औरतों को पूरा बदल देना चाहते हैं चेतन भगत

टिप्पणी करे

[chetan%2520bhagat%255B4%255D.jpg]चेतन भगत ने अपने उपन्यासों से नौजवानों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है। एक बिन्दास, साहसी, स्पष्ट सोच रखने वाला और बातों का धनी नौजवान लेखक। सामाजिक मसलों पर खुली राय रखने के लिए उन्हें टीवी चैनेलों पर भी देखा जा सकता है और यत्र-तत्र अंग्रेजी अखबारों में भी। कुछ नया सोचने और पेश करने का सलीका उन्हें खूब आता है। हाल ही में महिला दिवस के मौके पर लिखे अपने एक छोटे से आलेख (ब्लॉग पोस्ट) में उन्होंने पहले तो वे बिन्दु गिनाये हैं जो महिलाओं के प्रति पुरुषों के व्यवहार में परिवर्तन की अपेक्षा करते हैं। इसे ईमानदारी से उन्होंने स्वीकार भी कर लिया; लेकिन उनकी चर्चा फिर कभी। यहाँ यह बताना है कि उस आलेख में उन्होंने यह सलाह दे डाली कि सभी महिलाओं को अपने भीतर निम्नलिखित पाँच मौलिक परिवर्तन करने की आवश्यकता है :

  1. दूसरी महिलाओं की अनावश्यक आलोचना करना बन्द करें। वे हमेशा दूसरी महिलाओं के बारे में अपना फैसला सुनाने को आतुर रहती हैं। यह फैसला प्रायः कठोर ही रहता है। वे अपने प्रति भी कठोर होती हैं लेकिन महिलाएं एक-दूसरे के प्रति तो कुछ ज्यादा ही कठोर होती हैं। खराब फिटिंग के पहनावे से लेकर बिगड़ गये पकवान तक। वे टिप्पणी करने से नहीं चूकतीं। भले ही वे जानती हैं कि कोई भी सर्वगुणसंपन्न नहीं होता।
  2. झूठा व्यवहार करना बन्द करें। महिलाओं में यह आम प्रवृत्ति होती है कि अगले को खुश करने के लिए, खासकर पुरुष-अहम्‌ को तुष्ट करने के लिए ऐसा कुछ करती हैं जो उन्हें खुद ही सही नहीं लगता। जैसे किसी बचकाने चुटकुले पर भी जबरदस्ती हँसना, बॉस द्वारा नाजायज काम सौंपने पर भी खुशी-खुशी स्वीकर कर लेना, किसी बड़बोले की आत्मश्लाघा को चुपचाप सुनते हुए उसे अपने से श्रेष्ठतर समझने देना। यह सब खुद के साथ अच्छा व्यवहार नहीं है।
  3. अपने संपत्ति संबंधी अधिकारों के लिए खड़ी हों। भारत में असंख्य महिलाएँ अपनी संपत्ति का अधिकार अपने भाइयों, पुत्रों या पतियों के हाथों लुटा देती हैं। इसके लिए उन्हें आगे बढ़कर अपना अधिकार प्रकट करना चाहिए।
  4. महत्वाकांक्षी बनें और बड़े सपनें देखें। भारत के सभी नौजवानों के सीने में एक आग होनी चाहिए। भारतीय समाज की जो संरचना है उसमें लड़कियों के लिए जो सपने देखे जाते हैं वे लड़कों से अलग हैं। लड़कियाँ उतनी महत्वाकांक्षा नहीं रख पातीं जितना लड़के। लड़कियों को खुद ही इस स्थिति को बदलना होगा।
  5. रिश्तों के नाटक में ज्यादा मत उलझें। रिश्ते बहुत जरूरी हैं, लेकिन इतने भी नहीं। एक अच्छी माँ होना, पत्नी होना, बहन होना, बेटी होना, दोस्त होना या एक अच्छी प्रेमिका होना बहुत ही महत्वपूर्ण है, लेकिन इन रिश्तों में पूरी तरह खो जाना ठीक नहीं है। आपके जिम्मे एक और रिश्ता है- स्वयं से। रिश्तों के नाम पर इतना त्याग न करें कि आप अपने आप का ही बलिदान कर दें।

यह पाँचो सदुपदेश देखने में बहुत आकर्षक हैं और फॉलो करने लायक हैं। मैं अपनी बेटी को जरूर सिखाऊंगा। लेकिन इसपर पाठकों की जो राय आयी है वह भी बहुत रोचक है और मंथन को प्रेरित करती है।

मुम्बई की स्निग्धा इन पाँचों का जवाब यूँ देती हैं :

  1. क्या मर्द हमारी आलोचना नहीं करते हैं। हमने यह उन्हीं से सीखा है।
  2. क्या आप कभी मर्दों की ओछी हरकतों के शिकार हुए हैं- ‘वाह क्या बॉडी है’ वाली मानसिकता के? इनसे बचने के लिए झूठा व्यवहार करना ही पड़ता है।
  3. संपत्ति के अधिकार के बारे में अब जागरुकता बढ़ रही है। लेकिन अभी कितनी ग्रामीण औरतें इसका नाम भी जानती हैं?
  4. अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पैसा कहाँ से लाएँ। अच्छा, खुद कमाकर?
  5. रिश्ते ! हिलैरी क्लिंटन को भी पहले बिल क्लिंटन की पत्नी कहा जाता है और बाद में अमेरिका की विदेश मंत्री।

टिप्पणियाँ तो और भी करारी हैं लेकिन यहाँ केरल निवासी जी.पिल्लई की बातें संक्षेप में रखना चाहूँगा :

चेतन भगत ने अपने आलेख में एक गहरी समस्या के सतह को ही छुआ है। …पुरुष महिलाओं के साथ क्या करते हैं यह तो विचारणीय है ही, एक महिला दूसरी महिला के साथ क्या-क्या और कैसे-कैसे व्यवहार करती है यह भी सोचना होगा। …यह दुश्मनी गर्भ में कन्या भ्रूण के आते ही शुरू हो जाती है। भारत की कौन स्त्री बेटी के बजाय बेटा पैदा करना ज्यादा पसन्द नहीं करती होगी? …घर के भीतर रोज ही बेटे और बेटी में फर्क करने का काम उसकी माँ ही करती है। …कौन माँ अपने बेटे के लिए बड़ा दहेज पाने की कामना नहीं करती? …गोरी-चिट्टी और सुन्दर बहू किस माँ को नहीं चाहिए, भले ही उसका बेटा कुरूप और नकारा हो? इन सबके पीछे आपको एक धूर्त, निष्ठुर, स्वार्थी और लालची महिला दिखायी देगी जिसके मन में एक दूसरी ‘महिला’ के प्रति तनिक भी सहानुभूति नहीं है। …इसके लिए आपको दूर जाने की जरूरत नहीं है, अपने घर के भीतर ही झाँकिए, दिख जाएगा। …दहेज हत्या के मामले ही देख लीजिए। वास्तव में किसी भी औरत के जीवन में मिले कुल कष्टों में से जितने कष्ट दूसरी औरतों से मिलते हैं उतने मर्दों से नहीं।

इस बहस की लंबी सृंखला मूल आलेख में देखी जा सकती हैं। गंभीर बहस तो होती ही रहती है, होनी भी चाहिए। लेकिन मैं यहाँ अपनी बात माहौल को थोड़ा हल्का रखने की इच्छा से यूँ कहना चाहता हूँ :

पहली राय तो इनकी प्रकृति-प्रदत्त विशिष्टता (यू.एस.पी.) को ही तहस-नहस करने वाली है। क्या इसके बिना महिलाओं की अपनी दुनिया उतनी मजेदार रह जाएगी। टाइम-पास का इतना बढ़िया साधन उनके हाथ से छीन लेना थोड़ी ज्यादती नहीं है क्या? ऐसे तो निन्दारस का आनन्द ही विलुप्त हो जाएगा इस धराधाम से। पतिदेव के ऑफिस और बच्चों के स्कूल जाने के बाद जब कामवाली भी सब निपटाकर चली जाती है तो अकेले समय काटना कितना मुश्किल होता है! इस मुश्किल घड़ी में यही तो काम आता है। बालकनी से लटककर पड़ोसन से, या फोन पर अपनी दूर-दराज की दोस्त या बुआ-मौसी-दीदी से यह रसपान करने में घंटो का समय कम पड़ जाता है। सुनते हैं इसके बिना उनका खाना भी मुश्किल से पचता है।

झूठा व्यवहार मत कहिए इसे जी। यह तो दुनियादारी है। यह न करें तो क्या कदम-कदम पर आफ़त को न्यौता दें। रोज इन्हें एक से एक घामड़ और घोंचू भी मिलते हैं। उन्हें हल्का सा ‘फील-गुड’ करा देने से मैडम को सेफ़टी भी मिल जाती है और उस मूढ़ पर मन ही मन हँस लेने का मौका भी मिल जाता है। फालतू में बहादुरी दिखाने से तो टेंशन ही बढ़ता है।

संपत्ति के अधिकार ले तो लें लेकिन ससुराल और मायके को एक साथ सम्हालना कितना मुश्किल हो जाएगा। ऊपर से मायके से भाई-भाभी जो रोज हाल-चाल लेते हैं, कलेवा भेजते हैं, और अपने जीजाजी की दिल से जो आवभगत करते हैं वह सब बन्द न हो जाएगा। सावन का झूला झूलने और गृहस्थी के बोझ से थोड़ी राहत पाने वे किसके पास जाएंगी? बच्चों के लिए मामा-मामी का दुलार तो सपना हो जाएगा। दूसरी तरफ़ बुआ और फूफा जी तो फिल्मी खलनायक ही नजर आएंगे। जब बहन अपने भाई की जायदाद बाँट लेगी तो वह ससुराल में अपनी ननद को भी तो हिस्सा देगी। इस बाँट-बँटवार में हमारे रिश्ते तो बेमानी हो जाएंगे।

महत्वाकांक्षी बनने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसके लिए खुद ही मेहनत भी करना होगा। एक फॉर्म भरकर रजिस्ट्री करने भर के लिए भैया या पापा का मुँह ताकने से काम नहीं चलेगा। निडर होकर बाहर निकलना पड़ेगा, मम्मी का कंधा छोड़ना होगा और कड़ी प्रतिस्पर्धा के लिए वह सब करना होगा जो लड़के कर रहे हैं। आरक्षण का भरोसा नहीं अपने उद्यम का सहारा लेना होगा। इसके लिए कितनी लड़कियाँ तैयार हैं? मुझे लगता है – बहुत कम। जो तैयार हैं उन्हें सलाम। लेकिन ज्यादा संख्या उनकी है जो सिर्फ़ इसलिए पढ़ रही हैं कि पापा को उनकी शादी के लिए अच्छे लड़के मिल सकें।

रिश्ते नाटक की चीज नहीं हैं। इनके बिना व्यक्ति का अस्तित्व किस प्रकार परिभाषित होगा? मैंने उन लोगों को पागल होते देखा है जिन लोगों ने सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों की कद्र नहीं की। कुछ समय तो साहस और उत्साह बना रहता है लेकिन बाद में एक साथी की तलाश शुरू हो जाती है जिसमें विफलता व्यक्तित्व को मुरझा देती है। एकला चलो का नारा इन रिश्तों के बाहर नहीं भीतर ही प्रस्फुटित होना श्रेयस्कर है। अन्य प्राणियों से मनुष्य भिन्न सिर्फ़ इसलिए है कि वह एक सामाजिक प्रामाणिक है। समाज का निर्माण ये रिश्ते ही करते हैं। इसमें महिलाएँ जानबूझकर उलझती नहीं हैं, बल्कि इनके बीच ही वे बड़ी होती हैं। रिश्तों का ख्याल महिलाएँ ज्यादा करती हैं तो इसके लिए उन्हें धन्यवाद दीजिए और उनका अधिक सम्मान करिए। हाँ, उन्हें इतनी जगह जरूर दीजिए कि वे अपने आप के साथ भी एक सुखी और गौरवशाली रिश्ता कायम कर सकें।

मैं तो ऐसा ही सोचता हूँ। आशा है आप अपने विचार यहाँ जरूर साझा करना चाहेंगे।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सोचने का नहीं, बस देखने का

1 टिप्पणी

सोचने का नहीं, बस देखने काSmile

झमाझम बारिश के बीच दो दिन की सप्ताहान्त छुट्टी घर में कैद होकर कैसे मनाते? नेट पर देखा तो घर के सबसे नजदीक के वेव-मॉल में बोल बच्चन की कुछ टिकटें अभी भी बची हुई थीं। मैंने झटपट बुक-माई-शो के सहारे से सीट की लोकेशन चुनकर दो बजे का शो ऑनलाइन बुक किया और मोबाइल पर आए टिकट कन्फर्मेशन की मेसेज लेकर ठीक दो बजे खिड़की पर पहुँच गया। इन्टरनेट बुकिंग वालों की एक अलग खिड़की थी। शीशे के उस पार बैठी सुदर्शना ने मुस्कराकर मेसेज दे्खा और कार्ड से मिलान करने के बाद पहले से मेरे नाम का तैयार टिकट सरकाते हुए साथ में थैंक्यू की मुहर भी लगा दी। बगल की खिड़कियों पर इस शो के लिए हाउसफुल का डिस्‍प्‍ले लग चुका था और आगे की बुकिंग जारी थी।

फिल्म देखने का कार्यक्रम अब पहले से काफी लुभावना हो गया है। मैं तो फिल्म से ज्यादा फिल्म दे्खने वालों को दे्खकर खुश हो जाता हूँ। यहाँ आकर लगता है कि हमारे आसपास कोई सामाजिक या आर्थिक समस्या है ही नहीं। सबलोग बहुत खुशहाल, खाते-पीते घरों के दिखते हैं। मनोरम दृश्य होता है। बाहर की ऊमस और चिपचिपी गर्मी भी अन्दर घुसने नहीं पाती। अन्दर जाने की अनुमति केवल हँसते-मुस्कराते चेहरों और मोटे पर्स से फूली हुई जेबों को है। प्रवेश द्वार पर तैनात सुरक्षा कर्मी आपकी कमर में हाथ डालकर यह इत्मीनान कर लेते हैं कि आप अन्दर के मनोरंजन बाजार में जाने लायक तैयारी से आये हैं तभी अन्दर जाने देते हैं। बेचारों को बैग की तलाशी भी लेनी पड़ती है।

मेरी पत्नी को जब महिलाओं वाले तलाशी घेरे से बाहर आने में देर होने लगी तो मैंने बाहर से दरियाफ़्त की। पता चला कि उनके हैंडबैग से आपत्तिजनक सामग्री प्राप्त हुई है जिसे बाहर छोड़ने का निर्देश दिया जा रहा था। मुझे हैरत हुई। पता चला कि उन्होंने घर से चलते समय एक चिप्स का पैकेट और कुछ चाकलेट रख लिये थे। बाहर से लायी हुई कोई भी खाद्य सामग्री अन्दर ‘एलाउड’ नहीं थी। अन्ततः थोड़ी बहस के बाद महिला गार्ड को चिप्स का पैकेट सौंपकर, चॉकलेट का रैपर खोलकर उसे वहीं खाने का उपक्रम करती और गार्ड व प्रबन्धन को कोसती हुई श्रीमती जी निकल आयी। अन्दर आते ही मामला साफ हो गया जहाँ तीनगुने दाम पर बिकने वाले कोल्ड ड्रिंक्स, पॉपकार्न और अन्य फास्ट फूड के स्टॉल लगे हुए थे। वहाँ लम्बी कतारें भी लगी हुई थीं। बेतहाशा ऊँचा दाम चुकाकर बड़ी-बड़ी ट्रे में सामान उठाकर ले जाते लोगों को देखकर हमें कोई हीनताबोध हो इससे पहले ही हम बिना किसी से पूछे सीधे अपनी सीट तक पहुँच गये। यूँ कि हम पूरे हाल का नक्शा और अपनी सीट कम्प्यूटर स्क्रीन पर पहले ही देख चुके थे।

Bol-Bachchanफिल्म शुरू हुई। संगीत का शोर बहुत ऊँचा था। इतना कि बगल वाले से बात करना मुश्किल। अमिताभ बच्चन जी को धन्यवाद ज्ञापित करने वाले लिखित इन्ट्रो के बाद शीर्षक गीत शुरू हो गया। धूम-धड़ाके से भरपूर गीत में अमिताभ बच्चन के साथ अभिषेक और अजय देवगन जोर-जोर से नाच रहे थे। सदी के महानायक के इर्द-गिर्द कमनीय काया लिए लड़कियों और लड़कों की कतारें झूमती रही। सभी लगभग विक्षिप्त होकर बच्चन के बोल में डूब-उतरा रहे थे। हिमेश रेशमिया के कान-फाड़ू संगीत में लिपटा आइटम गीत समाप्त हो्ते ही बड़े बच्चन ने बता दिया कि वे इस फिल्म में हैं नहीं, केवल उनका नाम भर है।

इसके बाद कहानी दिल्ली के रंगीन माहौल से निकलकर सरपट भागती हुई राजस्थान के रणकपुर के संगीन माहौल में दाखिल हो गयी। राजा पृथ्वीराज सिंह अपने गाँव के बहुत खूँखार किन्तु अच्छे मालिक थे। पहलवानी करना और भयंकर अंग्रेजी बोलना उसका शौक था। झूठ से सख्त नफ़रत थी उन्हें। इतनी की केवल निन्यानबे रूपये का हिसाब गड़बड़ करने वाले अपने सुपरवाइजर को उन्होंने खदेड़-खदेड़कर मारा और लहूलुहान कर दिया। उसके बाद उनके दयालु हृदय ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया और ‘फाइवस्टार’स्तर की चिकित्सीय सुविधा दिलवायी। ऐसे सत्यव्रती को पूरी फिल्म मे एक नाटक मंडली ने एक के बाद एक जबरदस्त झूठ बोलकर बेवकूफ़ बनाये रखा और राजा पृथ्वीराज अपनी ग्राम्य-रियासत का भार ढोते हुए झूठ के किले पर अपनी सच्चाई और दयालुता का झंडा फहराते रहे। जिसने पुरानी गोलमाल देख रखी है उसे फिल्म में आगे आने वाले सभी दृश्य पहले से ही पता लग जाते हैं क्योंकि निर्देशक ने पूरा सिक्‍वेन्स एकमुश्त कट-पेस्ट कर दिया है। वहाँ राम प्रसाद और लक्षमण प्रसाद थे तो यहाँ अभिषेक बच्चन और अब्बास अली हैं जिन्हें देखने पर केवल मूँछों का अन्तर है। यहाँ भी माता जी को एक बार घर में भीतर आने के लिए बाथरूम की खिड़की लांघनी पड़ी है। अलबत्ता एक माँ का जुगाड़ करने के चक्कर में पूरी नाटक मंडली लग जाती है और अन्ततः तीन-तीन माताएँ एक साथ नमूदार हो जाती हैं। इसके बावजूद राजा पृथ्वीराज बेवकूफ़ बन जाते हैं क्योंकि ऐसा मान लिया गया है कि उनके पास प्रयोग करने के लिए अक्‍ल है ही नहीं।

निर्देशक ने दर्शकों के बारे में भी यही धारणा बना रखी है कि दर्शक आएंगे और जो आँख के सामने आएगा उसे सच मानेंगे और जो कान से सुनायी देगा उसपर तालियाँ पीटेंगे और खुलकर हसेंगे। इसलिए इस फिल्म को देखते समय यदि किसी ने तार्किक दृष्टि से सोचने की गलती की और दृश्यों के रसास्वादन में अपनी बुद्धि का हस्तक्षेप होने दिया तो उसे सिर पीट लेना पड़ेगा। बेहतर है कि चिप्स और चाकलेट की तरह अपनी तर्कणा को भी घर छोड़कर जाइए और वहाँ सजी हुई रंगीनी और लाफ्टर शो के कलाकारों की पंचलाइनों का त्वरित और तत्क्षण आस्वादन कीजिए। द्विअर्थी संवादों पर बगलें मत झांकिए बल्कि उस फूहड़ हास्य पर किलकारी मारती जनता के टेस्ट का समादर करते हुए उसमें शामिल हो जाइए और खुद भी हँसी खनकाइए। अर्चना पूरन सिंह की भद्दी और कामुक अदा पर यदि आपको जुगुप्सा हो रही है तो उसपर सिसकारी मारती अगली पंक्ति से सीख लीजिए कि कैसे टिकट का पैसा वसूल किया जाता है।

इस पूरे माहौल में प्राची देसाई की मासूम और शान्त छवि एक अलग प्रभाव छोड़ने में सफल हुई। बात-बात पर ठकाका लगाने वाले दर्शक इस सफलतम टीवी कलाकार की सिल्वर स्क्रीन पर अभिनीत सादगी और गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के कन्ट्रास्ट को इस फिल्म की थीम के मद्देनजर कैसे स्वीकार करेंगे यह देखना होगा। पृथ्वीराज की अंग्रेजों से भी अच्छी अंग्रेजी का आनंद लेने के लिए आपको थोड़ा उदार होना पड़ेगा। वाकई होकर देखिए, बहुत मजा आएगा। पेट में बल पड़ जाएंगे।

कुल मिलाकर यह फिल्म सोचने के लिए कुछ नहीं छोड़ती इसलिए ऐसा कु्छ करने की जहमत उठाना ठीक नहीं। अपनी गृहस्थी की चिन्ताओं को कुछ समय के लिए विराम देकर दो घंटे का विशुद्ध मनोरंजन कीजिए और इंटरवल में अपनी रुचि के अनुसार बाहर सजे स्टॉल पर लाइन लगाकर या बिना लगाये खुशहाल भारतीय समाज का दर्शन कीजिए। हमने भी खूब मस्ती की। बाहर आने पर रिमझिम बारिश का आनन्द दोगुना हो गया था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 
You might also like:

जाओ जी, अच्छा है…

1 टिप्पणी

 

happy_new_year_2012_by_abu_hany-d4ksy1k_largeअच्छा जी, जाओ !

बड़ी राहत मिलेगी शायद
तुमने एक साल तक हमें परेशान रखा
कितने करोड़
नहीं, कितने अरब
या उससे भी कहीं ज्यादा
चोर उड़ा ले गये

चोर नहीं, डकैत कहना चाहिए
सबकी आँखों के सामने ही तो लूट होती रही
मीडिया जानती थी
टीवी पर रोज डिबेट होती थी
पत्रकार रपट देते थे
सी.ए.जी. की ऑडिट बताती थी
बाबा भी चिल्‍लाते रहे
अन्ना भी अनशन करते रहे
लेकिन तुमने सब हो जाने दिया
नामाकूल !

संसद की दीवारों के भीतर 
लोकतंत्र को कैद करने की कोशिश
फिलहाल सफल हो जाने दी तुमने
रामलीला मैदान और जंतर मंतर  की हुंकार
बन गयी
नक्कारखाने में तूती की आवाज
भ्रष्टतंत्र को तुमने जीत जाने दिया 
तुमने थका दिया इतना कि
लोकतंत्र को बुखार आ गया
थोड़ी सहानुभूति के शब्द सुनाकर तुम भी चलते बने
कुछ लोगों के साथ

मामूल के मुताबिक
तुम्हारी विदाई पर जश्न का माहौल है
लेकिन किसी खुशफहमी में मत रहना
दर‍असल यह तुम्हारे उत्तराधिकारी के आगमन का जश्न है
तुम्हारे जाने से हम भावुक होकर दुखी हो जाएंगे
ऐसा नहीं है
तुम्हारा तो जल्दी से जल्दी चला जाना ही अच्छा है
बुरा मत मानना
लेकिन यह बता देना जरूरी है
तुमने बहुत दुखी किया

बस एक खुशी मिली थी
जब अठ्ठाइस साल बाद एक वर्डकप दिलाया था तुमने
लेकिन इस खेल की एक किंवदन्ती को नहीं दिला सके
एक अदद शतक जो हो सकता था महाशतक
पाजी कहीं के !

तुमसे निजात पाकर
हम नये सिरे से आशा कर सकते हैं
शायद इस बार बिल पास हो जाय
उस कानून का जन्म हो जाय
जिसके लिए एक फकीर ने देश को जगाने का प्रयास किया
शायद उसे इस बार सफलता मिल जाय

लेकिन डर भी है
कौन जाने
तुम्हारे पीछे तुमसे भी ज्यादा
धुर्त और पाज़ी आ रहा हो

इसी लिए हम प्रार्थना कर रहे हैं
अब जो आये वह अच्छा ही आये
नया साल शुभ हो

!!! हार्दिक शुभकामनाएँ !!!

(चित्रांकन : http://weheartit.com/entry/20302771 से साभार)

सेमिनार रिपोर्ट… डेटलाइन लखनऊ (कल्याण से लौटकर)

टिप्पणी करे

ब्लॉग के बारे में विद्वानों की अद्‌भुत राय
…पिछली कड़ी से आगे
आपने हमारी लाइव रिपोर्ट्स और उनके बीच आये क्षेपक को पढ़ा ही होगा इसलिए अब हम बिना किसी भूमिका के सीधे प्रथम दिवस के अपराह्न सत्र की चर्चा करेंगे जो चाय विश्राम के बाद प्रारम्भ हुआ था। इस सत्र का विषय था – “ब्लॉगिंग की उपयोगिता” । इस भाग में तय कार्यक्रम के अनुसार कुल ११ वक्ताओं और एक संचालक को अपनी बात कहनी थी। वक्ताओं में एक अध्यक्ष, दो विषय विशेषज्ञ, दो विशेष अतिथि और छः प्रपत्र वाचक सम्मिलित थे। शाम चार बजे शुरु किए गये सत्र को पाँच बजे समाप्त हो जाना था। शुक्र है कि उसके बाद कोई और चर्चा सत्र नहीं था इसलिए संचालक की टोकाटाकी के बीच भी हम इसे सवा छः बजे तक खींच ले जाने में सफल रहे। एक अच्छी बात यह भी रही कि वक्ताओं में से दोनो विशेष अतिथि और एक प्रपत्र वाचक उपस्थित नहीं हुए, जिससे बाकी लोग कुछ अधिक समय पा सके।
संचालक डॉ.(श्रीमती) रत्ना निम्बालकर (संस्था की उप प्राचार्य) ने शुरू में ही बता दिया कि वे हिंदीभाषी नहीं हैं और वे अंत तक इस तथ्य की पुष्टि करती रहीं। उन्हें जो कहना था उसे उन्होंने लिखकर रखा था और बड़ी सावधानी से उसे पढ़ रही थीं। एक गैरहिंदीभाषी द्वारा इतना दत्तचित्त होकर हिंदी ब्लॉगिंग के चर्चा सत्र को संचालित करना हमें बहुत अच्छा लगा। ब्लॉगिंग विधा के लिए यह भी एक उपलब्धि है जो अलग-अलग भाषाओं को एक साथ जोड़ने का माध्यम बन रही है।
सर्व प्रथम प्रपत्र-वाचन का क्रम शुरू हुआ। यह प्रपत्र-वाचन आजकल बहुत ज्यादा प्रयोग किया जा रहा है। इसकी डिमांड अचानक बढ़ गयी है। मैंने पता किया तो लोगों ने बताया कि अब यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) ने विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में कार्यरत सहायक प्रोफ़ेसर व एसोसिएट प्रोफ़ेसर की पदोन्नति के लिए यह जरूरी कर दिया है कि वे क्लास में लेक्चर देने के अलावा एक निश्चित संख्या में शोधपत्र तैयार करें और राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार में हिस्सा लें। इस अनिवार्यता ने बहुत से अध्यापकों को ऐसे ‘राष्ट्रीय’ सेमिनारों की राह दिखा दी है। वे ऐसे विषयों पर भी किताबें पलट रहे हैं और इंटरनेट खंगाल रहे हैं जिनमें न तो उनकी कोई मौलिक रुचि रही है और न ही उसके अध्ययन-अध्यापन का कोई अनुभव रहा है। इस सेमिनार में भी जो प्रपत्र पढ़े गये उनकी विषयवस्तु और प्रस्तुतिकरण की शैली इसी बात की गवाही दे रही थी। यू.जी.सी. के इस फरमान ने ब्लॉगिंग को बहुत संबल दिया है। हम शुक्रगुजार हैं।

इस तीसरे सत्र से पहले भी करीब दर्जन भर प्रपत्र पढ़े जा चुके थे; मैंने उनकी विषयवस्तु सुन रखी थी और कुछ नोट भी कर लिया था। इसलिए मंचपर बैठे हुए मुझे बहुत कुछ नोट नहीं करना पड़ा। लगभग सभी ने ब्लॉग के बारे में इसकी उत्पत्ति, विकास और प्रसार की कहानी बतायी; कुछ प्रचलित, कुछ प्रसिद्ध और कुछ कम प्रसिद्ध ब्लॉग्स का नाम लिया और उद्धरण सुनाये; इसके लाभ गिनाये, इससे मिलने वाली अभिव्यक्ति की नयी आजादी की चर्चा की; और अंत में कुछ किंतु-परंतु के साथ इसकी कमियों पर दृष्टिपात किया। मुझे महसूस हुआ कि ये गिनायी गयी कमियाँ तथ्यात्मक विश्लेषण पर आधारित कम थीं और प्रायः प्रपत्र को संतुलन प्रदान करने के उद्देश्य से ही जोड़ी गयी थीं। जिस सत्र में मुझे विशेषज्ञ के रूप में बोलना था उसमें प्रपत्र वाचन करने वाले थे : शिरूर के डॉ. ईश्वर पवार, दिल्ली के डॉ.चन्द्र प्रकाश मिश्र, पश्चिम बंगाल के आशीष मोहता, दिल्ली की डॉ.विनीता रानी और मुम्बई के डॉ. विजय गाड़े।

ईश्वर पवार जी ने अपनी बात के बीच में कविता की चार पंक्तियाँ पढ़ी जिनपर तालियाँ बजी-

तुम हो तो ये घर लगता है,
वरना इसमें डर लगता है।
ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत से तर है,
चले आइए ये अपना घर है।

मैं यह नोट नहीं कर पाया कि यह किस संन्दर्भ में कहा गया। फिर भी अच्छी भावुक कर देने वाली लाइने हैं इसलिए बता देना उचित लगा। उन्होंने आगे कहा कि ब्लॉग (पोस्ट) की उम्र बहुत कम होती है। जल्द ही लोग इसे भुला देते हैं। इसकी उम्र लम्बी करने के लिए उपाय खोजे जाने चाहिए। यह भी खोजा जाना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में ब्लॉग का प्रयोग कैसे किया जा सकता है। उन्होंने ब्लॉग को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी बनाये जाने पर बल दिया। इस माध्यम की कमियों के रूप में उन्होंने यह बात बतायी कि ब्लॉग के आ जाने के बाद नयी पीढ़ी इस ओर चली आ रही है और बड़ा साहित्य पढ़े जाने से वंचित हो जा रहा है। इसी क्रम में उन्होंने यह जुमला भी उछाल ही दिया कि आजकल के युवा पहले ई-मेल से संबंध बना रहे हैं और बाद में फीमेल से। इसपर उन्हें उम्मीद थी कि तालियाँ बजेंगी लेकिन शायद यह चुटकुला सबको पहले से ही पता था।

अगले वक्ता के रूप में डॉ. चन्द्र प्रकाश मिश्र अपना ‘पेपर’ लेकर तो आये, लेकिन बोलते रहे बिना पढ़े ही। एक कारण तो यह था कि वे इस विषय के अच्छे जानकार हैं और बहुत अवसरों पर वार्ता दे चुके हैं, किताबे भी लिख चुके हैं; लेकिन दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि उनके पर्चे की अधिकांश बातें दूसरे वक्ता पहले ही बोल चुके थे। उन्होंने डॉ.सुभाष राय को उद्धरित करते हुए कहा कि “ब्लॉग लेखन असंतोष से उपजेगा।” अन्ना हजारे के आन्दोलन का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि व्यवस्था के प्रति युवा मन में जो आक्रोश पैदा हो रहा है उसे स्वर देने में ब्लॉग का माध्यम पूरी तरह सक्षम है और इसका उपयोग बढ़-चढ़कर हो रहा है। उन्होंने इस माध्यम के बारे में तमाम आशावादी बातें बतायीं और यह भी कहा कि इसे निरंकुश माध्यम कतई न माना जाय। हर ब्लॉगर को यह पता होना चाहिए और “पता है” कि निरंकुशता का वही हश्र होता है जो सद्दाम हुसेन और कर्नल गद्दाफ़ी का हुआ। उन्होंने कहा कि ब्लॉगर को किसी संपादक या सिखाने वाले की जरूरत नहीं है। वह ‘आपै गुरू आपै चेला’ है। उन्होंने प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (न्यूज चैनेल) में आने वाली गिरावट का जिक्र किया, नीरा राडिया टेपों और पेड न्यूज का उदाहरण देते हुए ललित शर्मा के वक्तव्य की चर्चा की जिसके अनुसार “ब्लॉगर मीडिया की बखिया उधेड़ रहे हैं”। चन्द्र प्रकाश जी ने कहा कि जहाँ तक ब्लॉग की उपयोगिता और इसके लिए विषय चुने जाने का सवाल है तो उसका एक शब्द में उत्तर है- “अनन्त”। इसके शीघ्र बाद उन्होंने अपनी वार्ता समाप्त कर दी।

कोलकाता से पाँच वर्ष की ब्लॉगिंग का अनुभव लेकर आये आशीष मोहता ने ‘विषय वस्तु की विशिष्टता’ (Specialization of Content) पर जोर दिया। उन्होंने ब्लॉगर को अपनी रुचि और विशेषज्ञता के अनुसार कोई खास विषय चुनने और उसे उपयोगी व आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने की सलाह दी। उदाहरणार्थ उन्होंने पाकशास्त्र के जानकारों को लजीज व्यंजन बनाने का वीडियो तैयारकर उसे पॉडकास्ट करने का सुझाव दिया। इसी प्रकार अनेक ऑडियो-विज़ुअल और टेक्स्ट डिजाइन आधारित विशिष्ट विषयों के ब्लॉग बनाये जा सकते हैं।

दिल्ली की डॉ. विनीता रानी ने, जो पेशे से शिक्षिका हैं अपना पर्चा पूरे आत्मविश्वास से पढ़ा जो सुरुचिपूर्वक तैयार किया गया था। उन्होंने बताया कि ब्लॉग बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसे सामाजिक सरोकारों से जोड़ा जाना चाहिए। इसे समाज के हाशिए पर रहने वालों की आवाज़ बनाया जा सकता है। कभी कभी हमें अपना दुःख अभिव्यक्त कर लेने से भी मन को राहत मिल जाती है। दुःख और शोषण से मुक्ति दिलाने की दिशा में बड़ा योगदान हो सकता है यदि ब्लॉग इसके लिए जोरदार आवाज उठाएँ। इसे आपसी लड़ाई लड़ने के लिए निजी अखाड़े के रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिए। वैसे तो इसका प्रयोग हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपने-अपने तरीके से कर सकता है लेकिन सृजनात्मक प्रतिभा के धनी व्यक्ति के लिए यह माध्यम बहुत उपयोगी है।

मुम्बई के ही किसी कॉलेज में प्राध्यापक डॉ. विजय गाड़े ने अपना पर्चा उलट कर रख दिया और अपनी बात सीधे कहने लगे। उनकी शैली में मराठी भाषा का इतना जबरदस्त प्रभाव था कि हम बहुत सी बाते चाहकर भी समझ नहीं पाये, नोट करने में तो दिक्कत थी ही। फिर भी उनकी दो बातें मुझे जरूर समझ में आ गयीं। पहली यह कि कम्प्यूटर पर अधिक समय देने वाले समाज से कट जाते हैं। उन्होंने कहा कि हम दुनिया के बारे में तो तमाम बातें जान जाते हैं लेकिन पड़ोस में क्या हो रहा है इसकी खबर तक नहीं होती। दूसरी बात यह कि नेट आधारित माध्यम का नुकसान सबसे अधिक किताबों को हो रहा है। उन्होंने एक अज्ञात शायर का शेर सुनाया-

बच्चे तो टीवी देखकर खुश हुए जनाब।
दुख इस बात का है कि बेवा हुई किताब॥

इस शेर के बाद भी उन्होंने संचालक के इशारों के बीच कुछ बातें की लेकिन मुझे उनकी सुध नहीं रही क्योंकि उनके तुरन्त बाद मुझे बोलना था।

इतना बताता चलूँ कि मैंने वर्ष २००८ में ब्लॉगिंग शुरू करने के बाद इस आभासी दुनिया के चेहरों को वास्तविक रूप में श्रोताओं के आमने-सामने लाने के तीन बड़े कार्यक्रमों– (i) ब्लॉगिंग की पाठशाला, (ii)चिठ्ठाकारी की दुनिया, (iii) चिठ्ठाकारी की आचारसंहिता के आयोजन और ऐसे अनेक छोटे-बड़े अवसरों में उपस्थित रहने का सौभाग्य पाया है लेकिन विषय विशेषज्ञ के रूप में अपनी बात कहने का मौका शायद पहली ही बार मिला था। अस्तु, मैं बड़े उहापोह में था कि कहाँ से बात शुरू करूँ और क्या-क्या बता दूँ। समय की कमी की ओर बार-बार इशारे हो रहे थे लेकिन जब मैंने माइक सम्भाला तो कई बातें कर डाली:

मैने इस सेमिनार के आयोजकों को साधुवाद दिया और बोला कि अबतक ब्लॉगिंग के ‘स्वरूप, व्याप्ति और संभावनाओं’ के बारे में बहुत सी चर्चा हो चुकी है; इसका परिचय देने के लिए कुछ बाकी नहीं है; इसकी क्या-क्या उपयोगिता हो सकती है इसपर भी अनेक सुझाव आये हैं; मैं आगे चलकर उनमें कुछ जोड़ना चाहूँगा; लेकिन यहाँ इस माध्यम के बारे में जो शंकाएँ उठायी गयी हैं उनके बारे में स्थिति स्पष्ट करना जरूरी समझता हूँ इसलिए मैं सबसे पहले यह माध्यम जिस पृष्ठभूमि में अवतरित हुआ है उसओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा।

यदि आप मानव सभ्यता के विकास की कहानी पर ध्यान देंगे तो पाएंगे कि समुद्र से जंगल और जंगल से बाहर निकलकर सभ्य समाज की स्थापना की लम्बी यात्रा में मनुष्य के रहन सहन के तरीके में जो बड़े बदलाव आये हैं वे किसी न किसी बड़ी वैज्ञानिक खोज या तकनीकी अविष्कार के कारण ही आये हैं। जब हमने पहली बार आग की खोज की तो खाने का स्वाद बदल गया, पहिया या चक्का बनाना आया तो हमारी गति बदल गयी, धातु की खोज हुई और हथियार बनाना सीख लिया तो बेहतर शिकारी और पशुपालक बन गये। अन्न उगाना सीख लिया तो घुमक्कड़ी छोड़ स्थायी नगर और गाँव बसाने लगे। नदी-घाटी सभ्यताएँ विकसित हो गयीं। कपड़े बनाना सीख लिया तो कायदे से तन ढकने लगे, अधिक सभ्य हो गये। भोजपत्र पर अक्षर उकेरने लगे तो पठन-पाठन का विकास हुआ। कागज बना और छापाखाना ईजाद हुआ तो लोगों को किताबे मिलने लगी। ज्ञान विज्ञान का प्रसार हुआ। लोग अँधेरे से निकलकर उजाले की ओर आने लगे। नवजागरण हुआ। बड़े पैमाने पर उत्पादन की तकनीकें विकसित हुईं तो बड़े कल कारखाने स्थापित हुए और उनके इर्द-गिर्द बस्तियाँ बसने लगी। कामगारों का विस्थापन हुआ। समुद्री नौकाएँ बनी तो नये महाद्वीप खोजे गये। अंतरराष्ट्रीय व्यापार होने लगा। औद्यौगिक क्रान्ति हुई।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जब भी कोई बड़ी तकनीकी खोज आयी उसने हमारे रहन-सहन के तरीके में युगान्तकारी परिवर्तन कर दिया। इतना बड़ा परिवर्तन कि यह कल्पना करना कठिन हो जाय कि पहले के लोग इसके बिना रहते कैसे होंगे। रेलगाड़ी के बिना लम्बी यात्राएँ कैसे होती होंगी कंप्यूटर के बिना आम जनजीवन कैसे चलता होगा, यह सोच पाना कठिन है। मोबाइल का उदाहरण तो बिल्कुल हमारे सामने पैदा हुआ है। अबसे दस पन्द्रह साल पहले जब मोबाइल प्रचलन में नहीं था तब लोग कैसे काम चलाते थे?  आज हमें यदि वैसी स्थिति में वापस जाना पड़े तो कितनी कठिनाई आ जाएगी?
इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम ब्लॉग के आविर्भाव को देखें तो पाएंगे कि सूचना क्रांति के इस युग में विचार अभिव्यक्ति का यह ऐसा माध्यम हमारे हाथ लगा है जो एक नये युग का प्रवर्तन करने वाला है। एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हुए हमें जो मौलिक अधिकार मिले हुए थे उनका सर्वोत्तम उपयोग कर पाने का अवसर हममें से कितनों के पास था? हम कितने लोगों से अपनी बात कह पाते थे और कितने लोगों की प्रतिक्रिया हम जान पाते थे? इस माध्यम ने हमें अनन्त अवसर दे दिये हैं जिनका सदुपयोग करने की जिम्मेदारी हमारी है।

मैं इस संगोष्ठी में उठायी गयी कुछ आशंकाओं ्की चर्चा करना चाहूँगा। कल शशि मिश्रा जी ने बहुत ही भावुक कर देने वाला आलेख पढ़ा। खासकर महिला ब्लॉगर्स द्वारा लिखे गये ब्लॉगों से सुन्दर उद्धरण प्रस्तुत किये। लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस था कि अब अपने इष्ट मित्रों, स्नेही स्वजनों को लिखकर भेजे जाने वाला पोस्टकार्ड विलुप्त हो गया है। चिठ्ठी लिखना, लिफाफे में भरकर डाक के हवाले करना और हफ्तो महीनों उसके जवाब का इन्तजार करना एक अलग तरह का सुख देता था। अब यह सब इतिहास हो जाएगा। मैं पूछता हूँ – क्या बिहारीलाल की बिरहिणी नायिका का दुःख सिर्फ़ इसलिए बनाये रखा जाना चाहिए कि उसके वर्णन में एक साहित्यिक रस मिलता है? क्या आज संचार के आधुनिक साधनों ने हमें अपने स्वजनों की कुशलक्षेम की चिन्ता से मुक्त नहीं कर दिया है? हमें अपनों के बारे में पल-पल की जानकारी मिलती रहे तो मन में बेचैनी नहीं रहती। यह स्थिति प्रसन्न रहने की है या अफ़सोस करने की?

अभी एक सज्जन ने कहा कि कम्प्यूटर के माध्यम से हम दुनिया से तो जुट जाते हैं लेकिन पड़ोस में क्या हो रहा है इसका पता नहीं चलता। मेरी समझ से ऐसी स्थिति उनके साथ होती होगी जो कम्प्यूटर और इन्टरनेट का प्रयोग गेम खेलने और पोर्नसाइट्स देखने के लिए करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि जिसे ब्लॉगिंग के बारे में कुछ भी पता है वह ठीक इसका उल्टा सोचता होगा। एक ब्लॉगर के रूप में आप कम्प्यूटर और इंटरनेट से जुड़कर क्या करते हैं? आपका कंटेंट क्या होता है? जबतक आप अपने आस-पास के वातावरण के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे, अपने घर-द्वार, कार्यालय और नजदीकी समाज के बारे में कुछ चिंतन नहीं करेंगे तबतक आप क्या इनपुट देंगे? किस बात के बारे में पोस्ट लिखेंगे? मैं तो समझता हूँ कि एक सामान्य व्यक्ति के मुकाबले एक ब्लॉगर अपने आँख कान ज्यादा खुले रखता है। एक पोस्ट के जुगाड़ में वह सदैव खोज करता रहता है। मूर्धन्य ब्लॉगर ज्ञानदत्त पांडेय जी की पोस्टें देखिए उनके घर के पास बहने वाली गंगा जी के तट पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तु और मनुष्य उनकी पोस्टों के नियमित पात्र हैं। उनके पड़ोस के बारे में उनके साथ-साथ हम भी बहुत कुछ जान गये हैं और वैसी ही ही दृष्टि विकसित करना चाहते हैं। यहाँ तक कि सोशल नेटवर्किंगसाइट्स से जुड़े लोग भी अपने आसपास पर निकट दृष्टि रखते हैं, ब्लॉगर्स के तो कहने ही क्या?

यहाँ कुछ वक्ताओं द्वारा पुस्तकों के घटते महत्व और हमारी संस्कृति से जुड़ी तमाम बातों के लुप्त होने पर चिन्ता व्यक्त की गयी। मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि ब्लॉग लेखन इस समस्या का कारण नहीं है बल्कि यह इसका समाधान है। हमारे कितने ब्लॉगर बन्धु अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ते हैं और उसकी समीक्षा लिखते हैं। दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। बहुत सा उम्दा साहित्य ब्लॉग और साइट्स के माध्यम से इंटरनेट पर अपलोड किया जा रहा है। अनूप शुक्ल जी ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर ‘राग दरबारी’ जैसे कालजयी उपन्यास को एक ब्लॉग बनाकर उसपर पोस्ट कर दिया है। वर्धा विश्वविद्यालय की साइट हिंदी-विश्व पर उत्कृष्ट हिंदी साहित्य के दस लाख पृष्ठ अपलोड करने की योजना चल रही है। रवि रतलामी ने ‘रचनाकर’ पर तमाम साहित्य चढ़ा रखा है। आज यदि आप यह सोच रहे हैं कि बच्चे कम्प्यूटर शट-डाउन करके लाइब्रेरी जाएँ और साहित्यिक किताबें इश्यू कराकर पढ़ें तो आपको निराशा होगी। करना यह होगा कि लाइब्रेरी के साहित्य को ही यहाँ उठाकर लाना होगा। ब्लॉग इस काम के लिए सबसे अच्छा और सहज माध्यम है।

हमारी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में भी ब्लॉग बहुत हद तक समर्थ है। मैंने अपनी एक ब्लॉग पोस्ट का उदाहरण दिया जिसमें गाँवों में पहले कूटने-पीसने के लिए प्रयुक्त ढेंका और जाँता के बारे में बताया था। उन यन्त्रों के बारे में आगे की पीढ़ियाँ कुछ भी नहीं जान पाएंगी यदि हमने उनके बारे में जानकारी यहाँ सहेजकर नहीं रख दी। उनसे उपजे मुहाबरे और लोकोक्तियों का अर्थ रटना पड़ेगा क्योंकि उन्हें समझना मुश्किल हो जाएगा। देश दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मनाये जाने वाले पर्व त्यौहार कैसे होते हैं, क्या रीति-रिवाज व्यवहृत हैं इनके बारे में प्रथम स्तर की सीधी जानकारी ब्लॉग नहीं देगा तो कौन देगा?

पिछले सत्र में किसी ने बहुत ही सही बात कही कि एक तेज चाकू की धार से ्कुशल सर्जन द्वारा शल्यक्रिया करके किसी की जान बचायी जाती है और वही चाकू जब कोई विवेकभ्रष्ट अपराधी थाम लेता है तो किसी की हत्या तक कर देता है। इसलिए किसी भी साधन के प्रयोग में विवेक का सही प्रयोग तो महत्वपूर्ण शर्त होगी ही। इससे हम कत्तई इन्कार नहीं कर सकते कि ब्लॉग के माध्यम का प्रयोग भी पूरी जिम्मेदारी से सकारात्मक उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए। हम अपने आप को गौरवान्वित महसूस करें कि हम सभ्यता के विकास के ऐसे सोपान पर खड़े हैं जो एक और युगान्तकारी परिवर्तन का साक्षी है। अभिव्यक्ति की जो नयी आजादी मिली है वह गलत हाथों में पड़कर जाया न हो जाय इसलिए हमें पूरी दृढ़ता से अपने विवेक का प्रयोग करते हुए इसके सदुपयोग को सुनिश्चित करना चाहिए जिससे मानवता की बेहतर सेवा  हो सके।

मेरे बाद शैलेश भारतवासी को आमंत्रित किया गया जिन्होंने संक्षिप्त किंतु बहुत उपयोगी बातें रखीं। इस पोस्ट की शब्दसीमा का पहले ही उल्लंघन किया जा चुका है इसलिए अब और विस्तार न देते हुए अपनी बात समाप्त करता हूँ। हाँ इतना और बताता चलूँ कि मैंने सत्राध्यक्ष डॉ. शीतला प्रसाद पांडे जी की अनुमति से अपना रचा हुआ एक गीत भी लैपटॉप खोलकर मंच से सुना दिया। आपने यदि नहीं पढ़ा हो तो यहाँ पढ़ लीजिए। जुलाई २००८ में रचित यह गीत आज भी प्रासंगिक जान पड़ता है।

यदि समय ने साथ दिया तो आयोजन की कुछ झलकियाँ चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करूंगा। धन्यवाद।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

अंततः हम आए, लेकिन…

9 टिप्पणियां

पिछले दिनों क्वचिदन्यतोऽपि की अचानक गुमशुदगी की सूचना चारो ओर फैल गयी। हिंदी ब्लॉग जगत के सबसे सक्रिय ब्लॉग्स में से एक अचानक गायब हो गया। इंटरनेट के सागर में इतने बड़े ब्लॉग का टाइटेनिक डूब जाय तो हड़कंप मचनी ही थी। बड़े-बड़े गोताखोर लगाये गये। महाजालसागर को छाना गया। कुछ चमत्कार कहें कि डॉ. अरविंद मिश्रा की लम्बी साधना का पुण्य प्रताप जो बेड़ा गर्क होने से बच गया। सच मानिए उनकी पोस्ट पढ़कर मेरे पूरे शरीर में सुरसुरी दौड़ गयी थी। यह सोचकर कि ऐसी दुर्घटना यदि मेरे साथ हो गयी तो मैं इससे हुए नुकसान का सदमा कैसे बर्दाश्त करूंगा? गनीमत रही कि जल्दी ही निराशा के बादल छँट गये और ब्लॉग वापस आ गया।

इस घटना का प्रभाव हिंदी ब्लॉगजगत में कितना पड़ा यह तो मैं नहीं जान पाया लेकिन इतना जरूर देखने को मिला कि गिरिजेश जी जैसे सुजान ब्लॉगर ने आलसी चिठ्ठे का ठिकाना झटपट बदल कर नया प्लेटफॉर्म चुन लिया। कबीरदास की साखी याद आ गयी।

बूड़े थे परि ऊबरे, गुरु की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा,  ऊतरि पड़े फरंकि॥

मुझे ऐसा करने में थोड़ा समय लगा क्योंकि तकनीक के मामले में अपनी काबिलियत के प्रति थोड़ा शंकालु रहता हूँ। लेकिन मुख्य वजह रही मेरी ब्लॉगरी के प्रति कम होती सक्रियता। इस बात से दुखी हूँ कि इस प्रिय शौक को मैं पूरी शिद्दत से अंजाम नहीं दे पा रहा हूँ। आज मैंने थोड़ा समय निकालकर इस सुस्त पड़ी गाड़ी को आगे सरकाने की कोशिश की। वर्डप्रेस पर आसन जमाने का उपक्रम किया और यह पोस्ट लिखने बैठा।

इस पोस्ट को लिखने के बीच में जब मैने आलसी का चिठ्ठा खोलकर उस स्थानान्तरण वाली पोस्ट का लिंक देना चाहा तो फिर से चकरा गया। महोदय वापस लौट आये हैं। पुराना पता फिर से आबाद हो गया है। वर्डप्रेस के पते पर एक लाइन का संदेश भर मिला है। पूरी कहानी उन्हीं की जुबानी सुनने के लिए अब फोन उठाना होगा।

फिलहाल जब इतनी मेहनत करके यह नया टेम्प्लेट बना ही लिया है तो इस राम कहानी को ठेल ही देता हूँ। इस नये पते को कम ही लोग जानते होंगे। जो लोग यहाँ तक आ गये हैं उन्हें बता दूँ कि मेरा मूल ब्लॉग सत्यार्थमित्र ब्लॉगस्पॉट के मंच पर पिछले पौने-चार साल से बदलती परिस्थितियों के अनुसार मद्धम, द्रुत या सुस्त चाल से चल रहा है। अब लगता है कि फिलहाल वहीं चलता रहेगा।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

राजा क्या करता है… घोटाला?

14 टिप्पणियां

सप्ताहांत अवकाश था तो बच्चों के साथ थोड़ा समय बिताने का मौका मिला। वैसे तो मैं इस छुट्टी के दिन का सदुपयोग मन भर सो लेने के लिए करना चाहता हूँ लेकिन बच्चों की दुनिया सामने हो तो बाकी सबकुछ भूल सा जाता है। सत्यार्थ अभी अपना पाँचवाँ जन्मदिन मनाने वाले हैं लेकिन उनका खाली समय जिस प्रकार के कम्प्यूटरी खेलों में बीतता है उसे देखकर मुझे रा.वन, जी.वन और ‘रोबोट’ फिल्म के वशीकरण और चिट्टी के सपने आने लगते हैं। मुझे कभी-कभी चिन्ता होने लगती है कि इस जमाने की हवा कहीं उनका बचपन जल्दी ही न छीन ले। छोटी सी उम्र में इतनी बड़ी-बड़ी हाई-टेक बातें निकलती हैं; ऐसे-ऐसे एक्शन होते हैं कि मैं चकरा जाता हूँ।

मेरी कोशिश होती है कि उनका ध्यान टीवी के कार्टून चैनेल्स और कम्प्यूटर के ऑनलाइन गेम्स की दुनिया से बाहर खींचकर कुछ पारंपरिक और देशज खेलों की ओर ले जाऊँ। लेकिन लूडो और साँप सीढ़ी के खेल उन्हें बोर करते हैं। अब ‘मोनॉपली’ और ‘प्लॉट-फोर’ में वे बड़ों-बड़ों को हराने का आनंद लेते हैं। इसमें वे अपने दादा जी के साथ-साथ मुझे भी मात दे चुके हैं। अब अपने से छः साल बड़ी दीदी के साथ उसके स्तर के खेल पूरी निपुणता से खेलते हैं। कम्प्यूटर पर रोज नया गेम सर्च कर लेते हैं और घंटों ‘की-बोर्ड’ के माध्यम से उछल-कूद, मार-धाड़, लुका-छिपी और निशानेबाजी करते रहते हैं। इसके नुकसान से बचाने के लिए घर में कम्प्यूटर का समय सीमित करने के लिए नियम बनाने पड़े हैं।

class-presentation-day

इस शनिवार मैंने टीवी और कम्प्यूटर बन्द रखा। इन्हें अपने पास बुलाया और दुनिया भर की बातें करने की कोशिश की। स्कूल का हाल-चाल पूछा। क्लास टीचर मै’म कैसी लगती हैं, कैसा पढ़ाती हैं, यह भी पूछ लिया। लेकिन ये मायूस थे। इनकी दीदी अपनी दोस्त के घर चली गयी थी। वह दोस्त जो बीमारी में स्कूल नहीं जा सकी थी और उसका क्लास वर्क पिछड़ गया था। वागीशा उसी की मदद के लिए कुछ घंटे इनसे दूर चली गयी थी; और ये बुरी तरह से बोर हो रहे थे। जब मैंने दूसरों की मदद करने को अच्छा काम बताया और इन्हें यह सब समझ पाने में ‘समर्थ’ होने के लिए प्रशंसा की और बधाई दी तो ये खुश हो गये। फिर बोले- तो ये तो बताओ, मैं अकेले कौन सा खेल खेलूँ?

मैंने कहा- मोनोएक्टिंग करिए। एकल अभिनय। थोड़े संकेत में ही ये समझ गये। डबल बेड पर खड़ा होकर सबसे पहले हनुमान जी की तरह हवा में गदा भाँजने लगे। फिर रोबोट फिल्म के चिट्टी की तरह मशीनी चाल चलने लगे। एक-एक कदम की सटीक नकल देखकर मैं हैरत में पड़ गया। मैं उन्हें यह खेल थमाकर वहीं एक किनारे लेट गया। ये तल्लीन होकर विविध पात्रों की एक्टिंग करने लगे।

इसी शृंखला में एक पात्र राजा का आया जो अपने अनुचर से तमाम फरमाइशें कर रहा था; और अनुचर अपने ‘आका’ के हुक्म की तामील कर रहा था। प्रत्येक संवाद पर पात्र की स्थिति के अनुसार स्थान परिवर्तन हो रहा था। राजा एक काल्पनिक सिंहासन से बोल रहा था और अनुचर नीचे घुटना टेककर बैठे हुए।

-सिपाही…
-हुक्म मेरे आका…
-जाओ मिठाई ले आओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, बिस्कुट लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, सेब लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, मैगी लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, चॉकलेट लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, कुरकुरे लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, एप्पल लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, बनाना लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, किंडर-जॉय लाओ…
-जो हुक्म मेरे आका…
-जाओ, ….

अब फरमाइशी सामग्री का नाम नहीं सूझ रहा था। इसलिए प्रवाह थमने लगा। मेरी भीतरी मुस्कान अब हँसी बनकर बाहर आने लगी थी। मैंने चुहल की- अरे राजा केवल खाता ही रहेगा कि कोई काम भी करेगा?

वे विस्मय छिपाते हुए पूरा आत्मविश्वास सहेजकर बोले- राजा क्या करता है? वह तो बस खाता-पीता और आराम ही करता है।

मैंने कहा- नहीं, ऐसी बात नहीं है। वह अपने राज्य में बड़े-बड़े काम करता है।

उन्होंने पूछा- राजा कौन से बड़े काम करता है?

मुझे मजाक सूझा, मैने कहा- ‘राजा’ बड़े-बड़े घोटाले करता है।

‘घोटाला’ शब्द उनके लिए बिल्कुल नया था। वे सोच में पड़ गये।

थोड़ी देर उधेड़-बुन करने के बाद  मुझसे ही पूछ लिया- डैडी, यह घोटाला कैसे किया जाता है?

अब झेंपने की बारी मेरी थी। कैसे समझाऊँ कि कैसे किया जाता है। वे घोटाला करने का अभिनय करने को उतावले थे। मेरी बात पकड़कर बैठ गये। “बताओ न डैडी….”

मैने समझाया- बेटा, जब देश का राजा जनता की मेहनत से कमाया हुआ पैसा हड़प लेता है और उसे जनता की भलाई के लिए खर्च नहीं करता है तो उसे घोटाला करना कहते हैं।

-हड़पने का मतलब क्या होता है?

-मतलब यह कि जो चीज अपनी नहीं है, दूसरे की है उसे जबरदस्ती ले लेना या चुरा लेना।

-अच्छा, तो अब मैं चला दूसरों का पैसा चुराने…

इसके बाद वे बिस्तर से कूदकर नीचे आये और एक काल्पनिक गठरी बगल में दबाए दौड़ते हुए बाहर भाग गये।

उफ़्फ़्‌, खेल-खेल में मैंने यह क्या सिखा दिया?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मेरा मन क्यूँ छला गया…?

19 टिप्पणियां

लो अक्टूबर चला गया

मेरा मन क्यूँ छला गया

 

सोचा भ्रष्टाचार मिटेगा सब खुशहाल बनेंगे अब

अन्ना जी की राह पकड़कर मालामाल बनेंगे सब

काला धन वापस आएगा, रामदेव जी बाटेंगे

अति गरीब पिछड़े जन भी अब धन की चाँदी काटेंगे

लेकिन था सब दिवास्वप्‍न जो पलक झपकते टला गया

मेरा मन फिर छला गया।

 

गाँव गया था घर-घर मिलने काका, चाचा, ताई से

बड़की माई, बुढ़िया काकी, भाई से भौजाई से

और दशहरे के मेले में दंगल का भी रेला था

लेकिन जनसमूह के बीच खड़ा मैं निपट अकेला था

ईर्श्या, द्वेष, कमीनेपन के बीच कदम ना चला गया

मेरा मन फिर छला गया

 

एक पड़ोसी के घर देखा एक वृद्ध जी लेटे थे

तन पर मैली धोती के संग विपदा बड़ी लपेटे थे

निःसंतान मर चुकी पत्नी अनुजपुत्रगण ताड़ दिए

जर जमीन सब छीनबाँटकर इनको जिन्दा गाड़ दिए

दीन-हीन थे, शरणागत थे,  सूखा आँसू जला गया

मेरा मन फिर छला गया

 

मन की पीड़ा दुबक गयी फिर घर परिवार सजाने में

जन्मदिवस निज गृहिणी का था खुश हो गये मनाने में

घर के बच्चे हैप्पी-हैप्पी बर्डे बर्डॆ गाते थे

केक, मिठाई, गिफ़्ट, डांस, गाना गाते, चिल्लाते थे

सबको था आनंद प्रचुर, हाँ बटुए से कुछ गला गया

मेरा मन बस छला गया

 

सोच रहा था तिहवारी मौसम में खूब मजे हैं जी

विजयादशमी, दीपपर्व पर घर-बाजार सजे हैं जी

शहर लखनऊ की तहजीबी सुबह शाम भी भली बहुत

फिर भी मन के कोने में क्यूँ रही उदासी पली बहुत

ओहो, मनभावन दरबारी राग गव‍इया चला गया

मेरा मन फिर छला गया।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मेरा मन क्यूँ छला गया…?

टिप्पणी करे

 

लो अक्टूबर चला गया

मेरा मन क्यूँ छला गया

सोचा भ्रष्टाचार मिटेगा सब खुशहाल बनेंगे अब

अन्ना जी की राह पकड़कर मालामाल बनेंगे सब

काला धन वापस आएगा, रामदेव जी बाटेंगे

अति गरीब पिछड़े जन भी अब धन की चाँदी काटेंगे

लेकिन था सब दिवास्वप्‍न जो पलक झपकते टला गया

मेरा मन फिर छला गया।

गाँव गया था घर-घर मिलने काका, चाचा, ताई से

बड़की माई, बुढ़िया काकी, भाई से भौजाई से

और दशहरे के मेले में दंगल का भी रेला था

लेकिन जनसमूह के बीच खड़ा मैं निपट अकेला था

ईर्श्या, द्वेष, कमीनेपन के बीच कदम ना चला गया

मेरा मन फिर छला गया

एक पड़ोसी के घर देखा एक वृद्ध जी लेटे थे

तन पर मैली धोती के संग विपदा बड़ी लपेटे थे

निःसंतान मर चुकी पत्नी अनुजपुत्रगण ताड़ दिए

जर जमीन सब छीनबाँटकर इनको जिन्दा गाड़ दिए

दीन-हीन थे, शरणागत थे,  सूखा आँसू जला गया

मेरा मन फिर छला गया

 

मन की पीड़ा दुबक गयी फिर घर परिवार सजाने में

जन्मदिवस निज गृहिणी का था खुश हो गये मनाने में

घर के बच्चे हैप्पी-हैप्पी बर्डे बर्डॆ गाते थे

केक, मिठाई, गिफ़्ट, डांस, गाना गाते, चिल्लाते थे

सबको था आनंद प्रचुर, हाँ बटुए से कुछ गला गया

मेरा मन बस छला गया

 

सोच रहा था तिहवारी मौसम में खूब मजे हैं जी

विजयादशमी, दीपपर्व पर घर-बाजार सजे हैं जी

शहर लखनऊ की तहजीबी सुबह शाम भी भली बहुत

फिर भी मन के कोने में क्यूँ रही उदासी पली बहुत

ओहो, मनभावन दरबारी राग गव‍इया चला गया

मेरा मन फिर छला गया।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है…

16 टिप्पणियां

हमें स्कूल में भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ विषय पर निबन्ध रटाया गया था। इसमें एक विशेषता थी- सहिष्णुता। इस विशेषता को लेकर मेरे मन में कौतूहल होता रहा है। भूख, भय, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदा या किसी दुर्घटना  से उत्पन्न दुख व विपत्ति को सहन कर लेने की क्षमता यदि हमारे भीतर प्रचुर मात्रा में है तो अच्छा ही है। हमें उस विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने में मदद मिलती है। लेकिन यदि इस फेर में हमें कुछ भी सह लेने की आदत पड़ जाय तो वही होता है जो भारत के साथ हुआ है। इतिहास बताता है कि किस तरह हमने विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं को भी आराम से सहन कर लिया। घर बुलाकर मेहमान बनाया और फिर मालिक बनाकर देश की राजगद्दी सौंप दी। एक के बाद एक भ्रष्टाचारी कीर्तिमान हमारी आँखों के सामने बनते जाते हैं और हम मूक दर्शक बनकर या “अन्ना हजारे जिन्दाबाद” का नारा लगाकर घर बैठ जाते हैं। हमारे भीतर अन्याय, अत्याचार, शोषण, और भ्रष्टाचार के प्रति गजब की सहनशक्ति विकसित हो चुकी है। इस उपलब्धि के पीछे हमारी भारतीय रेल का भी थोड़ा हाथ है इसका विचार मेरे मन में पिछली यात्रा के दौरान प्रकट हुआ।

मेरा अनुभव कुछ नया नहीं है। आप सबको इस स्थिति का सामना आये दिन होता होगा। एक आम भारतीय के लिए रेलगाड़ी से यात्रा करना अपनेआप में एक मजबूरी है। एक मात्र सस्ता और टिकाऊ विकल्प यही है, सुन्दर भले ही न हो। a-crowded-passenger-trainलम्बी दूरी की गाड़ियो के जनरल डिब्बे किस प्रकार जीवित मानव देह की लदान करते हैं; और जायज टिकट वालों को भी किसप्रकार थप्पड़ खानी पड़ती है और अंटी ढीली करनी पड़ती है, यह वर्णनातीत है। मैं उस चरम स्थिति की चर्चा नहीं कर रहा हूँ। मैं तो अपेक्षाकृत अधिक सुविधा सम्पन्न श्रेणियों में यात्रा करने वालों में से एक होकर उससे प्राप्त अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की रक्षा में अनुपम योगदान दे रही है।Open-mouthed smile

हाल ही में मुझे अपनी माता जी के खराब स्वास्थ्य की चिन्ता से गोरखपुर जाना हुआ। वहाँ से लखनऊ वापसी की यात्रा रविवार 25 जुलाई, 2011 को अवध एक्सप्रेस से करनी थी जिसका निर्धारित समय दोपहर 1:15 का था। गाड़ी पकड़ने से पहले मुझे अम्मा को हड्डी के डॉक्टर से दिखाना था। अलस्सुबह उठकर मैंने डॉक्टर के यहाँ नम्बर लगाया, क्‍लिनिक खुलने पर लाइन लगाया, डॉक्टर ने प्रारम्भिक जाँच के बाद डिजिटल एक्स-रे के लिए अन्यत्र भेजा। वहाँ एक घंटे लगे। वापस आकर उन्होंने रिपोर्ट देखी और दवाएँ लिखने के बाद दो अन्य विशेषज्ञ चिकित्सकों (न्यूरोलॉजिस्ट और गैस्ट्रोइंटेरोलॉजिस्ट) को रेफ़र कर दिया। दोनो जगह जाने पर पता चला कि रविवार होने से इनके क्‍लिनिक बन्द थे। मेरे बड़े भैया ने कहा कि वे अम्मा को अगले दिन दिखा देंगे। यानि मुझे अब लखनऊ की गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन जाना चाहिए। मैं यह सब दौड़-धूप करता हुआ लगातार मोबाइल से गाड़ी के प्रस्थान समय की सूचना ले रहा था।

गाड़ी 50 मिनट लेट होने की कम्प्यूटरीकृत सूचना मोबाइल पर एक बार शुरू हुई तो अन्ततक रिकार्ड बदला नहीं गया। मैं उसी के अनुसार स्टेशन पहुँचा तो पू्छताछ केन्द्र पर लगा बोर्ड गाड़ी के 30 मिनट देरी से  7-नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर आने की सूचना दे रहा था। मेरे हाथ पाँव फूल गये। दौड़ता-भागता हुआ मैं ओवरब्रिज पर चढ़कर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-7 पर उतरा। एक दिक्कत यह भी हुई कि ओवरब्रिज से प्‍ले‍टफॉर्मों पर उतरने वाली सीढ़ियों के पास प्‍ले‍टफॉर्म संख्या दर्शाने वाले बोर्ड नदारद थे। मुझे एक मिनट रुककर पहले नम्बर से गिनती करते हुए सातवें नम्बर का अनुमान लगाना पड़ा।

प्‍ले‍टफॉर्म पर अधिकांश यात्री अपना सामान हाथ में संभाले गाड़ी आने की दिशा की ओर देख रहे थे। मुझे आश्वस्ति हुई कि अभी गाड़ी आयी नहीं है, बल्कि कुछ ही देर में आने वाली है। दस-पन्द्रह मिनट बीते और गाड़ी नहीं आयी तो सबने अपने हाथ में टँगा सामान नीचे रखना शुरू किया और अपनी जगह पर वापस आने लगे। कुछ देर खड़ा रहने के बाद मैं भी थकान के कारण बैठने की जगह खोजने लगा। सारी बेन्चें क्षमता से अधिक भार से लदी हुई थीं। रेलगाड़ी चलाने वाले गार्ड्स के उपयोग हेतु बने लकड़ी या लोहे के बक्से बड़ी मात्रा में वहीं बिखरे पड़े थे। उनपर भी यात्रियों ने कब्जा जमा रखा था। एक जगह बक्से एक के ऊपर एक रखे हुए थे जो ऊँचे हो जाने के कारण खाली थे। मैं उचककर ऐसे ही एक बक्से पर बैठ गया। निचले बक्से के कोने की टिन फटी हुई थी जिसमें मेरे पैंट की मोहरी उलझ गयी लेकिन संयोग से कोई चीरा नहीं लगा।

मोबाइल पर कम्प्यूटरीकृत सूचना अभी भी वास्तविक आगमन समय 13:55 और वास्तविक प्रस्थान समय 14:00 बजे का बता रही थी जबकि सवा दो बज चुके थे और गाड़ी का कुछ पता नहीं था। कुछ देर बाद सात नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर ही दूसरी दिशा से (लखनऊ की ओर से) एक गाड़ी आकर रुकी। इस पर भी अवध एक्सप्रेस लिखा था। कुछ लोग इसपर चढ़ने का उपक्रम करने लगे। ये वो थे जिन्हें अपने गन्तव्य की सही दिशा का ज्ञान नहीं था। गनीमत थी कि यह इस गाड़ी का आखिरी स्टेशन था और यात्रियों के उतरने के बाद रेलकर्मी इसकी खिड़कियाँ और दरवाजे बन्द करने लगे। मुझे अब यह चिन्ता हुई कि इस गाड़ी के प्‍ले‍टफॉर्म खाली करने में कम से कम आधे घंटे तो लगेंगे ही, इसलिए मेरी गाड़ी अभी आधे घंटे और नहीं आ सकेगी। तभी घोषणा हुई कि अवध एक्सप्रेस थोड़ी ही देर में दूसरी ओर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-6 पर आ रही है। सभी यात्री अपना सामान उठाकर उसी प्‍ले‍टफॉर्म पर एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ हो लिए।

three_tier_air_conditioned_करीब सवा तीन बजे गाड़ी नमूदार हुई। हम थके-हारे अपना ए.सी. थर्ड कोच नम्बर-B2 ढूँढकर उसके बर्थ संख्या-11 पर पहुँचे। यह सबसे ऊपर की बर्थ मैंने जानबूझकर ली थी ताकि दिन में भी आराम से लेटकर यात्रा की जा सके। थकान इतनी थी कि तुरन्त सो जाने का मन हुआ। मैंने अटेन्डेन्ट को खोजकर तत्काल बेडरोल ले लेने का सोचा लेकिन वह अपने स्थान पर नहीं मिला। मैं अपनी बर्थ पर लौट आया और यूँ ही लेट गया। सामने की बर्थ से पहले से प्रयोग की जा चुकी एक तकिया लेकर अपने सिर को आराम दे दिया। गाड़ी चल चुकी थी। पन्द्रह-बीस मिनट बाद जब टीटीई साहब आये तो मुझे नींद लग चुकी थी। उनके जगाने पर मैंने आँखें मूँदे हुए ही जेब से टिकट और फोटो आईडी (PAN Card) निकाला और उनकी ओर बढ़ाते हुए अनुरोध किया कि बेडरोल वाले को चादर के साथ भेज दें। उनके आश्वासन से सन्तुष्ट होकर मैं करवट बदलकर सो गया।

करीब एक घंटे बाद एक स्टेशन पर कुछ और यात्री चढ़े। उनका टिकट देखने टीटीई साहब दुबारा आये तो मैंने उठकर बेडरोल की बात याद दिलायी। वे चकित होकर बोले- मैंने तो उससे तभी कह दिया था, क्या अभी तक नहीं दिया उसने? यह कहते हुए वे तत्परता से किनारे की ओर गये और थोड़ी देर में एक लड़के के साथ वापस आये। यह कोच अटेन्डेन्ट था। टीटीई ने उससे कहा कि इन्हें बताओ कि मैंने तुमसे बेडरोल के लिए कहा था कि नहीं। वह बोला- अच्छा, दे देंगे। उसकी लापरवाह शैली से मुझे झुँझलाहट हुई। मैंने अधीर होकर पूछा- कबतक दे दोगे। लखनऊ पहुँच जाने के बाद? इस पर वह तैश में आ गया और बोला- जाओ, नहीं दूँगा (मानो कह रहा था- क्या कल्लोगे!) मैं हतप्रभ सा हो गया। टीटीई साहब को भी यह बहुत बुरा लगा। वे उसे डाँटने जैसा कुछ कहने लगे। उसमें यह बात भी शामिल थी  कि उस लड़के के साथ ही अक्सर ऐसा लफड़ा हो जाता है। मैंने उनसे पूछा- क्या आपके पास इसकी शिकायत दर्ज करने का कोई अधिकार नहीं है? आप मेरी ओर से लिखित शिकायत दर्ज कर लीजिए और उच्चाधिकारियों के संज्ञान में लाइए।

मेरी इस बात पर टीटीई साहब थोड़े संजीदा हो गये। सकुचाते हुए बोले- अरे साहब, यह बात किसको नहीं पता है! जबसे यह काम प्राइवेट ठेकेदारों के हाथ में दे दिया गया है तबसे कोई कंट्रोल नहीं रह गया है। ये किसी की नहीं सुनते। इन्हें कोई डर ही नहीं है। मैं अगर शिकायत करना चाहूँ तो मुझे तमाम कागज बनाने पड़ेंगे, कई बार ऑफिस के चक्कर लगाने पड़ेंगे और परिणाम फिर भी कुछ नहीं मिलेगा। मैंने पूछा- अगर मैं शिकायत करना चाहूँ तो किसे लिखना होगा? वे बोले- वेबसाइट पर देखिएगा। यह गाड़ी (19040/AVADH EXP) पश्चिम रेलवे की है। ठेकेदार भी उन्ही का है। यहाँ से उनके खिलाफ़ कुछ नहीं हो पाता है। आप वहीं शिकायत कीजिए। मैंने तय किया कि घर पहुँचकर रेलवे में उस लापरवाह केयरटेकर की शिकायत ऑनलाइन दर्ज कराऊंगा।

इस कहासुनी के दस-पन्द्रह मिनट बाद उसने मुझे दो चादरें व एक तकिया लाकर दे दिया। कम्बल सामने की बर्थ पर मौजूद था जिसकी जरूरत नहीं थी, और छोटा तौलिया वह किसी को दे ही नहीं रहा था।

मैं अपनी बर्थ पर लेटे हुए इस परिदृश्य पर विचार करता रहा। काश रेलवे का कोई सक्षम अधिकारी बिना किसी पूर्व सूचना के ऐसे यात्री डिब्बों में चुपचाप यात्रा करता और बाद में दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करता! wishful thinking!!! मैंने देखा तो यह है कि जब किसी ट्रेन में कोई बड़ा रेल अधिकारी अपने सैलून में चल रहा होता है तो वह ट्रेन भी समय से चलती है और दूसरी यात्री सुविधाएँ भी जैसे- भोजन व जलपान आदि  बेहतर हो जाती हैं। बाकी समय में रेल हमारी सहिष्णुता भरी छाती पर मूँग दलते ही चलती है।

मैं उस डिब्बे में चल रहे अन्य यात्रियों के दृष्टिकोण को परखने की कोशिश करने लगा। मैंने महसूस किया कि रेलवे द्वारा टिकट के पैसों में इस सुविधा के लिए अलग से शुल्क वसूलकर भी इसको वास्तव में उपलब्ध कराने में की जा रही लापरवाही के प्रति लोगों में प्रायः उदासीनता है। जो चिन्तित करने वाली बात है। मैंने देखा कि जिन्हें बेडरोल की तुरन्त जरूरत थी वे कोच के एक सिरे तक जाते और वहाँ उस लड़के से अनुरोध करके अपने लिए चादर वगैरह खुद ले आते। मैंने देखा कि वह लड़का जाने कहाँ से आये अपने साथियों के साथ ताश खेलने में व्यस्त रहा। उसने न तो कोई यूनीफॉर्म पहन रखा था और न ही नाम का कोई बिल्ला लगा रखा था कि उसे पहचाना जा सके। यात्री आपस में भुनभुनाते हुए उसके प्रति असंतोष तो व्यक्त कर रहे थे लेकिन उससे उलझने या उसको टोकने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। शायद वे रात में सोने का समय होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। शायद तबतक उन्हें बेडरोल अपनेआप ही मिल जाता। लेकिन रात दस बजे लखनऊ पहुँचने तक लगभग सात घंटे की यात्रा में मैंने एक भी बर्थ पर उसे अपनेआप बेडरोल पहुँचाते नहीं देखा।

घर वापस आकर मैं अपनी गृहस्थी और नौकरी में व्यस्त हो गया हूँ। शिकायत दर्ज करने की इच्छा धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। तीन दिन बीत जाने के बाद यह हाल आपको बता पाने का मौका पा सका हूँ। यात्रा की तिथि, स्थान, समय व अन्य विवरण वास्तविक रूप से इसलिए उद्धरित कर दिया है कि शायद रेल महकमें का कोई जिम्मेदार अधिकारी इसे पढ़कर कोई स्वतः स्फूर्त कार्यवाही कर डाले। हमें तो परिस्थितिजन्य सहिष्णुता ने घेर लिया है। Confused smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

Older Entries