“साहब मुझे यहाँ से छुड़ा दीजिए… ये लोग मुझे बहुत मार रहे हैं…” अचानक कान में ये शब्द पड़े तो मैं अपने मोबाइल के मेसेज पढ़ना छोड़कर उसकी ओर देखने लगा। एक लड़का बिल्कुल मेरे नजदीक आकर मुझसे ही कुछ कहने की कोशिश कर रहा था।
करीब तेरह चौदह साल की उम्र का वह दुबला सा लड़का निश्चित ही किसी गरीब परिवार का लग रहा था…। पहले तो उसका आर्त स्वर मुझे कुछ बनावटी लगा शायद भीख मांगने वाले लड़कों की तरह अभिनय करता हुआ सा… उसकी सिसकियों के बीच से छन कर आ रही स्पष्ट आवाज और शुद्ध हिन्दी के प्रयोग से लग रहा था कि उसे स्कूल की शिक्षा जरूर मिली होगी। लेकिन इसने मुझसे रुपया-पैसा तो कुछ मांगा ही नहीं… फिर यह यहाँ ढाबे पर क्या कर रहा है…?
थोड़ी देर के लिए मैं उसकी सच्चाई को लेकर थोड़ा असमन्जस में पड़ गया था, लेकिन जब उसे मुझसे बात करता देखकर ‘ढाबे का मालिक’ नुमा एक लड़का तेजी से मेरे पास आकर उसे बोलने से रोकने की कोशिश करने लगा और सफाई की मुद्रा में मुझे कुछ समझाने लगा तो मेरे कान खड़े हो गये। मैने उस लड़के को शान्त कराकर उससे पूरी बात बताने को कहा। इसपर मालिक के लड़के की बेचैनी कुछ बढ़ती सी लगी।
हुआ ये था कि मैं कोषागार स्ट्रॉंग-रूम से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण कार्य के लिए इलाहाबाद से कानपुर सड़क मार्ग से जा रहा था। मेरे साथ में मेरा स्टाफ़ और दो सशस्त्र वर्दीधारी गार्ड भी थे। करीब दस बजे दिन में उन सबको खाना खिलाने के लिए मैने गाड़ी चौड़गरा के ‘परिहार ढाबा’ पर रुकवा दी थी। मेरे चीफ़ कैशियर ने स्टाफ़ के लिए दाल फ्राई, चना मसाला और तन्दूरी रोटी का ऑर्डर दे दिया था। मुझे स्वयं खाना खाने की इच्छा नहीं थी लेकिन ढाबे पर यदि खीर मिल जाय तो मैं उसका लोभ संवरण नहीं कर पाता। सो यहाँ भी मैने एक प्लेट खीर खाने के बाद ही एक कप चाय पीने की इच्छा जतायी थी।
इस साधारण से ढाबे पर टिपिकल शैली में लकड़ी के लाल, हरे, नीले तख्त लाइन से बिछे हुए थे। उनके किनारे प्लास्टिक की कुर्सियाँ डालकर डाइनिंग हाल का रूप दिया गया था। हाई-वे पर चलने वाली ट्रकों के ड्राइवर और क्लीनर इन्ही तख़्तों पर बैठकर भोजन करते हैं और जरुरत के मुताबिक इसी पर पसरकर आराम भी करते हैं। बाकी प्राइवेट गाड़ियों की सवारियाँ भी यदा-कदा यहाँ रुककर भोजन या नाश्ता करती हैं।
फ्रिज में रखी हुई ठण्डी और स्वादिष्ट खीर मुझे तत्काल मिल गयी। उसे चटपट समाप्त करके मैं चाय की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि उस लड़के ने मुझे कोई सरकारी अफ़सर समझकर कदाचित् अपने को संकट से निकालने की उम्मीद में अपनी समस्या बतानी शुरू कर दी। वहीं एक टीवी पर फुल वॉल्यूम में कोई मसाला फिल्म चल रही थी जिसके शोर में बाकी लोगों तक यह बातचीत नहीं जा रही थी। लेकिन ढाबे पर काम करने वाले दूसरे रसोइये और नौकर इस लड़के पर सतर्क निगाह रखे हुए थे इसलिए दो मिनट के भीतर ढाबे के मालिक का लड़का लपका हुआ चला आया…।
लड़का बता रहा था, “मुझे स्टेशन से एक आदमी यहाँ लाकर छोड़ गया है। ये लोग मुझसे जबरदस्ती काम करा रहे हैं और बहुत मार रहे हैं।” उसकी सिंसकियाँ बढ़ती जा रही थीं जो अचानक मालिक के लड़के के आते ही रुक गयीं।
मैने मालिक के लड़के से ही पूछ लिया- “यह क्यों रो रहा है जी…?”
“कुछ नहीं साहब, यह अभी दो-तीन दिन पहले ही आया है। इससे हम लोग कोई काम नहीं कराते हैं। कहते हैं कि- बस जो खाना हो खाओ, और यहीं पड़े रहो … लेकिन यह बार-बार यहाँ से जाने को कहता है…”
“तो इसके साथ जबरदस्ती क्यों करते हो? जाने क्यों नहीं देते?” मैने तल्ख़ होकर पूछा।
“इसको हम अकेले किसी ट्रक पर बैठकर जानें दें तो पता नहीं कहाँ गायब हो जाएगा। फिर जिस ठेकेदार ने इसे यहाँ दिया है उसको हम क्या जवाब देंगे? …हम इससे कह रहे हैं कि ठेकेदार को आ जाने दो तो छोड़ देंगे, लेकिन मान ही नहीं रहा है…”
मैने लड़के से उस ठेकेदार के बारे में पूछा तो उसे कुछ भी मालूम नहीं था। फिर उसका नाम पूछा तो बोला, “मेरा नाम अजय है- स्कूल का नाम मुकेश और घर का नाम अजय”
उसने बिल्कुल शिशुमन्दिर के लड़कों की तरह जवाब देना शुरू किया। लखनऊ के पास चिनहट में किसी शिक्षा निकेतन नामक स्कूल से दर्जा पाँच का भागा हुआ विद्यार्थी था। बता रहा था कि वह अपने साथ के एक लड़के के साथ घूमने के लिए ट्रेन में बेटिकट बैठ गया। पकड़े जाने पर आगे के किसी स्टेशन पर टीटी द्वारा उतार दिया गया तो वहीं प्लैटफ़ॉर्म पर एक आदमी मिला। उसने इसकी मदद करने के नाम पर इस ढाबे पर लाकर छोड़ दिया।
इतनी कहानी जानने के बाद मैं चिन्ताग्रस्त हो गया। मैं जिस जरूरी सरकारी काम से निकला था उसके लिए मुझे जल्दी से जल्दी कानपुर पहुँचना जरूरी था। लड़के को उसके हाल पर छोड़ कर जाने में खतरा यह था कि ढाबे का मालिक उसे निश्चित ही और दंडित करता क्योंकि उसने मुझसे उसकी शिकायत कर दी थी। …इससे बढ़कर यह चिन्ता थी कि मेरे ऊपर लड़के ने जो भरोसा किया था और संकट से उबारे जाने की जो गुहार लगायी थी उसका क्या होगा। मैं सोचने लगा- एक जिम्मेदार लोकसेवक होने के नाते मुझे क्या करना चाहिए? वह लड़का मेरे जाते ही घोर संकट में फँस सकता था।
तभी उस ढाबे का मालिक भी आ गया जिसको उसके लड़के ने फोन करके बुला लिया था। सफेद कुर्ता-पाजामा पहने हुए शिवमंगल सिंह परिहार ने अपना परिचय देते हुए बताया कि ऐसे लड़के इधर-उधर से आ जाते हैं साहब, लेकिन हम लोग इनका बड़ा खयाल रखते हैं। गलत हाथों में पड़कर ये खराब हो सकते हैं…। मैने टोककर कहा- “यह लड़का तो बता रहा है कि इसने कल से खाना ही नहीं खाया है, क्या खयाल रखते हैं आप?‘”
इसपर वह झेंपते हुए अपने रसोइये को डाँटने लगा…। मालिक के लड़के ने बीच में आकर कहा “नहीं साहब, इससे पूछिए, रात में खाना दिया गया था कि नहीं…!” लेकिन मेरे पूछने से पहले ही वह बोल उठा कि मुझे कुछ नहीं मिला है, मुझे बहुत भूख लगी थी” इस बीच मेरे स्टाफ़ के साथ अजय उर्फ़ मुकेश भी खाना खा चुका था।
अजीब स्थिति बन गयी। अब मैं इसे इस हाल में छोड़कर कत्तई नहीं जा सकता था। फतेहपुर के एक विभागीय अधिकारी का नम्बर मेरे पास था। मैने उन्हें फोन मिलाकर पूरी बात बतायी। वहाँ वरिष्ठ कोषाधिकारी के पद पर तैनात श्री विनोद कुमार जी ने इसको गम्भीरता से लिया। जिले के पुलिस विभाग को इत्तला दी गयी। उनके आश्वासन के बाद मैने ढाबे पर मौजूद सभी पक्षों को लक्ष्य करते हुए दनादन कुछ तस्वीरें खींच डाली, ताकि बाद में कोई इस बात से इन्कार न करे।
मुझे यह आशंका हो रही थी कि मेरे रवाना होते ही यदि लड़के को मार-पीट कर भगा दिया गया तो जिले की पुलिस या बालश्रम उन्मूलन विभाग वाले आकर ही क्या कर लेंगे। इसकी सम्भावना से बचने के लिए मैने ढाबा मालिक के साथ बच्चे को और अपने चीफ़ कैशियर को खड़ा कराकर फोटो खींच लिया। मैने शिवमंगल सिंह को प्यार से समझा दिया कि जबतक कोई जिम्मेदार सरकारी व्यक्ति यहाँ आकर इस बच्चे को न ले जाया तबतक आप इसे कहीं नहीं जाने देंगे। यदि इस बीच इस लड़के के साथ कोई दुर्व्यवहार हुआ तो आपकी जिम्मेदारी तय मानी जाएगी। सबूत के तौर पर ये तस्वीरें मैं अपने कैमरे में कैद कर लिए जा रहा हूँ।
मैने लड़के को भी समझा दिया कि जबतक कोई सरकारी अधिकारी या थाने से कोई आकर तुम्हें यहाँ से न ले जाय तबतक यहीं रहना। शाम तक वापसी में आकर मैं फिर से समाचार लूंगा। अब निश्चिन्त होकर मैं कानपुर चला गया, लेकिन अगले प्रत्येक आधे घण्टे पर फतेहपुर के वरिष्ठ कोषाधिकारी से उसका हाल-चाल मिलता रहा। कानपुर से वापसी करते हुए मैं ऐसी सामग्री के साथ था कि कहीं रुके बगैर मुझे सीधे इलाहाबाद कोषागार में पहुँचना निर्दिष्ट था। इसलिए मुझे मोबाइल के माध्यम से मिली सूचना पर निर्भर रहना पड़ा।
***
शाम को लौटते हुए रास्ते में जो अन्तिम सूचना मिली उसके अनुसार स्थानीय थाने के थानेदार ने वहाँ जाकर लड़के को अपने साथ थाने में लाकर ठहरा दिया था। शिवमंगल सिंह ने उसे मजदूरी के बचे हुए डेढ़ सौ रूपये देकर प्यार से विदा किया था और पुलिस के अनुसार लड़के को ढाबे वालों से कोई शिकायत नहीं रह गयी थी। लड़के ने जो अपना पता बताया था उस क्षेत्र के सम्बन्धित थाने से सम्पर्क कर इसके गायब होने का सत्यापन कराया जा रहा था। बाल श्रम कानून के प्रयोग की आवश्यकता नहीं महसूस की गयी थी। लड़के ने भी अपने साथ वी.आई.पी. वर्ताव पाकर अपने आँसू पोछ लिए थे और किसी पुलिस हमराही के साथ अपनी घर वापसी की प्रतीक्षा कर रहा था।
मैं वापसी में रास्ते भर सड़क किनारे चल रहे असंख्य ढाबों, रेस्तराओं, होटलों और चाय की दुकानों की ओर देखता हुआ यही सोचता रहा कि इनमें जाने कितने अजय, मुकेश, छोटू, बहादुर, पिन्टू, रामू, बच्चा, आदि किसी न किसी ठेकेदार के हाथों चढ़कर अपना जीवन खराब कर चुके होंगे…।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
राजीव तनेजा
मार्च 13, 2010 @ 05:56:17
आपके प्रयासों से एक बच्चे का भविष्य बिगड़ने से बच गया…आभार
M VERMA
मार्च 13, 2010 @ 07:01:28
सुन्दर प्रयास साधुवाद
गिरिजेश राव
मार्च 13, 2010 @ 07:03:11
पुण्य कर्म ।बधु ! जब इतना कर गए हो तो सुअंत निश्चित करना। पुलिस के पास है न अभी वह ! आज कल ब्लॉग जगत में इनामात की बाढ़ है लेकिन मेरे लिए तुम हो 'वर्ष के ब्लॉगर'।जय हो।
Udan Tashtari
मार्च 13, 2010 @ 07:23:47
आपने अपना हिस्सा पूरा किया. आपको साधुवाद…न जाने कितने ऐसे होंगे किन्तु जहाँ मदद पहुँच जाये, उतना ही काफी..
Arvind Mishra
मार्च 13, 2010 @ 07:47:42
आपने तो अपनी सीमाओं में यथाशक्ति सब कुछ कर लिया मगर मेरी छठी हिस बता रही है की अप[के जाने के बाद मेल जोल से मामले को निपटाया गया -जिला प्रोबेशन अधिकारी का कम था यह तो बच्चा पुलिस ठाणे कैसे पहुँच गया ? यह तो बालश्रम उन्मूलन का मामला था !पर आपने जो किया उसके लिए ब्लॉगर ऑफ़ थे ईअर की गिरिजेश जी की प्रस्तावना का मैं अनुमोदन करता हूँ
बेचैन आत्मा
मार्च 13, 2010 @ 08:08:53
थोड़ी सी संवेदनशीलता और एक मासूम को मिली नई जिंदगी. सरकारी दायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की कैसे रक्षा की जा सकती है इसका अच्छा उदाहण पेश किया आपने…आभार.
प्रवीण पाण्डेय
मार्च 13, 2010 @ 09:03:14
आपका प्रयास ही बाल श्रम पर एक सशक्त पोस्ट है । ढेरों साधुवाद ।
अनूप शुक्ल
मार्च 13, 2010 @ 09:05:11
अच्छी पोस्ट! साधुवादी काम! ब्लॉगर ऒफ़ द ईयर इनाम देने के प्रस्ताव से असहमति! इत्ते छंटे हुये नहीं हो भाई! 🙂
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
मार्च 13, 2010 @ 09:59:37
अपनी व्यस्तता के बीच इस कारगर प्रयास से बच्चे को अपने परिवार तक पहुँचने की व्यवस्था करना। बड़ा काम है। यह केवल बाल श्रम की समस्या नहीं। बहुत सी समस्याएँ इस के साथ जुड़ी हैं। जिस नागरिक बोध के कारण आप ने यह सब किया, यदि वही नागरिक बोध देश के 10 प्रतिशत लोगों में हो तो देश में बहुत कुछ बदल सकता है।
निर्मला कपिला
मार्च 13, 2010 @ 12:19:50
आपका प्रयास प्रशंसणीय व अनुकरणीय है। बहुत बहुत शुभकामनायें
Mithilesh dubey
मार्च 13, 2010 @ 13:08:38
आपने जो किया उसके लिए तो शब्द ही नहीं है , बहुत ही बढ़िया प्रयास ।
राज भाटिय़ा
मार्च 13, 2010 @ 16:07:55
आप तो फ़रिशता बन गये उस मासुंम के लिये, बहुत पुन्य का काम किया आप ने, काश आप जेसे लोग अगर पुरे भारत मै हो तो कितने बच्चो का भविष्या बच जाता. मेरी तरफ़ से आप का धन्यवाद
skand shukla
मार्च 13, 2010 @ 17:46:10
बहुत अच्छा किया. साधुवाद.
अजय कुमार झा
मार्च 13, 2010 @ 18:43:54
मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं जब मीडिया अपने अहं से उबर कर एक ब्लोग्गर द्वारा दी गई ऐसी जानकारी /ऐसी पोस्ट को अपने माध्यमों में स्थान देकर आगे बढाएंगे ….और हां साल वाल का पता नहीं मगर आप निश्चित रूप से मैन औफ़ द ईयर तो हैं ही … कोई कोई तो पूरी जीवन में ये नहीं कर पाता जो आपने किया …. अजय कुमार झा
Ghost Buster
मार्च 13, 2010 @ 19:47:33
शब्दातीत! ब्लॉगर ऑफ़ द इयर बहुत छोटा लगता है, आपने जो किया है उसके आगे. एक पीड़ाजनक अवस्था को उघाड़ती है लेकिन वहीं एक दवा का फ़ाहा सा भी रखती है ये पोस्ट. सलाम आपको.
Vagisha
मार्च 13, 2010 @ 21:32:56
डैडी, बहुत अच्छा लिखा है। मुझे आपके इस कार्य से बहुत शीक्षा प्रदान हुई है।पर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि आप वहाँ अपने official काम से गए थे या उस लड़के की मदद करनें? लेकिन आप यह मत सोचीएगा कि मै यह कहना चाहती हुँ कि आपको यह काम नहीं करना चाहिए था। लेकिन आपके इस के काम से मुझे यह शीक्षा मिलती है कि अगर हमारे पास दूसरों कि संकटों को सुलझानें का तरीका हो तो हमें उस के लिये ना नहीं करना चाहिये।
Vagisha
मार्च 13, 2010 @ 21:33:22
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ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
मार्च 13, 2010 @ 21:42:49
बहुत अच्छा काम। यह करने के लिये बहुत इच्छा शक्ति चाहिये। ब्लॉगिंग करने ने भी शायद उसमें टेका लगाया हो। पुन: साधुवाद।
अभिषेक ओझा
मार्च 13, 2010 @ 22:45:43
आपने बड़ा अच्छा उदहारण सेट किया है !
नितिन | Nitin Vyas
मार्च 13, 2010 @ 23:20:11
आपका प्रयास प्रशंसनीय है, शुभकामनायें!!
अमित
मार्च 14, 2010 @ 00:13:23
भाई वाह! आपकी जितनी भी सराहना की जाय कम है। एक भविष्य की रक्षा की है आपने, कुछ सपनों को टूटने से बचाया है। साधुवाद! गिरिजेश जी से सहमत हूँ।
दीपक 'मशाल'
मार्च 14, 2010 @ 02:56:53
Dil bhar aaya padh kar.. aur ye bhara dil ab aapke liye dua maang raha hai..