्हें तो विश्वास ही नहीं हुआ। ये चपरासी पर बिगड़ पड़े कि वह कामचोर है, कहीं गया नहीं होगा, एक छोटा सा काम भी नहीं कर सकता। इलाहाबाद में ‘सुदेश’ था तो चुटकी बजाते ऐसा कोई भी काम कर लाता था। अब मैं ठहरा एक बेजुबान सेवक। चाहकर भी यह नहीं बता सकता था कि चपरासी की कोई गलती नहीं है; और इलाहाबाद में सुदेश चुटकी में काम इसलिए पूरा कर देता था कि कचहरी में स्थित आपके ऑफिस से बाहर निकलते ही लाइन से मिस्त्री और सर्विसिंग की दुकाने सजी रहती थीं। एक से एक हुनरमंद मिस्त्री बजाज के स्पेशलिस्ट थे। यहाँ वर्धा में न तो सड़कों पर कोई बजाज का स्कूटर दिखता है और न ही दुकानों पर कोई स्पेयर पार्ट मिलता है। 

मुझे पता चला है कि है कि वर्धा का यह इलाका सेठ जमनालाल बजाज जी का मूल स्थान रहा है। यहाँ की अधिकांश जमीन उनकी मिल्कियत रही है। गांधी जी ने जब साबरमती आश्रम इस संकल्प के साथ छोड़ दिया कि अब आजादी मिले बिना नहीं लौटना है तो जमनालाल जी ने उन्हें वर्धा आमंत्रित कर सेगाँव नामक गाँव में उन्हें आश्रम खोलने के लिए पर्याप्त जमीन दे दी और इस प्रकार प्रसिद्ध ‘सेवाग्राम आश्रम’ की नींव पड़ी। विडंबना देखिए कि उसी बजाज परिवार के उद्योग से जन्म लेकर मैं सुदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश में सेवा के लिए धरती पर उतारा गया और प्रसन्नता पूर्वक घूमते-घामते वर्धा आ जाने के बाद मेरी देखभाल को एक अदद काबिल मिस्त्री नहीं मिल रहा है।

मैंने यह भी सुना है कि कुटीर उद्योग के प्रबल पक्षधर गांधी जी की महिमा से इस क्षेत्र को बड़े उद्योग लगाने से प्रतिबंधित कर दिया गया है और यहाँ का आर्थिक विकास अनुर्वर जमीन में कपास की खेती करने वाले किसानों के भरोसे है जो प्रकृति की मार खाते हुए खुद पर भरोसा खोकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं।

ओह, मैं अपनी राम कहानी सुनाते-सुनाते विषयांतर कर बैठा…। क्या करूँ, सोचते-सोचते मन भारी हो गया है।

हाँ तो, …चपरासी को ‘अयोग्य’ और ‘नकारा’ करार देने के बाद इन्होंने मेरी हालत स्वयं सुधरवाने का निश्चय किया। अगले दिन मुझे किसी तरह स्टार्ट करके स्टेडियम तक ले गये। वहाँ इनके साथ बैडमिंटन खेलने वाले अनेक स्थानीय लोग थे। खेल के बाद जब चलने को हुए तो इन्होंने मेरे सामने ही इन लोगों से मेरी समस्या बतायी। सबने सहानुभूति पूर्वक ग़ौर से सुना। फिर ये लोग आपस में मराठी में एक दूसरे से बात करने लगे। मैंने अनुमान किया कि सभी किसी न किसी मिस्त्री को जानते होंगे; इसलिए आपस में यह विचार-विमर्श कर रहे हैं कि कौन सा मिस्त्री सबसे अच्छा है, उसी को ‘रेफ़र’ किया जाय। बाहर से आये  हुए व शहर से अन्जान त्रिपाठी जी की मदद करने को सभी आगे आना चाहते होंगे शायद…। ‘शायद’ इसलिए कि इनकी बातचीत का ठीक-ठीक अर्थ तो ये भी नहीं लगा पा रहे थे।

तभी एक हँसमुख डॉक्टर साहब ने मुस्कराते हुए कहा- “मुझे इसका बहुत अच्छा अनुभव है। आपकी समस्या का जो पक्का समाधान है वह मैं बताता हूँ…। ऐसा कीजिए इसे जल्दी से जल्दी बेंच दीजिए…। जो भी दो-तीन हजार मिल जाय उसे लेकर खुश हो जाइए और मेरी तरह शेल्फ़-स्टार्ट वाली स्कूटी ले लीजिए…” वहाँ उपस्थित सभी लोग ठठाकर हँस पड़े, इनका चेहरा उतर गया और मेरे पहियों के नीचे से जमीन खिसक गयी…।

(पोस्ट लम्बी होती जा रही है और मेरी कहानी का चरम अभी आना बाकी है इसलिए अभी के लिए इतना ही…)

प्रस्तुति: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

समय: जब ‘इनके’ भगीरथ प्रयत्न के बाद मेरा स्वास्थ्य सुधरने की दहलीज़ पर है और पूरा देश सचिन तेंदुलकर के पचासवें शतक के जश्न में डूबकर दक्षिण अफ़्रीका के हाथों हुई धुनाई और पारी की हार को भूल जाने का प्रयास कर रहा है।

स्थान: वहीं जहाँ गांधी जी के ‘बुनियादी तालीम प्रकल्प’ का सूत्र पकड़कर दुनिया का एक मात्र अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अंगड़ाई ले रहा है।

बुरे फँसे दिल्ली में… आपबीती

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delhi trafic police

दिल्ली के भीतर गति-सीमा में कार चलाना एक अद्‍भुत कला है…

सरकारी अफसर बनकर नौकरी में आते ही सबसे पहले मुझे किसी ने नेक सलाह दी कि गाड़ी चलाना जरूर सीख लो नहीं तो ड्राइवर पर आश्रित रहने पर कभी-कभी मुश्किल पेश आ जाती है। यदि कभी कोई बदमाश ड्राइवर मिल गया तो ऐन वक्त पर दाँव दे सकता है और बॉस के आगे फजीहत की नौबत आ सकती है। मैने सोचा कि यदि ऐसी बात न भी होने वाली हो तो भी आज के जमाने में कार चलाना आना ही चाहिए। वैसे भी एल.एम.वी. ड्राइविंग लाइसेंस जो पहले ही बन चुका था उसे औचित्य प्रदान करने के लिए वास्तव में ड्राइविंग सीख लेना जरूरी था।

देहाती क्षेत्रों के सरकारी दौरे पर जाते समय मौका देखकर मैंने अपने ड्राइवर से सीट अदल-बदलकर गाड़ी चलाना सीख लिया। जल्दी ही शहरी भीड़-भाड़ में भी सरकारी जीप चलाने लगा। फिर जब घर में कार आयी तो ड्राइवर नहीं ढूँढना पड़ा। पत्नी और बच्चों के साथ प्राइवेसी एन्जॉय करते हुए घूमना और ड्राइवर से संबंधित अनेक लफ़ड़ों से मुक्त रहने का आनंद वही जान पाएंगे जिन्होंने गाड़ी चलाना सीख रखा हो। अब जबकि दस-बारह साल से गाड़ी चलाते हुए मैं अपने आपको एक्सपर्ट और बेदाग ड्राइवर समझने लगा था, अच्छी बुरी सभी सड़कों पर कार चलाने का पर्याप्त अनुभव इकठ्ठा कर चुका था, तेज गति के साथ भी संतुलित और नियंत्रित ड्राइविंग कर लेने का दावा करने लगा था और मौके-बेमौके नौसिखिए लोगों को ड्राइविंग के गुर सिखाने लगा था तभी मुझे एक नये ज्ञान की प्राप्ति हो गयी।

हुआ यूँ कि मुझे दिल्ली आकर अपनी श्रीमती जी के साथ उनके भाई के घर रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। हमें दिल्ली से बाहर करीब पचास-साठ किलोमीटर की यात्रा लगातार पाँच-छः दिन करने की जरूरत पड़ी। इसके पहले भी एक बार दिल्ली आना हुआ था और करीब दस दिनों तक टैक्सी का सहारा लेना पड़ा था। पिछले अनुभव के आधार पर इस बार मैं बेहतर विकल्प तलाश रहा था।

dtp2पिछली बार यह अनुभव मिला था कि गेस्ट-हाउस से गंतव्य तक टैक्सी से यात्रा करना काफी खर्चीला और उबाऊ तो था ही, प्राइवेसी और निश्चिंतता के लाले भी पड़ गये थे। यात्रा के दौरान अपनी ही पत्नी और बच्चे से सँभल-सँभलकर बात करनी पड़ती थी या बिल्कुल चुपचाप यात्रा करनी पड़ती थी। टैक्सी वाले को घंटों खड़ा रखने का किराया ही हजारों में देना पड़ा था। इतना ही नहीं उसकी ड्राइविंग का ढंग देखकर कोफ़्त भी बहुत होती थी। दायें-बायें से दूसरी गाड़ियाँ ओवरटेक करती रहतीं और यह सबको साइड देता रहता। ‘लेन-जंपिंग’ के उस्ताद ड्राइवर अचानक इसके आगे आ जाते और यह आराम से ब्रेक लगाता रहता। कदम-कदम पर रेड-लाइट के सिग्नल भी मात्र कुछ सेकेंड से पिछड़ जाने के कारण रास्ता रोक देते। फिर वह आराम से इंजन बंद कर देता और हरी बत्ती जल जाने के बाद ही इंजन स्टार्ट करता, गियर लगाता और धीरे-धीरे आगे बढ़ता। इस बीच पीछे की अनेक गाड़ियाँ आगे हो लेतीं।  मुझे यह लिजलिजी ड्राइविंग बोर करती। सोचता कि काश कोई ‘स्मार्ट’ ड्राइवर मिला होता।

इस बार जब मुझे आना हुआ तो मेरे नजदीकी व प्रिय रिश्तेदार ने मेरी समस्या समझते हुए अपने घर पर ही ठहरने का प्रबंध किया और अपनी निजी कार मेरी सेवा में लगा दी। पहले दिन एक दैनिक भाड़े का ड्राइवर बुला लिया गया ताकि मैं उसके साथ चलकर रास्ते की पहचान कर सकूँ। यात्रा शुरू होते ही मैने उसके बगल में बैठकर अपना लैपटॉप खोल लिया और गूगल अर्थ का पेज खोलकर दिल्ली को जूम-इन करते हुए सभी गलियों और सड़कों के लेवेल का नक्शा सेट कर लिया। अपने गंतव्य तक का रूट चिह्नित कर उससे वास्तविक मार्ग का मिलान करता रहा। वापसी में भी पूरे रास्ते का मानचित्र दिमाग में बैठाता रहा।

अगले दिन मैंने गाड़ी की कमान खुद संभाल ली। ड्राइवर की छुट्टी कर दी गयी। सीट बेल्ट बाँधते ही मेरी स्थिति थोड़ी असहज हो गयी। इस प्रकार बाँधे जाने के बाद शरीर का हिलना-डुलना काफी मुश्किल सा हो गया। लेकिन मैंने अपनेआप को समझाया कि यह नियम तो फायदे के लिए ही बना होगा। हाथ और पैर तो खुले हुए थे ही। ड्राइविंग तो मजे में की जा सकती है। फिर दोनो तरफ़ के ‘साइड-मिरर’ खोलकर सही कोण पर सेट किए गये। इससे पहले मैने केवल सिर के उपर लगे बैक-मिरर का ही प्रयोग किया था। इन बगल के शीशों में झाँकने पर ऐसा लगा कि दोनो तरफ़ से आने वाली गाड़ियाँ बस मेरे ही पीछे पड़ी हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य मेरी गाड़ी को ठोंकना ही है। मैंने एक-दो बार पीछे मुडकर उनकी वास्तविक स्थिति देखा और आश्वस्त हुआ कि मेरा भय निराधार है।

सुबह-सुबह घर से निकलते हुए सड़क पर ट्रैफिक कम देखकर मन प्रसन्न हो गया। रिंग रोड पर भी गाड़ियों की संख्या ज्यादा नहीं थी। ऑफ़िस और स्कूल-कालेज जाने वालों का समय अभी नहीं हुआ था। चार-छः लेन की इतनी चौड़ी सड़क पर प्रायः सन्नाटा दे्खकर मेरे मन से रहा-सहा डर भी समाप्त हो गया और मैने गाड़ी को टॉप गियर में डाल दिया। बड़े-बड़े फ़्लाई ओवर बनाकर लेवेल-क्रॉसिंग्स की संख्या बहुत कम करने की कोशिश की गयी है। जहाँ तिराहे या चौराहे हैं वहाँ स्वचालित ट्रैफिक सिग्नल की व्यवस्था है। दूर से ही लाल, हरी, व पीली बत्तियाँ दिख जाती हैं। सेकेंड्स की उल्टी गिनती करती डिजिटल घड़ियाँ यह भी बताती हैं कि अगली बत्ती कितनी देर में जलने वाली है। मेट्रो रेल की लाइनें तो इन फ़्लाई ओवर्स के भी ऊपर से गुजारी गयी हैं। …दिल्ली का मेट्रो-सिस्टम मानव निर्मित चंद अद्भुत रचनाओं में से एक है। इसकी चर्चा फिर कभी।

dtpइन सारी स्वचालित व्यवस्थाओं को समझते-बूझते और अपनी गाड़ी को रिंग रोड की चिकनी सतह पर भगाता हुआ मैं एक फ्लाई ओवर से उतर रहा था तभी अचानक करीब आधा दर्जन वर्दी धारी जवान सड़क के बीच में आकर मुझे रुकने का इशारा करने लगे। वर्दी देखकर मुझे यह तो समझ में आ गया कि ये ट्रैफिक पुलिस के सिपाही हैं लेकिन मेरी गाड़ी को रोके जाने का क्या कारण है यह समझने में मुझे कुछ देर लगी। उनका अचानक प्रकट हो जाना और मेरी गाड़ी को लगभग घेर लेना मुझे कुछ क्षणों के लिए एक ‘मेंटल शॉक’ दे गया। सहसा मुझे अपने रिश्तेदार की उस बात का ध्यान आया कि यहाँ गति को मापने के लिए कई जगह खुफ़िया कैमरे लगे हैं जो कम्प्यूटर तकनीक से पल भर में ट्रैफिक पुलिस को बता देते हैं कि अमुक नंबर की गाड़ी निर्धारित गति से इतना तेज चल रही है और इतने मिनट में फलाँ ट्रैफिक बूथ पर पहुँचने वाली है।

जब एक इंस्पेक्टर ने मेरा ड्राइविंग लाइसेंस माँगते हुए यह बताया कि मैं 76 किमी. प्रति घंटे की रफ़्तार से चल रहा था जो निर्धारित सीमा से सोलह किमी/घं. अधिक है तो मेरी आशंका सही साबित हुई। घबराहट की मात्रा मुझसे अधिक मेरी धर्मपत्नी के चेहरे पर थी। मुझे उस ट्रैफिक वाले से अधिक श्रीमती जी के कोप की चिंता सताने लगी जो यहाँ से निकलने के बाद फूटने वाला था। मेरी गति को लेकर उनका बार-बार टोकना और मेरा अपने आत्मविश्वास को लेकर उन्हें बार-बार आश्वस्त करते रहना एक नियमित बात थी जो हमारे बीच चलती रहती थी। इस समय उनका पलड़ा पर्याप्त भारी हो चुका था और मेरा उसके नीचे दबना अवश्यंभावी था।

यह सब एक पल में मैं सोच गया क्योंकि उससे ज्यादा समय उस सिपाही ने दिया ही नहीं। वह मेरा ड्राइविंग लाइसेंस माँगता रहा और मैं उसे अपने पर्स में तलाशता रहा। चौदह साल पहले गोरखपुर में बनवाये जाने के बाद आजतक किसी पुलिस वाले ने इसे चेक नहीं किया था। इसका प्रयोग केवल परिचय व पते के सबूत के तौर पर एक-दो बार ही हुआ होगा वह भी जहाँ पैन-कार्ड पर्याप्त न समझा गया हो। मेरी घबराहट को देखते हुए ड्राइविंग लाइसेंस ने मिलने से मना कर दिया। मैंने हैरानी से अपने पर्स के सभी खाने दो-दो बार तलाश लिए। पीछे खड़े सिपाही आपस में बात करने लगे कि इसके पास डी.एल. भी नहीं है। सामने खड़ा इंस्पेक्टर भी ड्राइविंग लाइसेंस मिलता न देखकर मेरा नाम पूछने लगा। तभी मुझे ध्यान आया कि पर्स में सामने की ओर मैंने जहाँ बजरंग बली की तस्वीर लगा रखी है उसी के नीचे कार्डनुमा डी.एल. भी कभी फिट कर दिया था। मैंने फ़ौरन बजरंग बली को प्रणाम कर उनकी तस्वीर बाहर निकाली और उसके नीचे से डी.एल.कार्ड भी नमूदार हो गया।

अब वहाँ खड़े सिपाहियों की रुचि मेरे केस में कम हो गयी। केवल चालान काटने वाला इंस्पेक्टर मेरे ब्यौरे नोट करने लगा। चार सौ रूपये की रसीद काटकर उसने मुझे थमाया और मैने सहर्ष रूपये देकर  जिम्मा छुड़ाया। ‘सहर्ष’ इसलिए कि मुझे आशंका थी कि सरकारी फाइन कुछ हजार में हो सकती थी या किसी मजिस्ट्रेट के ऑफिस का चक्कर लगाना पड़ सकता था, या मेरा कोई कागज जब्त हो सकता था। इन सब खतरों को दूर करते हुए कानूनी रूप से कुछ शुल्क अदा करके मुझे छुट्टी मिल रही थी।

dtp1इसके बाद जब मैं आगे बढ़ा तो इंस्पेक्टर से पूछता चला कि यदि आगे यही गलती फिर हुई तो फिर चार सौ देने पड़ेंगे क्या? उसने थोड़ी देर तक मुझे अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ देखा और कहा कि ‘आज की डेट में आप इस चालान से काम चला सकते हैं। वैसे धीमे चलिए तो आपकी ही सुरक्षा रहेगी।’ उसके बाद मेरी निगाह आगे की ट्रैफ़िक पर कम और अपने डैशबोर्ड पर अधिक रहने लगी। गतिमापक की सुई साठ से ऊपर न चली जाय इस चिंता में ही अधिकांश सफ़र कट गया। एक्सीलरेटर पर दाहिने पैर के दबाव को दुबारा सेट करना पड़ा ताकि रफ़्तार निर्धारित सीमा में ही बनी रहे। अब खाली सड़क देखकर अंधाधुंध स्पीड में चलते चले जाने के बजाय सुई को साठ पर स्थिर रखने की कला सीखनी पड़ी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के शहरों व देहात में आगे की गाड़ी को केवल उसकी दाहिनी ओर से ओवरटेक करना होता था लेकिन यहाँ दोनो तरफ़ से पार करने के विकल्प खुले हुए हैं। हाँ, लेन-जंप करने में पीछे से आने वाली गाड़ियों पर ध्यान रखना जरूरी होता है।

अब मुझे दिल्ली में गाड़ी चलाने का पाँच दिन का अनुभव हो चुका है। मैंने देखा है अनेक बड़ी लग्जरी गाड़ियों को अस्सी-सौ पर फ़र्राटा भरते हुए, रेड सिग्नल को पार करते हुए और फिर भी न पकड़े जाते हुए। उसी स्पॉट पर सुबह-सुबह रोज  मेरे जैसे कुछ नये लोगों का चालान कटते हुए और गरीब टैक्सी ड्राइवरों को जुर्माना भरते हुए भी देखता हूँ। कारों की लम्बी कतारों के बीच लगातार लेन बदलने वाले बाइक सवारों के रोमांचक और खतरनाक करतब भी देखता हूँ और पैदल सड़क पार करने वालों की साहसी चाल भी देखता हूँ जिन्हें बचाने के लिए बड़ी सवारियों का काफ़िला एकाएक ठहर जाता है। 

मैं इस सबके आधार पर कह सकता हूँ कि दिल्ली के भीतर गति-सीमा जोन में कार चलाना एक अद्‍भुत कला है। आपका क्या ख़्याल है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

स्थान:  वहीं जहाँ कॉमन वेल्थ खेलों के कारण सड़कों की हालत काफी अच्छी हो गयी हैं लेकिन खेल कराने वालों की हालत नाजुक चल रही है।

समय: जब मेरे मेजबान के घर पर सभी लोग सो चुके हैं, सड़क से ट्रैफिक की आवाज आनी  प्रायः बंद हो गयी है और मुहल्ले का चौकीदार डंडा फटकारते हुए अपना पहला राउंड अभी-अभी लगाकर जा चुका है।

उफ़्फ़्‌ वो बीस मिनट…

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इस बार दीपावली की छुट्टियाँ वर्धा विश्वविद्यालय के प्रांगण में ही बीत गयी हैं। अपने पैतृक घर (गाँव) से बहुत दूर हूँ। केवल आने-जाने की यात्रा में ही चार दिन खर्च हो जाते इसलिए जाना न हुआ। वैसे भी अपने निवास स्थान पर ताला डालकर गाँव जाने का काम मैंने कभी भी दीपावली के मौके पर नहीं किया है। जहाँ रहकर रोजी-रोटी चलती हो वहाँ ज्योतिपर्व पर अँधेरा रखना हमारी पारंपरिक आस्था के विपरीत है। गाँव की यात्रा दशहरे के मौके पर ही होती आयी है। अस्तु… हम वर्धा के पंचटीला प्रांगण में ही सपरिवार दीपावली मनाते रहे।

दीपावली के दो दिन पहले धनतेरस के मौके पर हम भी बाजार गये। दिवाली की खास खरीदारी के अलावा बच्चों के कपड़े और नये जूते वगैरह खरीदे गये। बाजार में दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी जी की पूजा संबंधी सामानों की विशेष दुकानें लगी हुई थीं। मिट्टी के दीये, कलश, लक्ष्मी गणेश की मूर्तियाँ, लाल चमकीले रंग में पुते हुए नक्काशीदार दीपक; लाचीदाना, बताशा और धान की लाई से बने ‘प्रसाद’ के पैकेट, देवी-देवताओं के कैलेंडर, उबले हुए सिंघाड़े, गेंदा व कमल के फूल,  रंगोली बनाने के सांचे व रंगीन रेत नुमा पाउडर, कच्ची रूई व उससे बनी बाती के पैकेट, आतिशबाजी के सामान और न जाने क्या-क्या। दुकानों पर उमड़ी भीड़ और सड़क पर ठसाठस भरी जनसंख्या को देखकर घबराहट सी हो रही थी। सत्यार्थ को भीड़ की रगड़ से बचाने के लिए गोद में उठाना पड़ा। बहुत से ऐसे सामान भी खरीदे गये जिनकी पहले कोई योजना ही नहीं थी। राह चलते रोककर माल टिका देने वाले अनेक सीजनल विक्रेता टकराते रहे और हम बचते-बचाते भी अपनी जेब खाली करके ही घर वापस पहुँचे।

धनतेरस के अगले दिन छोटी दिवाली मनाने का मेरा ग्रामीण अनुभव बस इतना था कि घर के तृण-तृण और कोने-कोने की सफाई का जो सिलसिला कई दिनों से चला आ रहा है उसको अंतिम सोपान पर पहुँचाकर दीपावली से पहले समाप्त कर लिया जाय। इस ‘नरक चतुर्दशी’ के दिन सूर्यास्त के समय घर से बाहर जिस गढ्ढे में घरेलू कूड़ा और जानवरों का गोबर फेंका जाता है, अर्थात्‌ ‘घूरा’- उसपर (यमराज का) दीया जलाया जाता है। यहाँ वर्धा में यह रस्म करने की गुंजाइश नहीं थी, न आवश्यकता महसूस हुई। श्रीमती जी ने घर की विशेष सफाई का जो लंबा अभियान कई दिनों पहले से चला रखा था उसके बाद आखिरी समय के लिए कुछ खास काम बचा भी नहीं था। ब्लॉगरी का काम भी इन दिनों यूँ ही छूटा हुआ था और मैं किसी फड़कते हुए विषय की प्रतीक्षा के बहाने आलस्य गति को प्राप्त हो चुका था। अहमदाबाद में न्यूजीलैंड के साथ टेस्टमैच का पहला दिन था और सबकी निगाह भारत के सूरमा बल्लेबाजों के नये बनते रिकार्डों की ओर थी।

मैंने भी बैडमिंटन खेलकर लौटने के बाद टीवी के आगे सोफ़े पर आसन जमाया, कुछ ही देर में सहवाग की आतिशबाजी शुरू हो गयी तो एक मसनद लगाकर सोफ़े पर ही लेट गया। पूरे दिन भारत की बल्लेबाजी देखने की मंशा थी इसलिए वहीं आराम के साधन और चाय-नाश्ते के सामान जुटने लगे।

इसी बीच इलाहाबाद से मेरे एक बुजुर्ग परिचित का फोन आया। उन्होंने बहुत बुरी खबर सुनायी। हमारी हम‍उम्र और इलाहाबाद में हाल तक कार्यरत कोषागार सेवा की महिला अधिकारी  जिन्होंने अपना एक गुर्दा अपने पति की जीवन रक्षा के लिए दे दिया था और बीमार पति की सेवा के साथ-साथ दो बच्चों सहित पूरे परिवार का जिम्मा अपने कंधो पर उठा लिया था, धनतेरस के दिन नितांत अकेली हो गयीं। हम लोग जिनके संघर्ष की मिसाल दिया करते थे उनको अलविदा कहते हुए उनके पति ने अचानक दम तोड़ दिया। पदोन्नति पाकर मथुरा स्थानांतरित हो जाने के कारण पति के अंतिम क्षणों में साथ भी नहीं रह पायीं वो। खबर सुनकर मानो हमपर वज्रपात हो गया। सोफे पर सुन्न पड़े रहे। एक दो मित्रों को यह अप्रिय समाचार देने के अतिरिक्त हम कुछ नहीं कर सके।

अब हम बेमन से टीवी देखते हुए समय काट रहे थे। इस बीच मेरी पत्नी रसोई के काम निबटाती हुई ऊपर के कमरे में कंप्यूटर पर जमे बच्चों को आवाज लगाती जा रही थीं कि वो नीचे आकर कुछ खा-पी लें। थोड़ी देर बाद बेटी नीचे आ गयी। आधे घण्टे बीत जाने के बाद भी जब सत्यार्थ नीचे नहीं आया तो उसकी माँ की आवाज तेज हो गयी। बेटी को डाँटते हुए उन्होंने उसे ऊपर भेजा कि ‘बाबू’ को ले आओ। वागीशा ऊपर गयी और फौरन लौटकर बोली कि वो ऊपर नहीं है। फिर उसे नीचे के कमरों में देखा गया। वहाँ भी नहीं था।

इन्होंने कहा, “जाकर देखो डीआर अंकल (डिप्टी रजिस्ट्रार) के घर सनी के साथ खेलने गया होगा।”

वागीशा वहाँ से पूछकर लौट आयी। “मम्मी, बाबू वहाँ भी नहीं है।”

इन्होंने झुँझलाकर उसे डाँटा और खुद ऊपर जाकर सत्यार्थ को खोजने लगीं। दोनो कमरे, बाथरूम, इत्यादि देखने के बाद ऊपर की बालकनी से ही पीछे की ओर रजिस्ट्रार साहब के दरवाजे पर तैनात होमगार्ड से पूछा कि उसने बाबू को कहीं देखा क्या? उसका उत्तर भी नकारात्मक मिला। अब चिंता की लकीरें माथे पर उभरने लगीं। तेज कदमों से पड़ोसी डी.आर. के यहाँ गयीं। घर के भीतर जाकर पूछा। फिर कालोनी में दूसरे प्रायः सभी घरों में ताले पड़े हुए थे। कहाँ जा सकता है? एक किनारे प्रोफेसर भदौरिया का घर खुला हुआ था। वहाँ जाकर माँ-बेटी ने दरियाफ़्त कर ली। लौटकर आयीं तो माथे पर पसीना आ चुका था।

“अरे, आपको कुछ पता है… बाबू बहुत देर से लापता है। सारा अड़ोस-पड़ोस देख आयी हूँ। कहीं नहीं है। आपको तो टीवी के आगे कुछ दिखता ही नहीं है…” आवाज में तल्खी से ज्यादा बेचैनी थी।

मैं हड़बड़ाकर उठा, “एक बार ठीक से घर में ही देख लो, कही सो गया होगा।”

“सब देख चुकी हूँ… आप कहते हैं तो दुबारा देख लेती हूँ” रचना पैर पटकती हुई और बेटे को आवाज लगाती हुई ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। मैंने हाफपैंट और टी-शर्ट में ही स्कूटर स्टार्ट किया और  बेटे को खोजने गेस्ट हाउस की ओर बढ़ चला। वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। सभी कमरों में ताले लटक रहे थे। गार्ड ने बताया कि आज कोई भी इधर नहीं है। सबलोग घर गये हैं। …कैंपस में और कहाँ जा सकता है मेरा बेटा? मैंने मुख्य द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मियों से भी पूछा। सभी उसे पहचानते हैं। सबने विश्वास पूर्वक बताया कि वो गेट से बाहर नहीं गया है। वैसे भी आज इतना सन्नाटा है कि इधर से आने-जाने वाले सभी लोगों का रिकार्ड हमारे पास है।

इस सन्नाटे ने ही मेरे मन में भय डाल दिया। बाहर अकेला खेलता पाकर कोई भी उसे उठा सकता था।

सुबह जब मैं बैडमिंटन खेलकर लौटा था तो बेटे के हाथ में एक कमल का फूल देखकर मैने उसके बारे में पूछा था तो पता चला कि सामने की सड़क पर टहलती हुई एक लड़की को हाथ हिलाकर इन्होंने अपने पास बुला लिया था। बताया गया कि बिहार की रहने वाली वह छात्रा गर्ल्स हॉस्टेल में अकेली बची थी। उसी ने अपने नन्हें दोस्त को सुबह-सुबह यह फूल भेंट कर दिया था। मेरे मन में यह आशंका हुई कि शायद उसने ही सत्यार्थ को अपना मन बहलाने के लिए अपने साथ हॉस्टल बुला लिया हो। या कोई और भी इस बातूनी लड़के की बतरस का आनंद लेने के लिए अपने साथ ले गया हो।

स्कूटर मोड़कर मैंने सबसे पहले कुलपति आवास का रुख किया। लेकिन रचना वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थी। उन्होंने दूर से ही हाथ हिलाकर मुझे बता दिया कि बेटा वहाँ भी नहीं है। मैंने अब कैंपस के दूसरे छोर पर स्थित गर्ल्स हॉस्टल की ओर स्कूटर मोड़ा। मेरे घर के पास झुग्गी डालकर रहने वाली मजदूरन सड़क के किनारे कपड़े फैलाती दिखायी दी तो मैंने उससे भी पूछ लिया। इससे पहले इन लोगों से मेरा कभी कोई संवाद उससे नहीं हुआ था लेकिन वह फिर भी हम सबको जानती पहचानती थी। उनके बीच की एक छोटी बच्ची कभी-कभार मेरे बच्चों के खेल में शामिल हो जाया करती थी। उसकी दुबली-पतली काया, साँवले रंग और चंचल प्रवृत्ति के कारण सभी उसे पी.टी.उषा कहकर बुलाते हैं। मेरे बेटे के बारे में उसने भी अनभिज्ञता जाहिर कर दी।

मैंने हॉस्टेल के रास्ते में बैंक व दूरशिक्षा विभाग की लाल बिल्डिंग में चलने वाली एक मात्र खुली हुई दुकान पर रुककर पूछा- “मेरा बेटा तो इधर नहीं दिखा था?” सुनने वाले हैरत से देखने लगे। साढ़े-तीन-चार साल का लड़का इतनी दूर कैसे आ सकता है? मेरे पास झेंपने का भी समय नहीं था। मैंने उन्हें समझाने में वक्त न जाया करते हुए आगे बढ़ना उचित समझा। बीच में टीचर्स कॉलोनी पड़ती है। वहाँ भी केवल दो घर बिना ताले के थे। दोनो जगह पूछ लिया। मेरी खोजबीन उन्हें जरूर बेतुकी लगी होगी लेकिन मैंने उन्हें कुछ पूछने का अवसर नहीं दिया। इसके पहले मेरा उस कॉलोनी के अंदर कभी जाना नहीं हुआ था इसलिए भी यह सब असहज लग रहा था।

निराशा और दुश्चिंता के साथ मैं गर्ल्स हॉस्टल पहुँचा। गार्ड को बुलाकर पूछा। उसने भी किसी बच्चे को देखने से साफ इन्कार कर दिया। उसने बताया कि केवल एक लड़की यहाँ ठहरी हुई है। बाकी कमरे बंद हैं। वह लड़की भी अकेली अपने कमरे में मौजूद है। मैंने इस छोर पर बने प्रवेश द्वार के सुरक्षा कर्मियों से भी पूछा। सबने यही कहा कि वे मेरे बेटे को बखूबी पहचानते हैं और वह इधर कत्तई नहीं आया है।

अब तो मेरी हालत बहुत खराब हो गयी। स्कूटर की सीट पर बैठा मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि अब किधर जाना चाहिए। हाफपैंट और टी-शर्ट पसीने से भींग चुके थे। सारी संभावना तलाश ली गयी थी। मन में बहुत से भयानक विचार चोट करने लगे। इस कैंपस में साँप व बिच्छू निकलते रहते हैं। कहीं मेरा बेटा उनका शिकार होकर किसी झाड़ी में अचेत न पड़ा हो। बच्चों के लुटेरे सौदागर तो इस कैंपस में आ नहीं सकते… लेकिन कौन जाने?

कलेजे में उठती हुई हूक अब आँखों से निकलने को उद्यत थी। कमजोर हाथों से स्कूटर संभालते हुए मैं धीमी गति से घर की ओर लौट पड़ा। दूर से ही अपना घर दिखायी पड़ा तो बाहर किसी को न देखकर विस्मय हुआ। घर वाले मेरी प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे। लगता है कुछ सकारात्मक हो गया है। उस मजदूरन ने मुझे दूर से देखा। उसने इशारे से बताया कि घर के भीतर जाइए। मैं सहमता हुआ स्कूटर खड़ी करके भीतर गया। अंदर शांति थी- ऐसी जो किसी तूफान के गुजर जाने के बाद होती है। रचना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव देखकर मेरा मन हल्का हो लिया। साहबजादे फिर भी नहीं दिखायी दे रहे थे।

कहानी कुछ यूँ पता चली कि दीपावली के लिए जो नये कपड़े आये थे उन्हें जल्दी से जल्दी धारण कर लेने की इच्छा इतनी बलवती हो गयी कि माँ के मना करने के बावजूद ऊपर के कमरे में एकांत पाकर उन्होंने कपड़े डिब्बे से निकालकर पहन लिए। अचानक नीचे से पुकारे जाने पर उन कपड़ों में नीचे जाने की हिम्मत नहीं हुई। आनन-फानन में इन्होंने बालकनी में पनाह ले ली।

बालकनी की ओर खुलने वाली दोनो बड़ी किवाड़ें इतनी चौड़ी हैं कि उन्हें बीच से मुड़ने लायक बनाया गया है। खुली दशा में इन किवाड़ों की फोल्डिंग दीवार से लगकर एक तिकोना गोपनीय कक्ष बना देती हैं। इस घटना से पहले कभी किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। रचना ने जब इन्ही किवाड़ों की ओर पीठ करके बालकनी से गार्ड को पुकारकर बात की थी तो हजरत कोने में दुबककर मुस्करा रहे थे। फिर तो ये माँ, दीदी और डैडी की बेचैनी देखकर लुत्फ़ ही लेने लगे। अंततः जब मम्मी चारो ओर से निराश होकर घर में लौटकर रोने-कलपने लगीं और दीदी   भी सीढ़ियों पर बैठकर रोने लगी और ‘बाबू’ को करुण स्वर में पुकारने लगी तब इन्होंने फिल्मी इश्टाइल में ‘‘टैंग्टड़ांग” की आवाज निकालते हुए दीदी के सामने नाटकीय अंदाज में अचानक प्रकट होना जरूरी समझा।

यह सबकुछ बताने में मुझे इतना अधिक समय लग रहा है लेकिन बेचैनी और बेचारगी के वे चरम क्षण मुश्किल से बीस मिनट के रहे होंगे। अब सोचता हूँ तो मन में सवाल उठ खड़ा होता है कि ईश्वर हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहा था या ‘नरक चतुर्दशी’ की तिथि अपने नाम को चरितार्थ कर रही थी। उसके बाद दिन भर कुशल-क्षेम पूछने वालों को जवाब देते बीता।Sad smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

आज मेरे घर के पीछे बम फटा

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आज दोपहर लगभग बारह बज रहे थे कि एक धमाके की आवाज हुई। ऐसा लगा घर के पिछ्वाड़े ही हुई है। अभी इस बारे में सोच ही रहा था कि तभी एक और धमाका। मन सशंकित हुआ- कुछ अनहोनी तो नही हुई? पर फिर यह सोच कर कि कचहरी है, कुछ हुआ होगा, बैठा ही रह गया। तभी घर में काम करने वाली चम्पा की आवाज ने कान खड़े कर दिये- “भैया जी, उधर धुँआ उठ रहा है, लोगों की आवाजें आ रही हैं, लगता है बम फटा है. “मैं लगभग दौड़ते हुए कमरे से बाहर आया और छत पर चढ़ गया धमाके की आवाज को घर के सभी लोगों ने सुना था, और उस पर चंपा के इस निष्कर्ष ने कि ‘बम फटा है’ सभी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी थी मेरे पीछे ही भाभी, छोटा भाई और स्वयं चंपा भी छत पर आ गए घर से पूरब की तरफ़ जनपद न्यायालय की बिल्डिंग से चीखने की आवाजें आ रही थीं, और उसकी चारो तरफ़ धुआं पसरा हुआ था।

मुझे अपनी भतीजी की चिंता होने लगी, जिसके स्कूल में उसी समय छुट्टी होती है मुझे डर लग रहा था कि स्कूल से लौटते वक्त कचहरी में मची अफरा-तफरी से कहीं वो डर न जाए डर इस बात का भी था कि कहीं और भी बम विस्फोट न हों भाभी भइया को फ़ोन लगा रहीं थीं, और मैं छत से उतर कर अपनी भतीजी को लिवा लाने के लिए स्कूल की तरफ़ चल दिया।

रास्ते में पुलिस-वालों की भाग-दौड़, लोगों की संशय-युक्त बातें सुनते हुए स्कूल पहुंचा तो स्कूल में छुट्टी हो चुकी थी वागीषा (मेरी भतीजी) को साथ ले घर लौटते वक्त, मैंने उसे बम विस्फोट के बारे में बताया उसने कहा- “हाँ मैंने भी आवाज सुनी थी, पर इसमें बड़ी बात क्या है?” मैंने उसे बम विस्फोट से होने वाले संभावित जान-माल के नुकसान की बात बताई तो वो थोड़ा घबरा गई, पर तत्काल ही उसने पूछा “क्या यह ख़बर टीवी पर आ रही होगी? मैंने कहा “सम्भव है” तब तक हम घर पहुँच चुके थे आते ही मैंने टीवी खोला, वहाँ तेंदुलकर के जन्मदिन की पार्टी की ख़बर आ रही थी । इसी बीच भाभी से पता चला की उन्होंने भइया को फोन कर वस्तु-स्थिति की जानकारी दे दी है। कई चैनलों पर घूमते हुए अचानक ‘आज-तक’ पर ब्रेकिंग न्यूज़ पढ़ने को मिला- “इलाहाबाद कचहरी में विधायक पर देसी बम से हमला” अगले दस मिनट तक मैं कई चैनल बदल-बदल कर इस ख़बर के बारे में और कुछ जानने की कोशिश में लगा रहा पर हर जगह तेंदुलकर और उनकी पार्टी मैंने टीवी बंद की और खाना खाकर आराम करने बिस्तर पर आ गया

इस सम्पूर्ण विवरण को पढ़ने के बाद आपको कुछ असामान्य लगा? नहीं न? मुझे भी नहीं लगा था पर अचानक मुझे अन्दर से एक अन्जान कीड़े ने काट लिया. मैं सोचने लगा कि मैं कितना संवेदनशून्य हो चुका हूँ यह जानते हुए भी कि उस बम विस्फोट में कुछ लोग घायल हुए होंगे, शायद कुछ की मृत्यु भी हो गई हो, मैंने वहाँ जाने की, किसी तरह की, कोई भी मदद करने की, कोशिश नहीं कीवह भी दुर्घटना स्थल से महज सौ या दो सौ कदमों की दूरी पर रहते हुए? दुर्घटना के बारे में जानने के लिए मैंने टीवी का सहारा लिया जबकि मैं वहाँ जा सकता था मुझे सिर्फ़ अपनी भतीजी, और भाभी को सिर्फ़ अपने पति व बच्चों की चिंता हुई

शायद इसे सावधानी बरतना कहकर मुक्ति पाई जा सके, पर क्या यह सही है? ऐसे में क्या करना चाहिए था? जो मैंने किया वह ठीक था, या इसके अलावे कुछ और भी किया जा सकता था? कोई विकल्प है? यह सारे प्रश्न मैं आप लोगों के सुपुर्द करता हूँ.

INTEGRITY TEST

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मेरे एक सीनियर ने मुझे एक शुभकामना संदेश भेजा। इस प्रिंटेड कार्ड पर जो सामग्री लिखी हुई थी वह मेरे लिए बहुत सहायक सिद्ध हुई है। दरअसल, मुझे अपने घर परिवार और शुभेच्छुओं के बीच अक्सर असहज होना पड़ता था जब मैं उनकी निगाहों में ‘दुनियादारी’ की बातें समझने और उनका पालन करने में अक्षम साबित होता था। अब मुझे इससे बहुत संबल मिला है। मूल लेखक के प्रति सादर आभार अर्पित करते हुए इस संदेश को हुबहू प्रस्तुत कर रहा हूँ .
People really need help but may
attack you, if you do help them.
Help people anyway.
If you do good, People will accuse you
of selfish ulterior motives;
Do good anyway.
The good you do today
will be forgotten tomorrow;
Do good anyway.
If you are successful,you will win
false friends and true enemies;
Succeed anyway.
Honesty and frankness,
make you vulnerable;
Be honest and frank anyway.
Give the world the best you have
And you’ll get kicked in the teeth;
Give the world the best you have anyway.
– Kent. M. Keith

नवागत

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साइकिल यक-ब-यक चिचियाकर खड़ी हो गई. उसने बार-बार पैडल घुमाने की कोशिश की पर सारी मेहनत बेकार गई. तब वह कैरियर पकड़ कर पिछला पहिया उठाये आगे वाली दुकान की ओर बढ़ गया ,जहाँ साइकिलों की मरम्मत होती थी. वहाँ पहुँच कर उसने साइकिल पटक दी.
“ देखो भाई, इसमें क्या गड़बडी हो गई है.” उसने मरम्मत करने वाले से कहा.
दुकान पर और भी कुछ सीधी, कुछ उल्टी साइकिलें खड़ी थी. अकेला बूढा मिस्त्री, बैठा हुआ एक रिम सीधी कर रहा था. वह रिम को नचाता, उंगली से मिलान करता और तीलियों को कसता या ढीला करता जाता.
“ थोड़ी देर लगेगी, बाबूजी.” मिस्त्री ने तीली कसते हुए कहा.
‘उफ !’ कहकर वह पास रखे एक मैले से स्टूल पर धूल पोंछकर बैठ गया. पसीना पोंछकर वह बेचैनी से नाचती हुई रिम को देखने लगा. कलाई पर घड़ी की सूइयाँ तेजी से बढ़ रही थी.
‘ कंगाली में आटा गीला ’- वह सोच रहा था… उधार के पैसों में भी अब सिर्फ़ दस रुपये बचे हैं. तीन-चार दिन अचार आदि से काम चलाने के बाद आज वह सब्जी खरीदने निकला था. अब पता नहीं साइकिल में कितना खर्च हो जाए…चाहे जो हो जाए, अब और उधार नहीं लूंगा. देखूं पिताजी कब तक पैसा भेजतें हैं… उन्होंने भी हद कर दी है. कितनी बार चिट्ठियों में लिख चुका की २५ जून से परीक्षा शुरू हो जायेगी. गर्मी की छुट्टी में घर नहीं आ पाउँगा. समय से पैसा भेज दीजियेगा, इसकी चिंता हो तो पढ़ाई नहीं हो पाती. मकान-मालिक से रोज- रोज की खटपट में क्या कोई खाक पढेगा. इसके बाद रिजल्ट भी अच्छा चाहिए. लिखते हैं- बेटा, बड़े अरमान से तुम्हें इतनी दूर पढ़ने को भेजा है. खूब मेहनत करना. परिवार का नाम रौशन करना…ऐसे ही चलता रहा तो खूब नाम रौशन होगा. यूनिवर्सिटी में हॉस्टल मिलना नहीं है. इलाहाबाद की भयानक गर्मी में जीना वैसे ही मुश्किल है. ऊपर से लॉज में आये दिन बिजली-पानी की किल्लत, शोर-शराबा और झगड़ा-फसाद. सुबह-शाम का चौका-बर्तन और बदले में जला-गीला-कच्चा भोजन. अभी तो रोटियां भी सेंकने नहीं आती… यह ख्याल आते ही उसकी जली हुई अंगुलियों का दर्द उभर आया, फ़िर माँ की याद आ गई. कितने प्यार से मना-मनाकर खाना खिलाती थी. छोटी सी नाराजगी में खाना छोड़ देते. फ़िर माँ के हाथ से खा लेते. यहाँ तो थोड़ा आलस्य करें तो भूखा ही सोना पड़े.

मिस्त्री उसके साइकिल की जांच करने लगा. उसके अन्दर एक डर सा समां गया. कहीं कोई बड़ा खर्चा न पड़ जाय. उसका हाथ अपने आप जेब में पड़ी दस रुपये की नोट के ऊपर चला गया. मन ही मन सोचने लगा कि देखें सब्जी भर का पैसा बचता है कि नहीं. मिस्त्री ने रिंच उठाया, पिछली पहिया का नट ढीला किया और टायर को एक तरफ़ दबाकर नट को फ़िर से कस दिया. पहिया नाचने लगा. “ले जाओ बाबूजी, गाड़ी ठीक है”. कितना हुआ? जो चाहे दे दो बाबूजी, काम तो देख लिया”. दस का फूटकर है क्या ? मेरे पास चेंज नही है. बूढे ने कुटिलता से मुस्कराकर देखा और बोला-“ठीक है, फ़िर कभी दे देना.”

उसका चेहरा तो शर्म से लाल हो गया लेकिन मन को बड़ा संतोष मिला. फ़िर साइकिल पर बैठा तो चेहरे पर मुस्कान खिल उठी थी. अब उसे सब्जी मिल जायेगी.