वर्धा परिसर का परिक्रमण और चाय पर चर्चा…

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MGAHV-logo कुलपति जी के आवास से रात का भोजन लेने के बाद राजकिशोर जी, अब्दुल बिस्मिल्लाह, प्रो.सचिन तिवारी, प्रो. सुवास कुमार के साथ हम गेस्ट हाउस लौट आये। वहाँ खुले आसमान के नीचे चबूतरे पर कुर्सियाँ डाल रखी गयीं थी। दो बुजुर्गवार लोग तो सोने के लिए अपने कमरे में चले गये लेकिन राजकिशोर जी और प्रो. सुवास कुमार के साथ मैं वही पर कुर्सियाँ खींच कर बैठ गया। कारण यह कि वहाँ प्रियंकर जी पहले से मौजूद थे। हम दोनो हिन्दी ब्लॉगजगत के माध्यम से पहले ही एक दूसरे से परिचित थे। हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया विषयक राष्ट्रीय गोष्ठी में वे इलाहाबाद आये थे तब उनसे भेंट हुई थी। यहाँ दुबारा मिलकर मन में सखा-भाव उमड़ पड़ा और हम भावुक सा महसूस करने लगे।

प्रियंकर जी ने हिन्दीसमय.कॉम के कोर-ग्रुप की बैठक की कुछ और जानकारी दी। इसके तीन सदस्यों के आगरा, लखनऊ और कोलकाता में बसे होने के कारण क्या कुछ कठिनाइयाँ नहीं आतीं? मैने इस आशय का सवाल किया तो उन्होंने बताया कि सभी नेट के माध्यम से जुड़े रहते हैं और एक-दो महीने पर किसी एक के शहर में या वर्धा में बैठक कर अगली रणनीति तय कर ली जाती है। कुलपति जी द्वारा इस महत्वाकांक्षी योजना को नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए और भी जतन किए जा रहे हैं। नेट पर उत्कृष्ट साहित्य अपलोड करने में कॉपीराइट सम्बन्धी अड़चनों की चर्चा भी हुई। कुछ प्रकाशकों ने तो सहर्ष सहमति दे दी है लेकिन कुछ अन्य प्रकाशक पूरी सामग्री नेट पर निःशुल्क सुलभ कराने में अपनी व्यावसायिक क्षति देख रहे हैं।

अनुवाद एवं निर्वचन विभाग

इसी बीच राजकिशोर जी को अपने करीब बैठा देख मुझे अपने मन में उठे एक सवाल का निराकरण करा लेने की इच्छा हुई। सभ्यता के भविष्य पर बोलते हुए उन्होंने सामुदायिक जीवन (commune life) का महिमा मण्डन किया था। इस पुरानी सभ्यता की ओर लौट जाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा था कि आजका अन्धाधुन्ध मशीनी विकास हमें सामाजिक गैर बराबरी की ओर ले जा रहा है। इससे विश्व समाज में तमाम युद्ध और उन्माद की स्थिति उत्पन्न हो रही है। अमीर लगातार और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। इसके विपरीत कम्यून में सभी बराबर हुआ करते थे। सभी श्रम करते थे और उत्पादन पर सबका सामूहिक अधिकार था। मनुष्य को शान्ति और सन्तुष्टि तभी मिल सकती है जब वह इस प्रकार के सामुदायिक जीवन को अपना ले।

मैने उनसे पूछा कि आप व्यक्ति की निजी प्रतिभा और उद्यम को कितना महत्व देते हैं। मनुष्य अपने निजी परिश्रम और प्रतिभा के दम पर जो उपलब्धियाँ हासिल करता है उनपर उसका अधिकार होना चाहिए कि नहीं? यदि वह उसका प्रयोग निजीतौर पर करने का अधिकार नहीं पाएगा तो अतिरिक्त प्रयास (extra effort) करने के लिए आवश्यक अभिप्रेरणा (motivation) उसे कहाँ से मिलेगी? फिर मानव सभ्यता के विकास की गाड़ी आगे कैसे बढ़ेगी?

राजकिशोर जी ने कहा कि individual effort तो महत्वपूर्ण है ही लेकिन उसका प्रयोग कम्यून के लिए होना चाहिए। उपलब्धियों का लाभ सबको बराबर मिलना चाहिए। चर्चा में प्रो.सुवास कुमार ने हस्तक्षेप किया, बोले- मुझे लगता है कि सारी समस्या की जड़ ही ‘प्राइवेट प्रॉपर्टी’ है। सम्पत्ति के पीछे भागते लोग सभ्यता भूल जाते हैं। मुझे लगा कि मैं बी.ए. की कक्षा में बैठा मार्क्सवाद का पाठ पढ़ रहा हूँ। दोनो मनीषियों ने मुझे कम्यूनिष्ट विचारधारा के मोटे-मोटे वाक्य सुनाये। इस चर्चा के बीच में ही मेरे साथी विनोद शुक्ला जी उठते हुए याद दिलाया कि बारह बज चुके हैं, सुबह कुलपति जी ने साढ़े पाँच बजे टहलने के लिए तैयार रहने को कहा है। वे सोने चले गये। लेकिन मुझे तो कुछ दूसरा ही आनन्द मिल रहा था। गान्धी हिल्स पर सूर्योदय (१५.४.२०१०)

मैने प्रो. सुवास कुमार की बात को लपकते हुए कहा कि सर, मुझे तो लगता है कि समस्या सिर्फ़ प्राइवेट प्रॉपर्टी में नहीं है। सम्पत्ति चाहे निजी हाथों में रहे या सार्वजनिक नियन्त्रण में उसको लेकर समस्या पैदा होती रहेगी। पूँजीवाद के विरुद्ध जो रूसी क्रान्ति हुई और साम्यवादी सरकार गठित हुई उसने भी क्या किया? सम्पत्ति सरकारी हाथों में गयी और जो लोग सरकार के मालिक थे उनकी दासी बन गयी। एक प्रकार का स्टेट कैपिटलिज्म स्थापित हो गया। किसी निजी पूँजीवादी में जो बुराइयाँ देखी जाती थीं वही सब इन साम्यवादी सरकारों में आ गयीं जो अन्ततः इनके पतन का कारण बनीं। इसलिए आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति अपने आप में बुराई की जड़ है।

राजकिशोर जी मुस्करा रहे थे। बोले- यह सम्पत्ति तो माया है और इसे महा ठगिनी कहा गया है। हमने उनका समर्थन किया। वे फिर बोले- इस माया का श्रोत क्या है? सुवास जी बोले- माया तो हमारे मन की बनायी हुई है। फिर राजकिशोर जी ने कहा कि ईश्वर को भी तो हमारे मन ने ही बनाया है। वे जोर से हँसे और बोले- ईश्वर और माया दोनो को गोली मार दो। सारी समस्या खत्म हो जाएगी। दुनिया में सारे झगड़े फ़साद की जड़ यही दोनो हैं।

मैने अपने दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी होने का परिचय दिए बिना ही उन्हें टोका- आप ऐसा कर ही नहीं सकते। ईश्वर को गोली नहीं मारी जा सकती क्योंकि ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। यह तो सत्य का दूसरा नाम है, और सत्य को समाप्त नहीं किया जा सकता। यह जो माया है वह कुछ और नहीं हमारा अज्ञान(ignorance) है। हम अज्ञान के अन्धकार में भटक रहे है और एक-दूसरे से लड़-भिड़ कर अपना सिर फोड़ रहे हैं। ज्योंही हमें सत्य का ज्ञान होगा, अन्धेरा अपने आप भाग खड़ा होगा। इसलिए हमें बनावटी बातों के बजाय सत्य के निकट पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। जो सत्य के निकट है वह ईश्वर के निकट है। जो ईश्वर के निकट है वह गलत काम नहीं करेगा। लेकिन सत्य का संधान करना इतना आसान भी नहीं है। चर्चा दूसरी ओर मुड़ गयी…।

अचानक रात के एक बजे हमें याद आया कि सुबह पाँच बजे उठना है। हम झटपट चर्चा को विराम देकर उठ लिए और मोबाइल में एलार्म सेट करके बिस्तर पर जा पड़े।

सुबह योजना के मुताबिक साढ़े पाँच बजे तैयार होकर नीचे सड़क पर पहुँचना था, लेकिन हमारी नींद साढे चार बजे ही खुल गयी। दरअसल विनोद जी, जो जल्दी सो गये थे वे जल्दी उठकर खटर-पटर करने लगे। मुझे भी सुबह पहाड़ी पर टहलने की उत्सुकता के मारे अच्छी नींद ही नहीं आयी थी। हम पाँच बजे ही तैयार होकर कमरे से बाहर आ गये। अम्बेडकर जयन्ती का ब्राह्म मूहूर्त वर्धा गेस्ट हाउस से यह तस्वीर गेस्ट हाउस के चबूतरे पर खड़े होकर हमने उसी समय ली थी जब सूर्योदय अभी नहीं हुआ था।

थोड़ी देर में गेस्ट हाउस के एक सूट से विश्व विद्यालय के वित्त अधिकारी मो.शीस खान जी बाहर आये और क्रमशः अपने-अपने आवास से कुलपति विभूति नारायण राय, प्रति-कुलपति नदीम हसनैन, कुलसचिव डॉ. कैलाश जी. खामरे और डीन प्रो. सूरज पालीवाल भी अपनी टहलने की पोशाक में निकल पड़े। हमारी कच्ची तैयारी पर पहली निगाह कुलपति जी की ही पड़ी। हमारे पैरों में हवाई चप्पल देखकर उन्होंने कहा कि स्पोर्ट्स शू नहीं लाये हैं तो ऊपर दिक्कत हो सकती है। हमारे पास चमड़े के जूते और हवाई चप्पल का ही विकल्प था इसलिए हमने इसे ही बेहतर समझा था। जीन्स और टी-शर्ट में ही हमने ट्रैक-सूट  का विकल्प खोजा था। फिर भी हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं थी।

मो.शीस खान जी का व्यक्तित्व देखकर हम दंग रह गये। वे साठ साल की उम्र में सरकारी सेवा पूरी करके रेलवे से सेवानिवृत्त हो चुके थे उसके बाद यहाँ वित्त अधिकारी का काम सम्हाला है। लेकिन शरीर से इतने चुस्त-दुरुस्त कि टहलने वालों में सबसे पहले जाग कर सबको मोबाइल पर घण्टी देकर जगाते हैं, टीले की चढ़ाई पर सबसे पहले चढ़ जाते है और रुक-रुककर पीछे छूट गये साथियों को अपने साथ लेते हैं। उन्होंने हाथ मिलाकर मेरे अभिवादन का जवाब दिया। नदीम हसनैन साहब स्थिर गति से अपनी भारी देह को सम्हालते हुए आगे बढ़ते रहे। प्रायः मौन रहते हुए उन्होंने वाकिंग ट्रैक पूरा किया। अपने पीछे से आगे जाते हुए लोगों को निर्विकार देखते हुए। खामरे साहब सबकी प्रतीक्षा छोड़कर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ जाते हैं ताकि थकान होने से पहले चढ़ाई पूरी कर लें। ऊपर जाकर कुछ व्यायाम करना भी उनके मीनू में शामिल है।

कुलपति जी और वित्त अधिकारी मो.शीस खान

टहलते हुए हमने कुछ बातें यहाँ के मौसम के बारे में की। मध्य अप्रैल में पारा ४३ डिग्री तक पहुँचने लगा था। पता चला कि मई-जून में यह ५३-५४ तक पहुँच जाता है। यहाँ बरसात का मौसम बड़ा खुशगंवार होता है। ढलान के कारण जल-जमाव नहीं होता। हरियाली बढ़ जाती है और तापमान भी नीचे रहता है।

मैने पूछा कि विश्वविद्यालय की स्थापना १९९७ में हुई बतायी जाती है तो यहाँ के परिसर का विकास कार्य अभी तक अधूरा क्यों है? पेड़-पौधे अभी हाल में रोपे गये लगते हैं। सड़कें भी नई बनी हुई लग रही हैं। भवनों का निर्माण कार्य अभी भी हो रहा है। आखिर इतनी देर क्यों हुई? इसका जवाब मुझे अगले दो दिनों में टुकड़ों में मिला। दरअसल संसद से विश्वविद्यालय का एक्ट पारित होने के बाद दो-तीन साल इस कवायद में बीत गये कि इसकी स्थापना वर्धा के बजाय किसी विकसित स्थान पर क्यों न किया जाय। जब यह अन्तिम रूप से तय हो गया कि इस विश्वविद्यालय की परिकल्पना ही गांधी जी के सेवाग्राम आश्रम में देखे गये सपने को साकार करने के लिए की गयी है और एक्ट में ही वर्धा का स्थल के रूप में निर्धारण किया जा चुका है, जो बदला नहीं जा सकता है तब यहाँ इसके स्थापत्य की जरूरत महसूस की गयी। वर्धा जिला मुख्यालय के आसपास उपयुक्त स्थल के चयन के लिए तत्कालीन अधिकारियों ने हवाई सर्वेक्षण करके इन पाँच निर्जन टीलों का चयन किया और करीब दो सौ एकड़ जमीन अधिग्रहित की गयी। दूसरे कुलपति के कार्यकाल में भी निर्माणकार्यों की गति बहुत धीमी रही। योजना आयोग का अनुदान और वार्षिक बजट लौटाया जाता रहा। वर्धा शहर में कुछ मकान किराये पर लेकर विश्वविद्यालय चलाने की औपचारिकता पूरी की जाती रही।

वर्तमान में विश्वविद्यालय के तीसरे कुलपति के रूप में उत्तर प्रदेश कैडर के पुलिस अधिकारी और साहित्य की दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाने वाले विभूति नारायण राय को कमान सौंपी गयी। अपने पीछे एक लम्बा प्रशासनिक अनुभव, हिन्दी साहित्य के विशद अध्ययन से उपजी व्यापक दृष्टि और क्षुद्र स्वार्थों और एकपक्षीय आलोचना से ऊपर उठकर नव-निर्माण करने की रचनात्मक ललक लेकर जबसे आप यहाँ आए हैं तबसे इस प्रांगण को विकसित करने व सजाने सवाँरने का काम तेजी से आगे बढ़ा है। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग की मन्थर गति से असन्तुष्ट होकर इन्होंने उत्तर प्रदेश की एक सरकारी निर्माण एजेन्सी को विश्वविद्यालय परिसर के भवनों का निर्माण कार्य सौंप दिया। रिकॉर्ड समय में यहाँ प्रशासनिक भवन, पुस्तकालय, अनुवाद और निर्वचन केन्द्र, गान्धी और बौद्ध अध्ययन केन्द्र, महिला छात्रावास, गेस्ट हाउस, आवासीय परिसर इत्यादि का निर्माण कार्य पूरा हुआ और अभी आगे भी रात-दिन काम चल रहा है।

दूसरी ओर विश्वविद्यालय में अध्ययन और अध्यापन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य भी सुचारु ढंग से चलाने के लिए जिन अध्यापकों की आवश्यकता थी उन्हें भी नियुक्त किये जाने की प्रक्रिया तेज की गयी। हमारे देश में जिस एक कार्य पर सबसे अधिक अंगुलियाँ उठायी जाती हैं वह है नियुक्ति प्रक्रिया। विश्वविद्यालय भी इसका अपवाद नहीं रहा। मैने जब इस बावत कुलपति जी से सवाल किया तो बोले- देखिए, आलोचना तो होती ही है। लेकिन उससे डरकर यदि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाँय तो स्थिति सुधरेगी कैसे? मैं अपना काम करने में ज्यादा ध्यान लगाता हूँ। यह करते हुए मेरी चमड़ी थोड़ी मोटी हो गयी है। सबको सफाई देने के चक्कर में अपना समय बर्बाद नहीं कर सकता। अन्ततः तो हमारा काम ही सामने आएगा और समय इसका मूल्यांकन करेगा। मेरी कोशिश है अच्छे लोगों को इस विश्वविद्यालय से जोड़ने की। वे चाहे जिस फील्ड के हों, यदि उनके भीतर कुछ सकारात्मक काम करने की सम्भावना है तो मैं उन्हें जरूर अवसर देना चाहूंगा।

ऊपरी टीले का चक्कर लगाते हुए हम दूसरे सिरे से नीचे आने वाली सड़क  पर टहलते हुए अर्द्धनिर्मित महिला छात्रावास के पास आ गये। इसके आधे हिस्से में छात्राएं आ चुकी हैं। छात्रों का हॉस्टल इस साल बनकर पूरा हो जाएगा। अभी वे शहर में एक किराये के भवन में रहते हैं जहाँ से बस द्वारा विश्वविद्यालय परिसर में आते हैं। हाल ही में बनी कंक्रीट और सीमेण्ट की सड़क के दोनो ओर लगे नीम और पीपल के पौधे लगाये गये थे जो पाँच से दस फीट तक बढ़ चुके थे। चार दीवारी पर वोगनबेलिया की बेलें फैली हुई थी। इस शुष्क मौसम में कोई अन्य फूल पत्ती उगाना बड़ा ही कठिन काम था। पानी की कमी सबसे बड़ी समस्या थी। कुलपति जी ने हाल ही में अधिग्रहित खेल के मैदान की जमीन दिखायी जिसे जोतकर बराबर कर लिया गया था। जंगली पौधों और कटीली घास को समूल नष्ट करने के लिए लगातार निराई और गुड़ाई की जा रही थी ताकि समतल मैदान पर नर्म मुलायम घास लगायी जा सके। मैने वहाँ एक इनडोर स्पोर्ट्स हाल बनवाने की सलाह दी जिसमें बैडमिण्टन, टेबुल टेनिस, जिम्नेजियम, इत्यादि की सुविधा रहे। कुलपति जी ने अगली पंचवर्षीय योजना में इसके सम्मिलित होने की बात बतायी।

प्रो. पालीवाल (सबसे बाएं) के घर में सुबह की चायइस प्रकार टहलते हुए हम अपने अगले ठहराव पर पहुँच गये। आज प्रो. सूरज पालीवाल की बारी थी। जी हाँ, वहाँ यह स्वस्थ परम्परा बनी है कि टहलने के बाद कुलपति जी सहित सभी अधिकारी किसी एक सदस्य के घर पर सुबह की चाय एक साथ लेंगे। पालीवाल जी अपने घर में अकेले रहते हैं।  कदाचित्‌ स्वपाकी हैं, क्यों कि सबको बैठाकर वे स्वयं किचेन में गये और अपने हाथ से ही चाय की ट्रे लेकर आये। वहाँ शुद्ध दूध में बनी गाढ़ी चाय पीकर हमें अपने घर की बिना दूध की ‘नीट चाय’ बहुत याद आयी। सुबह-सुबह टहलने की थकान इस एनर्जी ड्रिंक से जाती रही। साथ ही जो कैलोरी हमने टहलने में खर्च की वह तत्काल जमा हो गयी होगी। इस बीच मेरा ध्यान अपने हवाई चप्पल से रगड़ खाते पाँव की ओर गया। दोनो पट्टियों के नीचे पाँव में सुर्ख लाल निशान बन गये थे। थोड़ी देर में वहाँ छाले उभर आये।

करीब साढ़े सात बजे हम वहाँ से उठे तो कुलपति जी ने बताया कि आज अम्बेडकर जयन्ती के कारण विश्वविद्यालय में छुट्टी है। आपलोग सेवाग्राम देख आइए। हमें तो मन की मुराद मिल गयी। सेवाग्राम अर्थात्‌ वह स्थान जहाँ गांधी जी ने राजनीति से सन्यास लेने के बाद अपना आश्रम स्थापित करते हुए अपने सिद्धान्तों की प्रयोगशाला बनायी थी।

करीब साढ़े ग्यारह बजे तैयार होकर हम कुलपति जी के आवास पर पहुँचे ताकि सेवाग्राम आश्रम जाने के लिए किसी वाहन  का इन्तजाम हो सके। कुलपति जी हमारी मांग सुनकर पशोपेश में पड़ गये। छुट्टी के कारण कोई ड्राइवर आया नहीं था और अब किसी को बुलाने में काफ़ी देर हो जाती। धूप और गर्मी प्रचण्ड थी। यहाँ से सेवाग्राम जाने का कोई सार्वजनिक साधन उपलब्ध नहीं था। तभी वे अन्दर गये और अपनी निजी कार की चाबी ले आये। मुझे थमाते हुए बोले कि आप “वैगन-आर” तो चला लेंगे न? मैने सहर्ष हामी भरी और गाड़ी गैरेज से निकालकर, ए.सी. ऑन किया, विनोद शुक्ला जी को बगल में बैठाया और सेवाग्राम की ओर चल पड़े।

(मैने पिछली कड़ी में वादा किया था कि इस कड़ी में अम्बेडकर जयन्ती के अनूठे अनुभव की बात बताउंगा, लेकिन पोस्ट लम्बी हो चली है और अभी उस बात की चर्चा शुरू भी नहीं हो पायी है। इसलिए क्षमा याचना सहित उसे अगली कड़ी पर टालता हूँ। बस इन्तजार कीजिए अगली कड़ी का… 🙂

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

ब्लॉगिंग का राष्ट्रीय सेमिनार जो आज हो न सका…

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यदि तिथि बदली न होती और कार्यक्रम अपरिहार्य परिस्थितियों में टला न होता तो मैं आज १९ सितम्बर को इलाहाबाद में देश के अनेक मूर्धन्य चिठ्ठाकारों का दर्शन लाभ पाकर अभिभूत हो रहा होता। हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवारा, और हिन्दी मास की चर्चा-गोष्ठियों में आजकल जो कुछ हम पढ़-सुन रहे हैं उनमें इस महागोष्ठी की खूब चर्चा हो रही होती।

हिन्दी ब्लॉगों में जो बहसें आजकल नमूँदार हुई हैं उन्हें देखकर मन में अभी से लड्डू फूट रहे हैं। जब पुनः निर्धारित तिथि पर वाकई सेमिनार होगा तब इन महानुभावों के मुखारविन्दु से साक्षात्‌ ऐसी बातें सुनकर कैसा लगेगा? क्या एक दूसरे के बारे में हम वैसा ही कह-सुन पाएंगे जैसा इस आभासी संसार में अपने घर के भीतर बैठे-बैठे दूसरों के बारे में टिप्पणी या पोस्ट के माध्यम से ठेल देते हैं? बेनामी महात्माओं द्वारा जो घटियागीरी यहाँ दिखायी जाती है या फर्जी नाम वाले जैसी खरी-खरी यहाँ कह जाते हैं, क्या वहाँ भी साक्षात्‌ उपस्थित होकर मुँह खोलेंगे?

यहाँ अपने-अपने ज्ञान की शेखी बघारने वाले भी हैं, दूसरों को मूर्ख और पाजी समझने वाले भी हैं, भाषा को अपनी स्वतंत्र इच्छा का दास बनाने की चाह रखने वाले भी हैं, अपने लिखे को पत्थर की लकीर मानकर अड़े रहने वाले भी हैं, दूसरों की मौज लेने के फेर में अपनी मौज लुटाने वाले भी हैं, गलाफाड़ हल्ला मचाने के बाद धीरे-धीरे अनसुना कर दिए जाने के कारण अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर दूसरे व्यापार में लग जाने वाले भी हैं, दूसरे की लकुटी-कमरिया लेकर इस घमासान में नये सिरे से बहादुरी दिखलाने वाले भी है, तुरत-फुरत कविता रचकर वाह-वाह कहलाने वाले भी हैं और रोज़बरोज़ पोस्ट का मसाला जुगाड़ने के लिए डिजिटल कैमरा लेकर मुँह अन्धेरे नदी-तट की सैर को निकल जाने वाले भी हैं। बहुत से धीर-गम्भीर साहित्यानुरागी, हिन्दी सेवी, कविहृदय, सामाजिक चिन्तक, व्यंग्यकार, विज्ञान अन्वेषी, तकनीक के जानकार सुधीजन भी हैं जो इस माध्यम को समृद्ध कर रहे हैं।

ऐसी रंगीन दुनिया के सितारे जब आज के दिन अपने स्थूल शरीर और सूक्ष्म मस्तिष्क के साथ एक छत के नीचे एक साथ बैठकर आपस में बातचीत करते तो नजारा क्या होता? लन्च और डिनर के बर्तन साथ खड़काते तो क्या आनन्द आता?

यूँ तो इस सेमिनार के विषय पहले ही तय किये जा चुके थे, और कई ख्यातिनाम चिठ्ठाकारों को उन विषयों को प्रस्तुत करने की तैयारी करके आने के लिए भी बोल दिया गया था, लेकिन ऐन मौके पर कौन क्या बोलना शुरू कर दे इसका कोई ठिकाना न होने से मन में अनिश्चय का भाव भी बना ही हुआ था। इससे मिलने वा्ले सुख का रोमान्च भी कम न था। अब तो प्रतीक्षा आगे बढ़ गयी है।

कुछ विचारणीय शीर्षक जो सत्र विशेष और वार्ताकार विशेष के लिए आदरणीय अनूप जी, अरविन्द जी और दूसरे आदरणीयों से विचार-विमर्श के बाद निर्धारित किए गये थे-

  1. हिन्दी चिठ्ठाकारी का  इतिहास, स्वरूप और तकनीक
  2. हिन्दी चिठ्ठाकारी की दिशाएं: विज्ञान, राजनीति, समाज, धर्म/दर्शन, मनोरंजन
  3. अन्तर्जाल पर हिन्दी साहित्य और इसकी पठनीयता : कविता, कहानी, व्यंग्य, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरण और आपबीती
  4. अन्तर्जाल पर हिन्दी भाषा के कुशल प्रयोग के औंजार, ब्लॉग बनाने और तकनीकी प्रबन्धन के तरीके
  5. हिन्दी ब्लॉग जगत की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-
  • बहस के सामान्य मुद्दे
  • ब्लॉगिंग की  भाषा में शुद्धता बनाम सम्प्रेषणीयता
  • ब्लॉगजगत में गुटबन्दी और गिरोहबन्दी
  • अभिव्यक्ति की उन्मुक्तता और इसमें निहित खतरे
  • समूह ब्लॉगों की उपादेयता
  • चिठ्ठाकारी में समय प्रबन्धन
  • सामाजिक मुद्दों पर ब्लॉगजगत की प्रतिक्रियाएं
  • ब्लॉगजगत के कुंठासुर/बेनामी या छद्‍मनामी टिप्पणीकार
  • ब्लॉगजगत का आभासी परिवार और आन्तरिक गतिविधियाँ, ब्लॉगर कैम्प आदि।

ये सारी बातें मैं भूतकाल में कर रहा हूँ तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया।  आज यह सब मैं इस लिए बता रहा हूँ कि जो कार्यक्रम आज नहीं हो सका वह आगामी २४-२५ अक्टूबर को आयोजित किए जाने का निर्णय लिया जा चुका है।

महात्मा गान्धी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय जी ने स्वयं इस सेमिनार की परिकल्पना करते हुए इसके आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इलाहाबाद स्थित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के साथ मिलकर इस राष्ट्रीय स्तर के आयोजन की रूपरेखा बनायी जा चुकी थी। अतिथि वार्ताकारों और प्रतिभागियों के नाम तय किए जा चुके थे, बस निमन्त्रण पत्र भेंजने की तैयारी हो रही थी तभी कुलपति जी को कतिपय अपरिहार्य परिस्थितियों ने कार्यक्रम की तिथि आगे बढ़ाने पर मजबूर कर दिया। उनका खेद प्रकाश प्राप्त करने के बाद हम कुछ समय के लिए हतप्रभ हो गये थे। लेकिन उन्होंने तत्समय ही अगली तिथि भी निर्धारित कर दी।

MGAHV-logo प्रतीक चिह्न

हमारा उत्साह फिर कम नहीं हुआ है। हम तो अगली निर्धारित तिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब ऊपर गिनाए गये विषयों पर जोरदार सजीव बहस सुनने और देखने को मिलेगी। ब्लॉगजगत के अनेक भूतपुर्व और अभूतपूर्व लिक्खाड़ों से गलबहिंया डाले फोटू खिंचाने का मौका हाथ लगेगा। एक तरफ पारम्परिक साहित्य के पुरोधा होंगे तो दूसरी तरफ़ अन्तर्जाल पर बाइट बहाने और बटोरने वाले बटोही होंगे। आदरणीय कुलपति जी के औदार्य से कार्यक्रम का वित्तीय परिव्यय विश्वविद्यालय द्वारा वहन किया जाएगा तो हिन्दुस्तानी एकेडेमी का प्रांगण जो अबतक हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़ी प्रायः सभी भूतकालीन और वर्तमान विभूतियों का प्रत्यक्षदर्शी रहा है, अपनी गौरवशाली परम्परा और अहर्निश आतिथेय की भूमिका में पूरी निष्ठा से लगा होगा।

आप सभी अपनी रुचि के अनुसार मन ही मन तैयारी कर लीजिए। कार्यक्रम की सूक्ष्म रूपरेखा तैयार हो जाने और धनराशि का परिव्यय स्वीकृत हो जाने के बाद इसकी विधिवत घोषणा हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा अन्तर्जाल पर की जाएगी। मेरी तो इच्छा है कि जिस प्रकार इलाहाबाद के कुम्भमेला में सारा हिन्दुस्तान उमड़ पड़ता है उसी प्रकार यह कार्यक्रम भी एक विशाल ब्लॉगर महाकुम्भ साबित हो जाय। अन्तर्जाल की धारा में अपने-अपने घाट पर डुबकी लगाने वाले विविध चिठेरे प्रयाग की धरती पर आकर अपना अनुभव एक दूसरे से बाँटें और बाकी दुनिया को यह भी बतायें कि इक्कीसवीं सदी में संचार के क्षेत्र में जो तकनीकी क्रान्ति आयी है उसे हिन्दी सेवियों ने भी आत्मसात किया है और अब इस देवनागरी की पहुँच दुनिया के कोने-कोने में होने लगी है।

जब से यह कार्यक्रम टला मुझे निराशा ने ऐसा घेरा कि कुछ लिखते न बना। अब आज जब यह दिन भी बीत गया है तो इसकी चर्चा से ही बात शुरु कर सका हूँ। अभी इतना ही…।

आप सबको शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं और ईद मुबारक।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

प्रगति मैदान के पुस्तक मेले से खबरें अच्छी नहीं हैं…

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किताबों की खुसर-फुसर… भाग-४

“…स्टॉल में रखी किताबें एकदम अकेली हैं। उनका अकेलापन अस्तित्ववादी नयी कविता और नयी कहानी के अकेलेपन से ज्यादा बड़ा सच है और भयावह है। दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता। दिखते हैं तो ऊँघते प्रकाशक और उनके कर्मचारी। लोग उनतक नहीं पहुँच रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा यही किया जा सकता है कि मेला लगा दिया जाय, लेकिन अगर कोई नहीं आए तो क्या करें?”

यह दृश्य दिल्ली के प्रगति मैदान का है और यह व्यथा बयान कर रहे हैं दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री सुधीश पचौरी जी जो ‘बिन्दास’ नाम से स्तम्भ लिखते हैं। यह पढ़कर मुझे वह खुसर-फुसर फिर याद गयी जो मैने पिछले दिनों सत्यार्थमित्र पर आपसे बाँटना शुरू किया था, लेकिन बात पूरी नहीं हो पायी थी। मैने हिन्दुस्तानी एकेडेमी सभागार में आयोजित एक पुस्तक विमोचन समारोह के समय इस संस्था के बिक्री अनुभाग की आलमारियों में बन्द (कैद) किताबों का कष्ट वहाँ बैठकर देखा और सुना था।

इस संस्था ने अबतक हिन्दी की लगभग डेढ़ सौ और उर्दू की क़रीब तीस पुस्तकों का प्रकाशन किया है। इनमें से कोई पच्चीस किताबें तो पिछले डेढ़-दो वर्ष के भीतर ही आयी हैं। इन्ही नयी नवेली किताबों की आपस में जो बतकही सुनायी दी थी उससे मेरा मन खिन्न हो गया था।

abhidharm1 Bhartiya Jyotish Me Prayag Diye Ka Raag रामकथा और तुलसीदास Vrat aur parva घाघ और भड्डरी

(पुस्तकों को बड़ा करके देखने के लिए उनपर चटका लगाएं)

मैने बिक्री अनुभाग के उस कमरे में देखा कि डॉ. कविता वाचक्नवी की लिखी एक पुस्तक इस बात से तो खुश थी कि पाण्डुलिपि के रूप में लम्बा समय अज्ञातवास के रूप में बिताने के बाद अन्ततः आकर्षक रूप में इसका प्रकाशन हो गया और समारोह पूर्वक लोकार्पण भी करा दिया गया, लेकिन बड़े साहित्यिक मंचों और पत्र-पत्रिकाओं में इस शोधपरक कृति की समीक्षा नहीं होने से निराशा के भाव भी स्पष्ट नजर आ रहे थे। उसे ‘दिये का राग’ ने समझाया कि ऐसी जाने कितनी किताबें इस संस्था की आलमारियों और तहखाने में छापकर रखी गयी हैं जिनको सिर्फ़ लिखने वाला ही भलीभाँति जानता होगा।

ऐसा इसलिए नहीं है कि उनकी गुणवत्ता में कोई कमी है, या उन्हें कोई बेचना नहीं चाहता, बल्कि समस्या यह है कि निजी प्रकाशकों की भाँति बाजार को समझने, प्रचार-प्रसार की आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करने और सरकारी विभागों द्वारा थोक खरीद के लिए चयनित कराने की कोई सुविचारित नीति इस संस्था द्वारा न तो बनायी गयी है और न ही उसके क्रियान्वयन का कोई ढाँचा ही खड़ा किया गया है।

PrayagPradeep भारतीय चित्रकला उर्दू साहित्य में हिन्दुस्तानी तहज़ीब ज्ञान कोश सूर्यविमर्श समाज भाषा विज्ञान

कभी देश भर के साहित्यकारों और हिन्दुस्तानी भाषा व साहित्य के अनुरागियों की तीर्थस्थली रही यह संस्था आज योग्य और ऊर्जावान कर्मचारियों तथा पूर्णकालिक पदाधिकारियों की कमी का दंश झेल रही है। शासन ने स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों को इस संस्था को संचालित करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी सौंप दी है। संस्था के मनोनीत सचिव द्वारा अपनी व्यक्तिगत अभिरुचि के जोर से अनेक उम्दा पुस्तकों के प्रकाशन कराये गये और कुछ उपयोगी विचार गोष्ठियाँ भी करायी गयीं। लेकिन ऐसे अधिकारी के पास अपने मूल विभाग के प्रशासनिक कार्यों से जो समय बचता है वह इस गुरुतर कार्य के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता।

“तुम्हें क्या लगता है, यह दुकान वृद्ध हो चले दरबारी जी के हाथों में कितने दिन और चल पायेगी..?” प्रयाग प्रदीप ने  विजयदेव नारायण शाही के छँठवा दशक से पूछा।

श्री शालिग्राम श्रीवास्तव की १९३७ में प्रकाशित यह पुस्तक पाठकों की भारी मांग पर पुनर्मुद्रित होकर हाल ही में आयी है। इलाहाबाद से किसी भी रूप में जुड़े होने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह पुस्तक अनिवार्य संग्रह के लायक है, लेकिन पुरानी साख के बावजूद इसकी बिक्री भी बहुत उत्साहजनक नहीं है।

निराला की काव्यदृष्टि Diye Ka Raag Maa ke Liye Chawal Naye-Naye Kavita Ki Jatiyata सूर्यविमर्श

इस अनुभवी प्रश्न का जवाब दिया नये नवेले सूर्य विमर्श ने, “पिछले दिनों यहाँ से  पुस्तकालयाध्यक्ष, बिक्री सहायक, विपणन प्रभारी, प्रकाशन अधिकारी, वेब साइट संचालन विशेषज्ञ, आदि अनेक पदों हेतु प्रस्ताव किया गया है। लेकिन समस्या यह है कि इस स्वायत्तशासी संस्था की शक्तियाँ जिस कार्य परिषद में निहित हैं उसका अस्तित्व ही अधर में लटका हुआ है। कार्यपरिषद के गठन और उसके द्वारा सर्व शक्तिमान कार्य समिति के चुनाव के बाद ही कार्मिक प्रबन्धन किया जा सकता है।”

“फिर तो यह काफी लम्बी प्रक्रिया लगती है… शायद निकट भविष्य में पूरी होती नहीं दिखती…” घाघ और भड्डरी ने सहज अनुमान लगाते हुए बात पूरी की।

फादर (डॉ.) कामिल बुल्के द्वारा १९७६ में दिये गये व्याख्यान पर आधारित लोकप्रिय पुस्तक रामकथा और तुलसीदास के तीसरे संस्करण ने बताया कि जब वह पहली बार १९७७ में छपकर आयी थी तब भी ये कर्मचारी इसी प्रकार एकेडेमी की सेवा कर रहे थे। सरकारी अनुदान से इन्हें जो वेतन तब मिलता था वही वेतन आज भी मिल रहा है।

हिन्दुस्तानी लेख अनुक्रमणिका छठवा दशक Roop Lahariya Deep Dehari Dwar Keshav Granthavali-1 Hai To Hail

(पुस्तकों को बड़ा करके देखने के लिए उनपर चटका लगाएं)

वर्ष १९३३ में पहली बार प्रकाशित भारतीय चित्रकला के दूसरे नवीन संस्करण ने इन कर्मचारियों का जो चित्र खींचा वह मन को दुःखी कर गया। आजादी से पहले के जमाने से संस्था में जुटने वाले बड़े-बड़े साहित्यकारों और विद्वानों की सेवा में अपने किशोरवय से लगे रहने वाले और एकेडेमी को ही अपने जीवन का श्रेय-प्रेय मान चुके श्री ईश्वर शरण अब छिहत्तर साल की उम्र में कार्यालय अधीक्षक तो बने हुए हैं लेकिन इसके बदले उन्हें जो मानदेय मिल रहा है उससे दो जून की रोटी जुटाना ही दूभर है, अपनी बिटिया की शादी का बोझ कैसे उठाएं? दूसरों की हालत भी इनसे कुछ अलग नहीं है।

“…जो उम्र परिवार के बीच आराम करने की है उसमें एकेडेमी की नौकरी क्यों..?” संस्कृति पुरुष पं. विद्यानिवास मिश्र ने पूछा।

“क्योंकि यहाँ के कर्मचारियों को सेवानैवृत्तिक लाभ दिये जाने की कोई व्यवस्था नहीं है…।” मेरे मुँह से यह बरबस निकल पड़ा। लेकिन दूसरों की दृष्टि में अकारण हवा में बात करता जान कर मैने अपने को संयत कर लिया।

अभिधर्म कोश के चार खण्ड एक साथ बोल पड़े, “जाने क्यों १९६५ के बाद किसी परवर्ती वेतन आयोग की संस्तुति  इन कर्मचारियों पर लागू नहीं हुई। आज जो कर्मचारी यहाँ सबसे ज्यादा वेतन पाता है उसको भी किसी सरकारी चपरासी से आधी तनख्वाह ही मिलती है। १९६५ के वेतनमान अभी भी चल रहे हैं। पेंशन आदि की तो कोई बात ही नहीं है…।”

यहाँ बताते चलें कि  १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में आचार्य नरेन्द्र देव अहमदनगर किले की जेल में बन्द किए गये थे। वहीं पर उन्होंने वसुबन्धु कृत बौद्ध दर्शन की व्याख्या के ग्रन्थ का फ्रेन्च भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस अनुवाद के आठ अध्यायों को एकेडेमी ने १९५८ में चार खण्डों में प्रकाशित किया था। इसका दूसरा संस्करण २००८ में प्रकाशित कराया गया है। लेकिन इस अमूल्य निधि को भारतवर्ष और दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाने की प्रतीक्षा लम्बी होती जा रही है।

बातें तो और भी जारी थीं, …लेकिन एक कर्मचारी ने मेरी तन्द्रा भंग करते हुए बताया कि पुस्तक विमोचन समारोह के मुख्य अतिथि महोदय पधार चुके हैं और काम भर की भीड़ भी इकठ्ठा हो चुकी है…। मैने अपनी डायरी उठायी और सभागार की ओर चल पड़ा। पीछे से खुसर-फुसर की आवाजें तेज होती चली गयीं…।

उन बेबस ध्वनियों ने मेरा पीछा करना जारी रखा है…। मैने अपनी सीमाओं के भीतर रहते हुए कुछ रास्ते तलाशने भी जारी रखे हैं। लेकिन पुस्तक मेले की खबरें पढ़ने के बाद मेरे धैर्य की परीक्षा और कठिन हो गयी है।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 

ब्लॉग की किताब चल कर आयी…

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मुखपृष्ठ सत्यार्थमित्र... आज स्वतन्त्रता दिवस है, और आज मेरी पुस्तक प्रेस से छूटकर मेरे घर आ गयी है। हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने इसे छापकर निश्चित रूप से एक नयी शुरुआत की है। कहना न होगा कि आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

ब्लॉग की किताब छापना व्यावसायिक रूप से कितना उपयोगी है इसका पता शायद इस किताब पर पाठकों की प्रतिक्रिया से पता चलेगा। अलबत्ता जिस संस्था ने इसका प्रकाशन किया है, उसके पास अपने उत्पादों के विपणन का कोई नेटवर्क नहीं है। पुराने जमाने में देश भर के लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार यहाँ आते रहते थे और एकेडेमी के बिक्री काउण्टर पर उपलब्ध प्रकाशनों को खरीदते थे और अपने शहर जाकर इसके बारे में बताते थे। इसप्रकार यहाँ की धीर गम्भीर, व शोधपरक पुस्तकें धीरे-धीरे लम्बे समय में बिकती थीं। कुछ खरीद सरकारी पुस्तकालयों द्वारा की जाती थी।

पहली बार लोकप्रिय श्रेणी की एक ऐसी हल्की-फुल्की पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसे आमपाठक वर्ग को आकर्षित करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है। लेकिन आम पाठकों तक इसे पहुँचाने का सही माध्यम क्या है, इसकी जानकारी हमें नहीं है। एकेडेमी द्वारा भी इस दिशा में कोई स्पष्ट व सुविचारित नीति अपनाये जाने का उदाहरण नहीं मिला है।

अतः मैं यहाँ अपने शुभेच्छुओं, मित्रों और वरिष्ठ चिठ्ठाकारों से अनुरोध करता हूँ कि वे इस सद्यःप्रकाशित ब्लॉग की किताब के प्रचार-प्रसार और बिक्री के कारगर उपाय सुजाने का कष्ट करें।

सत्यार्थमित्र आवरणसत्यार्थमित्र पुस्तक का आवरण 

इस पुस्तक में मेरे ब्लॉग सत्यार्थमित्र पर प्रकाशित अप्रैल-२००८ से मार्च-२००९ तक की कुल १०१ पोस्टों में से चयनित ६५ पोस्टें संकलित की गयी हैं। प्रत्येक पोस्ट के अन्त में कुछ चुनिन्दा टिप्पणियों के अंश भी दिये गये हैं। ऐसी टिप्पणियों को स्थान दिया गया है जिनसे कोई नयी बात विषयवस्तु में जुड़ती हो।

पुस्तक के अन्त में दिए गये परिशिष्ट में हिन्दी ब्लॉगजगत के सर्वाधिक सक्रिय ४० चिठ्ठों का नाम-पता दिया गया है जिनका सक्रियता क्रमांक चिठ्ठाजगत द्वारा निर्धारित है।

कुल २८८ पृष्ठों के इस सजिल्द संस्करण का बिक्री मूल्य रु.१९५/- मात्र रखा गया है। इसपर एकेडेमी की नीति के अनुसार छूट की व्यवस्था भी है।

तो देर किस बात की… आइए प्रिण्ट माध्यम में हिन्दी ब्लॉगजगत का एक झरोखा खोलने के इस अनुष्ठान में अपना भरपूर योगदान करें। इसके बारे में उन्हें बतायें जो अभी अन्तर्जाल की सुविधा से नहीं जुड़ सके हैं। पुस्तक प्राप्त करने का तरीका हिन्दुस्तानी एकेडेमी के जाल पते पर उपलब्ध है।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

किताबों की खुसर-फुसर भाग-३

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पिछले साल मैने एक अत्यन्त प्रतिष्ठित संस्था के एक समृद्ध पुस्तकालय में जाकर वहाँ मौजूद किताबों की जो खुसर-फुसर सुनी थी, उसका वर्णन सत्यार्थमित्र के पन्नों पर दो किश्तों में किया था। लम्बे समय से लकड़ी और लोहे की आलमारियों में जस की तस पड़ी हुई किताबों की भाव भंगिमा देखकर और पीड़ा व उलाहना भरी बातें सुनकर मेरा मन इतना व्यथित हुआ था कि उसके बाद कभी अकेले में उन किताबों के पास जाने की मुझे हिम्मत नहीं हुई। अलबत्ता मैने उनकी कहानी यहाँ-वहाँ प्रकाशित और प्रसारित कराकर यह कोशिश की थी कि सुधी पाठकों और हिन्दी सेवियों के मन में उन बोलती किताबों के प्रति सम्वेदना जागृत हो, और लोग उनका हाल-चाल लेने अर्थात्‌ उनके पन्ने पलटने के लिए पुस्तकालय तक जा सकें।

मेरे इस प्रयास से उन पुस्तकों का कोई भला हो पाया हो या नहीं, लेकिन मुझे यह लाभ जरूर हुआ कि मुझमें कदाचित्‌ एक ऐसी इन्द्री विकसित हो गयी जो किताबों की बातचीत सुन सकती है और उनसे अपनी बात कह भी सकती है। मैने उस पुस्तकालय की सभी किताबों को एक बार पलटवाकर, झाड़-पोंछ कराकर और उनके निवास स्थल की मरम्मत व रंगाई-पुताई कराकर जो पुण्य लाभ अर्जित किया उसी के ब्याज से कदाचित्‌ यह संवाद शक्ति अर्जित हो गयी है। जैसे कोई आयतें उतरकर मेरे जेहन में नमूँदार हो गयी हों। हाल ही में मुझे अपनी इस छठी इन्द्री का अनुभव फिर से हुआ।

उस दिन इस संस्था के सभागार में एक साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित था। एक कहानी संग्रह का लोकार्पण और राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी साहित्य के एक विद्वान द्वारा कहानी साहित्य पर एक उद्‌बोधन होना था। उस समय एक वक्तव्य राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना हुआ था जिसमें हिन्दी ब्लॉगजगत में कूड़ा प्रकाशित होने की बात कही गयी थी। इस साहित्यिक समागम में इस विषय पर भी कुछ सुनने की उम्मीद थी मुझे। आमन्त्रण पत्र पर छपे समय के हिसाब से मैं दो-चार मिनट पहले ही पहुँच गया था, ताकि सीट मिल जाय और कुछ छूट जाने की आशंका न रहे, लेकिन वहाँ पहुँचने पर बताया गया कि कार्यक्रम शुरू होने में अभी कुछ देर लगेगी, क्योंकि मुख्य अतिथि अभी नहीं पधारे हैं। कुछ अन्य गणमान्यों (VIPs) का भी रास्ते में होना बताया गया।

मैने अन्दर जाकर देखा तो सभागार बिल्कुल सूना था। बैनर, पोस्टर, माइक, स्पीकर, दरी, चादर, कुर्सी, मेज, पानी की बोतल, सरस्वती देवी का फोटो, हार, दीपक, तेल, बाती, मोमबत्ती, दियासलाई, कपूर, माला, बुके, स्मृति चिह्न इत्यादि सामग्रियों को कुछ कर्मचारी यथास्थान जमा रहे थे। आड़ी तिरछी कुर्सियों को सीधा किया जा रहा था लेकिन उन्हें पोछा नहीं जा रहा था। मैने अनुमान किया कि अगले आधे घण्टे में कुछ भी ‘मिस’ नहीं होने वाला है। मैं वहाँ से इत्मीनान से निकलकर पुस्तकालय की दिशा से खुद को बचाता हुआ संस्था के सचिव महोदय के कक्ष में जाकर बैठ गया।

वे फोन पर जमे हुए थे। सामने टेलीफोन नम्बरों की डायरी खुली हुई थी। एक के बाद एक अनेक लोगों का नम्बर मिलाते जा रहे थे और एक ही मज़मून का अनुरोध करते जा रहे थे, “ …आदरणीय फलाने जी, अभी चल दिए कि नहीं…! सब लोग आ चुके हैं… बस आपकी ही प्रतीक्षा है… जल्दी आ जाइए… आपके आते ही कार्यक्रम शुरू हो जाएगा… हाँ-हाँ, सब लोग हैं, आइए… नमस्कार।”

यह फोनवार्ता इतनी यन्त्रवत्‌ हो रही थी, और विषयवस्तु की इतनी पुनरावृत्ति हो रही थी कि अपनी मुस्कराहट छिपाने के लिए मुझे वहाँ से उठ जाना पड़ा। मैने ठीक सामने वाले कक्ष में कदम बढ़ा दिया, जहाँ इस संस्था द्वारा स्वयं प्रकाशित की गयी पुस्तकों का बिक्री काउण्टर है। इस कक्ष का वातावरण और नक्शा किसी दुकान सरीखा कतई नहीं है। इस कक्ष की चारो दीवारों से सटकर रखे हुए बुकशेल्व्स से एक बड़ा घेरा बनता है जिसके बीच में दो बड़ी-बड़ी मेंजें सटाकर रखी हुई हैं। इनके एक ओर दो कुर्सियाँ लगी थीं जिनमें से एक पर एक वृद्ध व्यक्ति बैठे थे, और कोहनी मेज पर टिकाए कुछ कागजों में खोये हुए थे। मैने अनुमान किया कि ये शायद ‘दरबारी जी’ होंगे जिन्हें सचिव जी ने अभी-अभी ‘हर्षबर्द्धन’ के साथ बुलाया था। मेज पर अनेक नयी ताजी आयी हुई किताबें पड़ी थीं जिनका शायद स्टॉक में अंकन किया जाना था।

चित्रों पर चटकाकर बड़ा कर सकते हैं

मैने चारो ओर एक उचटती सी दृष्टि डा्ली और दरबारी जी के सामने कुर्सी खींच कर बैठ गया।

“लगता है ज्यादा लोग नहीं आएंगे…!” मैने यूँ ही बात छेड़ी।

दरबारी जी शान्त थे। क्या जवाब देते? मौन रहकर सहमति जताना ठीक समझा होगा शायद। …तभी मुझे कुछ खनकती हुई हँसने की आवाजें सुनायी दीं। मैने चौक कर पीछे देखा। कोई नहीं था। …फिर पारदर्शी शीशे के पीछे से झाँकती लक-दक चमक बिखेरती हरि चरित्र नामक मोटी पुस्तक की हरकत दिखायी दी।

उसे शायद इस छोटी सी बात में कुछ ज्यादा ही रस मिल गया था। मैंने हैरत से उसकी ओर घूरा। जो बात निराशा पैदा करने वाली थी उसपर ऐसी हँसी? “आखिर बात क्या है…?” मैने उसे पुचकार कर पूछा।

वह एकाएक गम्भीर हो गयी। मैने उसके मन के भाव जानने की कोशिश की तो दार्शनिक अन्दाज में उसने जो बताया उसका सार यह था कि करीब सात सौ पृष्ठों की इस अनूठी पुस्तक की पान्डुलिपि को एक लम्बे समय से सहेजकर रखने वाले डॉ. शिवगोपाल मिश्र के सपनों को पूरा करने के लिए ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी’ ने इसे प्रकाशित तो कर दिया, लेकिन न तो आज लोकार्पित होने वाले कहानी संग्रह की तरह जन सामान्य तक पहुँचने का उसका भाग्य है, और न ही सरकारी खरीद के माध्यम से देश भर के पुस्तकालयों तक इसके जाने की कोई सम्भावना दिखती है। इसी से बेचारी कुछ विचलित सी हो गयी है।

श्रीमद्‌भागवत के दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण की समस्त लीलाओं का वर्णन हुआ है। संस्कृत में होने के कारण जब जन-सामान्य को इन लीलाओं को समझने में कठिनाई होने लगी, तो उनका भाषानुवाद होना स्वाभाविक था। सर्वप्रथम संवत्‌ १५८७ में रायबरेली (उ.प्र.) निवासी श्री लालचदास ने दशम्‌ स्कन्ध का अवधी में भाषानुवाद “हरि चरित्र’ के नाम से किया। इसकी विशेषता है कि उन्होंने ९० अध्यायों का अपनी बुद्धि के अनुसार दोहा-चौपाई शैली में अनुवाद प्रस्तुत कर दिया था। सन्त कवि तुलसीदास से ४४ वर्ष पूर्व अवधी में हरि-चरित्र की रचना सचमुच एक अनूठा प्रयास है। ‘सम्पूर्ण हरि चरित्र’ का अभी तक प्रकाशन नहीं हुआ था। अब कई प्राचीन हस्त-लिपियों के आधार पर इसका प्रामाणिक पाठ प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसका भविष्य क्या है?

आजकल पुस्तकों की पाठक संख्या का जो हाल है,

और पुस्तक व्यवसाय में लगे व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा जिस प्रकार की एग्रेसिव कैम्पेन चलायी जाती है उसके मुकाबले एक शहर तक सिमटी आधुनिक प्रचार-प्रसार और विपनन के संसाधनों से विहीन सार्वजनिक संस्था के कन्धे पर सवार होकर यह मोटी-तगड़ी पुस्तक कितना रास्ता तय कर पाएगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कदाचित्‌ इसी बोध से एक नैराश्य भाव इसकी खोखली हँसी में उभर आया था, क्योंकि कम श्रोताओं की बात सुनकर इसके ईर्ष्या भाव में जरूर कुछ कमी आयी होगी, और बरबस ये भाव निकल पड़े होंगे। (जारी…)

[अगली कड़ियों में हम कुछ और गोपनीय बातों का खुलासा करेंगे, जो मुझे उन चन्द घन्टों में उनके बीच बैठकर पता चलीं। शर्त यह है कि आप को इन बातों में कुछ रस मिल रहा हो, जिसकी गवाही आपकी टिप्पणियाँ देंगी।]

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

बहुत मिलावटी है जी… पुराण चर्चा

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मेरी पिछली पोस्ट पर मित्रों की जो प्रतिक्रियाएं आईं उनको देखने के बाद मैं दुविधा में पड़ गया। विद्वतजन की बातों को लेकर चर्चा को आगे बढ़ाया जाय या पुराण प्रपंच छोड़कर कुछ दूसरी बात की जाय। कारण यह था कि मैंने पुराणों के बारे में बहुत गहरा अध्ययन नहीं किया है। दो-चार पुस्तकों तक ही सीमित रहा हूँ। मेरा ज्ञान इस बात तक सीमित है कि यद्यपि वेद और पुराण एक ही आदिपुरुष अर्थात्‌ ब्रह्माजी द्वारा मूल रूप से रचित हैं, तथापि इनमें वर्णित ज्ञान, आख्यानों, तथ्यों, शिक्षाओं, नीतियों और घटनाओं आदि में एकरूपता होते हुए भी इनमें कुछ मौलिक भिन्नताएं है:

  • पुराण वेदों का ही विस्तृत और सरल स्वरूप है जो सामान्य गृहस्थ को लक्षित है।
  • वेद अपौरुषेय और अनादि है जिसे ब्रह्माजी ने स्वयं रचा था। किन्तु वेदव्यास जी ने जनमानस के कल्याणार्थ ब्रह्माजी द्वारा मौलिक रूप से रचित पुराण का  पुनर्लेखन और सम्पादन किया और इसके श्लोकों की संख्या सौ करोड़ से घटाकर चार लाख तक सीमित कर दी। अतः पुराण पौरुषेय भी है।
  • वेदों की साधना करने वाले योगी पुरुष ऋषि कहलाये जबकि पुराणों में वर्णित ज्ञान की बातों, मन्त्रों, उपासना विधियों और व्रत आदि का अनुसरण करने वाले योगी मुनि कहलाए।
  • वेदों की अपेक्षा पुराण अधिक परिवर्तनशील और श्रुति परम्परा पर निर्भर होने के कारण लम्बे समय तक स्मृतिमूलक रहे हैं। परिवर्तनशील प्रवृत्ति होने के कारण ही पुराणों में ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक चित्रण मिल जाता है।

वेद-पुराण-उपनिषद वैसे तो समग्र वेद-पुराण के एक मात्र रचनाकार वेद-व्यास जी को माना जाता है लेकिन कोई भी इस विशद साहित्य का आकार जानकर यह सहज अनुमान लगा सकता है कि इतना विपुल सृजन किसी एक व्यक्ति के द्वारा अपने एक जीवनकाल में नहीं किया जा सकता।

भाई इष्टदेव जी ने मुझे मेल भेजकर याद दिलाया कि “…व्यास कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक पूरी परम्परा हैं। जिसने भी उस ख़ास परम्परा के तहत कुछ रचा उसे व्यास कहा गया। अभी भी कथा वाचन करने वाले लोगों को व्यास ही कहा जाता है….”

मेरे ख़याल से पुराणों का स्वरूप कुछ-कुछ हमारे ब्लॉगजगत जैसा रहा है। बल्कि एक सामूहिक ब्लॉग जैसा जिसमें अपनी सुविधा और सोच के अनुसार कुछ न कुछ जोड़ने के लिए अनेक लोग लगे हुए है। बहुत सी सामग्री जोड़ी जा रही है, कुछ नयी तो कुछ री-ठेल। बहुत सी वक्त के साथ भुला दी जा रही है। लिखा कुछ जाता है और उसका कुछ दूसरा अर्थ निकालकर बात का बतंगड़ बना दिया जा रहा है। लेकिन इसी के बीच यत्र-तत्र कुछ बेहतरीन सामग्री भी चमक रही है। अनूप जी के अनुसार यहाँ ८० प्रतिशत कूड़ा है और २० प्रतिशत काम लायक माल है। यहाँ सबको स्वतंत्रता है। चाहे जो लिखे, जैसे लिखे। इसपर यदि बेनामी की सुविधा भी हो तो क्या कहने? पुराणों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ लगता है।

वैदिक ऋषि परम्परा से निकली ज्ञान की गंगा पुराणों की राह पकड़कर जैसे-जैसे आगे बढ़ती गयी उसमें स्वार्थ और लोलुपता का प्रदूषण मिलता गया। धार्मिक अनुष्ठान के नामपर कर्मकाण्ड और पाखण्डपूर्ण आडम्बर बढ़ते गये। पुरोहितों द्वारा यजमान के ऊपर दान-दक्षिणा की नयी-नयी मदें लादी जाने लगीं। धर्म-भीरु जनता को लोक-परलोक का भय दिखाकर उसकी गाढ़ी कमाई उड़ाने की प्रवृत्ति पुरोहितों और पण्डों में बढ़ने लगी। यही वह समय था जब हिन्दू धर्म के प्रति आम जनमानस में पीड़ा का भाव पैदा होने लगा और गौतम बुद्ध व महावीर जैन ने इन कर्म-काण्डों और आडम्बरों के विरुद्ध बौद्ध और जैन धर्म का प्रवर्तन कर दिया। हिन्दू कर्मकाण्डों और नर्क जाने के भय से पीड़ित जनता ने उन्हें हाथो-हाथ लिया। ऐसी विकट परिस्थिति पैदा करने में इन पुराणों का बड़ा दुरुपयोग किया गया था।

तो क्या यह मान लिया जाय कि पुराण अब बेमानी हो चुके हैं? क्या इनसे किनारा करके इन्हें कर्म-काण्डी पुरोहितों के हाथ में छोड़कर अब भी उन्हें मनमानी ठगी करने देना उचित है? अन्धविश्वासों और रूढ़ियों मे पल रही एक बड़ी आबादी आजभी इनपर आस्था रखती है। जिनकी आस्था नहीं है वे भी छिप-छिपाकर सत्यनारायण की कथा करा ही डालते हैं, या जाकर प्रसाद ही ले आते हैं। कदाचित्‌ एक अन्जाना डर उन्हें यह सब करने को प्रेरित करता होगा। कुछ तो सार-तत्व होगा इनमें…!

यहाँ यह भी उल्लेख कर दूँ कि जिन कर्मकाण्डों और आडम्बरों के खिलाफ़ सन्देश देकर ये नये धर्म खड़े हुए, कालान्तर में इनके भीतर भी उसी प्रकार की बुराइयाँ पनपने लगीं। इधर आदि शंकराचार्य (८वीं-९वीं शताब्दि)ने वेदान्त दर्शन की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए यह सन्देश दिया कि सारे वाह्याडम्बर मिथ्या हैं। एक मात्र सत्य ब्रह्म है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के भीतर निवास करने वाली आत्मा ब्रह्म का ही एक रूप है। भौतिक जगत एक माया है जो जीव को जन्म मृत्यु के बन्धन में बाँधे रखती है।

ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव ना परः

हमारे वैदिक ज्ञान भण्डार की मौलिक बातों का पुराणों में सरलीकरण कर दिया गया। कम पढ़े-लिखे गृहस्थ को सामान्य जीवनोपयोगी बातें समझाने के लिए भी धर्म का सहारा लिया गया। यहाँ धर्म का आशय केवल पूजा पद्धति और देवी देवताओं में आस्था पैदा करना नहीं रहा बल्कि मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी धारण करने योग्य था वह धर्म से परिभाषित होता था। जो कुछ भी करणीय था उसे धार्मिक पुस्तकों में शामिल कर लिया गया और जो कुछ अकरणीय था उसके भयंकर परिणाम बताकर उन्हें रोकने की कोशिश की गयी। कदाचित्‌ शुभ-अशुभ और स्वर्ग-नर्क की अवधारणा इसी उद्देश्य से गढ़ी गयी होगी। हमारे ऋषि-मुनियों ने इन पुस्तकों को एक प्रकार से मनुष्य की आचार संहिता बना दिया था। लेकिन लालची पंडितों ने इसका रूप ही बिगाड़ दिया।

ऐसी स्थिति में इन आदिकालीन शास्त्रों को पूरा का पूरा खारिज नहीं किया जा सकता। उचित यह होगा कि इनकी समीक्षा इस रूप में की जाय कि इनमें छिपे मूल सन्देशों को अलग पहचाना जा सके और आधुनिक परिवेश में उनकी उपादेयता को चिह्नित किया जा सके। मेरा विश्वास है कि मानवकल्याण के इन सूत्रों को अपना कर और प्रसारित करके हम आजकल की अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान ढूँढ सकते हैं।

तो क्या आप सच्चे मोतियों की खातिर समुद्र-मन्थन करने को तैयार हैं?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

नोट: सत्यनारायण की कथा में ‘कथा के माहात्म्य’ का जिक्र और मूल कथा के लोप का सूत्र मिल गया है। अगले अंक में उसकी चर्चा होगी।

ब्लॉगिंग कार्यशाला: पाठ-४ डॉ.कविता वाचक्नवी (हिन्दी कम्प्यूटिंग) द्वितीय भाग

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इस पाठ के प्रथम भाग में हमने जाना कि डॉ.कविता वाचक्नवी ने अपने वक्तव्य में हिन्दी कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में होने वाली बड़े कार्यों का उल्लेख किया था। कविता कोष से सम्बन्धित बिन्दु-७ पर उनका स्पष्टीकरण आया है कि नेट पर ख़ुसरो से आज तक के कवियों की कविताओं की कुल संख्या 60 हज़ार से ऊपर है, ना कि केवल कविता कोष की। कविता कोष पर लगभग 18 हज़ार व अनुभूति पर भी लगभग 25 हज़ार से ऊपर कविताएं संकलित की गयी हैं।

हिन्दी कम्प्यूटिंग और अनुप्रयोग इसी कड़ी में अब आगे…

८. साहित्य कोश:

अन्तर्जाल पर हिन्दी साहित्य का विपुल भण्डार उपलब्ध है। गद्य और पद्य दोनो में। प्रेमचन्द जी का लगभग पूरा साहित्य ही नेट पर उपलब्ध है। वागर्थ, नया ज्ञानोदय, तद्भव, हंस, अन्यथा जैसी अनेकानेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के साथ ही साथ १०-२० नेट पत्रिकाएं जैसे: अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, इन्द्रधनुष आदि भी सुलभ हैं

९.हिन्दी समाचार:

प्रायः सभी हिन्दी समाचार पत्र और साप्ताहिक पत्र पत्रिकाएं जैसे इण्डिया-टुडे, बी.बी.सी. पत्रिका, ऑउटलुक आदि हिन्दी प्रयोक्ताओं के लिए उपलब्ध हैं। बी.बी.सी. रेडियो (हिन्दी समाचार) सेवा से कौन अपरिचित होगा। अब यह ऑन लाइन सुनी जा सकती है।

९.विकीपीडिया:

अंग्रेजी संस्करण की तर्ज पर ही हिन्दी में भी यह मुक्त ज्ञानकोष लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे न सिर्फ़ आप दुनिया के किसी भी विषय पर अच्छी जानकारी पा सकते है बल्कि इसमें अपनी जानकारी को जोड़कर इसके भण्डार को और समुन्नत भी बना सकते हैं।

९. चर्चा समूह:

अब हिन्दी में भी अनेक विशिष्ट विषयों पर आधारित चर्चा समूह और फोरम सक्रिय हो चुके हैं। हिन्दीभारत, ई-कविता, हिन्दीफ़ोरम,  तकनीकी व वैज्ञानिक हिन्दी, …..आदि बीसियों सहायता व विमर्श हेतु जालस्थल(sites) उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त ऑर्कुट और फेसबुक जैसी

१०.फॉण्ट परिवर्तक:

फॉण्ट की पारम्परिक समस्या अब नहीं रही। यूनिकोड फॉण्ट में  ऑफ़लाईन/ऑनलाईन टंकड़ के औंजार उपलब्ध हैं।  फ़ोनेटिक औंजार भी सुलभ हैं; जैसे- इंडिक ट्रांसलिट्रेशन व क्विलपैड सीधे देवनागरी में टंकड़ की सुविधा देते हैं।

पुरानी से पुरानी किसी फॉण्ट में  रखी सामग्री को यूनिकोडित करने हेतु २० से  अधिक फॉण्ट परिवर्तक मुफ़्त में उपलब्ध हैं। जिस फॉण्ट का परिवर्तक उपलब्ध नहीं है उसे अधिकतम एक सप्ताह में तैयार कर आपकी सेवा में उपलब्ध कराने के लिए कुछ तकनीकी महारथी सदैव तत्पर हैं। अनुनाद जी, नारायण प्रसाद जी, और हरिराम जी ने इस दिशा में स्तुत्य प्रयास किया है।

११. संकलक (एग्रेगेटर्स):

अब हिन्दी के ब्लॉग्स को उनके प्रकाशन के समय और श्रेणी के अनुसार एक स्थान पर संकलित करके व्यवस्थित ढंग से नेटप्रयोक्ताओं को सुलभ कराने का काम ब्लॉगवाणी, नारद, चिट्ठाजगत आदि कर रहे हैं। निरन्तर शोध और रचनात्मक कौशल द्वारा इन्होंने चिठ्ठाकारी की दुनिया में सहज विचरण को आसान और सुरुचिपूर्ण बना दिया है। ब्लॉग्स की लोकप्रियता और सक्रियता के आँकड़े आसानी से देखे जा सकते हैं।

१२. खोज इन्जन:

नेट पर सबसे बड़े खोज इन्जन गूगलसर्च में भी हिन्दी/देवनागरी  में ‘सर्च’ की सुविधा उपलब्ध हो चुकी है। अब आपकी खोज को पूरा करने के लिए हिन्दी में उपलब्ध सम्पूर्ण सामग्री भी गूगल द्वारा खंगाली जाती है। दूसरे सर्चइन्जन भी हिन्दी आधारित विषयों को उपलब्ध करा रहे हैं।

कविता जी ने उपरोक्त के अलावा यह भी बताया कि वाचान्तर (सीडैक)नाम से एक ‘स्पीच रिकॉग्निशन’ सुविधा है जो पैसा लेकर दी जाने वाली एकमात्र सुविधा है। हिन्दी की शेष सभी सुविधाएँ व संसाधन निःशुल्क हैं।
कई ब्लॉग्स पर हिंदी में प्रौद्योगिकी  विषयक लेखन हो रहा है

इसके अतिरिक्त TTS (text to speech/hindi sceen reader) जैसी दृष्टिबाधित उपयोक्ताओं के लिए हिन्दी में अनेक सुविधाएं विकसित की गयी है।

अब सभी मुख्य ब्रॉउजर हिन्दी में उपलब्ध हो चुके है। ऑनलाइन लाइब्रेरीज, शब्दकोश, तकनीकी शब्दावली कोश, मुहावरा कोश, वर्तनी शुद्धिकरण यन्त्र के साथ ही हिन्दी में बाजार विषयक लेखन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। सभी बड़ी संस्थाओं की साइट्स हिन्दी में बनायी जा रही है। MSN,google,Yahoo आदि ने हिन्दी में संदेशों के आदान-प्रदान और गप्पे लड़ाने (चैटिंग) की सुविधा दे रखी है।

हिन्दी कम्प्यूटिंग के महत्व को रेखांकित करते हुए कविता जी ने कहा कि वैश्वीकरण के इस दौर में भारत का जो बड़ा बाजार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दृष्टि में है उसपर कब्जा जमाने के लिए उन्हें हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देना अपरिहार्य होगा। इसलिए अब इस दिशा में बदलाव आना शुरू भी हो चुका है।

अब अंग्रेजी पर निर्भर होने की मजबूरी नहीं है। मुझे आजतक ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो अपने बच्चों को इंलिश मीडियम से इसलिए पढ़ाता हो कि उसे अंग्रेजी से बहुत प्यार है। बल्कि वह यह समझता है कि आज के समाज में कैरियर की सफलता के लिए अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है। अब यदि हिन्दी में दक्षता आपको रोजगार उपलब्ध करा दे तो अंग्रेजी पढ़ना एक मजबूरी नहीं रह जाएगी। उन्होंने पूछा कि अमेरिका की सिलिकॉन वैली में जाकर भारतीय बच्चे यदि उनके लिए अंग्रेजी में सॉफ्टवेयर विकसित कर रहे हैं तो वही बच्चे भारत में रहकर हिन्दी में अच्छे सॉफ़्टवेयर क्यों नहीं बना सकते?

अपने वक्तव्य की समाप्ति कविता जी ने एक अपील से की- वह थी सभी हिन्दी प्रेमियों से हिन्दी की सेवा का व्रत लेने की। उन्होंने कहा कि आप सभी अपनी रुचि के अनुसार किसी एक साहित्यकार, कवि या लेखक को चुन लीचिए। उनके रचना संसार को यूनीकोड में टाइप करके इण्टरनेट पर अपलोड करिए। अभी यह सारी सुविधा निःशुल्क है। अपने पसंदीदा साहित्य को अन्तर्जाल पर सुरक्षित कराइए। इससे यह मात्र एक-दो पीढ़ियों तक नहीं बल्कि अनन्त काल तक अक्षुण्ण रह पाएगा।

(पाठ-४ समाप्त)

एक अनुरोध: समयाभाव व तकनीकी कमजोरी के कारण बहुत से उपयोगी लिंक इच्छा रहते हुए भी नहीं दे पाया हूँ। आप इस कमी को पूरा कर सकते हैं। अपनी टिप्पणियों में आप चाहें तो हिन्दी अनुप्रयोगों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण लिंक दे सकते हैं जो नये जिज्ञासु पाठकों और चिठ्ठाकार भाइयों-बहनों के लिए उपयोगी हो सकता है।

लिंक देने का तरीका /कोड: <a href="लिंक का युआरएल ">चयनित शब्द जिसपर लिंक देना है</a>

(अगला और अन्तिम पाठ:

कुशल ब्लॉग प्रबन्धन- ज्ञानदत्त पाण्डेय)

वाह भोजपुरी… वाह!

20 टिप्पणियां

 

हिन्दी और संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान, मनीषी, आचार्य और ग्रन्थकार पं. विद्या निवास मिश्र जी के सारस्वत जीवन पर ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक का विशेषांक निकालने की तैयारी हिन्दुस्तानी एकेडेमी में की जा रही है। इसी सिलसिले में मुझे उनकी कुछ पुस्तकों को देखने का अवसर मिला।

भारतीय दर्शन, संस्कृति और लोकसाहित्य के प्रखर अध्येता और अप्रतिम उपासक श्री मिश्रजी अपने बारे में एक स्थान पर गर्व से स्वयं बताते हैं; “…वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्छिन्न प्रवाह की उपलब्धि होती है, उस भारतीय भावधारा का मैं स्नातक हूँ।”

यूँ तो उन्होंने भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज पर केन्द्रित विपुल मात्रा में शोधपरक लेखन किया है और विविध विषयों पर लिखे उनके ललित निबन्ध सर्वत्र प्रशंसित हुए हैं, लेकिन मैं यहाँ भोजपुरी लोकसंस्कृति का परिचय कराती उनकी पुस्तक वाचिक कविता : भोजपुरी का जिक्र करना चाहूंगा। इस पुस्तक ने मुझे इस प्रकार बाँध लिया कि कई जरूरी काम छोड़कर मैने इसे आद्योपान्त पढ़ डाला। अब इस अद्‌भुत सुख को आपसे बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।वाचिक कविता भोजपुरी

पुस्तक वाचिक कविता: भोजपुरी
संपादक विद्यानिवास मिश्र
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ (लोकोदय ग्रन्थमाला-६४१)
पता १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड
नई दिल्ली- ११००३२

इस पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी माटी में पले-बढ़े श्री मिश्र जी ने लोकसाहित्य के शिल्प विधान पर एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। जिनकी रुचि इसमें है वे पुस्तक खोजकर जरूर पढ़ें। मैं तो इस पुस्तक से आपको सीधे भोजपुरी माटी की सुगन्ध बिखेरती कुछ पारम्परिक रचनाओं का रसपान कराना चाहता हूँ।

कजली

रुनझुन खोलऽ ना हो केवड़िया, हम बिदेसवा ज‍इबो ना

जो मोरे सँइया तुहु ज‍इबऽ बिदेसवा, तू बिदेसवा ज‍इबऽ ना

हमरा बाबा के बोला दऽ, हम न‍इहरवा ज‍इबो ना

जो मोरी धनिया तुहु ज‍इबू न‍इहरवा, तू न‍इहरवा ज‍इबू ना

जतना लागल बा रुप‍इया ततना देके ज‍इहऽ ना

जो मोरे सँइया तुहु लेबऽ रुप‍इया, तू रुपइया लेबऽ ना

ज‍इसन बाबा घरवा रहलीं त‍इसन क‍इके ज‍इहऽ ना

[“रुनझुन (प्रिया, पत्नी)! दरवाजा खोलो, अब मैं विदेश जाऊँगा।” “मेरे प्रियतम! यदि तुम विदेश जाओगे तो मेरे पिताजी को बुला दो। मैं मायके चली जाऊँगी” “मेरी धनिया! यदि तुम्हें मायके जाना है तो (तुमपर) जितना रुपया खर्च हुआ है वह देकर ही जाना” “मेरे पति! यदि तुम रुपया (वापस) लेना चाहते हो तो मुझे वैसा ही वापस बना दो जैसी मैं अपने बाबा के घर पर थी”]

बेटी-विवाह (कन्यादान)

कवन गरहनवा बाबा साँझे जे लागे, कवन गरहनवा भिनुसार

कवन गरहनवा बाबा मड़वनि लागे, कब होइहें उगरह तोमार

चन्दर गरहनवा बेटी साँझे जे लागे, सुरुज गरहनवा भिनुसार

धिया गरहनवा बेटी मड़वनि लागे, कबहूँ न उगरह हमार

र‍उरा जे बाटे बाबा हंसराज घोड़वा सोनवे गढ़ावल चारो गोड़

ऊहे घोड़‍उआ बाबा धिया दान करबऽ, तब होइहें उगरह तोहार

बाभन काँपेला, माँड़ो काँपेला, काँपेला नगर के लोग

गोदी बिटिउआ लेले काँपेलें कवन बाबा, अब होइहें उगरह हमार

कथि बिना बाबा हो हुमियो ना होइहें, कथि बिना ज‍उरी न होइ

कथि बिना बाबा हो जग अन्हियारा कथि बिना धरम न होइ

घिव बिना बेटी हो हुमियो ना हो‍इहें, दूध बिना ज‍उरी न होइ

एक पुतर बिना जग अन्हियारा, धिया बिना धरम न होइ

[“बाबा! कौन ग्रहण साँझ को लगता है, कौन ग्रहण सुबह, कौन ग्रहण (विवाह) मण्डप में लगता है, (जिससे) तुम्हारा उग्रह कब होगा ?” “बेटी!चन्द्र ग्रहण साँझ को, सूर्य ग्रहण सुबह और पुत्री-ग्रहण मण्डप में लगता है, (जिससे) मेरा उग्रह कभी नहीं होगा।” “बाबा! आपके पास हंसराज घोड़ा है जिसके चारो पैर सोने से मढ़े हुए हैं। उसी घोड़े को कन्यादान में दे दीजिए (तो) आपका उग्रह हो जाएगा।” ब्राह्मण काँपता है, मण्डप काँपता है, नगर के लोग काँपते हैं, बेटी को गोद में बिठाए बाबा काँपते हैं (क्या) अब मेरा उग्रह होगा!” “बाबा! किसके बिना होम नहीं हो सकेगा, किसके बिना खीर नहीं बन सकेगी, किसके बिना दुनिया अन्धेरी होती है और किसके बिना धर्मपालन नहीं हो सकता?” “बेटी! घी के बिना होम व दूध के बिना खीर सम्भव नहीं और पुत्र के बिना दुनिया अन्धेरी होती है और पुत्री के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता।”]

इस पुस्तक में भोजपुरी लोकपरम्परा में रचे बसे अनेक विलक्षण गीतों को विविध श्रेणियों में बाँटकर सजोया गया है। इस विद्वान विभूति ने इन गीतों का अत्यन्त रसयुक्त और भावप्रवण हिन्दी अनुवाद भी कर दिया है जिससे भोजपुरी से अन्जान हिन्दी भाषी पाठक भी इसका रसास्वादन कर सकते हैं। श्रेणियों पर ध्यान दीजिए;

१.सुमिरल– मइया गीत, छठी मइया, पताती, संझा, बिरहा, सुमिरन की होली, सुमिरन का चैता, कजली, भजन, निरगुन, कन्हैया जागरण,

२.कहल- सोहर, खेलवना, नेवतन, सिन्दूर दान, सुहाग, जोग, झूमर, बहुरा गीत, हिन्डोला गीत, बेटी विदाई, जँतसार, मार्ग गीत, फगुई, कजली, होरी, बारहमासा, चैती, नेटुआ गीत, कँहार गीत, गोंड़ गीत,

३.बतियावल– जनेऊ, सोहर, कजली, बेटी विवाह, कन्यादान, विदाई, जँतसार, रोपनी गीत, सोहनी गीत, चइता

४.कथावल– सोहर, चैता, मार्गगीत, बारहमासा, कजरी, शिवविवाह, कलशगाँठ, बिरहा, रोपनी गीत,

इन श्रेणियों में जो अतुलित लोकरंग समाया हुआ है उसका रसास्वादन एक विलक्षण अनुभूति दे जाता है। पं.विद्यानिवास मिश्र जी की यह सुकृति अपनी माटी के प्रति अगाध श्रद्धा और सच्ची सेवाभावना और अपनी संकृति के प्रति उनकी निष्ठा की पुष्ट करती है।

सांस्कृतिक आदान प्रदान

vidyaniwas“…विलायती चीजों के आदान से मुझे विरोध नहीं है, बशर्ते कि  उतनी मात्रा में प्रदान करने की अपने में क्षमता भी हो। इस सिलसिले में मुझे काशी के एक व्युत्पन्न पंडित के बारे में सुनी कहानी याद आ रही है। उन पंडित के पास जर्मनी से कुछ विद्वान आये (शायद उन दिनों जो विद्वान संस्कृत सीखने आते थे, उनका घर जर्मनी ही मान लिया जाता था, खैर) और उनके पास टिक गये। स्वागत-सत्कार करते-करते पंडित जी को एक दिन सूझ आयी कि इन लोगों को भारतीय भोजन भारतीय ढंग से कराया जाये। सो वह इन्हें गंगा जी में नौका-विहार के लिए ले गये और गरमा-गरम कचालू बनवाकर भी लेते गये। नाव पर कचालू दोने में परसा गया, पंडित जी ने भर मुँह कचालू झोंक लिया, इसलिए उनकी देखादेखी जर्मन साहबों ने भी काफी कचालू एक साथ मुँह में डाला, और बस मुँह में जाने की देरी थी, लाल मिर्च का उनके संवेदनशील सुकंठ से संस्पर्श होते ही, वे नाच उठे और कोटपैंट डाले ही एकदम गंगा जी में कूद पडे। किसी तरह मल्लाहों ने उन्हें बचाया। पर इसके बाद उनका ‘अदर्शनं लोपः’ हो गया।”

दूसरे लोगों ने पंडित जी को ऐसी अभद्रता के लिए भलाबुरा कहा तो उधर से जवाब मिला, “…इन लोगें ने हमें अंडा-शराब जैसी महँगी और निशिद्ध चीजें खानी सिखलायीं तो ठीक और मैंने शुद्ध चरपरे भारतीय भोजन की दीक्षा एक दिन इन लोगों को देने की कोशिश की तो मैं अभद्र हो गया ?’’

…परन्तु मैं साहित्य में ऐसे आदान-प्रदान का पक्षपाती नहीं हूँ। सूफियों और वेदान्तियों के जैसे आदान-प्रदान का मैं स्वागत करने को तैयार हूँ, नहीं तो अपनी बपौती बची रहे, यही बहुत है।

विद्यानिवास मिश्र- ‘चितवन की छाँह’ में

यदि आपने पसन्द किया तो कुछ और रचनाएं आगे की कड़ियों में प्रस्तुत कर सकता हूँ।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

किताबों की खुसर-फुसर… भाग-२

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पिछली कड़ी से आगे…

‘मातृत्व तथा बच्चों की फिक्र’(१९३१) की भूमिका में लिखा अथर्ववेद का श्लोक समझने का प्रयास कर ही रहा था कि दीवार से लगी बड़ी सी मेज पर फड़फड़ाहट की आवाज तेज हो गयी। उसपर बहुत सी पत्रिकाएं बिखरी पड़ी थीं। वहाँ की नोक-झोंक इतनी तेज थी कि अनायास ही आलमारियों में रखी किताबें भी अपनी बतकही बन्द करके उधर कान लगाकर सुनने लगीं।

“अरे चुपकर बावरी, यह तो बस दिखा रहे हैं, इन्हें मातृत्व से क्या लेना देना… उस किताब ने टोक दिया तो उसका मन रख रहे हैं। ”

“हाँ जी, …इतने ही साहित्य रसिक होते तो इधर न आते…”

“तू बड़ी भोली है, इन्हें तो शायद पता ही न हो कि हिन्दी में कितनी साहित्यिक पत्रिकाएं छपती हैं…” आखिरी बात सुनकर मैं वाकई झेंप गया।

…मुझे तो हंस, कादम्बिनी, आजकल और इण्डिया टुडे की साहित्य वार्षिकी के अतिरिक्त कोई पत्रिका पता ही नहीं थी। …हाल ही में हिन्दुस्तानी त्रैमासिक की जानकारी हुई जब एकेडेमी का लेखा-जोखा सम्हालने के लिए नामित हो गया। …छः-सात साल पहले लखनऊ में किताब की शक्ल वाला एक त्रैमासिक ‘तद्‍भव’ जरुर खरीद कर देखा था। …और हाँ, छात्र जीवन में धर्मयुग पढ़ा था और इसके बन्द हो जाने पर साहित्य जगत की श्रद्धाञ्जलि भी देखी थी।

मैने झटसे मातृत्व को गोपालजी के हवाले किया और उस मेज के पास चला गया। मेज क्या थी; दो लोगों के आराम से पसर कर सोने भर का क्षेत्रफल था उसका। …लेकिन तिल रखने की जगह नहीं थी उसपर। एक दूसरे के ऊपर चढ़ी हुई साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक पत्र-पत्रिकाएं अटी पड़ी थीं। उनके ऊपर धूल तो नहीं जमीं थी, क्योंकि गोपालजी उनकी इतनी सेवा का खयाल जरूर रखते हैं; लेकिन उनके चेहरे पर छायी उदासी यह जरूर बता रही थी कि इनकी उपेक्षा हुई है। …दूर-दूर से चलकर यहाँ एक अदद प्रेमी (पाठक) की तलाश में ये आ तो गयी हैं, लेकिन इन्हें मन के मीत से मुलाकात की प्रतीक्षा जारी है। मुझे कबीर दास जी याद आ गये-

अंखड़िया झाईं पड़ीं, पन्थ निहारिनिहारि।

जीभड़्याँ छाला पड़्या, राम पुकारिपुकार॥

पोर्टब्लेयर (अंडमान) से छपने वाली ‘द्वीपलहरी’ हो या वर्धा की ‘राष्ट्रभाषा’, बीकानेर की ‘वैचारिकी’ हो या देहरादून की ‘लोकगंगा’ , समस्तीपुर से आयी ‘सुरसरि’ हो या आणंद (गुजरात) से पधारी ‘रचनाकर्म’, इन्दौर में प्रस्फुटित ‘वीणा’ का राग हो या रायपुर में अनुष्ठानित ‘अक्षरपर्व’ हो, या फिर पूना की ‘समग्र दृष्टि’ हो, राजसमन्द (राजस्थान) का ‘सम्बोधन’ हो अथवा गोरखपुर का ‘दस्तावेज’ व सुल्तानपुर (उ.प्र.) की ‘रश्मिरथी’; ये सभी भारतवर्ष के कोने-कोने से आकर संगम नगरी में एक ही पटल पर सामुदायिक जीवन जी रहे, या कहें, काट रहे हैं। सबकी साझा तकलीफ देखकर मैं ग्लानि और अपराध बोध से भर गया।

कुछ बड़े केन्द्रों से प्रकाशित पत्रिकाएं भी उतनी ही क्लान्त थीं। जैसे: दिल्ली की ‘आजकल’, ‘आलोचना’, ‘मन्त्र तन्त्र यन्त्र’, ‘कथादेश’, ‘साहित्य अमृत’, ‘समीक्षा’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘हंस’, ‘राजभाषा भारती’, ‘इण्डिया टुडे’ व ‘सदाकांक्षा’; मुम्बई से छपने वाली ‘सृजन सांख्य’, ‘कथाबिम्ब’ व ‘हिन्दुस्तानी जबान’; भोपाल की ‘दिव्यालोक’, ‘आयुष्मान’, ‘चौमासा’ व ‘साक्षात्कार’, लखनऊ की ‘कथाक्रम’ व ‘तद्‍भव’, इलाहाबाद की ‘त्रिवेणिका’, ‘विज्ञान’, ‘नई आजादी उद्‍घोष’, ‘सम्मेलन पत्रिका’, ‘हिन्दी अनुशीलन’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘हुड़दंग’ व ‘साहित्य वैचारिकी’।

मैं इनके नाम-पते नोट करने लगा तो एक फिकरा कान में पड़ा, “ढूँढते रह जाओगे…! इनकी दुनिया यहीं खत्म नहीं होती ” मैने हड़बड़ा कर उधर देखा।

डॉ. नामवर सिंह द्वारा सम्पादित ‘आलोचना’ बोल रही थी, “यहाँ जो देख रहे हो वह तो बस ‘हिन्दुस्तानी’ के विनिमय में आती हैं। खरीदने की औकात तो इस पुस्तकालय की बस रत्तीभर से थोड़ा ज्यादा समझ लो…”

मैं फिर चौका, “…तो क्या, हिन्दी में छपने वाली सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं यहाँ नहीं आतीं?”

जिनकी संख्या को मैं विस्फारित आँखों से देख रहा था वो अभी राष्ट्रीय पटल पर हो रहे हिन्दी अनुष्ठान की बस एक झलक भर देती हैं। उसपर हालत ये कि इनका भी कोई पुरसा हाल नहीं। मन उद्विग्न हो उठा…

मैं कुर्सी खींचकर बैठ गया। छत की ओर निहारता रहा। गोपालजी सूची बनाने लगे। तभी एक पुराने रैक से वीणा का स्वर उभरा। मधुर, कर्णप्रिय किन्तु आर्त…।

मैं उठकर उसके पास गया तो साक्षात् ‘सरस्वती’ दिखायी दीं। मैने धीरे से हाथ बढाया तो मुस्करा उठीं। सौ साल से ज्यादा की उम्र पाकर विलक्षण रूप और अनुभव तो दिख ही रहा था; वर्ष भर के अंकों को एक साथ नत्थी करके मोटा जिल्द चढ़ जाने से स्वास्थ्य भी अक्षुण्ण लग रहा था। इस मुलाकात से मेरा मन प्रसन्न हो गया।

‘हिन्दी’ के बचपन और तरुणाई की सहेली रह चुकी ‘सरस्वती’ अपनी गोद में अमूल्य निधि संजोए किसी पारखी को खोज रही थीं। मुझ अकिंचन ब्लॉगर को देखकर उनका उत्साह जग गया तो अपनी अपात्रता से मेरा दिल जोर से धड़कने लगा। …गला भर आया। अब इनकी उम्मीद का क्या करूँ…।

‘सरस्वती’ अपनी बालसखी ‘नागरी’ की कहानी कहती रही; अरबी, फारसी, अंग्रेजी के बीच संस्कृत की जमीन से अंकुरित हिन्दुस्तानी के बीज से हिन्दी-उर्दू की जुड़वा पैदाइश का वर्णन करती रही; पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्याम सुन्दर दास, और पं.श्रीनारायण चतुर्वेदी के जमाने को याद करके भावुक होकर आँसू बहाती रही; और हम अवश होकर सुनते और भींगते रहे…

लाल तुम्हारे विरह की, अगिनि अनूप अपार।

सरसै बरसै नीर हूँ, झरहूँ मिटै न झार॥

(…जारी)

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