घर में जंग की नौबत : टालिए न…!

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आज मेरे घर में बात-बात में एक बहस छिड़ गयी। बहस आगे बढ़कर गर्मा-गर्मी तक पहुँच गयी है। घर में दो धड़े बन गये हैं। दोनो अड़े हुए हैं कि उनकी बात ही सही है। दोनो एक दूसरे को जिद्दी, कुतर्की, जब्बर, दबंग और जाने क्या-क्या बताने पर उतारू हैं। दोनो पक्ष अपना समर्थन बढ़ाने के लिए लामबन्दी करने लगे हैं। मोबाइल फोन से अपने-अपने पक्ष में समर्थन जुटाने का काम चालू हो गया है। अपने-अपने परिचितों, इष्ट-मित्रों व रिश्तेदारों से बात करके अपनी बात को सही सिद्ध करने का प्रमाण और सबूत इकठ्ठा कर रहे हैं। अब आप जानना चाहेंगे कि मुद्दा क्या है…?

तो मुद्दा सिर्फ़ इतना सा है कि यदि कोई व्यक्ति स्कूटी, स्कूटर, मोटरसाइकिल इत्यादि दुपहिया वाहन चलाना सीखना चाहे तो इसके लिए उसे पहले साइकिल चलाना आना चाहिए कि नहीं?

प्रथम पक्ष का कहना है कि जब तक कोई साइकिल चलाना नहीं सीख ले तबतक वह अन्य मोटर चालित दुपहिया वाहन नहीं सीख सकता। इसके समर्थन में उसका तर्क यह है कि दुपहिया सवारी पर संतुलन बनाये रखने का कार्य पूरे शरीर को करना पड़ता है जिसका अभ्यास साइकिल सीखने पर होता है। साइकिल चलाने आ जाती है तो शरीर अपने आप आवश्यकतानुसार दायें या बायें झुक-झुककर दुपहिया सवारी पर संतुलन साधना सीख जाती है। शरीर को यह अभ्यास न हो तो अन्य मोटरचालित दुपहिया वाहन सीख पाना सम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। इसलिए पहले साइकिल सीखना जरूरी है।

द्वितीय पक्ष का कहना है कि साइकिल चलाने में असंतुलित होने की समस्या ज्यादा इसलिए होती है कि उसमें पैडल मारना पड़ता है। जब पैर दायें पैडल को दबाता है तो साइकिल दाहिनी ओर झुकने लगती है और जब बायें पैडल को दबाता है तो बायीं ओर झुकती है। इस झुकाव को संतुलित करने के लिए शरीर को क्रमशः बायीं और दायीं ओर झुकाना पड़ता है। लेकिन मोटरचालित दुपहिया में यह समस्या नहीं आयेगी क्योंकि उसमें पैर स्थिर रहेगा और पैडल नहीं दबाना होगा। जब एक बार गाड़ी चल पड़ेगी तो उसमें संतुलन अपने आप स्थापित हो जाएगा। इसलिए स्कूटी सीखने के लिए साइकिल चलाने का ज्ञान कत्तई आवश्यक नहीं है।

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इन दो पक्षों में सुलह की गुन्जाइश फिलहाल नहीं दिखती। प्रथम पक्ष का कहना है कि यदि द्वितीय पक्ष एक भी ऐसे व्यक्ति को सामने ला दे जो बिना साइकिल सीखे ही स्कूटी/ मोटरसाइकिल चलाना सीख गया हो तो वह हार मान जाएगा और उस ‘दिव्य आत्मा’ का शागिर्द बन जाएगा। दूसरे पक्ष को किसी ने फोन पर आश्वासन दिया है कि वह ऐसे आम आदमियों, औरतों व लड़के-लड़कियों की लाइन लगा देंगे जिन्होंने ‘डाइरेक्ट’ मोटरसाइकिल- स्कूटर चलाना सीख लिया है।

अब प्रथम पक्ष दिल थामे उस लाइन की प्रतीक्षा में है जो उसके घर के सामने लगने वाली है। लेकिन समय बीतने के साथ अभी उसके आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं आयी है क्योंकि अभी कोई उदाहरण सामने नहीं आया है। मुद्दा अभी गरम है। सबूतों और गवाहों की प्रतीक्षा है।

इस मुद्दे को यहाँ लाने का उद्देश्य तो स्पष्ट हो ही गया है कि कुछ जानकारी यहाँ भी इकठ्ठी की जाय। ब्लॉग-जगत में भी तमाम (अधिकांश प्राय) लोग ऐसे हैं जो दुपहिया चलाना जानते हैं। आप यहाँ बताइए कि आपका केस क्या रहा है- पहले साइकिल या ‘डाइरेक्ट’ मोटर साइकिल? निजी अनुभव तो वास्तविक तथ्य के अनुसार बताइए लेकिन इस मुद्दे का व्यावहारिक, वैज्ञानिक और सैद्धान्तिक विवेचन करने की भी पूरी छूट है।

(नोट : घर के भीतर प्रथम पक्ष का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है व दूसरे पक्ष का कौन, यह स्वतःस्पष्ट कारण से गोपनीय रखा जा रहा है।)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)  

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सत्यकथा : अन्ना रे अन्ना…

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उसे कभी किसी ने सराहा नहीं था। कभी मेहनत नहीं की थी उसने पढ़ाई में। न ही किसी दूसरे धन्धे में पसीना बहाया था। पिता ने कई जगह लगाना चाहा लेकिन कोई धन्धा कामयाब नहीं हो पाया। काम के प्रति निठल्लापन बार-बार बेरोजगार बना देता। बेरोजगारी का नतीजा – गरीबी। जीवन प्रायः अभावग्रस्त। लेकिन फक्कड़ हालात में भी उसे मौज करने के बहाने मिल ही जाते। संगीत का शौक था उसे। देवी जागरण के मंचों पर उसकी मांग थी। कुछ वाद्य यंत्र बजाना जानता था। भरती का कलाकार था। मुख्य गायक के आने से पहले खाली समय भरने के लिए उसे थोड़ी देर माइक पकड़ने को भी मिल जाता था। रेडियो स्टेशन में उसे लोकगीतों की रिकॉर्डिंग में गायकों  की संगत के लिए झाँझ बजाने का काम मिल जाया करता था। लेकिन वहाँ महीने दो महीने पर एकाध बार ही मौका मिलता।

सरकारी रेडियो के लिए वाद्य यंत्र बजाने वाले कैजुअल कलाकारों को अपनी बारी का बहुत इन्तजार करना पड़ता। इनकी संख्या बहुत अधिक थी और अवसर बहुत कम। मांग कम थी और आपूर्ति ज्यादा, इसलिए भाव गिरना तय था। एक रिकॉर्डिंग का सरकारी पारिश्रमिक था बाइस सौ रूपये, लेकिन अपनी बारी लगवाने के लिए उन्हें इसमें से कुछ कमीशन देना पड़ता। कमीशन देने की परंपरा काफी मजबूत हो चुकी थी। इतनी कि अब सबके लिए नियम बराबर ही था। चाहे जिसकी भी बारी आ जाये उसे पता होता था कि चेक लेने के लिए अपनी जेब में आठ सौ रूपये लेकर जाना होगा। फिर भी घंटे भर की रिकॉर्डिंग के लिए एक दिन का समय लगाकर चौदह सौ रुपये भी मिल जाय तो बुरा क्या है। बेकार ही तो बैठे रहते हैं। इसलिए यह डील स्थायी प्रकृति की हो चुकी थी।

अभी पिछले हफ्ते एक लोकगीत की रिकॉर्डिंग में शामिल होने का उसका नम्बर लगा। शाम को जब चेक लेने की बारी आयी तो कैशियर आदतन उसकी जेब की ओर देखने लगा। मामूल के मुताबिक उसे अपने चेक के लिए आठ सौ रूपये निकालने थे; लेकिन उसकी सुस्ती देखकर कैशियर ने टोका – जल्दी कर भैये, बहुत लोगों को चेक बाँटना है।

-जल्दी तो आपको करनी है भाई साहब, मैं तो कबका झाँझ बजाकर रिकॉर्डिंग पूरी करा चुका हूँ।

-मैंने भी तो कबका चेक तैयार कर लिया है। बस अब फटाफट निपटाओ।

-तो देते क्यों नहीं, देर किस बात की?

-अरे, देर तो तुम कर रहे हो… निकालो हमारा हक दस्तूर!

-यह क्या होता है?

-क्या मजाक कर रहे हो, तुम कोई नये आदमी तो हो नहीं… इतना भी नहीं जानते?

-ओहो…! माफ करिएगा… अब वो बात नहीं हो पाएगी!

-क्यों, चेक नहीं लेना है क्या?

-लेना क्यों नहीं है, लेकिन बिना रिश्वत दिए। हमने अन्ना हजारे से शपथ ली है।

-अन्ना हजारे से…?

-जी हाँ, अब मैं हक दस्तूर के नाम पर रिश्वत नहीं दे सकता।

-अच्छा ले भाई, जब तूने ऐसी शपथ ले ली है तो हम ही क्यों पापी बनें…! आज हम भी कमीशन नहीं लेंगे। ले जाओ भाइयों आज सबको चेक फ्री मिलेगा।

अन्ना रे अन्ना !!!

भक्त : हे भगवान, मेरा प्रोमोशन करवा देना। इक्यावन रुपया का भोग आपके चरणों में रख रहा हूँ।

भगवान : पागल मरवाएगा क्या? अन्ना देख रहा है…।

उपसंहार :  इस हृदय परिवर्तन की घटना के अगले ही दिन उसे एक विश्व बैंक परियोजना (सर्व शिक्षा अभियान) में कंप्यूटर चलाने की संविदा आधारित नौकरी मिल गयी। वह भी बिना कोई रिश्वत दिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

‘निर्वासन’ में स्त्री विमर्श – प्रेमचंद

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      पिछली पोस्ट में मैने वादा किया था कि आपको प्रेमचंद की एक विलक्षण कहानी पढ़वाऊंगा। लीजिए, कहानी पढ़िए जिसका शीर्षक है – निर्वासन। यह पूरी कहानी संवाद शैली में लिखी गयी है। कहानीकार ने अपनी ओर से कुछ भी नहीं बताया है; लेकिन इस बात-चीत से तत्कालीन समाज में स्त्री की नाजुक स्थिति का जैसा चित्र उभर कर आया है वह मन को विदीर्ण कर देता है। हम उस परंपरा को ढो रहे हैं जिसमें अग्निपरीक्षा देने के बावजूद सीता को जंगल में निर्वासित जीवन बिताना पड़ा। आज भी स्थितियाँ बहुत नहीं सुधरी हैं। क्या आधुनिक स्त्री-विमर्श इस मानसिकता को बदल पाएगा?

निर्वासन

कहानी- प्रेमचंद

   परशुराम- वहीं-वहीं, दालान में ठहरो!

   मर्यादा- क्यों, क्या मुझमें कुछ छूत लग गयी?

   परशुराम- पहले यह बताओ तुम इतने दिनों कहाँ रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहाँ किसके साथ आयीं? तब, तब विचार… देखी जायगी।

   मर्यादा- क्या इन बातों के पूछने का यही वक्त है; फिर अवसर न मिलेगा?

   परशुराम- हाँ, यही बात है। तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ ही निकली थीं। मेरे पीछे-पीछे कुछ देर तक आयीं भी; मैं पीछे फिर-फिरकर तुम्हें देखता जाता था, फिर एकाएक तुम कहाँ गायब हो गयीं?

   मर्यादा- तुमने देखा नहीं, नागा साधुओं का एक दल सामने से आ गया। सब आदमी इधर-उधर दौड़ने लगे। मैं भी धक्के में पड़कर जाने किधर चली गयी। जरा भीड़ कम हुई तो तुम्हें ढूँढ़ने लगी। बासू का नाम ले-लेकर पुकारने लगी, पर तुम न दिखायी दिये।

   परशुराम- अच्छा तब?

   मर्यादा- तब मैं एक किनारे बैठकर रोने लगी, कुछ सूझ ही न पड़ता कि कहाँ जाऊँ, किससे कहूँ, आदमियों से डर लगता था। संध्या तक वहीं बैठी रोती रही।

   परशुराम- इतना तूल क्यों देती हो? वहाँ से फिर कहाँ गयीं?

   मर्यादा- संध्या को एक युवक ने आकर मुझसे पूछा, तुम्हारे घर के लोग खो तो नहीं गये हैं? मैंने कहा- हाँ। तब उसने तुम्हारा नाम, पता ठिकाना पूछा। उसने सब एक किताब पर लिख लिया और मुझसे बोला- मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें तुम्हारे घर भेज दूँगा।

   परशुराम- वह आदमी कौन था?

   मर्यादा- वहाँ की सेवा-समिति का स्वयंसेवक था।

   परशुराम- तो तुम उसके साथ हो लीं?

   मर्यादा- और क्या करती ? वह मुझे समिति के कार्यालय में ले गया। वहाँ एक शामियाने में एक लम्बी दाढ़ीवाला मनुष्य बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। वही उन सेवकों का अध्यक्ष था। और भी कितने ही सेवक वहाँ खड़े थे। उसने मेरा पता-ठिकाना रजिस्टर में लिखकर मुझे एक अलग शामियाने में भेज दिया, जहाँ और भी कितनी खोयी हुई स्त्रियाँ बैठी हुई थीं।

   परशुराम- तुमने उसी वक्त अध्यक्ष से क्यों न कहा कि मुझे पहुँचा दीजिए?

   मर्यादा- मैंने एक बार नहीं सैकड़ों बार कहा; लेकिन वह यही कहते रहे, जब तक मेला न खत्म हो जाय और सब खोयी हुई स्त्रियाँ एकत्र न हो जायँ, मैं भेजने का प्रबन्ध नहीं कर सकता। मेरे पास न इतने आदमी हैं, न इतना धन।

   परशुराम- धन की तुम्हें क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज बेच देती तो काफी रुपये मिल जाते।

   मर्यादा- आदमी तो नहीं थे।

   परशुराम- तुमने यह कहा था कि खर्च की कुछ चिंता न कीजिए, मैं अपना गहना बेचकर अदा कर दूँगी?

   मर्यादा- नहीं, यह तो मैंने नहीं कहा।

   परशुराम- तुम्हें उस दशा में भी गहने इतने प्रिय थे?

   मर्यादा- सब स्त्रियाँ कहने लगीं, घबरायी क्यों जाती हो? यहाँ किस बात का डर है। हम सभी जल्द से जल्द अपने घर पहुँचना चाहती हैं; मगर क्या करें? तब मैं भी चुप हो रही।

   परशुराम- और सब स्त्रियाँ कुएँ में गिर पड़तीं तो तुम भी गिर पड़तीं?

   मर्यादा- जानती तो थी कि यह लोग धर्म के नाते मेरी रक्षा कर रहे हैं, कुछ मेरे नौकर या मजूर नहीं हैं, फिर आग्रह किस मुँह से करती? यह बात भी है कि बहुत-सी स्त्रियों को वहाँ देखकर मुझे कुछ तसल्ली हो गयी।

   परशुराम- हाँ, इससे बढ़कर तस्कीन की और क्या बात हो सकती थी? अच्छा, वहाँ कै दिन तस्कीन का आनन्द उठाती रहीं? मेला तो दूसरे ही दिन उठ गया होगा?

   मर्यादा- रात-भर मैं स्त्रियों के साथ उसी शामियाने में रही।

   परशुराम- अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न दिलवा दिया?

   मर्यादा- मैंने समझा, जब यह लोग पहुँचाने को कहते ही हैं तो तार क्यों दूँ?

   परशुराम- खैर, रात को तुम वहीं रहीं। युवक बार-बार भीतर आते-जाते रहे होंगे।

   मर्यादा- केवल एक बार एक सेवक भोजन के लिए पूछने आया था, जब हम सबों ने खाने से इनकार कर दिया तो वह चला गया और फिर कोई न आया। मैं रात-भर जागती ही रही।

   परशुराम- यह मैं कभी न मानूँगा कि इतने युवक वहाँ थे और कोई अंदर न गया होगा। समिति के युवक आकाश के देवता नहीं होते। खैर, वह दाढ़ीवाला अध्यक्ष तो जरूर ही देखभाल करने गया होगा?

   मर्यादा- हाँ, वह आते थे; पर द्वार पर से पूछ-पूछकर लौट जाते थे। हाँ, जब एक महिला के पेट में दर्द होने लगा था तो दो-तीन बार दवाएँ पिलाने आये थे।

   परशुराम- निकली न वही बात! मैं इन धूर्तों की नस-नस पहचानता हूँ। विशेषकर तिलक-मालाधारी दढ़ियलों को मैं गुरुघंटाल ही समझता हूँ। तो वह महाशय कई बार दवाएँ देने गये? क्यों, तुम्हारे पेट में तो दर्द नहीं होने लगा था?

   मर्यादा- तुम एक साधु पर आक्षेप कर रहे हो। वह बेचारे एक तो मेरे बाप के बराबर थे, दूसरे आँखें नीची किये रहने के सिवाय कभी किसी पर सीधी निगाह नहीं करते थे।

   परशुराम- हाँ, वहाँ सब देवता ही देवता जमा थे। खैर, तुम रात-भर वहाँ रहीं। दूसरे दिन क्या हुआ?

   मर्यादा- दूसरे दिन भी वहीं रही। एक स्वयंसेवक हम सब स्त्रियों को साथ लेकर मुख्य-मुख्य पवित्र स्थानों का दर्शन कराने गया। दोपहर को लौट कर सबों ने भोजन किया।

   परशुराम- तो वहाँ तुमने सैर-सपाटा भी खूब किया, कोई कष्ट न होने पाया। भोजन के बाद गाना-बजाना हुआ होगा?

   मर्यादा- गाना-बजाना तो नहीं; हाँ, सब अपना-अपना दुखड़ा रोती रहीं। शाम तक मेला उठ गया तो दो सेवक हम लोगों को लेकर स्टेशन पर आये।

   परशुराम- मगर तुम तो आज सातवें दिन आ रही हो और वह भी अकेली?

   मर्यादा- स्टेशन पर एक दुर्घटना हो गयी।

   परशुराम- हाँ, यह तो मैं समझ ही रहा था। क्या दुर्घटना हुई?

   मर्यादा- जब सेवक टिकट लेने जा रहा था, तो एक आदमी ने आकर उससे कहा- यहाँ गोपीनाथ की धर्मशाला में एक बाबूजी ठहरे हुए हैं, उनकी स्त्री खो गयी है, उनका भला-सा नाम है, गोरे-गोरे लम्बे-से खूबसूरत आदमी हैं, लखनऊ मकान है, झबाई टीले में। तुम्हारा हुलिया उसने ऐसा ठीक बयान किया कि मुझे उस पर विश्वास आ गया। मैं सामने आकर बोली, तुम बाबू जी को जानते हो? वह हँसकर बोला, जानता नहीं हूँ तो तुम्हें तलाश क्यों करता फिरता हूँ। तुम्हारा बच्चा रो-रोकर हलाकान हो रहा है। सब औरतें कहने लगीं, चली जाओ, तुम्हारे स्वामीजी घबरा रहे होंगे। स्वयंसेवक ने उससे दो-चार बातें पूछकर मुझे उसके साथ कर दिया। मुझे क्या मालूम था कि मैं किसी नर-पिशाच के हाथों में पड़ी जाती हूँ। दिल में खुशी थी कि अब बासू को देखूँगी, तुम्हारे दर्शन करूँगी। शायद इसी उत्सुकता ने मुझे असावधान कर दिया।

   परशुराम- तो तुम उस आदमी के साथ चल दीं? वह कौन था?

   मर्यादा- क्या बतलाऊँ कौन था? मैं तो समझती हूँ, कोई दलाल था?

   परशुराम- तुम्हें यह न सूझी कि उससे कहतीं, जाकर बाबूजी को भेज दो?

   मर्यादा- अदिन आते हैं तो बुध्दि भ्रष्ट हो जाती है।

   परशुराम- कोई आ रहा है।

   मर्यादा- मैं गुसलखाने में छिपी जाती हूँ।

   परशुराम- आओ भाभी, क्या अभी सोयी नहीं, दस तो बज गये होंगे।

   भाभी- वासुदेव को देखने को जी चाहता था भैया, क्या सो गया?

   परशुराम- हाँ, वह तो अभी रोते-रोते सो गया है।

   भाभी- कुछ मर्यादा का पता मिला? अब पता मिले तो भी तुम्हारे किस काम की। घर से निकली हुई स्त्रियाँ थान से छूटी हुई घोड़ी है जिसका कुछ भरोसा नहीं।

   परशुराम- कहाँ से कहाँ मैं उसे लेकर नहाने गया।

   भाभी- होनहार है भैया, होनहार! अच्छा तो मैं जाती हूँ।

   मर्यादा- (बाहर आकर) होनहार नहीं है, तुम्हारी चाल है। वासुदेव को प्यार करने के बहाने तुम इस घर पर अधिकार जमाना चाहती हो।

   परशुराम- बको मत! वह दलाल तुम्हें कहाँ ले गया?

   मर्यादा- स्वामी, यह न पूछिए, मुझे कहते लज्जा आती है।

   परशुराम- यहाँ आते तो और भी लज्जा आनी चाहिए थी।

   मर्यादा- मैं परमात्मा को साक्षी देती हूँ, कि मैंने उसे अपना अंग भी स्पर्श नहीं करने दिया।

   परशुराम- उसका हुलिया बयान कर सकती हो?

   मर्यादा- साँवला-सा छोटे डील का आदमी था। नीचा कुरता पहने हुए था।

   परशुराम- गले में ताबीजें भी थीं?

   मर्यादा- हाँ, थीं तो।

   परशुराम- वह धर्मशाले का मेहतर था। मैंने उससे तुम्हारे गुम हो जाने की चर्चा की थी। उस दुष्ट ने उसका वह स्वाँग रचा।

   मर्यादा- मुझे तो वह कोई ब्राह्मण मालूम होता था।

   परशुराम- नहीं मेहतर था। वह तुम्हें अपने घर ले गया?

   मर्यादा- हाँ, उसने मुझे ताँगे पर बैठाया और एक तंग गली में, एक छोटे-से मकान के अंदर ले जाकर बोला, तुम यहीं बैठो, तुम्हारे बाबूजी यहीं आयेंगे। अब मुझे विदित हुआ कि मुझे धोखा दिया गया। रोने लगी। वह आदमी थोड़ी देर के बाद चला गया और एक बुढ़िया आकर मुझे भाँति-भाँति के प्रलोभन देने लगी। सारी रात रोकर काटी। दूसरे दिन दोनों फिर मुझे समझाने लगे कि रो-रोकर जान दे दोगी, मगर यहाँ कोई तुम्हारी मदद को न आयेगा। तुम्हारा एक घर छूट गया। हम तुम्हें उससे कहीं अच्छा घर देंगे जहाँ तुम सोने के कौर खाओगी और सोने से लद जाओगी। जब मैंने देखा कि यहाँ से किसी तरह नहीं निकल सकती तो मैंने कौशल करने का निश्चय किया।

   परशुराम- खैर,सुन चुका। मैं तुम्हारा ही कहना मान लेता हूँ कि तुमने अपने सतीत्व की रक्षा की, पर मेरा हृदय तुमसे घृणा करता है, तुम मेरे लिए फिर वह नहीं हो सकती जो पहले थीं। इस घर में तुम्हारे लिए स्थान नहीं है।

   मर्यादा- स्वामीजी, यह अन्याय न कीजिए, मैं आपकी वही स्त्री हूँ जो पहले थी। सोचिए, मेरी क्या दशा होगी?

   परशुराम- मैं यह सब सोच चुका और निश्चय कर चुका। आज छ: दिन से यही सोच रहा हूँ। तुम जानती हो कि मुझे समाज का भय नहीं है। छूत-विचार को मैंने पहले ही तिलांजलि दे दी, देवी-देवताओं को पहले ही विदा कर चुका; पर जिस स्त्री पर दूसरी निगाहें पड़ चुकीं, जो एक सप्ताह तक न-जाने कहाँ और किस दशा में रही, उसे अंगीकार करना मेरे लिए असम्भव है। अगर यह अन्याय है तो ईश्वर की ओर से है, मेरा दोष नहीं।

   मर्यादा- मेरी विवशता पर आपको जरा भी दया नहीं आती?

   परशुराम- जहाँ घृणा है वहाँ दया कहाँ? मैं अब भी तुम्हारा भरण-पोषण करने को तैयार हूँ। जब तक जीऊँगा, तुम्हें अन्न-वस्त्र का कष्ट न होगा। पर तुम मेरी स्त्री नहीं हो सकतीं।

   मर्यादा- मैं अपने पुत्र का मुँह न देखूँ अगर किसी ने मुझे स्पर्श भी किया हो।

   परशुराम- तुम्हारा किसी अन्य पुरुष के साथ क्षण-भर भी एकांत में रहना तुम्हारे पतिव्रत को नष्ट करने के लिए बहुत है। यह विचित्र बंधन है, रहे तो जन्म-जन्मांतर तक रहे; टूटे तो क्षण-भर में टूट जाय। तुम्हीं बताओ, किसी मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उच्छिष्ट भोजन खिला दिया होता तो तुम मुझे स्वीकार करतीं?

   मर्यादा- वह…वह…तो दूसरी बात है।

   परशुराम- नहीं, एक ही बात है। जहाँ भावों का संबंध है, वहाँ तर्क और न्याय से काम नहीं चलता। यहाँ तक कि अगर कोई कह दे कि तुम्हारे पानी को मेहतर ने छू लिया है तब भी उसे ग्रहण करने से तुम्हें घृणा आयेगी। अपने ही दिल से सोचो कि तुम्हारे साथ न्याय कर रहा हूँ या अन्याय?

   मर्यादा- मैं तुम्हारी छुई हुई चीजें न खाती, तुमसे पृथक् रहती, पर तुम्हें घर से तो न निकाल सकती थी। मुझे इसीलिए न दुत्कार रहे हो कि तुम घर के स्वामी हो और समझते हो कि मैं इसका पालन करता हूँ।

   परशुराम- यह बात नहीं है। मैं इतना नीच नहीं हूँ।

   मर्यादा- तो तुम्हारा यह अंतिम निश्चय है?

   परशुराम- हाँ, अंतिम।

   मर्यादा- जानते हो इसका परिणाम क्या होगा?

   परशुराम- जानता भी हूँ और नहीं भी जानता।

   मर्यादा- मुझे वासुदेव को ले जाने दोगे?

   परशुराम- वासुदेव मेरा पुत्र है।

   मर्यादा- उसे एक बार प्यार कर लेने दोगे?

   परशुराम- अपनी इच्छा से नहीं, तुम्हारी इच्छा हो तो दूर से देख सकती हो।

   मर्यादा तो जाने दो, न देखूँगी। समझ लूँगी कि विधवा भी हूँ और बाँझ भी। चलो मन! अब इस घर में तुम्हारा निबाह नहीं। चलो जहाँ भाग्य ले जाय!

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

लखनऊ में प्रेमचंद और ‘लमही’

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premchandआज प्रेमचंद की जन्मतिथि है। लखनऊ में उनकी याद में अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए। कल भी उनकी कहानियों का मंचन, विचारगोष्ठी, परिचर्चा इत्यादि आकार्यक्रम योजित किये गए। आज के अखबारों में उनकी प्रचुर चर्चा रही। आज उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में रवीन्द्र कालिया जी बोलने आये थे। लगभग उसी समय उनकी धर्मपत्नी ममता कालिया जी सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के सभागार में ‘लमही सम्मान’ ग्रहण कर रही थीं। वर्धा विश्‍वविद्यालय के कुलपति जी ‘लमही सम्मान’ कार्यक्रम में ही आने वाले थे इसलिए मैं भी वहीं चला गया। वहाँ जनसंदेश टाइम्स के संपादक डॉ. सुभाष राय जी मिले। उनके अखबार में प्रेमचंद जी पर सुविचारित संपादकीय आलेख के साथ अन्य संबंधित सामग्रियाँ भी प्रमुखता से छपी थीं जिसे सभागार में निःशुल्क वितरित किया गया। उसे पढ़ते हुए कार्यक्रम में विलम्ब की बात किसी को नहीं खटकी।

इस अखबार के मुखपृ्ष्ठ पर विभूतिनारायण राय का बेबाक आलेख छपा है : नेपथ्य से अब मंच पर आ गया है अपराधी। वरिष्ठ आई.पी.एस. श्री राय लिखते हैं कि –

“पुराने वाले, समाज से वहिष्कृत, पुलिस के डर से जंगलों में भागने वाले अपराधी की जगह अब एक ऐसे अपराधी ने ले ली है जो लक्ज़री गाड़ियों में घूमता है, मोबाइल फोन से अपने शिकार से संपर्क करता है, शहर के बीचोबीच कॉलोनी में रहता है और गाहे-बगाहे आप उसे खुली जीप में फूल मालाओं से लदे जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए समर्थकों के साथ बीच शहर से गुजरते हुए देख सकते हैं। इस अपराधी के पास अकूत धन है, आधुनिकतम हथियार हैं और सबसे बड़ी बात है कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। अब लोग उससे नफरत नहीं करते बल्कि चाहते हैं कि उनके बच्चों में से कोई उस जैसा बने”

पूरा आलेख पठनीय है। इसे ऑनलाइन खोजकर पढ़ा जा सकता है।

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हम यह अखबार पढ़ ही रहे थे कि कार्यक्रम प्रारंभ हो गया। ममता जी (2009) के अलावा वर्ष 2010 का ‘लमही सम्मान’ मशहूर अफ़साना निग़ार साजिद रशीद (अब दिवंगत) साहब को दिया गया। डॉ. श्रुति द्वारा औपचारिक प्रशस्ति वाचन के बाद ममता जी की कहानियों पर चर्चा हुई। प्रतिष्ठित कथाकार और साहित्य संपादक अखिलेश जी (तद्‍भव वाले) ने ममता जी की कहानियों  और उपन्यासों की चर्चा करते हुए उन्हें आधुनिक परिवेश की पूर्वदर्शी लेखिका बताया और उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ा। इनके अपने समय की ‘बोल्ड’ लेखिका होने की बात लगभग सभी वक्ताओं ने दुहरायी। अध्यक्षीय भाषण करते हुए कामतानाथ जी ने तो इनकी एक बहुचर्चित कविता की चार लाइनें सुना डाली जिसमें ‘प्यार’ नामक शब्द के घिसकर चपटा हो जाने की बात की गयी है और इससे आगे बढ़ने की इच्छा खुलेआम व्यक्त की गयी है। कवि नरेश सक्सेना ने भी इनकी प्रशंसा में कविता पढ़ी।

प्रेमचंद के पैतृक गाँव के नाम पर अपनी पत्रिका शुरू करने वाले ‘लमही’ त्रैमासिक के प्रधान संपादक विजय राय ने इस प्रकाशन और सम्मान कार्यक्रम के निहित उद्देश्यों, लक्ष्यों व अबतक की उपलब्धियों पर लिखित आलेख पढ़कर प्रकाश डाला। मंच संचालक डॉ. सुशील सिद्धार्थ ने अन्य औपचारिकताएँ पूरी करायीं।

लगातार प्रशंसा सुनसुनकर उकता चुकी ममता जी जब बोलने आयीं तो अपने भाव छिपा न सकीं। बोलीं- यह बहुत विचित्र स्थिति है जब आपको मंच पर बिठा दिया जाय और एक के बाद एक आपकी तारीफ़ के पुल बाँधे जाय। यह सुनना आसान काम नहीं है। मैं बहुत संकोच का अनुभव कर रही हूँ। फिर उन्होंने जोड़ा कि लेखक की खुराक होती है – उपेक्षा और तिरस्कार। सारा जीवन इसी का अनुभव करते बीतता है। ऐसे में जब कहीं सम्मान मिलने लगता है तो मन में एक अजीब सा संकोच बैठ जाता है।

आगे उन्होंने साहित्य जगत के बड़े पुरस्कारों में होने वाली धाँधली की चर्चा की। कह रही थीं कि वह दिन दूर नहीं जब रात के बारह बजे कोई सरकारी अधिकारी आपका दरवाजा खटखटाएगा और चुपके से दो-तीन लाख का साहित्यिक पुरस्कार गले लगाकर चला जाएगा। दुनिया जान भी नहीं पाएगी कि किसे क्या मिला और क्यों मिला।

आह, ऐसा दिन (या रात?) मेरे घर कब आएगा…?Sad smile

आज मेरी इच्छा तो थी प्रेमचंद की एक विलक्षण कहानी पढ़वाने की, क्योंकि उन्हें याद करने का बेहतरीन तरीका तो उनकी रचनाओं में डूब जाना ही है; लेकिन यही आख्यान लम्बा हो गया है। राम कहानी तो और भी है। लेकिन अब पब्लिश बटन दबाना ही होगा नहीं तो यह जुलाई खाली चली जाएगी। शेष बातों के लिए अब अगली पोस्ट की प्रतीक्षा कीजिए। इसबार बहुत जल्द लौटूंगा !Smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

Hello world!

1 टिप्पणी

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मई के मजे, जून की जन्नत और जुलाई की जुदाई

21 टिप्पणियां

 

इस बार की गर्मी बहुत अच्छे से गुजर गयी। 

  • विदर्भ क्षेत्र की गर्मी भयाक्रांत करने वाली होती है। इस साल भी वर्धा में पारा 49.5 डि.से. तक पहुँच गया था। हम जैसे तराई क्षेत्र वाले के लिए यह लगभग असह्य होता। इसलिए गर्मी तेज होने से पहले ही बच्चों को मार्च की परीक्षा के तत्काल बाद लखनऊ पहुँचा आया था।  पंद्रह मई के बाद अर्जित अवकाश लेकर खुद भी वर्धा से निकल गया।
  • लखनऊ के सुहाने मौसम और प्रायः निर्बाध विद्युत आपूर्ति के बीच ऊमस और गर्मी का प्रकोप अधिक नहीं झेलना पड़ा। बस घर के भीतर सत्यार्थ (४) और वागीशा (१०) यही वादा कराते रहे कि मैं अब उन्हें छोड़कर वर्धा नौकरी करने नहीं जाऊंगा। पत्नी का मन रखने के लिए शासन में जाकर अपने आला हाकिम से मिल आया और अर्जी डाल दी। इसी दौरान कुछ अधिकारी मित्रों से टुकड़े-टुकड़े चर्चा हुई और मोहन बाबू की कहानी की रचना हो गयी।
  • चचेरी बहन की शादी थी। २१ मई को। हम लड़की वाले बाराती बनकर लड़के वालों के शहर बनारस गये। उनलोगों ने ही सारा इन्तजाम कर रखा था। सभी मेहमानों की आव-भगत वर पक्ष ने की। हम लड़की वाले थे लेकिन चिंतामुक्त थे। वे लड़के वाले थे बस इस बात से खुश कि बारात सजाकर गोरखपुर जाने और आने का उनका समय बच गया। काम-धंधे में रुकावट कम होगी। अस्तु सज्जनतावश लड़की के बाप की तरह हाथ जोड़े सबकी कुशल क्षेम लेते रहे। हमने जमकर शादी का लुत्फ़ उठाया और अगले दिन घरवालों के साथ गोरखपुर लौट गये। डॉ.अरविंद मिश्र जी ने पहले ही बता दिया था कि उस दिन वे अन्यत्र किसी दूसरी शादी में व्यस्त रहेंगे इसलिए उनसे मुलाकात न हो सकी।
  • अगले सप्ताह २८ मई को ससुराल में साली की शादी थी। लद-फदकर सपरिवार पहुँचे। वरपक्ष भी हमारे पुराने रिश्ते में था। दोनो तरफ़ से आव-भगत हुई। सास, ससुर, साला, साली, सलहज, साढ़ू, सरपुत, मामा, मामी, मौसी, मौसा, फूआ, फूफा, चाचा, चाची, भैया, भाभी, भतीजा, भतीजी, भान्जा, भान्जी, बहन, बहनोई आदि ढेर सारे रिश्तेदारों व यार-दोस्तों से मिलना हुआ। ये शादी-ब्याह न पड़े तो इन सबसे मुलाकात कहाँ हो पाए…!
  • दोनो शादियों के बीच गाँव जाना हुआ। कई दिनों से बिजली नहीं आ रही थी। पिताजी के सान्निध्य में पाकड़ के पेड़ के नीचे खटिया डाले निखहरे लेटे रहे।  अचानक भंडार कोने (नैऋत्य कोण) से काले भूरे बादल उठे और अंधेरा सा छा गया। धूल भरी आँधी देख चप्पल निकालकर नंगे बदन बाग की ओर दौड़े। आम भदभदाकर गिर रहे थे। दौड़-दौड़कर बीनते रहे। देखते-देखते बोरा भर गया। फिर जोर की बारिश शुरू हुई। झूम-झूमकर भींगते रहे। मानो बचपन लौट आया। इतना भींगे कि ठंड से दाँत बजने लगे। घर लौटे तो अम्मा तौलिया और सूखे कपड़े लेकर खड़ी थीं।
  • एक दिन बाराबंकी जिले की रामनगर तहसील जाना हुआ। nice-फेम ‘सुमन जी’ ने बुला लिया था। डॉ.सुभाष राय और रवीन्द्र प्रभात जी का साथ मिला था। वहाँ तहसील परिसर के सभागार में सुमन जी ने महफिल जमा रखी थी। स्थानीय कविगण काव्यपाठ कर रहे थे। तहसील के तमाम वकील और मुवक्किल व दूसरे बुद्धिजीवी जमा थे। लोक संघर्ष पत्रिका के ताजे अंक का लोकार्पण होना था और रवीन्द्र प्रभात जी का सम्मान। सुभाष जी का भाषण कार्यक्रम की उपलब्धि रही। सुमन जी अपनी पत्रिका के सभी अंको का लोकार्पण हरबार इसी प्रकार किसी बड़े बुद्धिजीवी के हाथों कराते हैं। हमें भी फूलमाला और स्मृति चिह्न से नवाजा गया। nice.
  • लखन‍ऊ लौटकर बच्चों के साथ खूब मौज हुई। डाल के पके आमों की डाली सजाये साले साहब सपरिवार पधारे। घर में बच्चों की संख्या बढ़ गयी। सहारागंज, चिड़ियाघर, भूल-भुलैया, इमामबाड़ा और हजरत गंज की सैर में दिन तेजी से निकल गये। अचानक पता चला कि वर्धा की गाड़ी पकड़ने का दिन आ गया। वाटर-पार्क जाने का मौका ही नहीं मिला। तय हुआ कि उन्हें अगले दिन बच्चों के मामाजी ले जाएंगे।
  • जब बादशाहनगर स्टेशन पर राप्तीसागर एक्सप्रेस में बैठकर वर्धा फोन लगाया तो फरमाइश हुई कि लखन‍ऊ से आ रहे हैं तो आम जरुर लाइए। चारबाग स्टेशन पर गाड़ी से उतरकर मलीहाबादी दशहरी तलाशता रहा, बाहर सड़क तक गया लेकिन रेलवे परिसर के आस-पास से दुकानें नदारद थीं। दौड़ता-हाँफता खाली हाथ वापस अपने डिब्बे तक पहुँचा। गाड़ी चल पड़ी। आम मिले तो कैसे?
  • चलती गाड़ी में अपनी कन्फ़र्म बर्थ पर बैठते ही सबसे पहले यह ध्यान में आया कि यदि मैं ब्लॉगर न होता तो यात्रियों की जबरदस्त आवाजाही के इस व्यस्त सीजन में शायद  वह सीट भी नहीं मिली होती। इस बैठे-ठाले काम से जुड़कर हमें कितने भले लोगों से जुड़ने का मौका मिला यह बड़े सौभाग्य की बात है। हम अपने को गौरवान्वित महसूस कर ही रहे थे कि मन में आम न खरीद पाने की समस्या का समाधान भी कौंध गया। मैने झट फोन मिलाया और अगले स्टेशन पर पाँच किलो दशहरी  के साथ एक मूर्धन्य ब्लॉगर मेरे डिब्बे के सामने अवतरित हो गये। उनका नाम गोपनीय इसलिए रखना चाहता हूँ कि आगे से उनका बोझ न बढ़ जाय। Smile हमने दस मिनट के भीतर पूरी दुनिया की बातें की। कितनी ही त्वरित टिप्पणियाँ की गयीं और तमाम गुटों का हाल-चाल लिया-दिया गया। बातों की रौ में हमने आम का दाम भी पूछना मुनासिब न समझा। उनके स्नेह को मैं किसी प्रकार कम नहीं कर सकता था। 
  • अब वर्धा आ पहुँचा हूँ तो ध्यान आया कि यदि मैंने इस मौज मस्ती के बीच थोड़ा समय कम्प्यूटर पर दिया होता तो अनेक पोस्टें निकल आयी होतीं। लेकिन लम्बे प्रवास के बाद घर लौटने का सुख कुछ ऐसा डुबा देने वाला था कि इस ओर ध्यान ही नहीं गया। अब यह सब ब्लॉग पोस्ट की दृष्टि से कुछ पुराना हो गया है इसलिए उनका उल्लेख भर कर पा रहा हूँ।
  • वर्धा में बारिश का सुहाना मौसम शुरू हो चुका है लेकिन विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस के कमरे में अकेले पड़े रहना रास नही आ रहा है। अभी जुलाई नहीं आयी है लेकिन बच्चों से जुदाई शुरू हो गयी है। सोचता हूँ यहाँ से भाग जाऊँ।Open-mouthed smile

चलते-चलते लखनऊ के चिड़ियाघर से लिया गया यह चित्र लगाता हूँ जो मेरी अनुपस्थिति में रचना त्रिपाठी द्वारा लिया गया था। मैं वहाँ से अनुपस्थित इसलिए था कि वहाँ समीप ही जनसंदेश टाइम्स अखबार का दफ़्तर था ; उसके सम्पादक की कुर्सी पर डॉ. सुभाष राय बिराज रहे थे और वे स्वयं एक ब्लॉगर होने के नाते मुझे बतकही के लिए आमंत्रित कर चुके थे। जब दो ब्लॉगर मिल जाँय तो चिड़ियाघर की भला क्या बिसात…? Smile

तेज धूप में बरगद की छाँव तले आराम करते मृगशावक और बारहसिंगे

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) 

नयी कहानी – मोहन बाबू

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मित्रों,

लम्बे अंतराल के बाद आना हुआ। कुछ संयोग ही ऐसा बन पड़ा कि कोलकाता यात्रा का फल अधर में अटक गया और हमारी ब्लॉगरी भी मद्धम पड़ गयी। फिल्म अभिनेता उत्तम कुमार जी की पत्नी सुप्रिया जी का जो मकान हम क्षेत्रीय केंद्र के लिए पसन्द कर आये थे उसे ज्यादा किराया देकर किसी बैंक ने हथिया लिया। हमारी मेहनत व्यर्थ हो गयी।

पिछली पोस्ट में जो चित्र पहेली पूछी गयी थी उसका सही जवाब कोलकाता वासी मनोज कुमार जी ने दे दिया था। उम्मीद के मुताबिक ही कुछ लोग गलत लेकिन बेहद रोचक जवाब के साथ भी आये। वैसे तो हम गर्मियों में काले पके हुए जामुन का फल सीधे पेड़ से तोड़कर खाने का मजा ले चुके हैं लेकिन मुझे यह फल इस रूप में पहली बार कोलकाता में ही देखने को मिला। कौतूहलवश मैने इसे सौ रूपये किलो की दर से खरीद तो लिया लेकिन इसे मेज पर सजाने और फोटू खींचने में ही अच्छा लगा। खाने में तो यह बिल्कुल बेस्वाद और फीका ही था। अलबत्ता इसमें बीज नहीं होने से इसे बुजुर्गों और बिना दाँत वालों को आसानी से खिलाया जा सकता है।

080520111145जी हाँ, यह जामुन का फल है जो मुझे कोलकाता में मिला 080520111146इसमें कोई बीज नहीं है, न ही कोई स्वाद या मिठास ही

 

पिछली रामकहानी को यहीं विराम देते हुए आज पेश कर रहा हूँ बिल्कुल ताजी लिखी कहानी। इतना बताता चलूँ कि इस कहानी के पात्र मेरी कल्पना की उपज हैं। यदि कोई वास्तविक घटना या किसी व्यक्ति की कहानी इससे मिलती-जुलती पायी जाय तो इसे मात्र संयोग समझा जाय।

कहानी
मोहन बाबू

राम मोहन सक्सेना के भाग्य को सराहने वालों की कमी नहीं थी। वे थे तो राज्य सरकार के आबकारी महकमें के एक अदने से मुलाजिम लेकिन इस छोटी सी नौकरी से उन्होंने काफी अच्छी हैसियत बना ली थी। उनके दोनो बेटे अपनी पढ़ाई में अव्वल रहे और इन्जीनियरिंग कॉलेज से निकलकर बड़ी कंपनियों में मोटा पैकेज पा चुके थे। बड़े बेटे ने तो अमेरिका जाकर एम.बी.ए. कोर्स पूरा किया और अपनी कंपनी का सी.ई.ओ. हो गया था। बेटियों ने मेडिकल की पढ़ाई की। एम.बी.बी.एस. पूरा कराने के बाद मोहन बाबू ने उनकी पसंद की शादी कर दी। बड़ा दामाद जर्मनी में सरकारी मेडिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट में ज्वाइंट डाइरेक्टर था और छोटा दामाद आस्ट्रेलिया में सिविल सर्जन था।

जब छोटे बेटे प्रशांत ने विदेशी नौकरी के बजाय भारत में ही विप्रो की नौकरी चुनी तो पूरे स्टाफ ने मोहन बाबू को बधाई दी। माँ-बाप की देख-भाल के लिए बेटे द्वारा किये गये इस त्याग की सर्वत्र सराहना हुई।

आबकारी दफ़्तर में मोहन बाबू बड़ा से बड़ा काम भी अपनी लगन और सूझ-बू्झ से आसान बना देते। उन्होंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया। सबसे बड़ी विनम्रता से मिलते, उच्चाधिकारियों के आगे हाथ जोड़े रहते।  दफ़्तर में चारो ओर उनकी पूछ थी। मंत्री जी का दौरा हो या कलेक्टर साहब के घर होली की पार्टी हो, बड़े साहब लोगों के घर शादी-ब्याह में रंग जमाने का इन्तजाम करना हो या विभागीय समीक्षा बैठक में लक्ष्यों की पूर्ति का आँकड़ा तैयार करना हो, मोहन बाबू को ऐसा कोई भी काम सौंपकर अधिकारी आश्वस्त हो जाते कि विभाग की इज्जत रह जाएगी। वे हर काम इतनी चतुराई से करते कि विभाग की धाक तो जमती ही, खर्चा-पानी में से काफी कुछ बचा भी लेते। हर ठेकेदार मोहन बाबू के इशारे की ताक में रहता। रहे भी क्यों न, साहब लोग किसी भी फाइल का निपटारा उनकी राय के बिना नहीं करते थे। विभाग में नियुक्त आबकारी इन्स्पेक्टर मनचाहा हल्का पाने के लिए मोहन बाबू को ही खुश करने की जुगत भिड़ाते रहते। उनकी व्यवहार कुशलता और काबिलियत के कारण मंत्री जी भी उन्हें बखूबी पहचानने लगे थे। मोहन बाबू इस नजदीकी का फायदा भी मौके-बेमौके उठा लेते।

इन्ही जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए मोहन बाबू ने राजधानी के सबसे विकसित (पौश) इलाके में एक आलीशान महलनुमा घर खड़ा कर लिया था। शहर और गाँव में अनेक जमीनें खरीद डालीं। कितनों को नौकरी दिलवायी, ठेके में लगवाया। समृद्धि के सभी साधन जुटा लिए। जब मोहन बाबू की पत्नी कैंसर का शिकार होकर असमय चल बसीं तो उनके अंतिम संस्कार में पूरा शहर उमड़ पड़ा। जाने कितने मंत्री, विधायक, आइ.ए.एस. और पी.सी.एस. अफसर उनकी मातमपुर्सी में आये। बारह-तेरह दिन तक लाल-नीली बत्ती वाली गाड़ियों का आना-जाना लगा रहा। मोहन बाबू का संपर्क कितना विस्तृत और कितना प्रभावशाली था यह पहली बार सबके सामने प्रकट हो रहा था। विदेश से बड़ा बेटा सपरिवार आया था। अमेरिकन बहू और उसके सफ़ेद बालों वाले बच्चे सबकी विस्मृत निगाहों के केंद्र में थे। दोनो बेटियाँ भी अपने-अपने पति व बच्चों के साथ आयीं थीं। इन सबकी आव-भगत में दफ़्तर का अमला और छोटा बेटा प्रशांत लगा रहा। पहली बार पूरा घर भरा हुआ था। सबने खूब तस्वीरें खींचीं, वीडियो बनायी और तेरहवीं बीत जाने के बाद सभी अपने-अपने देश काम पर लौट गये।

मोहन बाबू ने भौतिक संसार की सभी सहूलियतें अपनी मेहनत और चतुराई से अर्जित कर ली थीं। यद्यपि मधुमेह, रक्तचाप और हृदयरोग की परेशानी नौकरी के अंतिम वर्षों में शुरू हो गयी थी, फिर भी वे सफलतापूर्वक सेवारत रहने के बाद अपनी अधिवर्षता आयु पूरी करके धूमधाम से सेवानिवृत्त हुए।

mohan babuविदाई समारोह में विभागीय सहकर्मियों ने मोहन बाबू को गुलाब और गेंदें की फूलमालाओं से लाद दिया। अधिकारियों ने इन्हें खूब सराहा और भविष्य का जीवन सुखमय और सानंद होने की शुभकामनाएँ दीं। जब सभी बोल चुके तो अंत में कार्यक्रम के संचालक और कर्मचारी संघ के अध्यक्ष ने मोहन बाबू से आशीर्वाद स्वरूप दो शब्द बोलने और अपने अनुभव के आधार पर छोटे भाइयों का मार्गदर्शन करने का अनुरोध किया। माइक पर मोहन बाबू ने भावुक भाषण दिया। सरकारी सेवा में अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, सच्चाई, ईमानदारी, और विनम्रता के महत्व पर प्रकाश डाला और यह कहते हुए लगभग रो पड़े कि कल से जब मैं दफ़्तर आने के बजाय घर पर अकेला बैठ रहूँगा तो जीवन शायद बहुत कठिन हो जाएगा। लोगों ने उन्हें ढाँढस बँधाया और जरूरत पड़ने पर किसी को भी याद कर लेने की सलाह दी। मन बहलाने के लिए जब जी चाहे दफ़्तर आ जाने को कहा। चलते-चलते भेंट स्वरूप लाल कपड़े में लपेटकर गीता की पुस्तक व नक्काशीदार पॉलिश की हुई चमचमाती छड़ी दी गयी और रेशमी शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया। उन्हें विभागीय कार से घर तक छोड़ा गया। कार के बोनट पर सैकड़ों फूलमालाएँ लाद दी गयीं थी।

पिता की सेवानिवृत्ति की खबर पाकर बेटियों ने फोन पर ‘विश’ किया। बड़े बेटे को वीक-एंड में फुर्सत मिली तो अमेरिका से एक घंटे तक बात करता रहा। उसने अपनी पत्नी और बच्चों से भी बात कराया। सबने ‘कांग्रेट्स’ और ‘टेक-केयर’ कहा। प्रशांत ने भी बंगलुरू से लखनऊ का बिजनेस टूर बनाया और पिता को अपनी सेहत का ख्याल रखने और फोन पर बात करते रहने की ताकीद कर गया। कंपनी में रिसेसन की वजह से छँटनी की कार्यवाही की संभावना की चर्चा की और जल्दी ही इस बारे में डिटेल में बात करने का वादा करके वापस चला गया। मोहन बाबू अपने आलीशान बंगले में अकेले रह गये।

नौकरानी समय से आती और झाड़ू-बुहारू करके व खाना बनाकर ढककर चली जाती। मोहन बाबू सुबह उठकर पार्क में टहलने जाते और दिनभर बेटे-बेटियों के फोन का इन्तजार करते और अखबार पढ़ते। समय के साथ फोन काल्स की आवृत्ति घटती जाती। सबकी अपनी-अपनी व्यस्तता थी जो लगातार बढ़ती जा रही थी। इसी बीच एक दिन प्रशांत ने फोन पर बताया कि उसकी विप्रो से छुट्टी हो गयी है और वह कनाडा की एक कंपनी में सीनियर सॉफ़्टवेयर एनलिस्ट के बड़े पैकेज पर ज्वाइन करने के लिए टोरंटो की फ्लाइट पकड़ने जा रहा है। सबकुछ इतना जल्दी हुआ कि उसे सोचने और बताने का मौका ही नहीं मिला। अभी वह अकेले जा रहा है। सब कुछ ठीक रहा तो तीन महीने बाद पत्नी और बच्चे को भी ले जाएगा। तबतक वे बंगलुरू में कंपनी के फ़्लैट में ही रह लेंगे।

तीन महीने बाद प्रशांत एक दिन के लिए अपनी पत्नी और दो साल के बच्चे के साथ आया और पिता को ढाढस बँधाकर कनाडा चला गया। उसने यह कहा कि जब भी कोई जरूरत हो वे निस्संकोच उसे फोन करके बता दें। वह हर संभव कोशिश करके उनकी मदद करेगा। उधर प्रशांत कनाडा पहुँचा और इधर मोहन बाबू बीमार रहने लगे। इनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी इसलिए इलाज कराते रहे। बेटों को इसकी खबर नहीं होने दी। फोन पर बातचीत का सिलसिला दैनिक से साप्ताहिक और फिर पाक्षिक स्तर पर चला गया। आत्मीयता का स्थान औपचारिकता लेती गयी। बड़े बेटे से तो महीने में एकाध बार ही बात हो पाती।

इसी बीच एक घटना ने मोहन बाबू को हिला दिया। उनके पड़ोस में अकेले रह रहे एक सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी की रहस्यमय मौत घर के भीतर हो गयी थी और इसका पता तब चला जब उनकी लाश की बदबू अड़ोस-पड़ोस तक फैलने लगी। इस बात की आशंका जतायी गयी कि उनकी हत्या घर के नौकर ने ही कर दी थी। विदेश में रह रहे बेटों को अपने पिता के अंतिम दर्शन का अवसर भी नहीं मिला था। एक एन.जी.ओ. द्वारा उनका अंतिम क्रिया-कर्म किया गया। बेटे उनका अस्थि-कलश लेने के लिए ही पहुँच सके थे। मोहन बाबू ने जब दबी जुबान से इस घटना की जानकारी अपने छोटे बेटे को दी तो उसने फौरन इंटरनेट से शहर में उपलब्ध ‘ओल्ड-एज-होम’ सर्च किया और ऑनलाइन बुकिंग करते हुए सबसे मंहगी सुविधाओं से लैस वृद्धाश्रम में मोहन बाबू को शिफ़्ट करा दिया।

अब मोहन बाबू की देखभाल प्रशिक्षित नर्सों के हाथ से होने लगी। विशेषज्ञ चिकित्सक डॉ.मिश्रा रुटीन चेक-अप करते और खान-पान की व्यवस्था भी विशेषज्ञ परामर्श के अनुसार की जाने लगी। इन सबके बावजूद मोहन बाबू की सेहत सुधरने का नाम नहीं ले रही थी। वे फोन पर प्रशांत से अपनी तकलीफ़ बताने से परहेज करते। प्रशांत की कम्पनी पहले मुश्किल दौर से गुजर रही थी लेकिन इसके काम सम्भालने के बाद उसकी स्थिति सुधरने लगी थी। प्रबंध-तंत्र उसपर बहुत प्रसन्न था और तरक्की की लालच देकर उससे दोगुनी मेहनत करा रहा था। उसने दिन-रात मेहनत कर अपनी स्थिति मजबूत करने की धुन में पिता की बातों में छिपे दर्द को अनसुना कर दिया। उनकी देखभाल कर रहे डॉ.मिश्रा से पूछकर अच्छी से अच्छी दवाएँ चलाते रहने का अनुरोध करता और पैसे की चिन्ता न करने की बात कहता। पैसे की कमी तो वहाँ वैसे भी नहीं थी।

अंततः मोहन बाबू ने बिस्तर पकड़ लिया। साँस मद्धम पड़ने लगी। जीवन रक्षक उपकरण लगा दिए गये। वेन्टीलेटर लग गया। कृत्रिम ऑक्सीजन दी जाने लगी। नियमित डायलिसिस होती रही। प्रशांत लगातार डॉ.मिश्रा से हाल-चाल लेता रहा। एक दिन डॉ.मिश्रा ने बताया कि अब आखिरी समय नजदीक आ गया है। सभी उपाय आजमाये जा चुके हैं लेकिन सुधार नहीं हो रहा है। सभी इंद्रियाँ शिथिल पड़ गयी हैं। मोहन बाबू अधिक से अधिक दो सप्ताह के मेहमान हैं। प्रशांत ने अपने कंपनी मालिकों से बताया- पिता के जीवन के आखिरी पंद्रह दिन उनके साथ रहने के लिए और अगले पंद्रह दिन अंतिम क्रिया-कर्म के लिए चाहिए थे। प्रबंधन ने एक महीने की छुट्टी मंजूर कर दी। प्रशांत स्वदेश पिता को देखने चल दिए।

जूते बाहर निकाल आई.सी.यू. का दरवाजा खोलकर प्रशांत ने भीतर प्रवेश किया तो मोहन बाबू आँखें बंद किए बेसुध पड़े थे। इन्होंने धीरे से ‘पापा’ ‘पापा’ की आवाज लगायी। मोहन बाबू के हाथों में हरकत हुई। फिर उन्होंने धीरे से आँखे खोली। सामने बेटे को देखकर आँखों में अजीब चमक लौट आयी। उन्होंने आशीर्वाद में हाथ उठाने की चेष्टा की लेकिन ज्यादा सफल नहीं हुए। हाथ जरा सा उठने के बाद एक ओर लुढ़क गया। बेटे ने उनका हाथ थाम लिया। थोड़ी ही देर में उन्होंने इशारे से बैठने की इच्छा व्यक्त की। नर्स की मदद से प्रशांत ने बिस्तर में लगे हाइड्रॉलिक सिस्टम का प्रयोगकर बिस्तर एक ओर से उठा दिया। अब मोहन बाबू के शरीर में हरकत लौट आयी थी। वे बोल नहीं पा रहे थे लेकिन उनकी सजल आँखे चिल्ला-चिल्लाकर बता रही थीं कि बेटे के पास बैठना उनके लिए सबसे बड़ी दवा थी। डॉ. मिश्रा ने खिड़की से जब यह चमत्कार देखा तो सामने टंगे कैलेंडर पर सिर झुकाए बिना न रह सके।

एक सप्ताह बाद मोहन बाबू उठ खड़े हुए और दूसरे सप्ताह का अंत आते-आते बेटे के साथ पार्क तक टहलने लगे। दवाएँ अब अपना असर दिखाने लगीं थीं। प्रशांत को आये पच्चीस दिन हो गये थे। शाम को दोनो टहलने के बाद पार्क में लगी बेंच पर बैठकर आपस में बातें कर रहे थे। तभी मोबाइल की घंटी बजी। कनाडा से प्रशांत के बॉस का फोन था-

हेलो सर… गुड मॉर्निंग टु यू…

नो सर, हियर इट्ज़ इवनिंग, …वेरी गुड वेथर इन डीड

नो सर, दैट्स नॉट द केस… थिंग्स अर नॉट गोइंग माइ वे…

नो सर, आई मे नॉट बी फ्री बाई दिस वीक एन्ड… आई ऐम एक्ट्रीम्ली सॉरी सर…

नो, नो, ही इज़ स्टिल एलाइव सर, आइ कांट हेल्प… आइ ऐम सॉरी

येस सर, इ्ट हैज़ सरप्राइज़्ड मी टू सर… डॉ.मिश्रा इज़ आलसो परटर्ब्ड, ही सेड इट वाज़ ए गॉन केस बट…

येस सर, इट्ज़ अनफॉर्चुनेट फ़ॉर मी टू. आइ एम इक्वली कन्सर्न्ड विथ आवर कम्पनीज़ इन्टरेस्ट्स सर…

इसके बाद प्रशांत बेंच पर से उठकर थोड़ी दूर चला गया। अपने बॉस को समझाता रहा कि कैसे उसकी योजना फेल हो गयी। पिता के रोग ने उसे ‘धोखा’ दे दिया। यह भी कि वह उन्हें समझाने की कोशिश करेगा कि वह एक महीने से ज्यादा कतई नहीं रुक सकता। उसका हाव-भाव यह बता रहा था कि बॉस बेहद नाराज है और प्रशांत उससे गिड़गिड़ा रहा है।

बार-बार ‘सॉरी’ और ‘आइ विल ट्राई’ की आवाज मोहन बाबू के कानों तक पड़ती रही। अचानक उन्हें सीने में दर्द महसूस हुआ और जोर की हिचकी आयी। प्रशांत जब आधे घंटे बाद माथे पर पसीना पोंछते बेंच की ओर वापस लौटा तो मोहन बाबू का सिर एक ओर लुढक गया था और शरीर ठंडा पड़ चुका था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

कोलकाता यात्रा का फल

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महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के लिए एक किराये का मकान खोजने के लिए हम कोलकाता गये थे। जी हाँ, वर्धा (महाराष्ट्र) में खुले इस विश्वविद्यालय का एक क्षेत्रीय केंद्र इलाहाबाद में तथा एक कोलकाता में खोले जाने हेतु केंद्र सरकार की ओर से इस साल अनुदान की घोषणा वित्त मंत्री के बजट भाषण में की गयी थी। इस स्वीकृति की प्रत्याशा में इलाहाबाद केंद्र तो दो साल पहले ही प्रारंभ कर दिया गया था; लेकिन इस साल अब कोलकाता में  भी वर्धा ने दस्तक दे दी है।

कोलकाता जाने पर हमें सबसे पहले इस बात की खुशी हुई कि शिव कुमार मिश्र जी से भेंट होने वाली थी। सूचना पाते ही वे ढाकुरिया ब्रिज के पास स्थित आइ.सी.एस.आर. के गेस्ट हाउस आ गये। यूँ तो इंटरनेट पर ब्‍लॉगजगत में उनका जो ऊँचा कद दिखायी देता है वह उनकी  जोरदार लेखनी से संबंध रखता है। लेकिन कोलकाता में मेरे प्रत्यक्ष जब वे आये तो मुझे उनका शारीरिक कद देखकर अपने मन में बनी उनकी तस्वीर को रिवाइज़ करना पड़ा। मैने पता नहीं कैसे उनकी जो तस्वीर मन में बना रखी थी वह एक शानदार व्यंग्यकार ब्‍लॉगर की तो थी लेकिन एक लंबे कद वाले आदमी की नहीं थी।

हम देर तक बातें करते रहे। गेस्ट हाउस वालों ने चाय की आपूर्ति में पर्याप्त विलम्ब किया लेकिन हम उससे परेशान दिखते हुए भी मन ही मन खुश हुए जा रहे थे कि इसी बहाने कुछ देर तक साथ बैठने को मिलेगा।

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अंततः हमें बताया गया कि एक मकान देखने जाने के लिए गाड़ी आ गयी है और ‘खोजी समिति’ के बाकी सदस्य तैयार हो चुके हैं तो हम इस वादे के साथ उठे कि अगले दिन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर पर आयोजित सेमिनार के उद्‌घाटन में फिर मिलेंगे। अगले दिन हम मिले और दिनभर उस विलक्षण सेमिनार में विद्वान वक्ताओं को सुनते रहे। सबकुछ इतना रोचक था कि शिव जी  को अपने ऑफिस जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। वे तो प्रो.गंगा प्रसाद विमल को सुनने के लिए अगले दिन भी आने का वादा करके गये लेकिन शायद कुछ लिखने-पढ़ने में व्यस्त हो गये।

हमने कोलकाता में आने से पहले ही यहाँ के दो अखबारों में इस आशय का विज्ञापन प्रकाशित कराया था  कि क्षेत्रीय केंद्र खोलने के लिए किराये के भवन की आवश्यकता है। इच्छुक भवन स्वामी संपर्क करें। इसके नतीजे में चार लोगों ने पत्र भेजकर मकान देने का प्रस्ताव दिया था। जब हम इन लोगों से मिले तो पता चला कि असली भवन स्वामी को पता ही नहीं है कि उनके भवन को किराये पर दिये जाने की बात हमसे चल रही है। जिनलोगों ने हमसे सम्पर्क किया था वे सभी कमीशन एजेंट निकले जिसे आमतौर पर दलाल या ब्रोकर के रूप में ख्याति प्राप्त है। इन सबने मिलकर हमें खूब टहलाया। एक से एक विशाल भवनों में ले गये और खाली हिस्सों को दिखाया। एक नौ मंजिला भवन तो ऐसा था जिसमें एक लाख साठ हजार वर्गफीट कार्पेट एरिया होना बताया गया। एक-एक फ्लोर इतना बड़ा था कि 20-T मैच हो जाये। लेकिन किराया सुनकर हम भाग खड़े हुए।  उस बिल्डिंग से  इस बिल्डिंग और इस मंजिल से उस मंजिल जाते-आते हमारा थकान से बुरा हाल हो गया; लेकिन काम    लायक जगह नहीं मिली। कोलकाता में किरायेदारी इतनी महंगी होगी इसका हमें अंदाज  ही नहीं था।

अगले दिन हमारे खोजी दल के एक सदस्य और कोलकाता केंद्र  के प्रभारी पद पर तैनात किये गये डॉ. कृपाशंकर चौबे जी ने हमें महाश्वेता देवी से मिलवाया। आदिवासियों की सेवा और संरक्षण में अपना जीवन तपा देने वाली महाश्वेता जी को देखकर हमारे लिए समय थोड़ीदेर के लिए रुक सा गया। इतने बड़े-बड़े पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित जिस व्यक्ति से हम मिल रहे थे वे सादगी व सरलता की प्रतिमूर्ति बनी एक टेबल लैंप की रोशनी में किताबों के बीच डूबी हुई मिलीं और हम उन्हें अपनी नंगी आँखों से प्रत्यक्ष देख रहे थे। कोई बनावटीपन नहीं था उस घर में। कृपा जी उनके मुँहलगे से जान पड़े।  दूध वाली चाय मांगने लगे; बल्कि जिद करने लगे लेकिन मिली काली चाय ही। उतनी देर को दूध भला कहाँ से आता! कृपा जी बताने लगे कि कैसे एक बार दिल्ली में महाश्वेता जी से मिलने एक्सप्रेस समूह में सम्पादक बने अरुण शौरी और राजेन्द्र माथुर के साथ वे उनके घरपर गये। वहाँ आदिवासियों को बाँटने  के लिए बोरों में तमाम जीवनोपयोगी सामग्री  भरी जा रही  थी। सामान अधिक था और भरने वाले आदमी कम थे। दीदी ने इन लोगों को भी बोरा भरने पर लगा दिया। कुछ ही देर में जब ये पसीना-पसीना हो गये तो बोले-दीदी काम पूरा हो गया। इसपर दीदी ने कुछ और बोरे और सामान मंगा दिये। थोड़ी देर बाद बताया गया कि इन पत्रकार सम्पादकों को वापस फ्लाइट पकड़ने जाना है तो दीदी ने उनकी वहीं से छुट्टी कर दी। मतलब  आदिवासियों के लिए बोरा भरे जाने से अधिक महत्वपूर्ण कोई काम ही नहीं सूझा था इन्हें।

कोलकाता केंद्र के लिए किराये के मकान की समस्या महाश्वेता जी से बतायी गयी। उन्होंने तत्काल फोन उठाया और एक-दो जगह बात की। अगले दिन साढ़े दस बजे एक फ़्लैट देखने का कार्यक्रम तय हो गया।

अगले दिन हम जहाँ गये वह फिल्म अभिनेता स्व. उत्तम कुमार का घर था। बांग्ला फिल्मों के सुपर स्टार जिन्होंने हिंदी में भी  कुछ यादगार फ़िल्में   की थी; जैसे-अमानुष। उनकी पत्नी भी बांग्‍ला फिल्मों की मशहूर हिरोइन हुआ करती थीं। नाम था सुप्रिया मुखर्जी। इन्हीं सुप्रिया जी से हमारी भेंट हुई वहाँ। उत्तम कुमार जी के   भांजे और स्वयं एक अभिनेता जय मुखर्जी भी हमें मिले। उनसे बात हुई तो लगा कि इस शानदार अपार्टमेंट में हमारा केंद्र स्थापित हो सकता है। शर्त बस यह है कि कोलकाता नगर निगम इस रिहायशी मकान का प्रयोग  शैक्षणिक गतिविधियों के लिए करने का लाइसेन्स दे दे। भारतीय भाषा परिषद के भवन से सटा हुआ यह भवन निश्चित रूप से हिंदी विश्वविद्यालय की गतिविधियों के लिए सर्वथा अनुकूल है। सुप्रिया जी की अवस्था अस्सी से ऊपर की हो चुकी है लेकिन उनके चेहरे पर वह स्मित मुस्कान अभी भी पहचानी जा सकती थी जो उनके ड्राइंग रूम में लगी पुरानी फिल्मी तस्वीरों   में उनके चेहरे पर फब रही थी। हमने वहाँ जा कर अपने को धन्य महसूस किया। अलबत्ता संकोच के  मारे हम उनकी तस्वीरें नहीं ले सके जिसकी इच्छा हमें लगातार होती रही।

कोलकाता यात्रा में हमें ऐसा फल प्राप्त होगा इसकी तो हमने कल्पना तक नहीं की थी। जब चले थे तो बहुत कुछ देखने और घूमने का मंसूबा बनाया था लेकिन एक अदद मकान की खोज और सेमिनार में शिरकत के अलावा कहीं आने जाने का मौका ही नहीं मिला। फिर भी हम खुशी-खुशी लौट आये। जितना मिला वह भी कम नहीं है।

लगे हाथों एक चित्र पहेली भी पूछ लेता हूँ। इसके बारे में मैं भी कुछ खास नहीं जानता हूँ। आप में से कोई जानता होगा तो जरूर बतायेगा यही उम्मीद है। तो बताइए यह क्या है जो एक खड़ा और एक औंधा पड़ा है-

 guess-what

यदि कोई इतना भी नहीं बता पाया जितना मैं जानता हूँ तो अगली पोस्ट में उतना मैं बता दूंगा। धन्यवाद।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

कविता बहुत कठिन कर्म है : आलोकधन्वा

22 टिप्पणियां

alokdhanwa-jiकवि आलोकधन्वा वर्धा विश्वविद्यालय में जब ‘राइटर इन रेजीडेन्स’ के रूप में आये तो सबको उम्मीद हुई कि अब ‘दद्दा’ अपनी वर्षों से बंद पड़ी कलम में नयी स्याही डालेंगे। कुछ और सादे कागजों में अपनी कविता का रंग भरकर उन्हें हमेशा के लिए सहेजकर रखने लायक बना देंगे। विश्वविद्यालय के फादर कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास (गेस्ट हाउस) में उनके साहचर्य का सुख भोग रहे शिक्षकों व अन्य अंतर्वासियों को जब ख्यातिलब्ध कवि जी अपने तरह-तरह के अनुभव अत्यंत रोचक शैली में सुनाते; अपने प्रेम के बारे में, अपने विलक्षण विवाह के बारे में और फिर उससे उत्पन्न विछोह के बारे में बताते हुए जब वे अपने से दूर चली गयी पत्नी की तस्वीर अपने पर्स से निकालकर दिखाते; और परिसर की सड़कों पर चहलकदमी करते हुए देर रात तक देश-दुनिया की तमाम बातों की चर्चा करते रहते तो यह सहज ही था कि हम सभी उनसे यह उम्मीद लगा बैठते कि वे हिंदी साहित्य जगत को नये सिरे से कुछ अनमोल भेंट देने वाले हैं।

अपनी एक मात्र काव्य पुस्तक में छपी कुल जमा इकतालीस (41) कविताओं से ही आलोकधन्वा ने गम्भीर काव्यप्रेमियों के बीच ऐसा स्थान बना लिया जो बिरलों को ही नसीब होता है। पूरी दुनिया में चर्चित और अनेक भाषाओं में अनूदित उनकी कविताएँ एक दौर में देश के पढ़े-लिखे नौजवानों के दिलो-दिमाग पर छायी रहती थीं और व्यवस्था के प्रति रोष से उत्पन्न आंदोलनों में प्रेरक क्रांतिगीत के रूप में समूहों द्वारा पढ़ी जाती थीं।  आज भी इन कविताओं का महत्व कम नहीं हुआ है।

alokdhanwa-happyइस दौरान विश्वविद्यालय द्वारा अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियाँ आयोजित होती रहीं और उनमें इन्होंने लगातार अपनी ओजस्वी और बेलाग बातें प्रभावी ढंग से रखी। सभागारों में आलोकधन्वा के वक्तव्य खूब तालियाँ बटोरते रहे। लोग उनकी बातों पर बहस-मुबाहिसा करते रहे। कंप्यूटर और इंटरनेट की एबीसीडी से भी अनभिज्ञ रहने वाले कवि आलोकधन्वा ने जब ‘चिठ्ठाकारी की आचारसंहिता’ विषयक राष्ट्रीय सेमीनार में अपनी बात रखी तो सबसे अधिक तालियाँ उनके हिस्से में ही आयीं। सभी भौचक होकर देख रहे थे- जब उन्होंने इस माध्यम की तुलना रेलगाड़ी के ईजाद से कर डाली और बोले कि जब पहली बार रेल चलना शुरू हुई तो लोग उसपर बैठने से डरते थे- इस आशंका में कि पता नहीं एक बार चल पड़ने के बाद यह रुक भी पाएगी या नहीं। तमाम डरावनी बातें इस सवारी को लेकर उठती रहीं। लेकिन समय के साथ इसका उपयोग बढ़ा और आज हम इसके बिना सामान्य जीवन की कल्पना नहीं कर सकते।

लेकिन कवि आलोकधन्वा की पहचान तो उनकी कविता है न! सभी उनसे कुछ नये प्रतिमान गढ़ती कविता की आस लगाये रहे। फरमाइशें बढ़ती रहीं और फिर ‘तगादे’ का रूप लेती गयीं।

आखिरकार उन्होंने बड़े मनोयोग से लिखी चार कविताएँ विश्वविद्यालय की साहित्यिक पत्रिका ‘बहुवचन’ को प्रकाशन के लिए उपलब्ध करायीं। पत्रिका छपकर आयी तो चारो ओर इन कविताओं की ही चर्चा होने लगी। सभी अपनी-अपनी राय देने लगे। सबको अलग-अलग कविताएँ पसन्द आयीं। एक समय में `गोली दागो पोस्टर’, `ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और `जनता का आदमी’ सरीखी कालजयी क्रांतिकारी कविताएँ लिखकर मशहूर होने वाले कवि ने जब नये समय में दूरस्थ प्रेयसी से मुलाकात की आतुरता बयान करती, गाय व बछड़े के ऊपर भावुक बातें करती और आम के बाग़ पर लुभावनी रसपान कराती कविता लिखी हैं तो आभास होता है कि समय के साथ व्यक्ति का कैनवास कैसे बदल जाता है। मानव मन कैसे-कैसे करवट लेता है और उसके निजी अनुभव उसकी वैचारिक प्राथमिकताओं को कैसे बदल देते हैं। कविमन की स्वतंत्रता और उदात्तता दोनो ही के दर्शन इनकी इन कविताओं में होते हैं।

alok-dhanwaमैने अनुरोध किया कि इन चारो कविताओं को इंटरनेट के पाठकों के लिए उपलब्ध कराने की अनुमति दीजिए। वे सहर्ष तैयार हो गये- इस शर्त पर कि उन्हें हूबहू किताब जैसे फॉर्मैट में देना होगा। मैने उन्हें विश्वास दिलाना चाहा तो भी उन्हें संतोष न हुआ। स्वयं ‘बहुबचन’ लेकर मेरे लैपटॉप के सामने बैठ गये। एक-एक हिज्जे को लाइन दर लाइन पत्रिका से मिलाते रहे। उसमें प्रकाशित कविता की कुछ पंक्तियों को  बदलवा दिया, एक-दो नयी पंक्तियाँ भी जोड़ डालीं। रात काफी बीत चुकी थी; लेकिन जबतक वे संतुष्ट नहीं हो गये कि सभी शब्द पूर्णतः शुद्ध और पंक्तियाँ दुरुस्त हो चुकी हैं तबतक बैठे रहे। स्क्रीन पर अपनी कविता को अपलक निहारते रहे- जैसे कोई माँ अपनी नवजात संतान को निहारती है। बार-बार पढ़ते रहे और मुग्ध होते रहे।

मैने कहा- आदरणीय, अब इसे पब्लिक डोमेन में जाने दीजिए, कबतक सीने से चिपकाए रहेंगे!

उन्होंने जवाब दिया- कविता बहुत कठिन कर्म है त्रिपाठी जी, एक-एक लाइन प्रसव वेदना देती है…

आखिर उन्होंने ओ.के. कहा और मैने पब्लिश बटन दबाया। चारों कविताएँ यहाँ नमूदार हो गयीं। हिंदी-समय पर आलोक धन्वा की सभी कविताएँ उपलब्ध हैं। चार नयी कविताओं में से एक आपके लिए यहाँ प्रस्तुत करता हूँ-

 

मुलाक़ातें

अचानक तुम आ जाओ

इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास

कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की

कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं

मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त

घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक चारखाने की
सूती साड़ी
कंधे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग दौड़ में भरोसे के लायक

तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर

दुख-सुख तो
आते जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहीं
हवा में !
इनसे बनती हैं नयी जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

आलोकधन्वा

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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