हिन्दी ब्लाग जगत में अनेक नारीवादी चिट्ठे पढने और उनपर आने वाली गर्मा-गरम टिप्पणियों और प्रति-टिप्पणियों को पढ़ने के बाद मन में हलचल मच ही जाती है। ‘चोखेरबाली’ और ‘नारी ’ ब्लाग के क्या कहने…। समुद्र मंथन में एक से एक अमूल्य रत्न-सुभाषित निकल कर आ रहे हैं। बीच-बीच में कभी-कभार दोनो ओर से “विष रस भरा कनक घट जैसे” विचार भी प्रकट हो जाते हैं। अभी इस प्रक्रिया के ठोस निष्कर्ष आने बाकी हैं, फिर भी मन कभी- कभी उद्विग्न हो ही जाता है। डा.अनुराग की शब्दावली में कहूँ तो- ऐसे ही बवंडर के बीच कुछ लफ़्ज हवा में लड़ते से दिख गये जिन्हें पकड़कर काग़ज (सफ़्हे?) पर चिपका दिया और यह तुकान्त कविता बन गई-

चित्रकृति http://www.sulekha.com से साभार

प्रगतिशील स्वातन्त्र्य-प्रेम की लौ जलती है,
समता के अधिकारों की इच्छा पलती है।
इस समाज ने डाल दिये हैं जो भी बन्धन
छिन्न-भिन्न करने देखो,‘नारी’ चलती है॥

घर की देवी, पुण्य-प्रसूता, कुल की रानी,
ममतामयी, सहचरी, प्रिया, बात-बेमानी।
अब दुर्गा, काली का रूप धर रही माया;
करुणा छोड़ ध्वंस करने की इसने ठानी॥

वैवाहिक बंधन अब बेड़ी सा लगता है,
है नर का वर्चस्व, भाव ऐसा जगता है।
इस अन्याय भरी दुनिया के खण्डन से ही;
इनके मन से क्षोभ-कलुष देखो भगता है॥

जंगल के बाहर मनुष्य का वो आ जाना,
नर-नारी के मिलन-प्रणय का नियम बनाना।
घर, परिवार, समाज, देश की रचना करके
कहतीं, “नर ने बुना स्वार्थ का ताना-बाना”॥

पढ़ी ‘सभ्यता के विकास’ की गाथा सबने,
इन्सानी फ़ितरत को अर्स दिया था रब़ ने।
इन कदमों को रोक सकेगी क्या चिन्गारी;
जिसे हवा देती हैं नारीवादी बहनें॥

क्या लम्बी यात्रा पर निकला पुरुष अकेला?
बिन नारी क्या सृजित कर लिया जग का मेला?
इस निसर्ग के कर्णधार से पूछ लीजिये,
जिसने देखी प्रथम-प्रणय की वह शुभ बेला॥

प्रकृति मनुज की है ऐसी, ‘होती गलती है’,
पर विवेक से, संयम से यह भी टलती है।
है ‘सत्यार्थ मित्र’ को पीड़ा चरमपंथ से;
छिन्न-भिन्न करती नारी मन को खलती है॥

(सिद्धार्थ)